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स्कंदगुप्त/चतुर्थ अंक

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स्कंदगुप्त
जयशंकर प्रसाद

बनारस: भारती-भण्डार, पृष्ठ १२० से – १४७ तक

 

[ प्रकोष्ठ ]

( विजया और अनन्तदेवी )

अनन्त०--क्या कहा?

विजया--मैं आज ही पासा पलट सकती हूँ। जो झूला ऊपर उठ रहा है, उसे एक ही झटके में पृथ्वी चूमने के लिये विवश कर सकती हूँ।

अनन्त०--क्यों? इतनी उत्तेजना क्यों है? सुनू भी तो।

विजया--समझ जाओ।

अनन्त०--नहीं, स्पष्ट कहो।

विजया--भटार्क मेरा है!

अनन्त--तो?

विजया--उस राह से दूसरों को हटना होगा।

अनन्त०--कौन छीन रहा है?

विजया--एक पाप-पङ्क में फंसी हुई निर्लज्ज नारी। क्या उसका नाम भी बताना होगा? समझो, नहीं तो साम्राज्य का स्वप्न गला दबाकर भंग कर दिया जायगा।

अनन्त०--(हँसती हुई) मूर्ख रमणी! तेरा भटार्क केवल मेरे कार्य्य-साधन का अस्त्र है, और कुछ नहीं। वह पुरगुप्त के ऊँचे सिंहासन की सीढ़ी है, समझो?

विजया--समझी; और तुम भी जान लो कि तुम्हारा नाश समीप है।

अनन्त०--(बनाती हुई) क्या तुम पुरगुप्त के साथ सिंहासन पर नहीं बैठना चाहती हो? क्यों--वह भी तो कुमारगुप्त का पुत्र है?

विजया--हाँ, वह कुमारगुप्त का पुत्र है, परन्तु वह तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न है! तुमसे उत्पन्न हुई सन्तान–-छिः!

अनन्त०--क्या कहा? समझकर कहना।

विजया--कहती हूँ, और फिर कहूँगी। प्रलोभन से, धमकी से, भय से, कोई भी मुझको भटार्क से नहीं वञ्चित कर सकता है। प्रणय-वञ्चिता स्त्रियाँ अपनी राह के रोड़े-विघ्नों–को दूर करने के लिये वज्र से भी दृढ़ होती हैं। हृदय को छीन लेनेवाली स्त्री के प्रति हृतसर्वस्वा रमणी पहाड़ी नदियों से भयानक, ज्वालामुखी के विस्फोट से भी वीभत्स, और प्रलय की अनल-शिखा से भी लहरदार होती है। मुझे तुम्हारा सिंहासन नहीं चाहिये। मुझे क्षुद्र पुरगुप्त के विलास-जर्जर मन और यौवन में ही जीर्ण शरीर का अवलम्व वांछनीय नहीं। कहे देती हूँ, हट जाओ, नहीं तो तुम्हारी समस्त कुमंत्रणाओं को एक फूँक में उड़ा दूँगी!

अनन्त०--क्या? इतना साहस! तुच्छ स्त्री! तू जानती है कि किसके साथ बात कर रही है? मैं वही हूँ--जो अश्वमेध-पराक्रम कुमारगुप्त से, बालों को सुगन्धित करने के लिये गंधचूर्ण जलवाती थी—जिसकी एक तीखी कोर से गुप्त-साम्राज्य डाँवाडोल हो रहा है, उसे तुम......एक सामान्य स्त्री! जा-जा, ले अपने भटार्क को;
मुझे ऐसे कीट-पतङ्गों की आवश्यकता नहीं। परन्तु स्मरण रखना, मैं हूँ अनन्तदेवी! तेरी कूटनीति के कंटकित कानन की दावाग्नि--तेरे गर्व-शैलश्रृंग का वज्र! मैं वह आग लगाऊँगी, जो प्रलय के समुद्र से भी न बुझे!

(जाती है)

विजया--मैं कहीं की न रही! इधर भयानक पिशाचों की लीला-भूमि, उधर गम्भीर समुद्र! दुर्बल रमणी-हृदय! थोड़ी आँच में गरम, और शीतल हाथ फेरते ही ठंढा! क्रोध से अपने आत्मीय जनों पर विष उगल देना! जिनको क्षमा की आवश्यकता है--जिन्हें स्नेह के पुरस्कार की वांछा है, उनकी भूल पर कठोर तिरस्कार और जो पराये हैं, उनके साथ दौड़ती हुई सहानुभूति! यह मन का विष, यह बदलनेवाले हृदय की क्षुद्रता है। ओह! जब हम अनजान लोगों की भूल और दुःखों पर क्षमा या सहानुभूति प्रकट करते हैं, तो भूल जाते हैं कि यहाँ मेरा स्वार्थ नहीं है। क्षमा और उदारता वही सच्ची है, जहाँ स्वार्थ की भी बलि हो। अपना अतुल धन और हृदय दूसरों के हाथ में देकर चलूँ--कहाँ? किधर--(उन्मत्त भाव से प्रस्थान करना चाहती है)

(पदच्युत नायक का प्रवेश)

नायक--शांत हो।

विजया--कौन?

नायक--एक सैनिक। विजया--दूर हो, मुझे सैनिकों से घृणा है।

नायक--क्यों सुन्दरी?

विजया--क्रूर! केवल अपने झूठे मान के लिये, बनावटी बड़प्पन के लिये, अपना दम्भ दिखलाने के लिये, एक अनियंत्रित हृदय का लोहों से खेल विडम्बना है! किसकी रक्षा, किस दीन की सहायता के लिये तुम्हारे अस्त्र हैं?

नायक--साम्राज्य की रक्षा के लिये।

विजया--झूठ। तुम सब को जंगली हिंस्र पशु होकर जन्म लेना था। डाकू! थोड़े-से ठीकरों के लिये अमूल्य मानव-जीवन का नाश करनेवाले भयानक भेड़िये!

नायक--(स्वगत) पागल हो गई है क्या?

विजया--स्नेहमयी देवसेना को शंका से तिरस्कार किया, मिलते हुए स्वर्ग को घमंड से तुच्छ समझा, देव-तुल्य स्कंदगुप्त से विद्रोह किया, किस लिये? केवल अपना रूप, धन, यौवन दूसरे को दान करके उन्हें नीचा दिखाने के लिये? स्वार्थपूर्ण मनुष्यों की प्रतारणा में पड़कर खो दिया--इस लोक का सुख, उस लोक की शान्ति! ओह!

नायक--शांत हो!

विजया--शांति कहाँ? अपनों को दंड देने के लिये मैं स्वयं उनसे अलग हुई; उन्हे दिखाने के लिये--'मैं भी कुछ हूँ'! अपनी भूल थी, उसे अभिमान से उनके सिर दोष के रूप में मढ़ 
रक्खा था। उनपर झूठा अभियोग लगाकर नीच-हृदय को नित्य उत्तेजित कर रही थी। अब उसका फल मिला!

नायक--रमणी! भूला हुआ लौट आता है, खोया हुआ मिल जाता है; परन्तु जो जान-बूझकर भूलभुलइयाँ तोड़ने के अभिमान से उसमें घुसता है, वह उसी चक्रव्यूह में स्वयं मरता है, दूसरों को भी मारता है। शांति का--कल्याण का--मार्ग उन्मुक्त है। द्रोह को छोड़ दो, स्वार्थ को विस्मृत करो, सब तुम्हारा है।

विजया--(सिसकती हुई) मैं अनाथ निःसहाय हूँ!

नायक--(बनावटी रूप उतारता है) मैं शर्वनाग हूँ। मैं सम्राट का अनुचर हूँ। मगध की परिस्थिति देखकर अपने विषय अन्तर्वेद को लौट रहा हूँ।

विजया--क्या अन्तर्वेद के विषयपति शर्वनाग?

शर्व०--हाँ, परंतु देश पर एक भीषण आतंक है। भटार्क की पिशाच-लीला सफल होना चाहती है। विजया! चलो, देश के प्रत्येक बच्चे, बूढ़े और युवक को उसकी भलाई में लगाना होगा; कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना होगा। आओ, यदि हम राजसिंहासन न प्रस्तुत कर सकें तो हमें अधीर न होना चाहिये; हम देश की प्रत्येक गली को झाडू देकर ही इतना स्वच्छ कर दें कि उसपर चलनेवाले राजमार्ग का सुख पावें!

विजया--(कुछ सोचकर) तुमने सच कहा। सबको कल्याण के शुभागमन के लिये कटिबद्ध होना चाहिये। चलो--

[ दोनों का प्रस्थान ]



[भटार्क का शिविर]

(नर्त्तकी गाती है)



भाव-निधि में लहरियाँ उठतीं तभी
भूलकर भी जब स्मरण होता कभी
मधुर मुरली फेंक दी तुमने भला
नींद मुझको आ चली थी बस अभी
सब रगों में फिर रही हैं बिजलियाँ
नील नीरद! क्या न बरसोगे कभी
एक झोंका और मलयानिल अहा।
क्षुद्र कलिका है खिली जाती अभी
कौन मर-मरकर जियेगा इस तरह
यह समस्या हल न होगी क्या कभी



( कमला और देवकी का प्रवेश )

देवकी-भटार्क! कहाँ है मेरा सर्वस्व? बता दे मेरे आनन्द का उत्सव, मेरी आशा का सहारा, कहाँ है?

भटार्क-- कौन!

कमला-- कृतघ्न! नहीं देखता है, यह वही देवी हैं-- जिन्होंने तेरे नारकीय अपराध को क्षमा किया था-- जिन्होने तुझ-से घिनौने कीड़े को भी मरने से बचाया था। वही, वही, देव-प्रतिमा महादेवी देवकी।

भटार्क-- (पहचानकर) कौन? मेरी माँ! कमला-- तू कह सकता है। परन्तु मुझे तुझको पुत्र कहने में संकोच होता है, लज्जा से गड़ी जा रही हूँ! जिस जननी की

संतान--जिसका अभागा पुत्र-ऐसा देशद्रोही हो, उसको क्या मुँह दिखाना चाहिये? आह भटार्क!

भटार्क--राजमाता और मेरी माता!

देवकी--बता भटार्क! वह आर्य्यावर्त्त का रत्न कहाँ है? देश को बिना दाम का सेवक, वह जन-साधारण के हृदय का स्वामी, कहाँ है? उससे शत्रुता करते हुए तुझे•••••

कमला--बोल दे भटार्क!

भटार्क--क्या कहूँ, कुभा की क्षुब्ध लहरों से पूछो, हिमवान की गल जानेवाले बर्फों से पूछो कि वह कहाँ है। मैं नहीं•••••

देवकी--आह! गया मेरा स्कंद!! मेरा प्राण!!!

(गिरती है, मृत्यु!)

कमला--(उसे सम्हालती हुई) देख पिशाच! एक बार अपनी विजय पर प्रसन्नता से खिलखिला ले। नीच! पुण्य-प्रतिमा को, स्त्रियों की गरिमा को, धूल में लोटता हुआ देखकर, एक बार हृदय खोलकर हँस ले। हा देवी!

भटार्क--क्या! (भयभीत होकर देखता है)

कमला--इस यंत्रणा और प्रतारणा से भरे हुए संसार की पिशाच भूमि को छोड़कर अक्षय लोक को गई, और तू जीता रहा–-सुखी घरों में आग लगाने, हाहाकार मचाने और देश को अनाथ बनाकर उसकी दुर्दशा कराने के लिये--नरक के कीड़े! तू जीता रहा!!

भटार्क–- मा, अधिक न कहो। साम्राज्य के विरुद्ध कोई 
अपराध करने का मेरा उद्देश्य नहीं था; केवल पुरगुप्त को सिंहासन पर बिठाने की प्रतिज्ञा से प्रेरित होकर मैंने यह किया। स्कंदगुप्त न सही, पुरगुप्त सम्राट होगा।

कमला-- अरे मूर्ख! अपनी तुच्छ बुद्धि को सत्य मानकर, उसके दर्प में भूलकर, मनुष्य कितना बड़ा अपराध कर सकता है! पामर! तू सम्राटों का नियामक बन गया? मैंने भूल की; सूतिका-गृह में ही तेरा गला घोंटकर क्यों न मार डाला! आत्महत्या के अतिरिक्त अब और कोई प्रायश्चित्त नहीं।

भटार्क–- मा, क्षमा करो। आज से मैंने शस्त्र-त्याग किया। मैं इस संघर्ष से अलग हूँ, अब अपनी दुर्बुद्धि से तुम्हें कष्ट न पहुँचाऊँगा (तलवार डाल देता है)

कमला-- तूने विलम्व किया भटार्क! महादेवी......एक दिन जिसके नाम पर गुप्त-साम्राज्य नतमस्तक होता था, आज उसकी अन्त्येष्टि-क्रिया के लिये कोई उपाय नहीं!......हा दुर्दैव!

भटार्क-- (ताली बजाता हैं, सैनिक आते हैं) महादेवी की अन्त्येष्टि-क्रिया राजसम्मान से होनी चाहिये। चलो, शीघ्रता करो।

(देवकी के शव को एक ऊँचे स्थान पर दोनो मिलकर रखते हैं)

कमला-- भटार्क ! इस पुण्यचरण के स्पर्श से, संभव है, तेरा पाप छूट जाय।

भटार्क और कमला पर तीव्र आलोक।



[काश्मीर]

(न्यायाधिकरण में मातृगुप्त)

(एक स्त्री और दंडनायक)

मातृगुप्त--नन्दीग्राम के दंडनायक देवनंद! यह क्या है?

देवनंद--कुमारामात्य की जय हो! बहुत परिश्रम करने पर भी मैं इस रमणी के अपहृत धन का पता न लगा सका। इसमें मेरा अपराध अधिक नहीं है।

मातृगुप्त--फिर किसका है? तुम गुप्तसाम्राज्य का विधान भूल गये! प्रजा की रक्षा के लिये 'कर' लिया जाता है। यदि तुम उसकी रक्षा न कर सके, तो वह अर्थ तुम्हारी भृति से कटकर इस रमणी को मिलेगा।

देवनंद--परंतु वह इतना अधिक है कि मेरे जीवन-भर की भृति से भी उसका भरना असम्भव है।

मातृगुप्त--तब राज-कोष उसे देगा, और तुम उसका फल भोगोगे।

देवनंद--परंतु मैं पहले ही निवेदन कर चुका हूँ, इसमें मेरा अपराध अधिक नहीं है। यह श्रीनगर की सबसे अधिक समृद्धि-शालिनी वेश्या है। यह अपने अंतरंग लोगों का परिचय भी नहीं बताती; फिर मैं कैसे पता लगाऊँ? गुप्तचर भी थक गये।

मातृगुप्त--हाँ, इसका नाम मैं भूल गया।

देवनंद--मालिनी।

मातृगुप्त--क्या! मालिनी? (कुछ सोचता हुआ) अच्छा, जाओ, कोषाध्यक्ष को भेज दो।

(देवनद का प्रस्थान)

मातृगुप्त--मालिनी! अवगुंठन हटाओ, सिर ऊँचा करो; मैं अपना भ्रम-निवारण करना चाहता हूँ।

(अवगुंठन हटाकर मालिनी मातृगुप्त की ओर देखती है, मातृगुप्त चकित होकर उसको देखता है।)

मातृगुप्त--तुम कौन हो--मालिनी? छलना! नहीं-नहीं, भ्रम है।

मालिनी--नहीं मातृगुप्त, मैं ही हूँ! अवगुंठन केवल इसीलिये था कि मैं तुम्हें मुख नहीं दिखला सकती थी। मातृगुप्त! मैं वहीं हूँ।

मातृगुप्त--तुम? नहीं मेरी मालिनी! मेरे हृदय की आराध्य देवता--वेश्या! असम्भव। परंतु नहीं, वही है मुख! यद्यपि विलास ने उसपर अपनी मलिन छाया डाल दी है--उसपर अपने अभिशाप की छाप लगा दी है; पर तुम वही हो। हा दुर्दैव!

मालिनी--दुर्दैव!

मातृगुप्त--मैं आज तक तुम्हें पूजता था। तुम्हारी पवित्र स्मृति को कंगाल की निधि की भाँति छिपाये रहा। मूर्ख मैं... आह मालिनी! मेरे शून्य भाग्याकाश के मंदिर का द्वार खोल कर तुम्हीं ने उनीदी उषा के सदृश झाँका था, और मेरे भिखारी संसार पर स्वर्ण बिखेर दिया था। तुम्हीं मालिनी! तुमने सोने के लिये नंदन का अम्लान कुसुम बेच डाला। जाओ मालिनी! राज-कोष से अपना धन ले लो। मालिनी-- (मातृगुप्त के पैरों पर गिरती हुई) एक बार क्षमा कर दो मातृगुप्त!

मातृगुप्त-- मैं इतना दृढ़ नहीं हूँ मालिनी! कि तुम्हें इस अपराध के कारण भूल जाऊँ। पर वह स्मृति दूसरे प्रकार की होगी। इसमें ज्वाला न होगी। धुंआ उठेगा और तुम्हारी मूर्ति धुंधली होकर सामने आवेगी! जाओ!

(मालिनी का प्रस्थान, चर का प्रवेश)

चर-- कुमारामात्य की जय हो!

मातृगुप्त-- क्या समाचार है? सम्राट् का पता लगा?

चर-- नहीं। पंचनद हूणों के अधिकार में है, और वे काश्मीर पर भी आक्रमण किया चाहते है।

मातृ॰—- जाओ!

(चर का प्रस्थान)

मातृ०–- तो सब गया! मेरी, कल्पना के सुंदर स्वप्नों का प्रभात हो रहा है। नाचती हुई निहार-कणिकाओं पर तीखी। किरणों के भाले! ओह! सोचा था कि देवता जागेंगे, एक बार आर्यावर्त्त में गौरव का सूर्य्य चमकेगा, और पुण्यकर्मों से समस्त पाप-पंक धो जायेंगे; हिमालय से निकली हुई सप्तसिंधु तथा गंगा-यमुना की घाटियाँ, किसी आर्यें सद् गृहस्थ के स्वच्छ और पवित्र आँगन-सी, भूखी जाति के निर्वासित प्राणियों को अन्नदान देकर संतुष्ट करेंगी; और आर्य्यजाति अपने दृढ़ सबल हाथो में शस्त्र-ग्रहण करके पुण्य का पुरस्कार और पाप का तिरस्कार, करती हुई, अचल हिमाचल की भाँति सिर ऊँचा किये, विश्व को

सदाचरण के लिए सावधान करती रहेगी, आलस्य-सिन्धु में शेष-पर्य्यक-शायी सुषुप्तिनाथ जागेंगे; सिन्धु में हलचल होगी, रत्नाकर से रत्नराशियाँ आर्यावर्त की बेलाभूमि पर निछावर होंगी। उद्बोधन के गीत गाये-हृदय के उद्गार सुनाये जायेंगे, परन्तु पासा पलट कर भी न पलटा! प्रवीर उदार-हृदय स्कन्दगुप्त, कहाँ है? तब, काश्मीर! तुझसे विदा!

[ प्रस्थान ]


[नगर-प्रांत में पथ]

(धातुसेन और प्रख्यातकीर्त्ति)

प्रख्यात०--प्रिय वयस्य! आज तुम्हें आये तीन दिन हुए, क्या सिहल का राज्य तुम्हे भारत-पर्य्यटन के सामने तुच्छ प्रतीत होता है?

धातुसेन--भारत समग्र विश्व का है, और सम्पूर्ण वसुन्धरा इसके प्रेम-पाश में आबद्ध है। अनादि-काल से ज्ञान की, मानवता की, ज्योति यह विकीर्ण कर रहा है। वसुन्धरा का हृदय--भारत--किस मूर्ख को प्यारा नहीं है? तुम देखते नहीं कि विश्व का सबसे ऊँचा श्रृंग इसके सिरहाने, और सबसे गम्भीर तथा विशाल समुद्र इसके चरणों के नीचे है? एक-से-एक सुंदर दृश्य प्रकृति ने अपने इस घर में चित्रित कर रक्खा है। भारत के कल्याण के लिये मेरा सर्वस्व अर्पित है। किन्तु देखता हूँ, बौद्ध जनता और संघ भी साम्राज्य के विरुद्ध हैं। महाबोधि-विहार के संघ-महास्थविर ने निर्वाण-लाभ किया है, उस पद के उपयुक्त भारत-भर में केवल प्रख्यातकीर्त्ति है। तुमसे संघ की मलिनता बहुत-कुछ धुल जायगी।

प्रख्यात०--राजमित्र! मुझे क्षमा कीजिये। मैं धर्म्म-लाभ करने के लिये भिक्षु हुआ हूँ, महास्थविर बनने के लिये नहीं।

धातुसेन--मित्र! मैं मातृगुप्त से मिलना चाहता हूँ।

प्रख्यात०--वह तो विरक्त होकर घूम रहा है!

धातुसेन--तुमको मेरे साथ काश्मीर चलना होगा।

प्रख्यात०--पर अभी तो कुछ दिन ठहरोगे?

धातुसेन–-जहाँ तक संभव हो, शीघ्र चलो।

( एक भिक्षु का प्रवेश )

भिक्षु--आचार्य्य! महान अनर्थ!

प्रख्यात०--क्या है, कुछ कहो भी?

भिक्षु--विहार के समीप जो चतुष्पथ का चैत्य है, वहाँ कुछ ब्राह्मण बलि किया चाहते हैं! इधर भिक्षु और बौद्ध जनता उत्तेजित है।

धातु०--चलो, हम लोग भी चलें--उन उत्तेजित लोगों को शान्त करने का प्रयत्न करें।

[ सब जाते हैं ]



[विहार के समीप चतुष्पथ। एक ओर ब्राह्मण लोग बलि का उपकरण लिए, दूसरी ओर भिक्षु और बौद्ध जनता उत्तेजित।दंडनायक का प्रवेश]

दंडनायक-- नागरिकगण! यह समय अन्तर्विद्रोह का नहीं है। देखते नहीं हो कि साम्राज्य बिना कर्णधार का पोत होकर डगमगा रहा है, और तुम लोग क्षुद्र बातों के लिये परस्पर झगड़ते हो!

ब्राह्मण-- इन्हीं बौद्धों ने गुप्त शत्रु का काम किया है। कई बार के विताड़ित हूण इन्हीं लोगों की सहायता से पुनः आये हैं। इन गुप्त शत्रुओं को कृतघ्नता का उचित दंड मिलना चाहिये।

श्रमण-- ठीक है। गंगा, यमुना और सरयू के तट पर गड़े हुए यज्ञयूप सद्धर्म्मियों की छाती में ठुकी हुई कीलों की तरह अब भी खटकते हैं। हम लोग निस्सहाय थे, क्या करते? विधर्म्मी विदेशी की शरण में भी यदि प्राण बच जायँ और धर्म की रक्षा हो। राष्ट्र और समाज मनुष्यों के द्वारा बनते है-- उन्हीं के सुख के लिये। जिस राष्ट्र और समाज से हमारी सुख-शान्ति में बाधा पड़ती हो, उसका हमें तिरस्कार करना ही होगा। इन संस्थाओं का उद्देश है--मानवों की सेवा। यदि वे हमीं से अवैध सेवा लेना चाहें और हमारे कष्टों को न हटावें, तो हमे उसकी सीमा के बाहर जाना ही पड़ेगा।

ब्राह्मण-- ब्राह्मणों को इतनी हीन अवस्था में बहुत दिनों तक विश्वनियंता नहीं देख सकते। जो जाति विश्व के मस्तिष्क का शासन करने का अधिकार लिए उत्पन्न हुई है, वह कभी चरणों के

नीचे न बैठेगी। आज यहाँ बलि होगी-हमारे धर्माचरण में स्वयं विधाता भी बाधा नहीं डाल सकते।

श्रमण-- निरीह प्राणियों के वध में कौन-सा धर्म है ब्राह्मण? तुम्हारी इसी हिंसा-नीति और अहंकारमूलक आत्मवाद का खंडन तथागत ने किया था। उस समय तुम्हारा ज्ञान-गौरव कहाँ था? क्यों नतमस्तक होकर समग्र जम्बूद्वीप ने उस ज्ञान-रणभूमि के प्रधान मल्ल के समक्ष हार स्वीकार की? तुम हमारे धर्म पर अत्याचार किया चाहते हो, यह नहीं हो सकेगा। इन पशुओं के बदले हमारी बलि होगी। रक्त-पिपासु दुर्दान्त ब्राह्मणदेव! तुम्हारी पिपासा हम अपने रुधिर से शांत करेंगे।

धातुसेन–- (प्रवेश करके) अहंकारमूलक आत्मवाद का खंडन करके गौतम ने विश्वात्मवाद को नष्ट नहीं किया। यदि वैसा करते तो इतनी करुणा की क्या आवश्यकता थी? उपनिषदों के नेति-नेति से ही गौतम का अनात्मवाद पूर्ण है। यह प्राचीन महर्षियों का कथित सिद्धान्त, मध्यमा-प्रतिपदा के नाम से, संसार में प्रचारित हुआ; व्यक्तिरूप में आत्मा के सदृश कुछ नहीं है। वह एक सुधार था, उसके लिये रक्तपात क्यों?

दंडनायक-- देखो, यदि ये हठी लोग कुछ तुम्हारे समझाने से मान जायँ, अन्यथा यहाँ बलि न होने दूँगा।

ब्राह्मण-- क्यों न होने दोगे? अधार्मिक शासक! क्यों न होने दोगे? आज गुप्त कुचक्रों से गुप्तसाम्राज्य शिथिल है। कोई क्षत्रिय राजा नहीं, जो ब्राह्मण के धर्म की रक्षा कर सके--जो

धर्म्माचरण के लिये अपने राजकुमारों को तपस्वियों की रक्षा में नियुक्त करें! आह धर्मदेव! तुम कहाँ हो?

धातुसेन–- सप्तसिंधु-प्रदेश नृशंस हूणों से पदाक्रांत है। जाति भीत और त्रस्त है, और उसका धर्म्म असहाय अवस्था में पैरों से कुचला जा रहा है। क्षत्रिय राजा, धर्म्म का पालन कराने वाला राजा, पृथ्वी पर क्यों नहीं रह गया? आपने इसे विचारा है? क्यों ब्राह्मण टुकड़ो के लिये अन्य लोगों की उपजीविका छीन रहे हैं? क्यों एक वर्ण के लोग दूसरों की अर्थकरी वृत्तियाँ ग्रहण करने लगे हैं? लोभ ने तुम्हारे धर्म्म का व्यवसाय चला दिया। दक्षिणाओं की योग्यता से–स्वर्ग, पुत्र, धन, यश, विजय और मोक्ष तुम बेचने लगे। कामना से अंधी जनता के विलासी-समुदाय के ढोंग के लिये तुम्हारा धर्म्म आवरण हो गया है। जिस धर्म्म के आचरण के लिये पुष्कल स्वर्ण चाहिये, वह धर्म्म जन-साधारण की सम्पत्ति नहीं! धर्म्मवृक्ष के चारों ओर स्वर्ण के काँटेदार जाल फैलाये गये है, और व्यवसाय की ज्वाला से वह दग्ध हो रहा है। जिन धनवानों के लिये तुमने धर्म्म को सुरक्षित रक्खा, उन्होंने समझा कि धर्म्म धन से खरीदा जा सकता है। इसलिये धनोपार्जन मुख्य हुआ और धर्म्म गौण। जो पारस्य-देश की मूल्यवान मदिरा रात को पी सकता है, वह धार्मिक बने रहने के लिये प्रभात में एक गो-निष्क्रय भी कर सकता है। धर्म्म को बचाने के लिये तुम्हें राजशक्ति की आवश्यकता हुई। धर्म इतना निर्बल है कि वह पाशव बल के द्वारा सुरक्षित होगा?

ब्राह्मण--तुम कौन हो? मूर्ख उपदेशक! हट जाओ।

तुम नास्तिक प्रच्छन्न बौद्ध! तुमको अधिकार क्या है कि हमारे धर्म्म की व्याख्या करो?

धातुसेन-- ब्राह्मण क्यों महान हैं? इसीलिये कि वे त्याग और क्षमा की मूर्ति हैं। इसीके बल पर बड़े-बड़े सम्राट उनके आश्रमो के निकट निरस्त्र होकर जाते थे, और वे तपस्वी ऋत और अमृत वृत्ति से जीवन-निर्वाह करते हुए सायं-प्रातः अग्निशाला में भगवान से प्रार्थना करते थे--

सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खमाप्नुयात्

--आप लोग उन्हीं ब्राह्मणों की संतान हैं, जिन्होंने अनेक यज्ञों को एक बार ही बंद कर दिया था। उनका धर्म्म समयानुकूल प्रत्येक परिवर्तन को स्वीकार करता है; क्योंकि मानवबुद्धि ज्ञान का--जो वेदों के द्वारा हमें मिला है--प्रस्तार करेगी, उसके विकास के साथ बढ़ेगी; और यही धर्म्म की श्रेष्ठता है।

प्रख्यातकीर्ति-- धर्म के अंधभक्तो! मनुष्य अपूर्ण है। इसलिये सत्य का विकास जो उसके द्वारा होता है, अपूर्ण होता है। यही विकास का रहस्य है। यदि ऐसा न हो तो ज्ञान की वृद्धि असंभव हो जाय। प्रत्येक प्रचारक को कुछ-न-कुछ प्राचीन असत्य-परम्पराओं का आश्रय इसीसे ग्रहण करना पड़ता है। सभी धर्म्म, समय और देश की स्थिति के अनुसार, विवृत हो रहे हैं और होंगे। हम लोगों को हठधर्म्मी से उन आगंतुक-

क्रमिक पूर्णता प्राप्त करनेवाले ज्ञानों से मुँह न फेरना चाहिये। हम लोग एक ही मूल धर्म की दो शाखाएँ हैं। आओ, हम दोनों अपने उदार विचार के फूलों से दुःख-दग्ध मानवों का कठोर पथ कोमल करें।

बहुत-से लोग-- ठीक तो है, ठीक तो है। हम लोग व्यर्थ आपस मे ही झगड़ते हैं और आततायियों को देखकर घर में घुस जाते हैं। हूणों के सामने तलवारें लेकर इसी तरह क्यों नहीं अड़ जाते?

दंडनायक-- यही तो बात है नागरिक!

प्रख्यातकीर्ति-- मैं इस विहार का आचार्य्य हूँ, और मेरी सम्मति धार्मिक झगड़ों में बौद्धों को माननी चाहिये। मै जानता हूँ कि भगवान ने प्राणिमात्र को बराबर बनाया है, और जीव-रक्षा इसी लिये धर्म्म है। किन्तु जब तुम लोग स्वयं इसके लिये युद्ध करोगे, तो हत्या की संख्या बढ़ेगी ही। अतः यदि तुममें कोई सच्चा धार्मिक हो तो वह आगे आवे, और ब्राह्मणों से पूछे कि आप मेरी बलि देकर इतने जीवों को छोड़ सकते हैं। क्योंकि इन पशुओं से मनुष्यों का मूल्य ब्राह्मणों की दृष्टि में भी विशेष होगा। आइये, कौन आता है, किसे बोधिसत्व होने की इच्छा है?

(बौद्धों में से कोई नहीं मिलता)

प्रख्यात०-- (हँसकर) यही आपका धर्म्मोन्माद था? एक युद्ध करनेवाली मनोवृत्ति की प्रेरणा से उत्तेजित होकर अधर्म्म करना और धर्म्माचरण की दुन्दुभी बजाना--यही आपकी

करुणा की सीमा है? जाइये, घर लौट जाइये। (ब्राह्मण से।) आओ रक्त-पिपासु धार्म्मिक! लो, मेरा उपहार देकर अपने देवता को संतुष्ट करो! (सिर झुका लेता है)

ब्राह्मण-- (तलवार फेंक्कर) धन्य हो महाश्रमण! मै नहीं जानता था कि तुम्हारे-ऐसे धार्मिक भी इसी संघ में है! मैं बलि नहीं करूँगा।

[जनता में जयजयकार; सत्ब धीरे-धीरे जाते हैं]


[पथ में विजया और मातृगुप्त]

विजया-- नहीं कविवर! ऐसा नहीं।

मातृगुप्त-- कौन, विजया?

विजया-- आश्चर्य्य और शोक का समय नहीं है। सुकविशिरोमणी! गा चुके मिलन-संगीत, गा चुके कोमल कल्पनाओ के लचीले गान, रो चुके प्रेम के पचड़े? एक बार वह उद्बोधनगीत गा दो कि भारतीय अपनी नश्वरता पर विश्वास करके अमर भारत की सेवा के लिये सन्नद्ध हो जायें!

मातृगुप्त-- देवी! तुम देवी ......

विजया-- हाँ मातृगुप्त! एक प्राण बचाने के लिये जिसने तुम्हारे हाथ में काश्मीर-मंडल दे दिया था, आज तुम उसी सम्राट् को खोजते हो। एक नहीं, ऐसे सहस्र स्कन्दगुप्त, ऐसे सहस्रों देव-तुल्य उदार युवक, इस जन्म-भूमि पर उत्सर्ग हो जायँ! सुना दो वह संगीत-- जिससे पहाड़ हिल जाय और समुद्र काँपकर रह जाय; अँगड़ाइयाँ लेकर मुचकुन्द की मोहनिद्रा से भारतवासी जग पड़ें। हम-तुम गली-गली कोने-कोने पर्य्यटन करेंगे, पैर पड़ेंगे, लोगो को जगावेंगे!

मातृगुप्त-- वीरबाले! तुम धन्य हो। आज से मैं यही करूँगा। (देखकर) वह लो--चक्रपालित आ रहा है!

(चक्रपालित का प्रवेश)

चक्र-- लक्ष्मी की लीला, कमल के पत्तों पर जल-बिन्दु, आकाश के मेघ-समारोह-- अरे इनसे भी क्षुद्र निहार-कणिकाओं

की प्रभात-लीला। मनुष्य की अदृष्ट-लिपि वैसी ही है जैसी अग्नि-रेखाओं से कृष्ण मेघ में बिजली की वर्णमाला--एक क्षण में प्रज्वलित, दूसरे क्षण में विलीन होनेवाली। भविष्यत् का अनुचर तुच्छ मनुष्य केवल अतीत का स्वामी है!

मातृगुप्त--बन्धु चक्रपालित!

चक्र०--कौन, मातृगुप्त?

भीम०--(सहसा प्रवेश करके) कहाँ है मेरा भाई, मेरे हृदय का बल, भुजाओं का तेज, वसुन्धरा का श्रृंगार, वीरता का वरणीय बंधु, मालव-मुकुट आर्य्य बंधुवर्म्मा?

(प्रख्यातकीर्ति और श्रमण का प्रवेश)

प्रख्यात॰--सब पागल, लुट गये-से, अनाथ और आश्रयहीन-- यही तो हैं! आर्य्यराष्ट्र के कुचले हुए अंकुर, भग्न साम्राज्य-पोत के टूटे हुए पटरे और पतवार, ऐसे वीर हृदय! ऐसे उदार!!

मातृगुप्त--तुम कौन हो?

प्रख्यात०--सम्भवतः तुम्ही मातृगुप्त हो!

मातृगुप्त--(शंका से देखता हुआ) क्यों अहेरी कुत्तों के समान सूँघते हुए यहाँ भी! परंतु तुम ......

प्रख्यात०--संदेह मत करो मातृगुप्त! शैशव-सहचर कुमार धातुसेन की आज्ञा से मैं तुम लोगों को खोज रहा हूँ। यह लो प्रमाण-पत्र।

मातृगुप्त--(पढ़कर) धन्य सिंहल के युवराज श्रमण!
कह देना, मैं आज्ञानुसार चलूंगा, और कनिष्क-चैत्य के समीप भेंट होगी।

प्रख्यातकीर्ति---कल्याण हो! (जाता है)

विजया---कहाँ चले हम लोग?

मातृगुप्त---उसी जंगल में।

[सब लोग जाते हैं]

[कमला की कुटी]

(विचित्र अवस्था में स्कंदगुप्त का प्रवेश)

स्कंद०-- बौद्धों का निर्वाण, योगियों की समाधि और पागलों की-सी सम्पूर्ण विस्मृति मुझे एक साथ चाहिये। चेतना कहती है कि तू राजा है, और उत्तर में जैसे कोई कहता है कि तू खिलौना है-- उसी खिलवाड़ी वटपत्रशायी बालक के हाथों का खिलौना है। तेरा मुकुट श्रमजीवी की टोकरी से भी तुच्छ है!

करुणा-सहचर! क्या जिसपर कृपा होती है, उसीको दुःख का अमोघ दान देते हो? नाथ! मुझे दुःखों से भय नहीं, संसार के संकोच-पूर्ण संकेतों की लज्जा नहीं। वैभव की जितनी कड़ियाँ टूटती हैं, उतना ही मनुष्य बंधनों से छूटता है, और तुम्हारी ओर अग्रसर होता है! परन्तु......यह ठीकरा इसी सिर पर फूटने को था! आर्य्य-साम्राज्य का नाश इन्हीं आँखो को देखना था! हृदय काँप उठता है, देशाभिमान गरजने लगता है! मेरा स्वत्व न हो, मुझे अधिकार की आवश्यकता नहीं। यह नीति और सदाचारों का महान आश्रय-वृक्ष-गुप्तसाम्राज्य-हरा-भरा रहे, और कोई भी इसका उपयुक्त रक्षक हो। ओह! जाने दो, गया, सब कुछ गया! मन बहलाने को कोई वस्तु न रही। कर्त्तव्य-विस्मृत; भविष्य--अंधकार-पूर्ण, लक्ष्यहीन दौड़ और अनंत सागर का संतरण है!

बजा दो वेणु मनमोहन! बजा दो
हमारे सुप्त जीवन को जगा दो

?विमल स्वातंत्र्य का वस मंत्र को
हमे सब भीति-धंधन से छुड़ा दो
सहारा उन अँगुलियों का मिले हाँ
रसीले राग में मन को मिला दो
तुम्हीं सत हो इसीकी चेतना हो
इसे आनन्दमय जीवन बना दो

(प्रार्थना में झुकता है; उन्मत्त भाव से शर्वनाग का प्रवेश)

शर्व॰-- छीन लिया, गोद से छीन लिया; सोने के लोभ से मेरे लालों को शूल पर के माँस की तरह सेंकने लगे! जिनपर विश्व-भर का भंडार लुटाने को मैं प्रस्तुत था, उन्हीं गुदड़ी के लालों को राक्षसों ने--हूणों ने--लुटेरों ने--लूट लिया! किसने आहों को सुना?--भगवान ने? नहीं, उस निष्ठुर ने नहीं सुना। देखते हुए भी न देखा। आते थे कभी एक पुकार पर, दौड़ते थे कभी आधी आह पर, अवतार लेते थे कभी आर्य्यों की दुर्दशा से दुखी होकर; अब नहीं। देश के हरे कानन चिता बन रहे हैं। धधकती हुई नाश की प्रचंड ज्वाला दिग्दाह कर रही है। अपने ज्वालामुखियों को बर्फ की मोटी चादर से छिपाये हिमालय मौन है, पिघलकर क्यों नहीं समुद्र से जा मिलता? अरे जड़, मूक, बधिर, प्रकृति के टीले!

(उन्मत्त भाव से प्रस्थान)

स्कंद०-- कौन है? यह शर्वनाग है क्या? क्या अन्तर्वेद भी हूणों से पादाक्रांत हुआ? अरे आर्य्यावर्त्त के दुर्दैव बिजली के

अक्षरों से क्या भविष्यत् लिख रहा है? भगवन्! यह अर्धोन्मत्त शर्वं! आर्य्यसाम्राज्य की हत्या का कैसा भयानक दृश्य है? कितना वीभत्स है! सिंहों की विहारस्थली में श्रृंगाल-वृन्द सड़ी लोथ नोच रहे हैं!

(पगली रामा का प्रवेश; स्कंद को देखकर)

रामा-- लुटेरा है तू भी! क्या लेगा, मेरी सूखी हड्डियाँ? तेरे दाँतों से टूटेंगी? देख ते--(हाथ चढ़ाती है)

स्कंद०-- कौन? रामा!

रामा-- (आश्चर्य से) मैं रामा हूँ! हाँ, जिसकी संतान को हूणों ने पीस डाला! (ठहरकर) मेरी? मेरी संतान! इन अभागों की-सी वे नहीं थी। वे तो तलवार की बारीक धार पर पैर फैलाकर सोना जानती थी! धधकती हुई ज्वाला में हँसते हुए कूद पड़ती थी। तुम (देखती हुई) लुटेरे भी नहीं, उहूँ, कायर भी नहीं; अकर्म्मण्य बातो में भुलानेवाले तुम कौन हो? देखा था एक दिन! वही तो है जिसने अपनी प्रचंड हुङ्कार से दस्युओ को कँपा दिया था, ठोकर मारकर सोई हुई अकर्म्मण्य जनता को जगा दिया था, जिसके नाम से रोएँ खड़े हो जाते थे, भुजाएँ फड़कने लगती थीं। वही स्कंद--रमणियों का रक्षक, बालको का विश्वास, वृद्धों का आश्रय, और आर्य्यावर्त्त की छत्रच्छाया। नहीं, भ्रम हुआ! तुम निष्प्रभ, निस्तेज, उसीके मलिन-चित्र-से तुम कौन हो? (प्रस्थान)

स्कंद॰-- (बैठकर) आह! मैं वही स्कंद हूँ-- अकेला निस्सहाय! 

(कमला कुटी खोलकर बाहर निकलती है)

कमला-- कौन कहता है तुम अकेले हो? समग्र संसार तुम्हारे साथ है। स्वानुभूति को जागृत करो। यदि भविष्यत् से डरते हो कि तुम्हारा पतन ही समीप है, तो तुम उस अनिवार्य्य स्रोत से लड़ जाओ। तुम्हारे प्रचंड और विश्वासपूर्ण पदाघात से विंध्य के समान कोई शैल उठ खड़ा होगा, जो उस विघ्न-स्रोत को लौटा देगा। राम और कृष्ण के समान क्या तुम भी अवतार नहीं हो सकते? समझ लो, जो अपने कर्म्मों को ईश्वर का कर्म्म समझकर करता है, वही ईश्वर का अवतार है। उठो स्कंद! आसुरी वृत्तियों का नाश करो, सोनेवालों को जगाओ, और रोनेवालो को हँसाओ। आर्य्यावर्त्त तुम्हारे साथ होगा और उस आर्य्य-पताका के नीचे समग्र विश्व होगा। वीर!

स्कंद-- कौन तुम? भटार्क की जननी!

(नेपथ्य से क्रन्दन–‘बचाओ बचाओ!' का शब्द)

स्कंद०-- कौन? देवसेना का-सा शब्द! मेरा खड्ग कहाँ है? (जाता है)

(देवसेना का पीछा करते हुए हूण का प्रवेश)

देवसेना-- भीम! भाई! मुझे इस अत्याचारी से बचाओ, कहाँ गये?

हूण-- कौन तुझे बचाता है! (पकड़ना चाहता है, देवसेना छुरी निकालकर आत्म-हत्या किया चाहती है। पर्णदत्त सहसा एक ओर

से आकर एक हाथ से हूण की गर्दन, दूसरे हाथ से देवसेना की छुरी पकड़ता है।)

हूण-- क्षमा हो!

पर्णदत्त-- अत्याचारी! जा, तुझे छोड़ देता हूँ। आ बेटी, हम लोग चलें महादेवी की समाधि पर।

कमला-- कहाँ, वहीं--कनिष्क के स्तूप के पास?

देवसेना-- हाँ, कौन--कमला देवी?

कमला-- वही अभागिनी।

देवसेना-- अच्छा, जाती हूँ; फिर मिलूँगी।

(पर्णदत्त के साथ देवसेना का प्रस्थान)

(स्कंद का प्रवेश)

स्कंद०-- कोई नहीं मिला। कहाँ से वह पुकार आई थी? मेरा हृदय व्याकुल हो उठा है। सच्चे मित्र बंधुवर्म्मा की धरोहर! ओह!

कमला-- वह सुरक्षित है, घबराइये नहीं। कनिष्क के स्तूप के पास आपकी माता की समाधि है, वहीं पर पहुँचा दी गई है।

स्कंद-- मा! मेरो जननी! तू भी न रही! हा!

(मूर्छित होता है; कमला उसे कुटी में उठा ले जाती है।)

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