स्कंदगुप्त/द्वितीय अंक

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स्कंदगुप्त  (1928) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद
[ ५३ ]

[ मालव में शिप्रा-तट-कुंज ]

देवसेना--इसी पृथ्वी पर है और अवश्य है।

विजया--कहाँ राजकुमारी? संसार में छल, प्रवञ्चना और हत्याओं को देखकर कभी-कभी मान ही लेना पड़ता है कि यह जगत् ही नरक है। कृतघ्ता और पाखंड का साम्राज्य यहीं है। छीना-झपटी, नोच-खसोट, मुँह में से आधी रोटी छीन कर भागनेवाले विकट जीव यहीं तो है। श्मशान के कुत्तों से भी बढ़कर मनुष्यों की पतित दशा है।

देवसेना--पवित्रता की माप है मलिनता, सुख का आलोचक है दुःख, पुण्य की कसौटी है पाप। विजया! आकाश के सुन्दर नक्षत्र आँखो से केवल देखे हो जाते है; वे कुसुम-कोमल है कि वज्र-कठोर--कौन कह सकता है। आकाश में खेलती हुई कोकिल की करुणामयी तान का कोई रूप है या नही, उसे देख नहीं पाते। शतदल और पारिजात का सौरभ बिठा रखने की वस्तु नहीं। परन्तु संसार में ही नक्षत्र से उज्ज्वल--किन्तु कोमल–स्वर्गीय संगीत की प्रतिमा तथा स्थायी कीर्त्ति-सौरभ वाले प्राणी देखे जाते हैं! उन्हीं से स्वर्ग का अनुमान कर लिया जा सकता है।

विजया-होंगे, परन्तु मैंने नहीं देखा। [ ५४ ]

देवसेना--तुमने सचमुच कोई ऐसा व्यक्ति नहीं देखा?

विजया--नहीं तो---

देवसेना--समझकर कहो।

विजया--हाँ, समझ लिया है।

देवसेना--क्या तुम्हारा हृदय कही पराजित नहीं हुआ? विजया! विचारकर कहो, किसी भी असाधारण महत्त्व से तुम्हारा उदंड हृदय अभिभूत नहीं हुआ? यदि हुआ है तो वही स्वर्ग है। जहाँ हमारी सुन्दर कल्पना आदर्श का नीड़ बनाकर विश्राम करती है, वही स्वर्ग है। वही विहार का, वही प्रेम करने का स्थल स्वर्ग है, और वह इसी लोक में मिलता है। जिसे नहीं मिला, वह इस संसार में अभागा है।

विजया--तो राजकुमारी, मैं कह दूँ?

देवसेना--हाँ, हाँ, तुम्हें कहना ही होगा।

विजया--मुझे तो आज तक किसीको देखकर हारना नहीं पड़ा। हाँ, एक युवराज के सामने मन ढीला हुआ, परंतु मैं उसे कुछ राजकीय प्रभाव भी कहकर टाल दे सकती हूँ।

देवसेना--नहीं विजया! वह टालने से, बहला देने से, नहीं हो सकता। तुम भाग्यवती हो, देखो यदि वह स्वर्ग तुम्हारे हाथ लगे। ( सामने देखकर ) अरे लो! वह युवराज आ रहे हैं। हम लोग हट चलें।

( दोनों जाती हैं, स्कंदगुप्त का प्रवेश, पीछे चक्रपालित )

स्कंद०--विजय का क्षणिक उल्लास हृदय की भूख मिटा [ ५५ ]
देगा? कभी नहीं। वीरों का भी क्या ही व्यवसाय है, क्या ही उन्मत्त भावना है। चक्रपालित! संसार में जो सबसे महान् है, वह क्या है? त्याग। त्याग का ही दूसरा नाम महत्त्व है। प्राणों का मोह त्याग करना वीरता का रहस्य है।

चक्र०--युवराज! संपूर्ण संसार कर्म्मण्य वीरों की चित्र-शाला है। वीरत्व एक स्वावलम्बी गुण है। प्राणियों का विकास संभवतः इसी विचार के ऊर्जित होने से हुआ है। जीवन मे वही तो विजयी होता है, जो दिन-रात "युद्ध्यस्व विगतज्वरः" का शंखनाद सुना करता है।

स्कंद०--चक्र! ऐसा जीवन तो विडम्बना है, जिसके लिये दिन-रात लड़ना पड़े। आकाश में जब शीतल शुभ्र शरद-शशि का विलास हो, तब भी दाँत-पर-दाँत रखे, मुट्ठियों को बाँधे हुए, लाल आँखो से एक दूसरे को घूरा करे! वसंत के मनोहर प्रभात में, निभृत कगारों में, चुपचाप बहनेवाली सरिताओं का स्रोत गरम रक्त बहाकर लाल कर दिया जाय! नहीं, नहीं चक्र! मेरी समझ में मानव-जीवन का यह उद्देश नहीं है। कोई और भी निगूढ़ रहस्य है, चाहे उसे मैं स्वयं न जान सका हूँ।

चक्र०—सावधान युवराज! प्रत्येक जीवन में कोई बड़ा काम करने के पहले ऐसे ही दुर्बल विचार आते हैं; वह तुच्छ प्राणो का मोह है। अपने को झगड़ों से अलग रखने के लिये, अपनी रक्षा के लिये, यह उसका क्षुद्र प्रयत्न होता है। अयोध्या चलने के लिये आपने कब का समय निश्चित किया है? राज[ ५६ ]
सिंहासन कब तक सूना रहेगा? पुष्यमित्रों और शकों के युद्ध समाप्त हो चुके है।

स्कंद०--तुम मुझे उत्तेजित कर रहे हो।

चक्र०--हाँ युवराज! मुझे यह अधिकार है।

स्कंद०--नहीं चक्र! अश्वमेध-पराक्रम स्वर्गीय सम्राट कुमार-गुप्त का आसन मेरे योग्य नहीं है। मै झगड़ा करना नहीं चाहता, मुझे सिंहासन न चाहिये। पुरगुप्त को रहने दो। मेरा अकेला जीवन है। मुझे......

चक्र०--यह नहीं होगा। यदि राज्यशक्ति के केन्द्र में ही अन्याय होगा, तब तो समग्र राष्ट्र अन्यायों का क्रीड़ा-स्थल हो जायगा। आपको सबके अधिकारों की रक्षा के लिये अपना अधिकार सुरक्षित करना ही पड़ेगा।

( चर का आना, कुछ संकेत करना, दोनों का प्रस्थान, देवसेना और विजया का प्रवेश । )

विजया--यह क्या राजकुमारी! युवराज तो उदासीन हैं।

देवसेना--हाँ विजया, युवराज की मानसिक अवस्था कुछ बदली हुई है।

विजया--दुर्बलता इन्हें राज्य से हटा रही है।

देवसेना--कहीं तुम्हारा सोचा हुआ, युवराज के महत्त्व का परदा तो नहीं हटा रहा है? क्यों विजया! वैभव का अभाव तुम्हें खटकने तो नहीं लगा है।

विजया--राजकुमारी! तुम तो निर्दय वाक्यबाणों का प्रयोग कर रही हो। [ ५७ ]

देवसेना--नहीं विजया, बात ऐसी है। धनवानों के हाथ में माप ही एक है। वह विद्या, सौन्दर्य, बल, पवित्रता, और तो क्या, हृदय भी उसीसे मापते हैं। वह माप है-उनका ऐश्वर्य्य।

विजया--परन्तु राजकुमारी! इस उदार दृष्टि से तो चक्रपालित क्या पुरुष नहीं है? है अवश्य। वीर हृदय है, प्रशस्त वक्ष है, उदार मुखमंडल है!

देवसेना--और सबसे अच्छी एक बात है। तुम समझती हो कि वह महत्त्वाकांक्षी है। उसे तुम अपने वैभव से क्रय कर सकती हो, क्यो? भाई, तुमको लेना है, तुम स्वयं समझ लो, मेरी दलाली नहीं चलेगी।

विजया--जाओ राजकुमारी!

देवसेना--एक गाना सुनोगी?

विजया--महारानी खोजती होंगी, अब चलना चाहिये।

देवसेना--तब तुम अभी प्रेम करने का, मनुष्य फंसाने का, ठीक सिद्धांत नहीं जानती हो।

विजया--क्या?

देवसेना--नये ढंग के आभूषण, सुन्दर वसन, भरा हुआ यौवन--यह सब तो चाहिये ही, परन्तु एक वस्तु और चाहिये। सुपुरुष को वशीभूत करने के पहले चाहिये एक धोखे की टट्टी। मेरा तात्पर्य है--एक वेदना अनुभव करने का, एक विह्वलता का, अभिनय उसके मुख पर रहे जिससे कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएँ मुख पर पड़ें, और मूर्ख मनुष्य उन्हीं को पढ़ लेने के लिये [ ५८ ]
व्याकुल हो जाये। और फिर दो बूंद गरम-गरम आँसू, और इसके बाद एक तान वागीश्वरी की--करुण-कोमल तान। बिना इसके सब रंग फीका--

विजया--उस समय भी गान?

देवसेना--बिना गान के कोई कार्य्य नहीं। विश्व के प्रत्येक कम्प में एक ताल है। आहा! तुमने सुना नहीं है दुर्भाग्य तुम्हारा। सुनोगी?

विजया--राजकुमारी! गाने का भी रोग होता है क्या? हाथ को ऊँचे-नीचे हिलाना, मुंह बनाकर एक भाव प्रकट करना, फिर सिर को इस ज़ोर से हिला देना जैसे उस तान से शून्य मे एक हिलोर उठ गई!

देवसेना--विजया! प्रत्येक परमाणु के मिलन में एक सम है, प्रत्येक हरी-हरी पत्ती के हिलने मे एक लय है। मनुष्य ने अपना स्वर विकृत कर रखा है, इसीसे तो उसका स्वर विश्व-वीणा में शीघ्र नहीं मिलता। पांडित्य के मारे जब देखो, जहाँ देखो, बेताल-बेसुरा बोलेगा। पक्षियों को देखो, उनकी 'चहचह' 'कलकल' 'छलछल' मे, काकली में, रागिनी है।

विजया--राजकुमारी, क्या कह रही हो?

देवसेना--तुमने एकांत टीले पर, सबसे अलग, शरद के सुन्दर प्रभात में फूला हुआ, फूलों से लदा हुआ, पारिजात-वृक्ष देखा है?

विजया--नहीं तो। देवसेना—उसका स्वर अन्य वृक्षों से नहीं मिलता। वह [ ५९ ]
अकेले अपने सौरभ की तान से दक्षिण-पवन में कम्प उत्पन्न करता है, कलियो को चटकाकर ताली बजाकर, झूम-झूमकर नाचता है। अपना नृत्य, अपना संगीत, वह स्वयं देखता है--सुनता है। उसके अंतर से जीवन-शक्ति वीणा बजाती है। वह बड़े कोमल स्वर मे गाता है--

घने प्रेम-तरु-तले

बैठ छाँह लो भव-आतप से तापित और जले

छाया है विश्वास की श्रद्धा-सरिता-कूल

सिंची आँसुओं से मृदुल है परागमय धूल

यहाँ कौन जो छले

फूल चू पड़े वात से भरे हृदय का घाव

मन की कथा व्यथा-भरी बैठो सुनते जाव

कहाँ जा रहे चले

पी लो छवि-रस-माधुरी सींचो जीवन-बेल

जी लो सुख से आयु-भर यह माया का खेल

मिलो स्नेह से गले

घने प्रेम-तरु-तले

( बन्धुवर्म्मा को प्रवेश )

देवसेना--( संकुचित होती-सी ) अरे, भइया--

बंधुवर्म्मा--देवसेना, तुझे गाने का भी विचित्र रोग है।

देवसेना--रोग तो एक-न-एक सभी को लगा है। परन्तु यह रोग अच्छा है, इससे कितने रोग अच्छे किये जा सकते हैं।

बंधुवर्म्मा--पगली! जा देख, युवराज जा रहे है; कुसुमपुर से कोई समाचार आया है। [ ६० ]

देवसेना--तब उन्हें जाना आवश्यक होगा। भाभी बुलाती हैं क्या?

बंधुवर्म्मा--हाँ, उनकी विदाई करनी होगी। संभवतः सिंहासन पर बैठने का राज्याभिषेक का--प्रकरण होगा।

देवसेना--क्या आपको ठीक नहीं मालूम'?

बंधुवर्म्मा--नही तो; मुझसे कुछ कहा नहीं। परन्तु भौंहों के नीचे एक गहरी छाया है, वात कुछ समझ में नहीं आती।

देवसेना--भइया, तुम लोगों के पास बातें छिपा रखने का एक भारी रहस्य है। जी खोलकर कह देने में पुरुषों की मर्य्यादा घटती है। जब तुम्हारा हृदय भीतर से क्रंदन करता है, तब तुम लोग एक मुस्कराहट से उसे टाल देते हो यह बड़ी प्रवञ्चना है।

बंधुवर्म्मा--( हँसकर ) अच्छा जा उधर, उपदेश मत दे।

( विजया और देवसेना जाती हैं )

बंधुवर्म्मा--उदार-वीर-हृदय, देवोपम-सौन्दर्य्य, इस आर्य्यावर्त्त का एकमात्र आशा-स्थल इस युवराज का विशाल मस्तक कैसी चक्र लिपियों से अङ्कित है! अंतःकरण में तीव्र अभिमान के साथ विराग है। आँखों में एक जीवन-पूर्ण ज्योति है। भविष्य के साथ इसका युद्ध होगा, देखेूँ कौन विजयी होता है। परन्तु मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब से इस वीर परोपकारी के लिये मेरा सर्वस्व अर्पित है। चलूँ--

[ जाता है ]

[ ६१ ]

[ मठ में प्रपंचबुद्धि, भटार्क और शर्वनाग ]

प्रपंच०–बाहर देख लो, कोई है तो नहीं ।

(शर्व जाकर लौट आता है)

शर्व०--कोई नहीं, परन्तु आप इतना चौकते क्यों हैं? मै तो कभी यह चिन्ता नहीं करता कि कौन आया है या आवेगा।

प्रपंच०--तुम नहीं जानते।

शर्व०--नहीं श्रमण! मैं खड्ग हाथ में लिए प्रत्येक भविष्यत् की प्रतीक्षा करता हूँ। जो कुछ होगा, वही निबटा लेगा। इतने डर की, घबराहट की, आवश्यकता नही। विश्वास करना और देना, इतने ही लघु व्यापार से संसार की सब समस्याएं हल हो जायँगी।

प्रपंच०--प्रत्येक भित्ति के किवाड़ों के कान होते हैं; समझ लेना चाहिये, देख लेना चाहिये।

शर्व०--अच्छी बात है, कहिये।

भटार्क--तुम पहले चुप तो रहो।

(शर्व चुप रहने की मुद्रा बनाता है।)

प्रपंच०--धर्म्म की रक्षा करने के लिये प्रत्येक उपाय से काम लेना होगा।

शर्व०--भिक्षु-शिरोमणे! वह कौन-सा धर्म्म है, जिसकी हत्या हो रही है?

प्रपंच०--यही हत्या रोकना, अहिंसा, गौतम का धर्म्म है। यज्ञ की बलियों को रोकना, करुणा और सहानुभूति की प्रेरणा से कल्याण का प्रचार करना। हाँ, अवसर ऐसा है कि हम वह [ ६२ ]
काम भी करें जिससे तुम चौंक उठो। परन्तु नहीं, वह तो तुम्हें करना ही होगा।

भटार्क--क्या?

प्रपंच०--महादेवी देवकी के कारण राजधानी में विद्रोह की संभावना है, उन्हें संसार से हटाना होगा।

शर्व०--ठीक है, तभी आप चौंकते हैं, और तभी धर्म की रक्षा होगी। हत्या के द्वारा हत्या का निषेध कर लेंगे--क्यों?

भटार्क--ठहरो शर्व! परन्तु महास्थविर! क्या इसकी अत्यंत आवश्यकता है?

प्रपंच०--नितांत।

शर्व०--बिना इसके काम ही न चलेगा, धर्म्म ही ना प्रचारित होगा!

प्रपंच--और यह काम शर्व को करना होगा।

शर्व०--(चौंककर) मुझे? मैं कदापि नहीं...

भटार्क--शीघ्रता न करो शर्व! भविष्यत के सुखों से इसकी तुलना करो।

शर्व०--नाप-तौल मैं नहीं जानता, मुझे शत्रु दिखा दो। मैं भूखे भेड़िये की भांति उसका रक्तपान कर लूँगा, चाहे मैं ही क्यों न मारा जाऊँ; परन्तु निरीह हत्या--यह मुझसे नहीं••••••

भटार्क--मेरी आज्ञा।

शर्व--तुम सैनिक हो, उठाओ तलवार। चलो, दो सहस्र शत्रुओं पर हम दो मनुष्य आक्रमण करें। देखें, मरने से कौन [ ६३ ]
भागता है। कायरता! अबला महादेवी की हत्या! किस प्रलोभन में तुम पिशाच बन रहे हो?

भटार्क--सावधान शर्व! इस चक्र से तुम नहीं निकल सकते। या तो करो या मरो। मैं सज्जनता का स्वांग नहीं ले सकता, मुझे वह नहीं भाता। मुझे कुछ लेना है, वह जैसे मिलेगा--लूँगा। साथ दोगे तो तुम भी लाभ में रहोगे।

शर्व--नहीं भटार्क! लाभ ही के लिये मनुष्य सब काम करता, तो पशु बना रहना ही उसके लिये पर्याप्त था। मुझसे यह काम नहीं होने का!

प्रपंच०--ठहरो भटार्क! मुझे पूछने दो। क्यों शर्व! तुमने जो यह अस्वीकार किया है, वह क्यों? पाप समझकर?

शर्व०--अवश्य।

प्रपंच--तुम किसी कर्म्म को पाप नहीं कह सकते; वह अपने नग्न रूप में पूर्ण है, पवित्र है। संसार ही युद्धक्षेत्र है, इसमें पराजित होकर शस्त्र अर्पण करके जीने से क्या लाभ? तुम युद्ध में हत्या करना धर्म्म समझते हो, परन्तु दूसरे स्थल पर अधर्म्म?

शर्व०--हाँ।

प्रपंच०--मार डालना, प्राणी का अन्त कर देना, दोनों स्थलों में एक-सा है, केवल देश और काल का भेद है। यही न?

शर्व०--हाँ, ऐसा ही तो।

प्रपंच०--तब तुम स्थान और समय की कसौटी पर कर्म्म को परखते हो, इसीसे कर्म्म के अच्छे और बुरे होने की जाँच करते हो। [ ६४ ]

शर्व०--दूसरा उपाय क्या?

प्रपंच--है क्यों नहीं। हम कर्म की जाँच परिणाम से करते हैं, और यही उद्देश तुम्हारे स्थान और समयवाली जाँच का होगा।

शर्व--परन्तु जिसके भावी परिणाम को अभी तुम देख न सके, उसके बल पर तुम कैसे पूर्व कार्य कर सकते हो?

प्रपंच०--आशा पर, जो सृष्टि का रहस्य है। आओ इसका एक प्रत्यक्ष उदाहरण दें। (मदिरा का पात्र भरता है, स्वयं पीकर सबको पिलाता है; चार-बार ऐसा करता है।)

प्रपंच०--क्यों, कैसी कड़वी थी?

शर्व०--उँह, हृदय तक लकीर खिंच गई!

भटार्क--परन्तु अब तो एक आनन्द का स्रोत हृदय में बहने लगा है।

शर्व०--मैं नाचूँ? (उठना चाहता है)

प्रपंच०--ठहरो, मेरे साथ।

(उठकर दोनों नाचते हैं, अकस्मात लड़खड़ाकर प्रपंचबुद्धि गिर पड़ता है, चोट लगती है।)

भटार्क--अरेरे! (सम्हलकर उठाता है)

प्रपंच०--कुछ चिन्ता नहीं।

शर्व०--बड़ी चोट आई।

प्रपंच०--परन्तु परिणाम अच्छा हुआ। तुम लोगों पर भारी विपत्ति आनेवाली थी।

भटार्क--वह टल गई क्या? (आश्चर्य्य से देखता है) [ ६५ ]

शर्व०--क्यों सेनापति! टल गई?

प्रपंच०--उस विपत्ति का निवारण करने के लिये ही मैंने यह कष्ट सहा। मै तुम लोगों के भूत, भविष्य और वर्तमान का नियामक, रक्षक और द्रष्टा हूँ। जाओ, अब तुम लोग निर्भय हो।

भटार्क--धन्य गुरुदेव!

शर्व०--आश्चर्य!

भटार्क--शंका न करो, श्रद्धा करो; श्रद्धा का फल मिलेगा। शर्व! अब भी तुम विश्वास नहीं करते?

शर्व०--करता हूँ। जो आज्ञा होगी वहीं करूँगा।

प्रपंच०--अच्छी बात है, चलो--

( सब जाते हैं, धातुसेन का प्रवेश )

धातुसेन--मै अभी यहीं रह गया, सिंहल नहीं गया। इस रहस्यपूर्ण अभिनय को देखने की इच्छा बलवती हुई। परन्तु मुद्गल तो अभी नहीं आया, यहीं तो आने को था। (देखता है) लो, वह आ गया!

मुद्गल--क्यों भइया, तुम्हीं धातुसेन हो?

धातु०--(हँसकर) पहचानते नहीं?

मुद्गल--किसीकी धातु पहचानना बड़ा असाधारण कार्य है। तुम किस धातु के हो?

धातु०--भाई, सोना अत्यंत घन होता है, बहुत शीघ्र गरम होता है, और हवा लग जाने से शीतल हो जाता है। मूल्य भी बहुत लगता है। इतने पर भी सिर पर बोझ-सा रहता है। मैं [ ६६ ]
सोना नहीं हूँ, क्योंकि उसकी रक्षा के लिये भी एक धातु की आवश्यकता होती है, वह है 'लोहा'।

मुद्गल--तब तुम लोहे के हो?

धातु०--लोहा बड़ा कठोर होता है। कभी-कभी वह लोहे को भी काट डालता है। उहूँ, भाई! मैं तो मिट्टी हूँ-मिट्टी, जिसमें से सब निकलते हैं। मेरी समझ में तो मेरे शरीर की धातु मिट्टी है, जो किसीके लोभ की सामग्री नहीं, और वास्तव में उसीके लिये सब धातु अस्त्र बनकर चलते हैं, लड़ते है, जलते हैं, टूटते हैं, फिर मिट्टी होते हैं! इसलिये मुझे मिट्टी समझो-धूल समझो। परन्तु यह तो बताओ, महादेवी की मुक्ति के लिये क्या उपाय सोचा?

मुद्गल--मुक्ति का उपाय! अरे ब्राह्मण की मुक्ति भोजन करते हुए मरने में, बनियों की दिवालों की चोट से गिर जाने में, और शूद्रों की--हम तीनों की ठोकरों से मुक्ति-ही-मुक्ति है। महादेवी तो क्षत्राणी है, संभवतः उनकी मुक्ति शस्त्र से होगी।

धातु०--तुमने ठीक सोचा। आज अर्द्धरात्रि में, कारागार में।

मुद्गल--कुछ चिन्ता नहीं, युवराज आ गये हैं।

धातु०--मैं भी प्रस्तुत रहूँगा।

( दोनों जाते हैं )

[ पट-परिवर्तन ]

[ ६७ ]

[ देवकी के राजमन्दिर का बाहरी भाग ]

( मदिरोन्मत्त शर्वनाग का प्रवेश )

शर्व०--कादम्ब, कामिनी, कञ्चन-वर्णमाला के पहले अक्षर! करना होगा, इन्ही के लिये कर्म्म करना होगा। मनुष्य को यदि इन कवर्गों की चोट नहीं तो कर्म्म क्यों करे? 'कर्म' में एक ‘कु’ और जोड़ दें। लो, अच्छी वर्णमैत्री होगी!

कादम्ब! ओह प्यास! (प्याले से मदिरा उड़ेलता है) लाल-यह क्या रक्त? आह! कैसी भीषण कमनीयता है! लाल मदिरा लाल नेत्रों से लाल-लाल रक्त देखना चाहती है। किसका? एक प्राणी का, जिसके कोमल मांस में रक्त मिला हो। अरेरे, नहीं, दुर्बल नारी। ऊँह, यह तेरी दुर्बलता है। चल अपना काम देख, देख–सामने सोने को संसार खड़ा है!

(रामा का प्रवेश)

रामा--पामर! सोने की लंका राख हो गई।

शर्व०--उसमें मदिरा न रही होगी सुंदरी!

रामा--मदिरा का समुद्र उफनकर बह रहा था--मदिरा-समुद्र के तट पर ही लंका बसी थी!

शर्व०--तब उसमें तुम-जैसी कोई कामिनी न होगी। तुम कौन हो–-स्वर्ग की अप्सरा या स्वप्न की चुड़ैल?

रामा--स्त्री को देखते ही ढिलमिल हुए, आँखें फाड़कर देखते हैं--जैसे खा जायेंगे! मैं कोई हूँ!

शर्व०--सुंदरी! यह तुम्हारा ही दोष है। तुम लोगो का वेश-विन्यास, आँखों की लुका-चोरी, अंगों का सिमटना, चलने में
[ ६८ ]
एक क्रीड़ा; एक कौतूहल, पुकारकर--टोककर कहते हैं--"हमें देखो!" हम क्या करें, देखते ही बनता है!

रामा--दुर्वृत्त मद्यप! तू अपनी स्त्री को भी नही पहचानता है--परस्त्री समझकर उसे छेड़ता है!

शर्व०--(सम्हलकर) अयँ! अरे ओह! मेरी रामा, तुम हो?

रामा०--हाँ, मैं हूँ।

शर्व०--(हँसकर) तभी तो मैं तुमको जानकर ही बोला, नहीं भला मैं किसी परस्त्री से--(जीभ निकालकर कान पकड़ता है)

रामा--अच्छा, यह तो बताओ, कादम्ब पीना कहाँ से सीखा है? और यह क्या बकते थे?

शर्व०--अरे प्रिये! तुमसे न कहूँगा तो किससे कहूँगा, सुनो--

रामा--हाँ हाँ, कहो।

शर्व०--तुमको रानी बनाऊँगा।

रामा--(चौंककर) क्या?

शर्व०--तुम्हें सोने से लाद दूंगा।

रामा--किस तरह?

शर्व०--वह भी बतला दूँ? तम नित्य कहती आती हो कि "तू निकम्मा है, अपदार्थ है, कुछ नहीं है"--तो मैं कुछ कर दिखाना चाहता हूँ!

रामा--अरे कहो भी।

शर्व०--वह पीछे बताऊँगा। आज तुम महादेवी के बंदीगृह में न जाना, समझी न? [ ६९ ]रामा--(उत्सुकता से) क्यों?

शर्व०--सोना लेना हो, मान लेना हो, तो ऐसा ही करना; क्योंकि आज वहाँ जो कांड होगा, तुम उसे देख न सकोगी। तुम अभी इसी स्थान से लौट जाओ!

रामा--(डरती हुई) क्या करोगे? तुम पिशाच की दुष्कामना से भी भयानक दिखाई देते हो! तुम क्या करोगे? बोलो।

शर्व०--(मद्यपान करता हुआ) हत्या! थोड़ी-सी मदिरा दे, शीघ्र दे, नहीं तो छुरा भोंक दूँगा। ओह, मेरा नशा उखड़ा जा रहा है।

रामा--आज तुम्हें क्या हो गया है! मेरे स्वामी! मेरे......

शर्व०--अभी मैं तेरा कुछ नहीं हूँ। सोना मिलने से हो जाऊँगा, इसीका उद्योग कर रहा हूँ।

(इधर-उधर देखकर, बगल से सुराही निकालकर पीता है)

रामा--ओह! मैं समझ गई! तूने बेच दिया--पिशाच के हाथ तूने अपने को बेच दिया। अहा! ऐसा सुन्दर, ऐसा मनुष्योचित मन, कौड़ी के मोल बेच दिया। लोभ-वश मनुष्य से पशु हो गया है। रक्त-पिपासु! क्रूरकर्म्मा मनुष्य! कृतघ्नता की कीच का कीड़ा! नरक की दुर्गंध! तेरी इच्छा कदापि पूर्ण न होने दूँगी। मेरे रक्त के प्रत्येक परमाणु में जिसकी कृपा की शक्ति है, जिसके स्नेह का आकर्षण है, उसके प्रतिकूल आचरण! वह मेरा पति तो क्या, स्वयं ईश्वर भी हो, नहीं करने पावेगा।

शर्व०--क्या तू--ओ--तूँ... [ ७० ]

रामा--हाँ-हाँ, मैं न होने दूँगी। मुझे ही मार ले हत्यारे! मद्यप! तेरी रक्त-पिपासा शान्त हो जाय। परन्तु महादेवी पर हाथ लगाया तो मैं पिशाचिनी-सी प्रलय की काली आँधी बनकर कुचक्रियों के जीवन की काली राख अपने शरीर में लपेटकर तांडव नृत्य करूँगी! मान जा, इसी में तेरा भला है।

शर्व०--अच्छा, तू इसमें विघ्न डालेगी। तू तो क्या, विघ्नों का पहाड़ भी होगा तो ठोकरों से हटा दिया जायगा। मुझे सोना और सम्मान मिलने में कौन बाधा देगा?

रामा--मैं दूँगी। सोना मैं नहीं चाहती, मान मैं नहीं चाहती, मुझे अपना स्वामी अपने उसी मनुष्य-रूप में चाहिये। ( पैर पड़ती है ) स्वामी! हिंस्र पशु भी जिनसे पाले जाते हैं, उनपर चोट नहीं करते; अरे तुम तो मस्तिष्क रखनेवाले मनुष्य हो।

शर्व०--( ठुकरा देता है ) जा, तू हट जा, नहीं तो मुझे एक के स्थान पर दो हत्याएँ करनी पड़ेंगी! मै प्रतिश्रुत हूँ, वचन दे चुका हूँ!

रामा--( प्रार्थना करती हुई ) तुम्हारा यह झूठा सत्य है। ऐसी प्रतिज्ञाओं का पालन सत्य नहीं कहा जा सकता; ऐसे धोखे के सत्य लेकर ही संसार में पाप और असत्य बढ़ते हैं। स्वामी! मान जाओ।

शर्व०--ओह, विलंब होता है, तो पहले तू ही ले--


( पकड़ना और मारना चाहता है; रामा शीघ्रता से हाथ छुड़ाकर भाग जाती है। ) [ ७१ ]

(अनंतदेवी, प्रपंचबुद्धि और भटार्क का प्रवेश)

भटार्क--शर्व!

शर्व०--जय हो! मै प्रस्तुत हूँ; परंतु मेरी स्त्री इसमें बाधा डालना चाहती है। मैं पहले उसीको पकड़ना चाहता था, परंतु वह भगी।

अनंतदेवी--सौगन्द है! यदि तू विश्वासघात करेगा तो कुत्तों से नुचवा दिया जायगा।

प्रपंच०--शर्व! तुम तो स्त्री नहीं हो।

शर्व०--नहीं, मैं प्रतिश्रुत हूँ। परंतु......

भटार्क--तुम्हारी पद-वृद्धि और पुरस्कार का प्रमाण-पत्र यह प्रस्तुत है। ( दिखाता है ) काम हो जाने पर---

शर्व०--तब शीघ्र चलिये, दुष्टा रामा भीतर पहुँच गई होगी।

[सब जाते हैं]

[ ७२ ]

[ बंदीगृह में देवकी और रामा ]

रामा--महादेवी! मैं लज्जा के गर्त में डूब रही हूँ। मुझे कृतज्ञता और सेवा-धर्म्म धिक्कार दे रहे हैं। मेरा स्वामी......

देवकी--शांत हो रामा! बुरे दिन कहते किसे हैं? जब स्वजन लोग अपने शील-शिष्टाचार का पालन करें--आत्मसमर्पण, सहानुभूति, सत्पथ का अवलम्बन करें, तो दुर्दिन का साहस नहीं कि उस कुटुम्ब की ओर आँख उठाकर देखे। इसलिये इस कठोर समय में भगवान की स्निग्ध करुणा का शीतल ध्यान कर।

रामा--महादेवी! परन्तु आपकी क्या दशा होगी?

देवकी--मेरी दशा? मेरी लाज का बोझ उसीपर है, जिसने वचन दिया है, जिस विपद्-भंजन की असीम दया अपना स्निग्ध अञ्चल सब दुखियों के आँसू पोंछने के लिये सदैव हाथ में लिए रहती है।

रामा--परन्तु उसने पिशाच का प्रतिनिधित्व ग्रहण किया है, और...

देवकी--न घबरा रामा! एक पिशाच नहीं, नरक के असंख्य दुर्दान्त प्रेत और क्रूर पिशाचों का त्रास और उनकी ज्वाला दयामय की कृपादृष्टि के एक बिन्दु से शान्त होती है।

(नेपथ्य से गाना)

पालना बनें प्रलय की लहरें

शीतल हो ज्वाला की आँधी

करुणा के घन छहरें [ ७३ ]

दया दुलार में पल भर भी

विपदा पास न ठहरे

प्रभु का हो विश्वास सत्य तो

सुख का केतन फहरे

(भटार्क आदि के साथ अनंतदेवी का प्रवेश)

अनंत०--परन्तु व्यंग की विषज्वाला रक्त-धारा से भी नहीं बुझती देवकी! तुम मरने के लिये प्रस्तुत हो जाओ।

देवकी--क्या तुम मेरी हत्या करोगी?

प्रपंचबुद्धि--हाँ। सद्धर्म्म का विरोधी, हिमालय की निर्जन ऊँची चोटी तथा अगाध समुद्र के अंतस्तल में भी, नहीं बचने पावेगा; और उस महाबलिदान का आरम्भ तुम्ही से होगा। शर्व! आगे बढ़ो।

रामा--एक शर्व नहीं, तुम्हारे-जैसे सैकड़ों पिशाच भी यदि जुटकर आवें, तो आज महादेवी का अंगस्पर्श कोई न कर सकेगा।

(छुरी निकालती है)

शर्व--मैं तेरा स्वामी हूँ रामा! क्या तू मेरी हत्या करेगी?

रामा--ओह! बड़ी धर्म्मबुद्धि जगी है पिशाच को, और यह महादेवी तेरी कौन है?

शर्व०--फिर भी मैं तेरा......

रामा--स्वामी? नहीं-नहीं, तू मेरे स्वामी की नरक-निवासिनी प्रेतात्मा है। तेरी हत्या कैसी--तू तो कभी का मर चुका है।

देवकी--शांत हो रामा! देवकी अपने रक्त के बदले और
[ ७४ ]
किसीका रक्त नहीं गिराना चाहती। चल रे रक्त के प्यासे कुत्ते! चल, अपना काम कर।

(शर्व आगे बढ़ता है)

अनंतदेवी--क्यों देवकी! राजसिंहासन लेने की स्पर्धा क्या हुई?

देवकी--परमात्मा की कृपा है कि मैं स्वामी के रक्त से कलुषित सिंहासन पर न बैठ सकी।

भटार्क--भगवान का स्मरण कर लो।

देवकी--मेरे अंतर की करुण कामना एक थी कि 'स्कंद' को देख लूँ। परन्तु तुम लोगों से, हत्यारों से, मैं उसके लिये भी प्रार्थना न करूँगी। प्रार्थना उसी विश्वम्भर के श्रीचरणों में हैं; जो अपनी अनंत दया का अभेद्य कवच पहनाकर मेरे स्कन्द को सदैव सुरक्षित रक्खेगा।

शर्व--अच्छा तो ( खड्ग उठाता है, रामा सामने आकर खड़ी हो जाती है ) हट जा अभागिनी!

रामा--मूर्ख! अभागा कौन है? जो संसार के सबसे पवित्र धर्म्म कृतज्ञता को भूल जाता है, और भूल जाता है कि सबके ऊपर एक अटल अदृष्ट का नियामक सर्वशक्तिमान् है; वह या मैं?

शर्व०--कहता हूँ कि अपनी लोथ मुझे पैरों से न ठुकराने दे!

रामा--टुकड़े का लोभी! तू सती का अपमान करे, यह तेरी स्पर्धा? तू कीड़ो से भी तुच्छ है। पहले मैं मरूँगी, तब महादेवी। [ ७५ ]

अनन्त०--( क्रोध से ) तो पहले इसीका अंत करो शर्व। शीघ्रता करो।

शर्व०–अच्छा तो वही होगा। ( प्रहार करने पर उद्यत होता है )

( किवाड़ तोड़कर स्कंद भीतर घुस आता है--पीछे मुद्गल और धातुसेन। आते ही शर्वनाग की गर्दन दबाकर तलवार छीन लेता है। )

स्कंद०--( भटार्क से ) क्यों रे नीच पशु! तेरी क्या इच्छा है?

भटार्क--राजकुमार! वीर के प्रति उचित व्यवहार होना चाहिये।

स्कंद--तू वीर है? अर्द्धरात्रि में निस्सहाय अबला महादेवी की हत्या के उद्देश से घुसनेवाला चोर ! तुझे भी वीरता का अभिमान है? तो द्वंद्वयुद्ध के लिये आमंत्रित करता हूँ-बचा अपनेको!

( भटार्क दो-एक हाथ चलाकर घायल होकर गिरता है । )

स्कंद०–मेरी सौतेली माँ ! तुम..?

अनंत०---स्कंद ! फिर भी मै तुम्हारे पिता की पत्नी हैं। | ( घुटनों के बल बैठकर हाथ जोड़ती हुई)

स्कंद०--अनंतदेवी! कुसुमपुर में पुरगुप्त को लेकर चुपचाप बैठी रहो। जाओ मैं स्त्री पर हाथ नहीं उठाता, परन्तु सावधान! विद्रोह की इच्छा न करना, नहीं तो क्षमा असम्भव है।

"अहा! मेरी माँ!"

देवकी--( आलिंगन करके ) आओ मेरे वत्स! [ ७६ ]
[ अवन्ती-दुर्ग का एक भाग; बंधुवर्मा, भीमवम और जयमाला का प्रवेश ]

बंधुवर्म्मा--वत्स भीम! बोलो, तुम्हारी क्या सम्मति है?

भीम०--तात! आपकी इच्छा; मैं आपका अनुचर हूँ।

जयमाला--परन्तु इसकी आवश्यकता ही क्या है? उनका इतना बड़ा साम्राज्य है, तब भी क्यों मालव ही के बिना काम न चलेगा ?

बंधु०--देवी! केवल स्वार्थ देखने का अवसर नहीं है। यह ठीक है कि शकों के पतन-काल में पुष्करणाधिपति स्वर्गीय महाराज सिंहवर्म्मा ने एक स्वतंत्र राज्य स्थापित किया, और उनके वंशधर ही उस राज्य के स्वत्वाधिकारी हैं; परन्तु उस राज्य का ध्वंस हो चुका था, म्लेच्छो की सम्मिलित वाहिनी उसे धूल में मिला चुकी थी; उस समय तुम लोगो को केवल आत्म-हत्या का ही अवलम्ब निःशेष था, तब इन्हीं स्कंदगुप्त ने रक्षा की थी। यह राज्य अब न्याय से उन्हीं का है।

भीम०--परन्तु क्या वे माँगते है? बंधु०--नहीं भीम! युवराज स्कंदगुप्त ऐसे क्षुद्र हृदय के नहीं; उन्होंने पुरगुप्त को इस जघन्य अपराध पर भी मगध का शासक बना दिया है। वह तो सिंहासन भी नहीं लेना चाहते।

जयमाला--परन्तु तुम्हारा मालव उन्हे प्रिय है!

बंधु०-देवी, तुम नहीं देखती हो कि आर्य्यावर्त्त पर विपत्ति की प्रलय-मेघवमाला घिर रही है; आर्य्य साम्राज्य के अन्तर्विरोध और दुर्बलता को आक्रमणकारी भलीभांति जान गये हैं । शीघ्र ही देशव्यापी युद्ध की संभावना है। इसलिये यह [ ७७ ]
मेरी ही सम्मति है कि साम्राज्य को सुव्यवस्था के लिये, आर्य्य-राष्ट्र के त्राण के लिये, युवराज उज्जयिनी में रहें। इसमें सबका कल्याण है। आर्य्यावर्त्त का जीवन केवल स्कंदगुप्त के कल्याण से है। और, उज्जयिनी मे साम्राज्याभिषेक का अनुष्ठान होगा, सम्राट होंगे स्कंदगुप्त।

जयमाला--आर्य्यापुत्र! अपना पैतृक राज्य इस प्रकार दूसरों के पदतल में निस्संकोच अर्पित करते हुए हृदय काँपता नहीं है? क्या फिर उन्हीं की सेवा करते हुए दास के समान जीवन व्यतीत करना होगा?

बंधु०--( सिर झुकाकर सोचते हुए ) तुम कृतघ्नता का समर्थन करोगी, वैभव और ऐश्वर्य्य के लिये ऐसा कदर्य्य प्रस्ताव करोगी, इसका मुझे स्वप्न में भी ध्यान न था!

जयमाला--यदि होता?

बंधु०--तब मैं इस कुटुम्ब की कमनीय कल्पना को दूर ही से नमस्कार करता और आजीवन अविवाहित रहता। क्षत्रिये! जो केवल खड्ग का अवलंब रखनेवाले है--सैनिक है, उन्हें विलास की सामग्रियों का लोभ नही रहता। सिंहासन पर, मुलायम गद्दों पर लेटने के लिये या अकर्म्मण्यता और शरीर पोषण के लिये क्षत्रियों ने लोहे को अपना आभूषण नहीं बनाया है।

भीम०--भइया! तब?

बंधु-भीम! क्षत्रियों का कर्तव्य है-आर्त्त-त्राण-परायण होना, विपद का हँसते हुए आलिंगन करना, विभीषि[ ७८ ]
काओं की मुसक्या कर अवहेला करना, और--और विपन्नों के लिये, अपने धर्म्म के लिये, देश के लिये प्राण देना!

( देवसेना का सहसा प्रवेश )

देवसेना--भाभी! सर्वात्मा के स्वर में, आत्म-समर्पण के प्रत्येक ताल में, अपने विशिष्ट व्यक्तित्व का विस्मृत हो जाना--एक मनोहर संगीत है। क्षुद्र स्वार्थ, भाभी, जाने दो; भइया को देखो--कैसा उदार, कैसा महान् और कितना-पवित्र!

जयमाला--देवसेना! समष्टि में भी व्यष्टि रहता है। व्यक्तियो से ही जाति बनती है। विश्व प्रेम, सर्वभूत-हित-कामना परम धर्म है; परन्तु इसको अर्थ यह नहीं हो सकता कि अपने पर प्रेम न हो। इस अपने ने क्या अन्याय किया है जो इसका बहिष्कार हो?

बंधु०--ठहरो जयमाला! इसी क्षुद्र ममत्व ने हमको दुष्ट भावना की ओर प्रेरित किया है, इसीसे हम स्वार्थ का समर्थन करते हैं। इसे छोड़ दो जयमाला! इसके वशीभूत होकर हस अत्यन्त पवित्र वस्तुओं से बहुत दूर होते जाते हैं। बलिदान करने के योग्य वह नहीं, जिसने अपना आपा नहीं खोया।

भीम--भाभी! अब तक न करो। समस्त देश के कल्याण के लिये--एक कुटुम्ब की भी नहीं, उसके क्षुद्र स्वार्थों की बलि होने दो। भाभी! हृदय नाच उठा है, जाने दो इस नीच प्रस्ताव को। देखो--हमारा आर्य्यावर्त्त विपन्न है, यदि हम मर-मिटकर भी इसकी कुछ सेवा कर सकें•••••• [ ७९ ]
जयमाला--जब सभी लोगों की ऐसी इच्छा है, तब मुझे क्या।

बंधु०--तब मालवेश्वरी की जय हो! तुम्ही इस सिहासन पर बैठो। बंधुवर्मा तो आज से आर्य्य-साम्राज्य-सेना का एक साधारण पदातिक सैनिक है। तुम्हें तुम्हारा ऐश्वर्य सुखद हो।

( जाना चाहता है )

भीम०--ठहरो भइया, हम भी चलते है।

चक्रपालित--( प्रवेश करके )--धन्य वीर! तुमने क्षत्रिय का सिर ऊँचा किया है। बंधुवर्मा! आज तुम महान् हो, हम तुम्हारा अभिनन्दन करते हैं। रण में, वन में, विपत्ति में, आनन्द में, हम सब समभागी होगे। धन्य तुम्हारी जननी जिसने आर्य्यराष्ट्र का ऐसा शूर सैनिक उत्पन्न किया|

बंधु०--स्वागत चक्र! मालवेश्वरी की जय हो! अब हम सब सैनिक जाते हैं!

चक्र०--ठहरो बंधु! एक सुखद समाचार सुन लो। पिताजी का अभी-अभी पत्र आया है कि सौराष्ट्र के शकों को निर्मूल करके परम भट्टारक मालव के लिये प्रस्थान कर चुके है।

बंधु०--संभवतः महाराजपुत्र उत्तरापथ की सीमा की रक्षा करेंगे।

चक्र०--हाँ बंधु!

देवसेना--चलो भाई, मै भी तुम लोगों की सेवा करूँगी। [ ८० ]

जयमाला--( घुटने टेककर ) मालवेश्वर की जय हो! प्रजा ने अपराध किया है, दंड दीजिये। पतिदेव! आपकी दासी क्षमा माँगती है। मेरी आँखें खुल गईं। आज हमने जो राज्य पाया है, वह विश्व-साम्राज्य से भी ऊँचा है-महान् है। मेरे स्वामी और ऐसे महान्! धन्य हूँ मैं••••••

[बंधुवर्मा सिर पर हाथ रखता है]

[ ८१ ]

[पथ में भटार्क और उसकी माता]

कमला-- तू मेरा पुत्र है कि नहीं?

भटार्क–-- माँ! संसार में इतना ही तो स्थिर सत्य है, और मुझे इतने ही पर विश्वास है। संसार के समस्त लांछनों का मैं तिरस्कार करता हूँ, किस लिये? केवल इसीलिये कि तू मेरी माँ है, और वह जीवित है।

कमला-- और मुझे इसका दुःख है कि मैं मर क्यों न गई; मैं क्यों अपने कलङ्क-पूर्ण जीवन को पालती रही। भटार्क! तेरी माँ को एक ही आशा थी कि पुत्र देश का सेवक होगा, म्लेच्छों से पददलित भारतभूमि का उद्धार करके मेरा कलङ्क धो डालेगा; मेरा सिर ऊँचा होगा। परंतु हाय!

भटार्क-- माँ ! तो तुम्हारी आशाओं के मैने विफल किया? क्या मेरी खड्गलता आग के फूल नहीं बरसाती? क्या मेरे रण-नाद वज्र-ध्वनि के समान शत्रु के कलेजे नहीं कँपा देते? क्या तेरे भटार्क का लोहा भारत के क्षत्रिय नहीं मानते?

कमला-- मानते हैं, इसीसे तो और ग्लानि है।

भटार्क-- घर लौट चलो माँ! ग्लानि क्यों है?

कमला-- इसलिये कि तू देशद्रोही है। तू राजकुल की शांति का प्रलय-मेघ बन गया, और तू साम्राज्य के कुचक्रियों में से एक है। ओह! नीच! कृतघ्न!! कमला कलङ्किनी हो सकती है, परंतु यह नीचता, कृतघ्नता, उसके रक्त मे नही। (रोती है)

(विजया का प्रवेश)

विजया-- माता! तुम क्या रो रही हो? (भटार्क की ओर देख[ ८२ ]
कर) और यह कौन है? क्यों जी! तुमने इस वृद्धा को क्यों अपमान किया है?

कमला-- देवी! यह मेरा पुत्र था।

विजया-- था! क्या अब नहीं?

कमला-- नहीं, इसने महाबलाधिकृत होने की लालच में अपने हाथ-पैर पाप-श्रृंखला में जकड़ दिये; अब फिर भी उज्जयिनी में आया है-- किसी षड्यन्त्र के लिये!

विजया-- कौन, तुम महाबलाधिकृत भटार्क हो? और तुम्हारी माता की यह दीन दशा!

कमला-- ना बेटी! उससे कुछ मत कहो, मैं स्वयं इसका ऐश्वर्य्य त्यागकर चली आई हूँ। महाकाल के मंदिर में भिक्षाग्रहण करके इसी उज्जयिनी में पड़ी रहूँगी, परंतु इससे•••

भटार्क-- माँ! अब और न लज्जित करो। चलो--घर चलूँ।

विजया-- (स्वगत) अहा! कैसी वीरत्व-व्यंजक मनोहर मूर्ति है। और गुप्त-साम्राज्य का महाबलाधिकृत!

कमला-- इस पिशाच ने छलना के लिये रूप बदला है। सम्राट का अभिषेक होनेवाला है, यह उसीसे कोई प्रपञ्च रचने आया है। मेरी कोई न सुनेगा, नहीं तो मैं स्वयं इसे दंडनायक को समर्पित कर देती।

(सहसा मातृगुप्त, मुद्गल और गोविन्दगुप्त का प्रवेश)

""कौन! भटार्क? अरे यहाँ भी!!” [ ८३ ]

(भटार्क तलवार निकालता है, गोविन्दगुप्त उसके हाथ से तलवार छीन लेते हैं।)

मुद्गल--महाराजपुत्र गोविन्दगुप्त की जय!

गोविन्द०--कृतघ्न! वीरता उन्माद नहीं है, आँधी नहीं है, जो उचित-अनुचित का विचार न करती हो। केवल शस्त्र-बल पर टिकी हुई वीरता बिना पैर की होती है। उसकी दृढ़ भित्ति है--न्याय। तू उसे कुचलने पर सिर ऊँचा उठाकर नहीं रह सकता है। मातृगुप्त! बन्दी करो इसे।

"और तुम कौन हो भद्रे?"

कमला--मैं इस कृतघ्न की माता हूँ। अच्छा हुआ, मैं तो स्वयं यही विचार करती थी।

गोविन्द॰--यह तो मैंने अपने कानों से सुना। धन्य हो देवी! तुम-जैसी जननियाँ जब तक उत्पन्न होंगी, तब तक आर्य्य-राष्ट्र का विनाश असम्भव है।

"और यह युवती कौन है?"

कमला--मुझे सहायता देतो थी, कोई अभिजात कुल की कन्या है। इसका कोई अपराध नहीं।

मुद्गल--अरे राम! यह भी अवश्य कोई भयानक स्त्री होगी!

मातृगुप्त--परंतु यह अपना कोई परिचय भी नहीं दे रही है!

विजया--मैं अपराधिनी हूँ; मुझे भी बंदी करो।

भटार्क--यह क्यों, इस युवती से तो मैं परिचित भी नहीं हूँ; इसका कोई अपराध नहीं। [ ८४ ]

विजया--(स्वगत) ओह! इस आनंद-महोत्सव में मुझे कौन पूछता है, मै मालव में अब किस काम की हूँ! जिसके भाई ने समस्त राज्य अर्पण कर दिया है--वह देवसेना और कहाँ मैं! तब तो मेरा यही...(भटार्क की ओर देखती है)

गोविन्द०--भद्रे! तुम अपना स्पष्ट परिचय दो।

विजया--मैं अपराधिनी हूँ।

मातृगुप्त--परंतु तुम्हारा और भी कोई परिचय है?

विजया--यही कि मै बन्दी होने की अभिलाषिनी हूँ।

कमला--वत्से! तुम अकारण क्यों दुःख उठाती हो?

विजया--मेरी इच्छा। मुझे बंदी कीजिये। मैं अपना परिचय न्यायाधिकरण में दूँगी। यहाँ मै कुछ न कहूँगी। मेरा यहाँ अपमान किया जायगा तो आर्य्यराष्ट्र के नाम पर मैं तुम लोगों पर अभियोग लगाऊँगी।

गोविंद०--क्यों भटार्क! यदि तुम्हीं कुछ कहते--

भटार्क--मैं कुछ नही जानता कि यह कौन है। मुझे भी विलम्ब हो रहा है, शीघ्र न्यायाधिकरण में ले चलिये।

मुद्गल--और वृद्धा कमला?

गोविन्द०--वह बंदी नहीं है, परंतु एक बार स्कंद के समक्ष उसे चलना होगा ।

मातृगुप्त--तो फिर सब चलें, अभिषेक का समय भी समीप है।

[ सब जाते हैं ]

[ ८५ ]

[ राजसभा ]

(बंधुवर्मा, भीमवर्म्मा, मातृगुप्त तथा मुद्गल के साथ स्कंदगुप्त का एक ओर से और दूसरी ओर से गोविंदगुप्त का प्रवेश।)

स्कन्द०--(बीच में खड़ा होकर) तात! कहाँ थे? इस बालक पर अकारण क्रोध करके कहाँ छिपे थे?

( चरण-वंदन करता है )

गोविन्द०--उठो वत्स! आर्य्य चन्द्रगुप्त की अनुपम प्रतिकृति! गुप्तकुल-तिलक! भाई से मैं रूठ गया था, परन्तु तुमसे कदापि नहीं; तुम मेरो आत्मा हो वत्स! ( आलिङ्गन करता है। अनुचरियों के साथ देवकी का प्रवेश, स्कंद देवकी का चरणवन्दन करता है। )

देवकी--वत्स! चिरविजयी हो! देवता तुम्हारे रक्षक हों। महाराजपुत्र! इसे आशीर्वाद दीजिये कि गुप्तकुल के गुरुजनों के प्रति यह सदैव विनयशील रहे।

गोविन्द०--महादेवी! तुम्हारी कोख से पैदा हुआ यह रत्न, यह गुप्तकुल के अभिमान का चिन्ह, सदैव यशोभिमंडित रहेगा!

स्कन्द०--( बंधुवर्म्मा से ) मित्र मालवेश! बढ़ो, सिंहासन पर बैठो! हम लोग तुम्हारा अभिनंदन करें।

( जयमाला और देवसेना का प्रवेश )

जयमाला--देव ! यह सिंहासन आपका है, मालवेश का इसपर कोई अधिकार नहीं। आर्य्यावर्त्त के सम्राट् के अतिरिक्त अब दूसरा कोई मालव के सिंहासन पर नहीं बैठ सकता। [ ८६ ]

("मालव की जय हो!"--तुमुल ध्वनि)

बंधुवर्म्मा-- (हँसकर) सम्राट्! अब तो मालवेश्वरी ने स्वयं सिंहासन त्याग दिया है, और मैं उन्हें दे चुका था, इसलिये अब सिंहासन ग्रहण करने में विलम्ब न कीजिये।

गोविन्द०-- वत्स! इन आर्य्य-जाति के रत्नों की कौन-सी प्रशंसा करूँ। इनका स्वार्थ-त्याग दधीचि के दान से कम नहीं। बढ़ो वत्स! सिंहासन पर बैठो, मैं तुम्हारा तिलक करूँ।

स्कंद॰-- तात! विपत्तियों के बादल घिर रहे हैं; अन्तर्विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित है; इस समय मैं केवल एक सैनिक बन सकूँगा, सम्राट नहीं।

गोविन्दगुप्त-- आज आर्य्य-जाति का प्रत्येक बच्चा सैनिक है, सैनिक छोड़कर और कुछ नहीं । आर्य्य-कन्याएँ अपहरण की जाती हैं; हूणों के विकट तांडव से पवित्र भूमि पादाक्रांत है; कहीं देवता की पूजा नहीं होती; सीमा की बर्बर जातियो की राक्षसी वृत्ति का प्रचंड पाखंड फैला है। इसी समय जाति तुम्हें पुकारती है--सम्राट होने के लिये नहीं, उद्धार युद्ध में सेनानी बनने के लिये--सम्राट्!

(गोविन्दगुप्त और बन्धुवर्म्मा हाथ पकड़कर स्कन्दगुप्त को सिंहासन पर बैठाते है। भीम छत्र लेकर बैठता है । देवसेना चमर करती है। गरुड़ध्वज लेकर बंधुवर्म्मा खड़े होते हैं। देवकी राजतिलक करती है। गोविन्दगुप्त खड्ग का उपहार देते हैं। चक्र गरुड़ांक राजदण्ड देता है।)

गोविन्दगुप्त-- परम भट्टारक महाराजाधिराज स्कंदगुप्त की जय हो! [ ८७ ]सब-- (समवेत स्वर से) जय हो!

बन्धु०-- आर्य-साम्राज्य के महाबलाधिकृत महाराजपुत्र गोविन्दगुप्त की जय हो! ( सब वैसा ही कहते हैं)

स्कंदु०--आर्य्य! इस गुरुभार उत्तरदायित्व का सत्य से पालन कर सकूँ, और आर्य्यराष्ट्र की रक्षा में सर्वस्व-अर्पण कर सकूँ, आप लोग इसके लिये भगवान से प्रार्थना कीजिये और आशीर्वाद दीजिये कि स्कंदगुप्त अपने कर्त्तव्य से, स्वदेशसेवा से, कभी विचलित न हो।

गोविन्द०-- सम्राट्! परमात्मा की असीम अनुकम्पा से आपका उद्देश सफल हो। आज गोविन्द ने अपना कर्तव्य-पालन किया। वत्स बंधुवर्म्मा! तुम इस नवीन आर्य्यराष्ट्र के संस्थापक हो। तुम्हारे इस आत्मत्याग की गौरव-गाथा आर्य्य-जाति का मुख उज्ज्वल करेगी। वीर! इस वृद्ध में साम्राज्य के महाबलाधिकृत होने की क्षमता नहीं, तुम्हीं इसके उपयुक्त हो।

बंधु०-- अभी नही आर्य्य! आपके चरणों में बैठकर यह बालक स्वदेश-सेवा की शिक्षा ग्रहण करेगा। मालव का राजकुटुम्ब, एक-एक बच्चा, आर्य्य-जाति के कल्याण के लिये जीवन उत्सर्ग करने को प्रस्तुत है। आप जो आज्ञा देंगे, वही होगा।

"धन्य! धन्य!”

स्कंद०-- तात! पर्णदत्त इस समय नहीं हैं!

चक्र०-- सम्राट्! वह सौराष्ट्र की चञ्चल राष्ट्रनीति की देखरेख में लगे हैं।

(कुमारदास का प्रवेश)

मातृगुप्त-- सिहल के युवराज कुमार धातुसेन की जय हो! [ ८८ ]

(सब आश्चर्यं से देखते हैं)

स्कंद०-- कुमारदास, सिहल के युवराज?

मातृगुप्त-- हाँ महाराजाधिराज!

स्कंद०-- अद्भुत! वीर युवराज! तुम्हारा स्नेह क्या कभी भूल सकता हूँ? आओ, स्वागत!

(सब मंच पर बैठते हैं)

गोविन्द०-- बन्दियों को ले आओ।

(सैनिकों के साथ भटार्क, शर्वनाग, विजया तथा कमला का प्रवेश)

स्कंद-- क्यों शर्व! तुम क्या चाहते हो?

शर्व०-- सम्राट्! मुझे वध की आज्ञा दीजिये, ऐसे नीचे के लिये और कोई दंड नहीं है।

स्कंद॰-- नहीं, मैं तुम्हें इससे भी कड़ा दंड दूँगा, जो वध से भी उग्र होगा।

शर्व०-- वही हो सम्राट्! जितनी यंत्रणा से यह पापी प्राण निकाला जाय, उतना ही उत्तम होगा।

स्कंद॰-- परन्तु मैं तुम्हे मुक्त करता हूँ, क्षमा करता हूँ। तुम्हारे अपराध ही तुम्हारे मर्मस्थल पर सैकड़ों बिच्छुओं के डंक की चोट करेंगे। आजीवन तुम उसी यंत्रणा को भोगो, क्योकि रामा--साध्वी रामा--को मैं अपनी आज्ञा से विधवा न बनाऊँगा। रामा सती! तेरे पुण्य से आज तेरा पति मृत्यु से बचा!

(रामा सम्राट् का पैर पकड़ती है)

शर्व०-- दुहाई सम्राट् की! मुझे वध की आज्ञा दीजिये, नहीं [ ८९ ]
तो आत्महत्या करूंगा। ऐसे देवता के प्रति मैंने दुराचरण किया था। ओह! ( छुरी निकालना चाहता है)

स्कंद०-- ठहरो शर्व! मैं तुम्हें आजीवन बन्दी बनाऊँगा।

(रामा आश्चर्य और दुःख से देखती है)

स्कंद०-- शर्व! यहाँ आओ।

(शर्व समीप आता है)

देवकी-- वत्स! इसे किसी विषय का शासक बनाकर भेजो, जिसमें दुखिया रामा को किसी प्रकार का कष्ट न हो।

सब-- महादेवी की जय हो!

स्कंद०-- शर्व! तुम आज से अन्तर्वेद के विषयपति नियत किये गये। यह लो--(खड्ग देता है)

शर्व-- (रूद्ध कंठ से) सम्राट्! देवता! आपकी जय हो! (देवकी के पैर पर गिरकर) माँ ! मुझे क्षमा करो, मैं मनुष्य से पशु हो गया था! अब तुम्हारी ही दया से मैं मनुष्य हुआ। आशीर्वाद दो जगद्धात्री कि मैं देव-चरणों में आत्मबलि देकर जीवन सफल करूँ!

देवकी-- उठो। क्षमा पर मनुष्य का अधिकार है, वह पशु के पास नहीं मिलती। प्रतिहिंसा पाशव धर्म है। उठो, मैं तुम्हें क्षमा करती हूँ।

( शर्व खड़ा होता है)

स्कंद०-- भटार्क! तुम इस गुप्त-साम्राज्य के महाबलाधिकृत नियत किये गये थे, और तुम्हीं साम्राज्य-लक्ष्मी महादेवी की [ ९० ]
हत्या के कुचक्र में सम्मिलित हो! यह तुम्हारा अक्षम्य अपराध है। भटार्क०-- मैं केवल राजमाता की आज्ञा का पालन करता था

देवकी-- क्यों भटार्क! तुम यह उत्तर सच्चे हृदय से देते हो? क्या ऐसा कहकर तुम स्वयं अपनेको धोखा देते हुए औरों को भी प्रत नहीं कर रहे हो?

भटार्क-- अपराध हुआ। (सिर नीचा कर लेता है)

स्कन्द०-- तुम्हारे खड्ग पर साम्राज्य को भरोसा था। तुम्हारे हृदय पर तुम्हीं को भरोसा न रहे, यह बड़े धिक्कार की बात है। तुम्हारा इतना पतन? (भटार्क स्तब्ध रहता है। विजया की ओर देखकर) और तुम विजया? तुम क्यों इसमें--

देवसेना-- सम्राट्! विजया मेरी सखी है।

विजया-- परंतु मैंने भटार्क को वरण किया है।

जयमाला-- विजया!

विजया-- कर चुकी देवी!

देवसेना-- उसके लिये दूसरा उपाय न था राजाधिराज! प्रतिहिंसा मनुष्य को इतना नीचे गिरा सकती है! परंतु विजया, तूने शीघ्रता की।

(स्कंद विजया की ओर देखते हुए विचार में पड़ जाता है)

गोविन्द०-- यह वृद्धा इसी कृतघ्न भटार्क की माता है। भटार्क के नीच कर्मों से दुखी होकर यह उज्जयिनी चली आई है।

स्कंद०-- परंतु विजया, तुमने यह क्या किया? [ ९१ ]

देवसेना--( स्वगत ) आह! जिसकी मुझे आशंका थी, वही है। विजया! आज तू हारकर भी जीत गई।

देवकी--वत्स! आज तुम्हारे शुभ महाभिषेक में एक बूंद भी रक्त न गिरे। तुम्हारी माता की भी यह मंगल-कामना है कि तुम्हारा शासन-दंड क्षमा के संकेत पर चला करे। आज मैं सबके लिये क्षमाप्रार्थिनी हूँ।

कुमारदास--आर्यनारी सती! तुम धन्य हो! इसी गौरव से तुम्हारे देश का सिर ऊँचा रहेगा।

स्कंद०--जैसी माता की इच्छा--

मातृगुप्त--परमेश्वर परम भट्टारक महाराजाधिराज स्कंदगुप्त की जय!!

[यवनिका]