कामायनी/स्वप्न

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(स्वप्न/कामायनी से अनुप्रेषित)
कामायनी  (1936)  द्वारा जयशंकर प्रसाद
स्वप्न
[ ७८ ]

संध्या अरुण जलज केसर ले अब तक मन थी बहलाती ,
मुरझा कर कब गिरा तामरस, उसको खोज कहाँ पाती !
क्षितिज भाल का कुंकुम मिटता मलिन कालिमा के कर से ,
कोकिल की काकली वृथा ही अब कलियों पर मँडराती ।

कामायनी-कुसुम वसुधा पर पड़ी, न वह मकरंद रहा ,
एक चित्र बस रेखाओं का, अब उसमें है रंग कहाँ !
वह प्रभात का हीन कला शशि—-किरन कहाँ चाँदनी रही ,
कह संध्या थी--रवि, शशि, तारा ये सब कोई नहीं जहाँ।

जहाँ तामरस इंदीवर या सित शतदल हैं मुरझाये--
अपने नालों पर, वह सरसी श्रद्धा थी, न मधुप आये ,
वह जलधर जिसमें चपला या श्यामलता का नाम नहीं ,
शिशिर-कला की क्षीण-स्रोत वह जो हिमतल में जम जाये।

एक मौन वेदना विजन की, झिल्ली की झनकार नहीं ,
जगती की अस्पष्ट-उपेक्षा, एक कसक साकार रही ।
हरित-कुंज की छाया भर--थी वसुधा-आलिंगन करती ,
वह छोटी सी विरह-नदी थी जिसका है अब पार नहीं ।

नील गगन में उड़ती-उड़ती विहग-बालिका सी किरन ,
स्वप्न-लोक को चलीं थकी सी नींद-सेज पर जा गिरने ।

[ ७९ ]

किन्तु, विरहिणी के जीवन में एक घड़ी विश्राम नहीं--
बिजली-सी स्मृति चमक उठी तब, लगे जभी तम-घन धिरने।

संध्या नील सरोरुह से जो इयाम पराग बिखरते थे,
शैल-घाटियों के अंचल को वे धीरे से भरते थे।
तृण-गुल्मों से रोमांचित नग सुनते उस दुःख की गाथा,
श्रद्धा की सूनी साँसों से मिल कर जो स्वर भरते थे--

"जीवन में सुख'अधिक या कि दुःख, मंदाकिनि कुछ बोलोगी?
नभ में नखत अधिक, सागर में या बुदबुद हैं, गिन दोगी?
प्रतिबिंबित हैं तारा तम में, सिंधु मिलन को जाती हो,
या दोनों प्रतिबिंब एक के इस रहस्य को खोलोगी!

इस अवकाश-पटी पर जितने चित्र बिगड़ते बनते हैं;
उनमें कितने रंग भरे जो सुरधनु पट से छनते हैं,
किन्तु सकल अणु पल में घुल कर व्यापक नील-शून्यता-सा,
जगती का आवरण वेदना का धूमिल-पट बुनते हैं।

दग्ध-श्वास से आह न निकले सजल कुहु में आज यहाँ!
कितना स्नेह जला कर जलता ऐसा है लघु-दीप कहाँ?
बुझ न जाय वह साँझ-किरन सी दीप-शिखा इस कुटिया की,
शलभ समीप नहीं तो अच्छा, सुखी अकेले जले यहाँ!

आज सुनें केवल चुप होकर, कोकिल जो चाहे कह ले,
पर न परागों की वैसी है चहल-पहल जो थी पहले।
इस पतझड़ की सूनी डाली और प्रतीक्षा की संध्या ,
कामायनि ! तू हृदय कड़ा कर धीरे-धीरे सब सह ले!

[ ८० ]

बिरल डालियों के निज सब ले दुःख के निश्वास रहे ;
उस स्मृति का समीर चलता है मिलन कथा फिर कौन कहे ?
आज विश्व अभिमानी जैसे रूठ रहा अपराध बिना ,
किन चरणों को धोयेंगे जो अश्रु पलक के पार बहे !

अरे मधुर हैं कष्ट पूर्ण भी जीवन की बीती घड़ियाँ--
जब निस्संबल होकर कोई जोड़ रहा बिखरी कड़ियाँ ।
वही एक जो सत्य बना था चिर-सुन्दरता में अपनी ,
छिपा कहीं, तब कैसे सुलझें उलझी सुख-दुःख की लड़ियाँ !

विस्मृत हों वे बीती बातें, अब जिनमें कुछ सार नहीं हैं ;
वह जलती छाती न रही अब वैसा शीतल प्यार नहीं !
सब अतीत में लीन हो चलीं, आशा, मधु-अभिलाषाएँ ;
प्रिय की निष्ठुर विजय हुई, पर यह तो मेरी हार नहीं !

वे आलिंगन एक पाश थे, स्मिति चपला थी, आज कहाँ ?
और मधुर विश्वास : अरे वह पागल मन का मोह रहा ,
वंचित जीवन बना समर्पण यह अभिमान अकिंचन का ;
कभी दे दिया था कुछ मैंने, ऐसा अब अनुमान रहा ।

विनिमय प्राणों का यह कितना भयसंकुल व्यापार अरे !
देना हो जितना दे दे तु, लेना ! कोई यह न करे !
परिवर्त्तन की तुच्छ प्रतीक्षा पूरी कभी न हो सकती,
संध्या रवि देकर पाती है इधर-उधर उडुगन बिखरे !

कुछ दिन जो हँसते आये अंतरिक्ष अरुणाचल से ,
फूलों की भरमार स्वरों का सृजन लिये कुहक बल से ।
फैल गयी जब स्मिति की माया, किरन-कली की क्रीड़ा से ,
चिर-प्रवास में चले गये वे आने को कह कर छल से!

[ ८१ ]

जब शिरीष की मधुर गंध से मान-भरी मधुऋतु रातें,
रूठ चली जातीं रक्तिम-मुख, न सह जागरण की घातें,
दिवस मधुर आलाप कथा-सा कहता छा जाता नभ में,
वे जगते-सपने अपने तब तारा बन कर मुसक्याते।

वन बालाओं के निकुंज सब भरे वेणु के मधु स्वर से,
लौट चुके थे आने वाले सुन पुकार अपने घर से,
किन्तु न आया वह परदेसी-०युग छिप गया प्रतीक्षा में ,
रजनी की भीगी पलकों से तुहिन बिन्दु कण कण बरसे !

मानस का स्मृति-शतदल खिलता,झरते बिदु मरंद घने,
मोती कठिन पारदर्शी ये, इनमें कितने चित्र बने!
आंसू सरल तरल विद्युत्कण, नयनालोक विरह तम में,
प्राण पथिक यह संबल लेकर लगा कल्पना-जग, रचने ।

अरुण जलज के शोण कोण थे नव तुषार के बिंदु भरे,
मुकुर चूर्ण बन रहे, प्रतिच्छवि कितनी साथ लिये बिखरे!
वह अनुराग हंसी दुलार की पंक्ति चली सोने तम में,
वर्षा-विरह-कुहू में जलते स्मृति के जुगुनू डरे-डरे।

सूने गिरि-पथ में गुंजारित शृंगनाद की ध्वनि चलती,
आकांक्षा लहरी दुःख-तटिनी पुलिन अंक में थी ढलती ।
जले दीप नभ के, अभिलाषा-शलभ उड़े, उस ओर चले,
भरा रह गया आंखों में जल, बुझी न वह ज्वाला जलती ।'

"माँ"--फिर एक किलक दूरागत, गूंज उठी कुटिया सूनी,
माँ उठ दौड़ी भरे हृदय में लेकर उत्कंठा दूनी

[ ८२ ]

लुटरी खुली अलक, रज-धूसर बाँहें आकर लिपट गयीं ,
निशा-ताप की जलने को धधक उठी बुझती धूनी !

"कहाँ रहा नटखट तू फिरता अब तक मेरा भाग्य बना !
अरे पिता के प्रतिनिधि : तूने भी सुख-दुःख तो दिया घना ,
चंचल तू, बनचर-मृग बन कर भरता है चौकड़ी कहीं
मैं डरती तू रूठ न जाये करती कैसे तुझे मना !"

"मैं रूठूं माँ और मना तू, कितनी अच्छी बात कही !
ले मैं सोता हूं अब जाकर, बोलूंगा मैं आज नहीं ,
पके फलों से पेट भरा है नींद नहीं खुलने वाली ।"
श्रद्धा चुंबन ले प्रसन्न कुछ-कुछ विषाद से भरी रही ।

जल उठते हैं लघु जीवन के मधुर-मधुर वे पल हलके ,
मुफ्त उदास गगन के उर में छाले बन कर जा झलके ।
दिवा-श्रांत-आलोक-रश्मियाँ नील-निलय में छिपीं कहीं ,
करुण वही स्वर फिर उस संसृति में बह जाता है गल के ।

प्रणय किरण का कोमल बंधन मुक्ति बना बढ़ता जाता ,
दूर, किंतु कितना प्रतिपल वह हृदय समीप हुआ जाता ।
मधुर चाँदनी-सी तंद्रा जब फैली मूर्च्छित मानस पर
तब अभिन्न प्रेमास्पद उसमें अपना चित्र बना जाता ।

कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना-सा देख रही ,
युग-युग की वह विकल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही-
जो कुसूमों के कोमल दल से कभी पवन पर अंकित था,
आज पपीहा की पुकार बन –नभ में खिंचती रेख रही ।

[ ८३ ]

इड़ा अग्नि-ज्वाला-सी आगे जलती है उल्लास भरी ,
मनु का पथ आलोकित करती विपद-नदी में बनी तरी ,
उन्नति का आरोहण, महिमा शैल-श्रृंग सी श्रांति नहीं ,
तीव्र प्रेरणा की धारा सी bही वहाँ उत्साह भरी ।

वह सुन्दर आलोक किरन सी हृदय भेदिनी दृष्टि लिये ,
जिधर देखती--खुल जाते हैं तम ने जो पथ बंद किये।
मनु की सतत सफलता की वह उदय विजयिनी तारा थी ;
आश्रय की भूखी जनता ने निज श्रम के उपहार दिये !

मनु का नगर बसा है सुन्दर सहयोगी हैं सभी बने ,
दृढ़ प्राचीरों में मन्दिर के द्वार दिखाई पड़े घने ,
वर्षा धूप शिशिर में छाया के साधन संपन्न हुए ,
खेतों में हैं कृषक चलाते हल प्रमुदित श्रम-स्वेद सने।

उधर धातु गलते बनते हैं आभूषण औ' अस्त्र नये ,
कहीं साहसी ले आते हैं मृगया के उपहार नये ,
पुष्पलावियाँ चुनती हैं वन-कुसुमों की अध-विकच कली ,
गंध चूर्ण था लोध्र कुसुम रज, जुटे नवीन प्रसाधन ये ।

घन के आघातों से होती जो प्रचंड ध्वनि रोष भरी ,
तो रमणी के मधुर कंठ से हृदय मूर्च्छना उधर ढरी ,
अपने वर्ग बना कर श्रम का करते सभी उपाय वहाँ ,
उनकी मिलित-प्रयत्न-प्रथा से पुर की श्री दिखती निखरी।

देश काल का लाघव करते वे प्राणी चंचल से हैं ,
सुख-साधन एकत्र कर रहे जो उनके संबल में हैं ,

[ ८४ ]

बढे़ ज्ञान-व्यवसाय, परिश्रम, बल की विस्मृत छाया में,
नर-प्रयत्न से ऊपर आवे जो कुछ वसुधा तल में है ।

सृष्टि-बीज अंकुरित, प्रफुल्लित, सफल हो रहा हरा भरा ,
प्रलय बीच भी रक्षित मनु से वह फैला उत्साह भरा ,
आज स्वचेतन-प्राणी अपनी कुशल कल्पनाएँ करके ,
स्वावलंब की दृढ़ धरणी पर खड़ा, नहीं अब रहा डरा।

श्रद्धा उस आश्चर्य-लोक में मलय-बालिका-सी चलती,
सिंहद्वार के भीतर पहुँची, खड़े प्रहरियों को छलती,
ऊँचे स्तंभों पर वलभी-युत बने रम्य प्रासाद वहाँ ,
धूप-धूप-सुरभित-गृह जिनमें थी आलोक-शिखा जलती ।

स्वर्ण-कलश-शोभित भवनों से लगे हुए उद्यान बने ,
ऋजु-प्रशस्त, पथ बीच-बीच में, कहीं लता के कुंज घने ,
जिनमें दंपत्ति समुद विहरते, प्यार भरे दे गलबाहीं ,
गूंज रहे थे मधुप रसीले, मदिरा-मोद पराग सने ।

देवदारू के वे प्रलंब भुज,जिनमें उलझी वायु-तरंग ,
मुखरित आभूषण से कलरव करते सुन्दर बाल-विहंग ,
आश्रय देता वेणु-वनों से निकली स्वर-लहरी-ध्वनि को ,
नाग-केसरों की क्यारी में अन्य सुमन भी थे बहुरंग !

नव मंडप में सिंहासन सम्मुख कितने ही मंच तहाँ ,
एक ओर रखे हैं सुन्दर मढ़ें चर्म से सुखद जहाँ ,
आती है शैलेय-अगुरु की धूम-गंध आमोद-भरी ,
श्रद्धा सोच रही सपने में 'यह लो मैं आ गयी कहाँ' !

और सामने देखा उसने निज दृढ़ कर में चषक लिये ,
मनु, वह क्रतुमय पुरुष ! वही मुख संध्या की लालिमा पिवे ,

[ ८५ ]

मादक भाव सामने,सुन्दर एक चित्र सा कौन यहाँ ,
जिसे देखने को यह जीवन मर-मर कर सौ बार जिये--

इड़ा ढालती थी वह आसव, जिसकी बुझती प्यास नहीं ,
तृषित कंठ को, पी-पी कर भी, जिसमें है विश्वास नहीं ,
वह-—वैश्वानर की ज्वाला-सी-—मंच-वेदिका पर बैठी ,
सौमनस्य बिखराती शीतल, जड़ता का कुछ भास नहीं ।

मनु ने पूछा--"और अभी कुछ करने को है शेष यहाँ ?
बोली इड़ा--"सफल इतने में अभी कर्म सविशेष कहाँ !
क्या सब साधन स्ववश हो चुके ?” "नहीं अभी मैं रिक्त रहा--
देश बसाया पर उजड़ा है सूना मानस - देश यहाँ ।

सुन्दर मुख, आँखों की आशा, किन्तु हुए ये किसके हैं,
एक बाँकपन प्रतिपद-शशि का, भरे भाव कुछ रिस के हैं,
कुछ अनुरोध मान-मोचन का करता आँखों में संकेत ,
बोल अरी मेरी चेतनते ! तू किसकी, ये किसके हैं?"

"प्रजा तुम्हारी, तुम्हें प्रजापति सबका ही गुनती हैं मैं ,
वह संदेह-भरा फिर कैसा नया प्रश्न सुनती हूं मैं !"
"प्रजा नहीं, तुम मेरी रानी मुझे न अब भ्रम में डालो,
मधुर मराली ! कहो ‘प्रणय के मोती अब चुनती हूँ मैं '

मेरा भाग्य-गगन धुंधला-सा, प्राची-पट-सी तुम उसमें,
खुल कर स्वयं अचानक कितनी प्रभापूर्ण हो छवि-यश में!
मैं अतृप्त आलोक-भिखारी ओ प्रकाश-बालिके ! बता,
कब डूबेगी प्यास हमारी इन मधु-अधरों के रस में ?

ये सुख-साधन और रुपहली-रातों की शीतल-छाया,
स्वर-संचरित दिशाएँ, मन है उन्मद और शिथिल काया,

[ ८६ ]

तब तुम प्रजा बनो मत रानी !" नर-पशु कर हुंकार-उठा,
उधर फैलती मदिर घटा सी अंधकार की घन-माया ।

आलिंगन ! फिर भय का क्रंदन ! वसुधा जैसे काँप उठी !
वह अतिचारी, दुर्बल नारी-परित्राण-पथ नाप उठी !
अंतरिक्ष में हुआ रुद्र-हुंकार भयानक हलचल थी ,
अरे आत्मजा प्रजा ! पाप की परिभाषा बन शाप उठी ।

उधर गगन में क्षुब्ध हुई सब देव-शक्तियाँ क्रोध-भरी ,
रुद्र-नयन खुल गया अचानक--व्याकुल काँप रही नगरी ;
अतिचारी था स्वयं प्रजापति, देव अभी शिव बने रहें !
नहीं, इसी से चढ़ी शिंजिनी अजगव पर प्रतिशोध भरी ।

प्रकृति त्रस्त थी, भूतनाथ ने नृत्य विकंपित-पद अपना--
उधर उठाया, भूत-सृष्टि सब होने जाती थी सपना !
आश्रय पाने को सब व्याकुल, स्वयं-कलुष में मनु संदिग्ध ,
फिर कुछ होगा, यही समझ कर वसुधा का थर-थर कँपना ।

काँप रहे थे प्रलयमयी क्रीड़ा से सब आशंकित जंतु ,
अपनी-अपनी पड़ी सभी को, छिन्न स्नेह का कोमल तंतु ,
आज कहाँ वह शासन था जो रक्षा का था भार लिये ,
इड़ा क्रोध लज्जा से भर कर बाहर निकल चली थी किंतु ।

देखा उसने, जनता व्याकुल राजद्वार कर रुद्ध रही ,
प्रहरी के दल भी झुक आये उनके भाव विशुद्ध नहीं ,
नियमन एक झुकाव दबा-सा, टूटे या ऊपर उठ जाय !
प्रजा आज कुछ और सोचती अब तक जो अविरुद्ध रही !

[ ८७ ]

कोलाहल में घिर, छिप बैठे, मनु कुछ सोच विचार भरे ,
द्वार बंद लख प्रजा अस्त-सी, कैसे मन फिर धैर्य-धरे !
शक्ति-तरंगों में आंदोलन, रुद्र-क्रोध भीषणतम था ,
महानील-लोहित-ज्वाला का नृत्य सभी से उधर परे ।

वह विज्ञानमयी अभिलाषा, पंख लगाकर उड़ने की ,
जीवन की असीम आशाएँ कभी न नीचे मुड़ने की ,
अधिकारों की सृष्टि और उनकी वह मोहमयी माया ,
वर्गों की खाँई बन फैली कभी नहीं जो जुड़ने की ।

असफल मनु कुछ क्षुब्ध हो उठे, आकस्मिक बाधा कैसी--
समझ न पाये कि यह हुआ क्या, प्रजा जुटी क्यों आ ऐसी !
परित्राण प्रार्थना विकल थी देव-क्रोध से बन विद्रोह
इड़ा रही जब वहाँ ! स्पष्ट ही वह घटना कुचक्र जैसी।

"द्वार बंद कर दो इनको तो अब न यहाँ आने देना ,
प्रकृति आज उत्पात कर रही, मुझको बस सोने देना !”
कह कर यों मनु प्रगट क्रोध में, किन्तु डरे-से थे मन में ,
शयन-कक्ष में चले सोचते जीवन का लेना - देना।

अटा काँप उठी सपने में, सहसा उसकी आंख खुली ,
यह क्या देखा मैंने ? कैसे वह इतना हो गया छली ?
स्वजन-स्नेह में भय की कितनी आशकाएं उठ आतीं ,
अब क्या होगा, इसी सोच में व्याकुल रजनी बीत चली।