हिंदी निबंधमाला-१/रामलीला-श्रीयुत माधवप्रसाद मिश्र
(५) रामलीला
आर्य्य वंश के धर्म्म कर्म और भक्ति भाव का वह प्रबल प्रवाह, जिसने एक दिन जगत् के बड़े बड़े सन्मार्ग-विरोधी भूधरों का दर्प दलन कर उन्हें रज में परिणत कर दिया था और इस परम पवित्र वंश का वह विश्वव्यापक प्रकाश जिसने एक समय जगत् में अंधकार का नाम तक न छोड़ा था,-अब कहाँ है? इस गूढ़ एवं मर्मस्पर्शी प्रश्न का यही उत्तर मिलता है कि 'वह सब भगवान् महाकाल के महापेट में समा गया।' निःसंदेह हम भी उक्त प्रश्न का एक यही उत्तर देते हैं कि 'वह सब भगवान् महाकाल के महापेट में समा गया।
जो अपनी व्यापकता के कारण प्रसिद्ध था, अब उस प्रवाह का प्रकाश भारतवर्ष में नहीं है, केवल उसका नाम ही अवशिष्ट रह गया है। कालचक्र के बल, विद्या, तेज, प्रताप आदि सब का चकनाचूर हो जाने पर भी उनका कुछ कुछ चिह्न वा नाम बना हुआ है, यही डूबते हुए भारतवर्ष का सहारा है और यही अंधे भारत के हाथ की लकड़ी है।
जहाँ महा महा महीधर लुढ़क जाते थे और अगाध अतलस्पर्शी जल था, वहाँ अब पत्थरों में दबी हुई एक छोटी सी किंतु सुशीतल वारिधारा बह रही है, जिससे भारत के विदग्ध जनों के दग्ध हृदय का यथाकथंचित् संताप दूर हो
रहा है। जहाँ के महा प्रकाश से दिग्दिगंत उद्भासित हो
रहे थे, वहाँ अब एक अंधकार से घिरा हुआ स्नेहशून्य प्रदीप
टिमटिमा रहा है जिससे कभी कभो भूभाग प्रकाशित हो रहा
है ! पाठक ! जरा विचारकर देखिए ऐसी अवस्था में कहाँ कब
तक शांति और प्रकाश की सामग्री स्थिर रहेगी? यह किससे
छिपा हुआ है कि भारतवर्ष की सुख-शांति और भारतवर्ष का
प्रकाश अब केवल 'राम नाम' पर अटक रहा है। 'राम नाम'
ही अब केवल हमारे संतप्त हृदय को शांतिप्रद है और 'राम
नाम' ही हमारे अंधे घर का दीपक है।
यह सत्य है कि जो प्रवाह यहाँ तक क्षीण हो गया है कि पर्वतों को उथल देने की जगह आप प्रति दिन पाषाणों से दव रहा है और लोग इस बात को भूलते चले जा रहे हैं कि कभी यहाँ भी एक प्रबल नद प्रवाहित हो रहा था, तो उसकी आशा परित्याग कर देनी चाहिए । जो प्रदीप स्नेह से परिपूर्ण नहीं है तथा जिसकी रक्षा का कोई उपाय नहीं है और प्रतिकूल वायु चल रही है वह कब तक सुरक्षित रहेगा ? (परमात्मा न करे) वायु के एक ही झोंके में उसका निर्वाण हो सकता है
किंतु हमारा वक्तव्य यह है कि वह प्रवाह भगवती भागी-
रथी की तरह बढ़ने लगे, तो क्या सामर्थ्य है कि कोई उसे रोक
सके ? क्योंकि वह प्रवाह कृत्रिम प्रवाह नहीं है, भगवती वसुं-
धरा के हृदय का प्रवाह है, जिसे हम स्वाभाविक प्रवाह भी
कह सकते हैं
जिस दीपक को हम निर्वाणप्राय देखते हैं,निःसंदेह उसकी शोचनीय दशा है और उससे अंधकार-निवृत्ति की आशा करना दुराशा मात्र है, परंतु यदि हमारी उसमें ममता हो और वह फिर हमारे स्नेह से भर दिया जाय तो स्मरण रहे कि वह प्रदीप वही प्रदीप है जो पहले समय में हमारे स्नेह, ममता और भक्ति-भाव का प्रदीप था। उसमें ब्रह्मांड को भस्मीभूत कर देने की शक्ति है। वह वही ज्योति है जिसका प्रकाश सूर्य में विद्यमान है एवं जिसका दूसरा नाम अग्निदेव है और उपनिषद् जिसके लिये पुकार रहे हैं——
"तस्य भासा सर्वमिदं विभाति"।
वह प्रदीप भगवान रामचंद्र के पवित्र नाम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यद्यपि राम नाम की क्षुद्र प्रदीप के साथ तुलना करना अनुचित है, परंतु यह नाम का दोष नहीं है, हमारे क्षुद्र भाग्य की क्षुद्रता का दोष है कि उनका भक्ति-भाव अब हममें ऐसा ही रह गया है।
कभी हम लोग भी सुख से दिन बिता रहे थे, कभी हम
भी भूमंडल पर विद्वान और वीर शब्द से पुकारे जाते थे,
कभी हमारी कोति भी दिगदिगंतव्यापिनी थो, कभी हमारे
जयजयकार से भी आकाश गूंजता था और कभी बड़े बड़े
सम्राट हमारे कृपाकटाक्ष की भी प्रत्याशा करते थे-इस बात
का स्मरण करना भी अब हमारे लिये अशुभचिंतक हो रहा
पर कोई माने या न माने, यहाँ पर खुले शब्दों में यह
कहे बिना हमारी आत्मा नहीं मानती कि अवश्य हम एक
दिन इस सुख के अधिकारी थे हम लोगों में भी एक दिन
स्वदेशभक्त उत्पन्न होते थे, हममें सौभ्रात्र और सोहार्द का
अभाव न था, गुरु-भक्ति और पितृ-भक्ति हमारा नित्य कर्म
था, शिष्ट-पालन और दुष्ट-इमन ही हमारा कर्त्तव्य था।
अधिक क्या कहें,-कभी हम भी ऐसे थे कि जगत् का लोभ
हमें अपने कर्तव्य से नहीं हटा सकता था। पर अब वह बात
नहीं है और न उसमें कोई प्रमाण ही है !
हमारे दुरदर्शी महषि भारत के मंद भाग्य को पहले ही अपनी दिव्य दृष्टि से देख चुके थे कि एक दिन ऐसा आवेगा कि न कोई वेद पढ़ेगा न वेदांग, न कोई इतिहास का अनु- संधान करेगा और न कोई पुराण ही सुनेगा! सब अपनी भूल जायेंगे । देश आत्मज्ञान-शून्य हो जायगा। इसलिये उन्होंने अपने बुद्धि-कौशल से हमारे जीवन के साथ 'राम' नाम का दृढ़ संबंध किया था। यह उन्हीं महर्षियों की कृपा का फल है कि जो देश अपनी शक्ति को, तेज को, बल को, प्रताप को, बुद्धि को और धर्म को अधिक क्या जो अपने स्वरूप तक को भूल रहा है, वह इस शोचनीय दशा में भो राम नाम को नहीं भूला है ! और जब तक 'राम' स्मरण है, तब तक हम भूलने पर भी कुछ भूले नहीं हैं।
महाराज दशरथ का पुत्रस्नेह, श्रीरामचंद्रजी की पितृभक्ति,
लक्ष्मण और शत्रुघ्न की भ्रातृभक्ति, भरतजी का स्वार्थत्याग,
क्षमता को
वशिष्ठजी का प्रताप, विश्वामित्र का आदर, ऋष्यशृंग का तप,
जानकीजी का पातिव्रत, हनुमानजी की सेवा, विभोषण की
शरणागति और रघुनाथजी का कठोर कर्त्तव्य किसको स्मरण
नहीं है ? जो अपने "रामचंद्र" को जानता है वह अयोध्या,
मिथिला को कब भूला हुआ है। वह राक्षसों के अत्याचार,
ऋषियों के तपोबल और क्षत्रियों के धनुर्बाण के फल को अच्छी
तरह जानता है। उसको जब राम नाम का स्मरण होता है
और जब वह 'रामलीला' देखता है तभी यह ध्यान उसके जी
में आता है कि 'रावण आदि की तरह चलना न चाहिए,
रामादिक के समान प्रवृत्त होना चाहिए।
बल इसी शिक्षा को लक्ष्य कर हमारे समाज में 'रामनाम'
का आदर बढ़ा। ऐसा पावन और शिक्षाप्रद चरित्र न किसी
दूसरे अवतार का और न किसी मनुष्य का ही है ! भगवान
रामचंद्र देव को हम मर्त्यलोक का राजा नहीं समझते, अखिल
ब्रह्मांड का नायक समझते हैं। यों तो अादरणीय रघुवंश में
सभी पुण्यश्लोक महाराज हुए, पर हमारे महाप्रभु 'राम' के
समान सर्वत्र रमणशोल अन्य कौन हो सकता है ? मनुष्य
ही कैसा पुरुषोत्तम क्यों न हो वह अंत को मनुष्य है। इस-
लिये आर्यवंश में राम ही का जयजयकार हुआ और है और
जब तक एक भी हिंदू पृथ्वीतल पर रहेगा, होता रहेगा। हमारे
आलाप में, व्यवहार में, जीवन में, मरण में, सर्वत्र 'राम नाम'
का संबंध है। इस संबंध को दृढ़ रखने के लिये ही प्रतिवर्ष
रामलीला होती है। मान लीजिए कि वह सभ्यताभिमानी
नवशिक्षितों के नजदीक खिलवाड़ है, वाहियात और पोप-
लीला है, पर क्या भावुक जन भी उसे ऐसा ही समझते हैं ?
कदापि नहीं। भगवान की भक्ति न सही-जिलके हृदय
में कुछ भी जातीय गौरव होगा, कुछ भी स्वदेश की ममता
होगी वह क्या इस बात को देखकर प्रफुल्लित न होगा कि पर-
पद-दलित आर्य समाज में इस गिरी हुई दशा के दिनों में भी
कौशल्यानंदन आनंदवर्द्धन भगवान् रामचंद्रजी का विजयोत्सव
मनाया जा रहा है ?
आठ सौ वर्ष तक हिंदुओं के सिर पर कृपाण चलती रही परंतु 'रामचंद्रजी की जय' तब भी बंद न हुई। सुनते हैं कि औरंगजेब ने असहिष्णुता के कारण एक बार कहा था कि 'हिंदुओ ! अब तुम्हारे राजा रामचंद्र नहीं हैं, हम हैं। इसलिये रामचंद्र की जय बोल्पना राजद्रोह करना है। औरंगजेब का कहना किसी ने न सुना। उसने राजभक्त हिंदुओं का रक्तपात किया सही पर 'रामचंद्र की जय' को न बंद कर सका। कहाँ है वह अभिमानी ? लोग अब रामचंद्रजी कं विश्व-ब्रह्मांड को देखें और उसकी मृण्मय समाधि (कबर) को देखें और फिर कहें कि राजा कौन है ? भला'कहाँ राजाधिराज रामचंद्र और कहाँ एक अहंकारी क्षणजन्मा मनुष्य ?
एक वे विद्वान् हैं जो राम और रामायण की प्रशंसा करते
हैं, रामचरित्र को अनुकरण योग्य समझते हैं एवं रामचंद्रजी
को भुक्ति-मुक्तिदाता मान रहे हैं, और एक वे लोग हैं जिनकी
युक्तियों का बल केवल एक इसी बात में लग रहा है कि
"रामायण में जो चरित्र वर्णित हैं वे सचमुच किसी व्यक्ति के
नहीं हैं किंतु केवल किसी घटना और अवस्थाविशेष का रूपक
बाँधके लिख दिए गए हैं। निरंकुशता और धृष्टता आज-
कल ऐसी बढ़ी है कि निरर्गलता से ऐसी मिथ्या बातों का
प्रचार किया जाता है। इस भ्रांत मत का प्रचार करनेवाले
वेबर साहब यदि यहाँ होते तो हम उन्हें दिखाते कि जिसका
वे अपनी विषदग्धा लेखनी से जर्मन में वध कर रहे हैं, वह
भारतवर्ष में व्यापक और अमर हो रहा है। यहाँ हम अपनी
ओर से कुछ न कहकर हिंदी के प्रातःस्मरणीय सुलेखक पंडित
प्रतापनारायण मिश्र के लेख को उद्धृत करते हैं-
अहा यह दोनों अक्षर भी हमारे साथ कैसा सार्व-
भौमिक संबंध रखते हैं, कि जिसका वर्णन करने की सामर्थ्य ही
किसी को नहीं है। जो रमण करता हो अथवा जिसमें रमण
किया जाय उसे राम कहते हैं, ये दोनों अर्थ राम नाम में पाए
जाते हैं। हमारे भारतवर्ष में सदा सर्वदा रामजी रमण करते
हैं और भारत राम में रमण करता है। इस बात का प्रमाण
कहाँ ढूँढ़ने नहीं जाना, आकाश में रामधनुष ( इंद्रधनुष ),
धरती पर रामगढ़, रामपुर, रामनगर, रामगंज, रामरज, राम-
गंगा, रामगिरि ( दक्षिण में ); खाद्य पदार्थो' में रामदाना,
रामकीला ( सीताफल ), रामतरोई, रामचक्र; चिड़ियों में राम
पाखी (बंगाल में मुरगी);छोटे जीवों में रामबरी (मेंढकी);
व्यंजनों में रामरंगी ( एक प्रकार के मुँगाड़े ) तथा जहाँगीर ने
मदिरा का नाम रामरंगी रखा था 'कि रामरंगिए मा नश्शाए
दीगर दारद'; कपड़ों में रामनामी इत्यादि नाम सुनके कौन
न मान लेगा कि जल स्थल, भूमि आकाश, पेड़ पत्ता, कपड़ा
लत्ता, खान पान सबमें राम ही रम रहे हैं।
मनुष्यों में रामलाल, रामचरण, रामदयाल, रामदत्त,
रामसेवक, रामनाथ, रामनारायन, रामदास, रामदीन, राम-
प्रसाद, रामगुलाम, रामबकस, रामनेवाज; स्त्रियों में भी रामदेई,
रामकिशोरी, रामपियारी, रामकुमारी इत्यादि कहाँ तक कहिए
जिधर देखो उधर राम ही राम दिखाई देते हैं, जिधर सुनिए
राम ही नाम सुन पड़ता है। व्यवहारों में देखिए लड़का पैदा
होने पर रामजन्म के गीत; जनेऊ, ब्याह, मुंडन, छेदन में राम
ही का चरित्र; आपस के शिष्टाचार में 'राम राम'; दुःख में
'हाय राम !'; आश्चर्य अथवा दया में 'अरे राम';महा प्रयोज-
नीय पदार्थों में भी इसी नाम का मेल, लक्ष्मी ( रुपया पैसा)
का नाम रमा; स्त्री का विशेषण रामा ( रामयति ) मदिरा का
नाम रम (पीते ही नस नस में रम जानेवाली ), यही नहीं
मरने पर भी 'राम राम सत्य है। उसके पीछे भी गयाजी में
रामशिला पर श्राद्ध ! इस सर्वव्यापकता का क्या कारण है ?
यही कि हम अपने देश को ब्रह्ममय समझते थे। कोई बात,
कोई काम ऐसा न करते थे जिसमें सर्वव्यापी सर्व स्थान में
रमण करनेवाले को जाय। अथच रामभक्त भी इतने थे
कि श्रीमान् कौशल्यानंद-वर्धन जानकीजीवन, अखिलार्य-नरेंद्र-
निषेवित-पाद-पद्म, महाराजाधिराज मायामानुष भगवान् राम-
चंद्रजी को साक्षात् परब्रह्म मानते थे! इस बात का वर्णन
तो फिर कभी करेंगे कि जो हमारे दशरथ-राजकुमार को पर-
ब्रह्म नहीं मानते वे निश्चय धोखा खाते हैं, अवश्य प्रेम राज्य
में पैठने लायक नहीं हैं ! पर यहाँ पर इतना कहे बिना हमारी
आत्मा नहीं मानती कि हमारे आर्यवंश को राम इतने प्यारे
हैं कि परम प्रेम का आधार राम ही को कह सकते हैं, यहाँ
तक कि सहृदय समाज को 'राम-पाद-नख-ज्योत्स्ना परब्रह्मति
गीयते' कहते हुए भी किंचित् संकोच नहीं होता ! इसका
कारण यही है कि राम के रूप गुण स्वभाव में कोई बात ऐसी
नहीं है कि जिसके द्वारा सहृदयों के हृदय में प्रेम, भक्ति, सह-
दयता अनुराग का महासागर न उमड़ उठता हो ! आज
हमारे यहाँ की सुख-सामग्री सब नष्टप्राय हो रही है, सहस्रों
वर्ष से हम दिन दिन दीन होते चले आते हैं पर तो भी राम से
हमारा संबंध बना है। उनके पूर्व पुरुषों की राजधानी अयोध्या
को देखके हमें रोना आता है। जो एक दिन भारत के नगरों
का शिरोमणि था, हाय ! आज वह फैजाबाद के जिले में एक
गाँव मात्र रह गया है। जहाँ एक से एक धीर धार्मिक महा-
राज राज्य करते थे वहाँ आज बैरागी तथा थोड़े से दीन दशा-
दलित हिंदू रह गए हैं।
जो लोग प्रतिमापूजन के द्वेषी हैं परमेश्वर न करे यदि
कहीं उनकी चले तो फिर अयोध्या में रही क्या जायगा ? थोड़े
से मंदिर ही तो हमारी प्यारी अयोध्या के सूखे हाड़ हैं। पर
हाँ, रामचंद्र की विश्वव्यापिनी कीर्ति जिस समय हमारे कानों
में पड़ती है उसी समय हमारा मरा हुआ मन जाग उठता है!
हमारे इतिहास का हमारे दुर्दैव ने नाश कर दिया। यदि हम
बड़ा भारी परिश्रम करके अपने पूर्वजनों का सुयश एकत्र किया
चाहें तो बड़ी मुद्दत में थोड़ी सी कार्यसिद्धि होगी, पर भगवान्
रामचंद्र का अविकल चरित्र आज भी हमारे पास है जो औरों
के चरित्र से ( जो बचे बचाए मिलते हैं वा कदाचित् दैवयोग
से मिलें ) सर्वोपरि श्रेष्ठ महारसपूर्ण परम सुहावन है, जिसके
द्वारा हम जान सकते हैं कि कभी हम भी कुछ थे अथच यदि
कुछ हुआ चाहें तो हो सकते हैं। हममें कुछ भी लक्षण हो
तो हमारे राम हमें अपना लेंगे, वानरों तक को तो उन्होंने अपना
मित्र बना लिया हम मनुष्यों को क्या भृत्य भी न बनावेंगे ?
यदि हम अपने को सुधारा चाहें तो अकेली रामायण से सब
प्रकार के सुधार का मार्ग पा सकते हैं। हमारे कविवर वाल्मीकि
ने रामचरित्र में कोई उत्तम बात न छोड़ी एवं भाषा भी इतनी
सरल रखी है कि थोड़ी सी संस्कृत जाननेवाले भी समझ सकते
हैं। यदि इतना श्रम भी न हो सके तो भगवान् तुलसीदास की
मनोहारिणी कविता थोड़ी सी हिंदी जाननेवाले भी समझ सकते
हैं, सुधा के समान काव्यानंद पा सकते हैं और अपना तथा
देश का सर्व प्रकार हितसाधन कर सकते हैं। केवल मन लगा
के पढ़ना और प्रत्येक चौपाई का आशय समझना तथा उसके
अनुकूल चलने का विचार रखना होगा। रामायण में किसी
सदुपदेश का अभाव नहीं है। यदि विचारशक्ति से पूछिए कि
रामायण की इतनी उत्तमता, उपकारकता, सरसता का कारण
क्या है ? तो यही उत्तर पाइएगा कि उसके कवि ही आश्चर्य
शक्ति से पूर्ण हैं, फिर उनके काव्य का क्या कहना ? पर यह
बात भी अनुभवशाली पुरुषों की बताई हुई है फिर इन सिद्ध एवं
विदग्धालाप कवीश्वरों का मन कभी साधारण विषयों पर नहीं
दौड़ता। वे संसार भर का चुना हुआ परमोत्तम प्राशय देखते
हैं तभी कविता करने की ओर दत्तचित्त होते हैं, इससे स्वयंसिद्ध
है कि रामचरित्र वास्तव में ऐसा ही है कि उस पर बड़े बड़े
कवीश्वरों ने श्रद्धा की है, और अपनी पूरी कविताशक्ति उस
पर निछावर करके हमारे लिये ऐसे ऐसे अमूल्य रत्न छोड़ गए
हैं कि हम इन गिरे दिनों में भी उनके कारण सच्चा अभिमान
कर सकते हैं, इस हीन दशा में भी काव्यानंद के द्वारा परमा-
नंद पा सकते हैं, और यदि चाहें तो संसार परमार्थ दोनों
बना सकते हैं। खेद है, यदि हम भारत-संतान कहाकर इन
के अमूल्य रत्नों का आदर न करें ! और जिसके
द्वारा हमें यह महामणि प्राप्त हुए हैं उनका उपकार न माने
तथा ऐसे राम को, जिनके नाम पर हमारे पूर्वजों के प्रेम,
प्रतिष्ठा, गौरव एवं मनोविनोद की नींव थी, अथच हमारे
लिये गिरी दशा में भी जो सच्चे अहंकार का कारण और
जिससे आगे के लिये सब प्रकार के सुधार की आशा है, भूल
अथवा किसी के बहकाने से राम नाम की प्रतिष्ठा
करना छोड़ दें तो कैसी कृतघ्नता, मूर्खता एवं प्रात्महिंसकता
। पाठक ! यदि सब भाँति की भलाई और बड़ाई चाहो तो
सदा सब ठौर सब दशा में राम का ध्यान रखा, राम को
भजो, राम के चरित्र पढ़ो, सुनो, राम की लीला देखो दिखाओ,
राम का अनुकरण करो । बस इसी में तुम्हारे लिये सब कुछ
है। इस 'रकार' और 'मकार' का वर्णन तो कोई त्रिकाल में
कही नहीं सकता। कोटि जन्म गावें तो भी पार न पावेंगे।
-माधवप्रसाद मिश्र