हिंदी रसगंगाधर/उत्तमोत्तम काव्य

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उत्तमोत्तम काव्य

"उत्तमोत्तम" काव्य उसे कहते है, जिसमें शब्द और अर्थ दोनों अपने को गौण (अप्रधान) बनाकर किसी चमत्कारजनक अर्थ को अभिव्यक्त करे—व्यंजनावृत्ति से समझावे।

इस लक्षण में "किसी चमत्कार-जनक अर्थ को व्यक्त करे।" इस कथन से यह सिद्ध हुआ—जिसमें व्यंग्य अत्यंत गूढ हो अथवा अत्यंत स्पष्ट हो, वह काव्य उत्तमोत्तम नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसे व्यंग्यों की चमत्कारजनकता नष्ट हो जाती है। यही बात जिसमें व्यंग्य सुंदर न हो, उसके विषय में भी समझो। अपरांग (अर्थात् किसी दूसरे अर्थ का अंग) और वाच्यसिद्धव्यंग (अर्थात् जिसके बिना वाच्य अर्थ सिद्ध ही न हो) व्यंग्य भी चमत्कारी होते है; अतः इस लक्षण से उनका भी ग्रहण न हो जाय, इस कारण, लक्षण में "अपने को गौण बनाकर" कहा गया है; जिसका यह अभिप्राय है कि शब्द और अर्थ (वाच्य) दोनों से व्यंग्य की प्रधानता होनी चाहिए, सो उन दोनों में नहीं होती, अतः वे भी उत्तमोत्तम काव्य नहीं हो सकते। [ २७ ]

उदाहरण—

शयिता सविधेऽप्यनीश्वरा सफलीकर्त्तुमहो मनोरथान्।
दयिता दयिताननाम्बुजं दरमीलन्नयना निरीक्षते॥

सोई सविध, सकी न करि सफल मनोग्य मञ्जु।
निरखति कछु मीचे नयन प्यारी पिय-मुखकञ्जु॥

प्रियतमा अपने प्रियतम के समीप सोई है; पर आश्चर्य है कि वह अपने मनोरथो को सफल करने में असमर्थ है—उसकी शक्ति नहीं है कि वह अपनी अभिलाषाओं को पूर्ण कर सकें, अतः नेत्रों को कुछ कुछ मुकुलित करती हुई प्रियतम के मुख-कमल को देख रही है।

इस श्लोक में नायिका की रति के आलंबन नायक के, पति-पत्नी के समीप सोने के कारण प्राप्त हुए एकांत-स्थान आदि उद्दीपन के, कुछ कुछ मुकुलित नेत्रों से देखने रूपी अनुभाव के, और देखने के कुछ कुछ होने के कारण व्यक्त होनेवाली लज्जा तथा देखने के कारण व्यक्त होनेवाले औत्सुक्य रूप व्यभिचारी भावो के संयोग से रति (स्थायी भाव) की अभिव्यक्ति होती है—अथवा यों कहिए कि पति-पत्नी का पारस्परिक प्रेम प्रतीत होता है। आलंबन आदि पदार्थों का स्वरूप (अर्थात् वे क्या वस्तु हैं, यह) आगे वर्णन किया जायगा।

अब यहाँ एक शंका उत्पन्न होती है—इस पद्य में "रवि की अभिव्यक्ति होती है" यह न मानकर 'यदि यह सो गया हो, [ २८ ] तो मैं इसका मुँह चूम लूँ" इस नायिका की इच्छा की ही अमिव्यक्ति क्यों न मान ली जाय। इसका समाधान यह है—पद्य मे लिखा है कि "वह अपने मनोरथों को सफल करने में असमर्थ है", जिससे यह सिद्ध होता है कि उसके हृदय में सब मनोरथ विद्यमान हैं, और चुंबन की इच्छा भी एक प्रकार का मनोरथ ही है—मनोरथ शब्द से ही सामान्य रूप से उसका भी वर्णन हो जाता है; इस कारण वह वाच्य है, व्यंग्य नहीं। पर आप कहेंगे कि मनोरथ शब्द से सामान्य इच्छा के वाच्य होने पर भी "चुंबन करूँ" इस विशेष विषय से युक्त इच्छा के व्यंग्य होने में क्या बाधा है? इसका उत्तर यह है कि—चमत्कार नहीं रहेगा, बस यही बाधक है; क्योंकि जो पदार्थ विशेष रूप से व्यंग्य हो, वह भी यदि सामान्य रूप से वाच्य हो जाय, तो उसकी सहृदयों के हृदय में चमत्कार उत्पन्न करने की, शक्ति नष्ट हो जाती है। अलंकार शास्त्र के ज्ञाताओं ने उसी व्यंग्य को चमत्कारी स्वीकार किया है, जो किसी तरह भी अभिधावृत्ति का स्पर्श न करे। दूसरे, चुंबन की इच्छा को जब रति का अनुभाव मानें तभी वह सुंदर हो सकती है; अन्यथा जिस प्रकार "चुंबन करता हूँ" यह कहने में कोई चमत्कार प्रतीत नहीं होता, उसी प्रकार उसमें भी कोई चमत्कार न हो सकेगा। अतः वह रति की अपेक्षा गौण ही है, प्रधान नहीं।

इसी तरह इस श्लोक में लज्जा भी (यद्यपि व्यंग्य है, तथापि) मुख्यतया व्यंग्य नहीं हो सकती। इसका कारण यह है कि [ २९ ] "नेत्रो को कुछ कुछ मुकुलित करती हुई" इस नायिका के विशेषण से लज्जा अभिव्यक्त होती है। श्लोक मे उस विशेपण का सिद्ध वात के अनुवादरूप मे वर्णन किया गया है, विधेयरूप मे नही अर्थात् उसका विधान नहीं है। तव उस विशेषण से पूर्णतया संबंध रखनेवालो लज्जा ही इस श्लोक का प्रधान अर्थ है, यह नहीं कहा जा सकता। आप कहेंगे कि-नही, श्लोक मे लिखा है कि "नेत्रो को कुछ कुछ मुकुलित करती हुई......"देख रही है", इस कारण यह तो आपको भी मानना पड़ेगा कि श्लोक मे इस प्रकार देखने का विधान है, अतः वह अनुवाद्य अर्थ से ही पूर्णतया संबंध रखती है यह नहीं कहा जा सकता। हम कहते है कि ठीक; पर इस तरह भी लजा का कार्य आँखों का मीचना हो सकता है, देखना नही। श्लोक मे आँखों के कुछ कुछ मीचने के साथ ही देखने का वर्णन किया गया है और देखना बिना रति (आंतरिक प्रेम) के हो नहीं सकता। यदि इस श्लोक से लज्जा को ही व्यक्त करना होता, तो "आँखें मुकुलित कर रही है। यही लिख देत, देखने की बात उठाने का कोई विशेष प्रयोजन नहीं रह जाता। अब सोचो कि जिस प्रकार, अभिधावृत्ति के द्वारा, रति के अनुभाव (कार्य) "देखने" की अपेक्षा लज्जा का अनुभाव "आँखों का मीचना" गौण हो रहा है, वह देखने का विशेषण वन रहा है, उसी प्रकार, व्यंजनावृत्ति के द्वारा, लज्जा का भी रति की अपेक्षा गौण होना ही उचित है। [ ३० ]यह तो है रस (संभोग शृंगार) का उदाहरण-अर्थात् इस पद्य के शब्द और अर्थ गौण होकर रति को व्यक्त करते हैं। इसी प्रकार भाव (हर्ष आदि व्यभिचारी भाव) भी अभिव्यक्त होते है। अच्छा, इसका भी उदाहरण लीजिए-

गुरुमध्यगता मया नताङ्गी निहता नीरजकोरकेण मन्दम्।
दरकुण्डलताण्डवं नतभ्रू लतिकं मामवलोक्य धृर्णिताऽसीत्॥

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हनी गुरुन बिच नतमुखी कमल-मुकुल ते झूमि।
कुण्डल कछुक नचाए, भौ नाम, निरखि गइ घूमि॥

नायक अपने मित्र से कह रहा है-सास-ननद आदि गुरुजनों के बीच मे बैठो हुई अतएव लज्जा के मारे नम्र प्रियतमा को, मैंने, हलके हाथ से, कमल की डोडी से मार दिया। उसने कुंडलो को कुछ नचाकर एवं भौंहे नीची करके मुझे देखा और फिर (दूसरी तरफ) घूम गई–मुँह फेर लिया।

इस पद्य मे "घूम गई" इस वाक्य से "ऐ! बिना सोचे समझे कर गुजरनेवाले। तैंने यह अनुचित कार्य क्यों कर डाला" इस अर्थ से युक्त ""अमर्ष" भाव प्रधानतया ध्वनित होता है, और उसकी अपेक्षा श्लोक के शब्द और अर्थ गौण हो गए है—अर्थात् उनमे वह मजा नहीं है, जो अमर्ष भाव की अभिव्यक्ति मे है।

अब एक दूसरे विचार से उत्तमोत्तम कान्य का एक उदाहरण और देते हैं। वह विचार यह है-अब तक जितने [ ३१ ] अलंकार शास्त्र के आचार्य हुए हैं, उन सबने रस भाव आदि को असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य माना है-अर्थात् इनके प्रवीत होने के पूर्व विभावादिकों की उपस्थिति आवश्यक है और उनकी अभिव्यक्ति के अनंतर ही रस भाव आदि की अमिव्यक्ति होती है; पर बीच के समय के अति सूक्ष्म होने के कारण उनका क्रम (पूर्वापरभाव) हमे लक्षित नहीं होता। यह एक नियत बात है, इससे विरुद्ध कभी नहीं होता। पंडितराज का सिद्धात है कि रस भाव आदि संलक्ष्यक्रमव्यंग्य भी होते हैं-अर्थात् उनके पूर्व विभाव आदि की पृथक् प्रतीति होकर, उसके अनंतर भी उनकी प्रतीति होती है। उदाहरण लीजिए-

तल्पगताऽपि च सुतनुः श्वासासङ्गनं या सेहे।
सम्पति सा हृदयगतं प्रियपाणिं मन्दमाक्षिपति॥

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सेज सुई हू सुतनु जो सांस परसि अकुलाय।
वह अब पिय-कर हिय धरयो हरुए रही उठाय॥

जो सुकुमारी नववधू, पलँग पर सोई हुई भी, श्वास के लगने मात्र से अङ्गों को सिकोड़ने लगती थी-वही इस समय (पति के परदेश जाने की पहली रात्रि मे) हृदय पर धरे हुए शंकायुक्त पति के हाथ को हटा रही है, पीछे अपनी जगह पहुँचा रही है; पर धीरे-धीरे। [ ३२ ]यहाँ "धीरे धीरे हटा रही है। इस कथन से रति नामक स्थायी भाव संलक्ष्यक्रम होकर व्यक्त हो रहा है। स्थायिभावादिक भी संलक्ष्यक्रम व्यग्य होते है, यह आगे सिद्ध किया जायगा। काव्य के इसी (उत्तमोत्तम) भेद को "ध्वनिकाव्य" कहा जाता है।

अप्पय दीक्षित के विवेचन का खंडन

यहाँ पर, अप्पय दीक्षित (जो अलंकारशास्त्र के सुप्रसिद्ध विद्वान थे) ने "चित्रमीमांसा" नामक ग्रंथ मे जो एक ध्वनिकाव्य के उदाहरण का विवेचन किया है, उसका खंडन पंडितराज ने, लिखा है। अच्छा, आप वह भी सुन लीजिए-

वह उदाहरण यों है। किसी नायिका ने एक दूती को अपने नायक के पास भेजा कि वह उसे बुला लावे; पर वह स्वयं ही उससे रमण करके लौटी, और लगी इधर उधर की बाते बनाने । विदग्ध नायिका को यह बात बहुत खटकी, पर वह इस बात को स्पष्ट कैसे कह सकती थी, अतः उसने उससे यों कहा-

निःशेषच्युतचदनं स्तनतटं निर्मृष्टरागोऽधरो
नेत्रे दूरमनञ्जने पुलकिता तन्वी तवयं तनुः।
मिथ्यावादिनि दूति! वान्धवजनस्याज्ञातपीडागमे
वापीं स्नातुमितो गताऽसि न पुनस्तस्याऽधमस्याऽन्तिकम्॥

हे झूठ बोलनेवाली दूती! तू अपने बांधव (नायिका) के ऊपर जो बीत रही है-उसे जो दुःख हो रहा है उसे [ ३३ ] नही जानती अतएव तू यहाँ से बावड़ी नहाने गई थी, उस अधम (नायक) के पास नहीं। यह तेरी दशा से सूचित हो रहा है। देख तेरे स्तनों के ऊपर के भाग का चंदन हट गया है, नीचे के होठ का रंग (तांबूल का) बिलकुल साफ हो गय है, नेत्र पूर्णतया (पर आंतरिक अभिप्राय यह है कि प्रांत भागो मे) अंजन-रहित हो गए हैं और यह तेरा दुबला-पतला शरीर रोमांचित हो रहा है।

इस पर अप्पय दीक्षित यों विवेचन करते हैं। वे कहते हैं कि "स्तनों का चंदन साड़ी की रगड़ से भी हट सकता है, इस कारण नायिका ने "सब" कहा, जिससे यह सिद्ध होता है कि सब चंदन (बिना मर्दन के) साड़ी की रगड़ से नही हट सकता। पर नहाने से भी सब चंदन हट सकता है, इस कारण 'ऊपर के भाग का' कहा; जिससे यह सिद्ध होता है कि तूने स्नान नही किया, क्योंकि यदि तू स्नान करती तो सब स्थान का चंदन उड़ जाता; पर तेरे तो केवल ऊपर के भाग का ही उड़ा है, ऐसा प्रालिगन से ही हो सकता है। इसी प्रकार तांबूल लेने मे यदि देरी हो जाय तो होठ का रंग फीका हो सकता है; सो नहीं है, यह समझाने के लिये उसने 'बिलकुल साफ हो गया है' कहा, क्योंकि ऊपर के होठ के रंगे हुए रहने पर नीचे का होठ बिना चुंबन के और किस तरह साफ हो सकता है?" यहॉ से लेकर "यह भी ध्वनि का उदाहरण है। यहाँ तक के ग्रंथ से यह सिद्ध किया गया है कि जो

र॰-३ [ ३४ ] "ऊपरी भाग"-आदि शब्दों से बने हुए वाक्यों के अर्थ हैं, वे संभोग के अंग-आलिंगन, चुंबन आदि के प्रतिपादन के द्वारा प्रधान व्यंग्य (संभोग) के व्यक्त करने में सहायता करते हैं। अर्थात् इस प्रकार के कथन से यह प्रकट होता है कि दुती की यह दशा संभोग से ही हुई है, अन्य किसी प्रकार नहीं।

पंडितराज कहते हैं कि अप्पय दीक्षित का यह विवेचन अलंकारशास्त्र के तत्त्व को न समझने के कारण है; क्योंकि ऐसा करना इन बातों का अन्य सब वस्तुओं से हटाकर केवल संभोग मे ही लगाना सब पुराने ग्रंथों से एवं युक्ति से विरुद्ध है। देखिए-

'काव्यप्रकाशकार' ने पंचम उल्लास के अंत मे इसी उदाहरण का विवेचन करते हुए कहा है-"पूर्वोक्त उदाहरण मे जो 'चंदन का हटना' आदि लिखे हैं, वे दूसरे कारणो से भी हो सकते हैं, केवल संभोग के द्वारा ही नहीं; क्योंकि इसी श्लोक में उनको स्नान का कार्य बताया गया है; इस कारण वे कार्य एक ही वस्तु से संबंध रखते हों ऐसे नहीं हैं, दूसरी वस्तुओ से भी हो सकते हैं। और वहीं उन्होंने "व्यक्तिविवेक" कार का जो यह मत है कि-

भम*[१] धम्मिअ! वी सत्थो सो सुणो अन्न मालिदो देण।
गोलाईकच्छकुडङ्गवासिणा दरी असीहेण॥


[ ३५ ]

इत्यादिक स्थलों मे हेतु से कार्य-ज्ञान होता है, और "हेतु से कार्य के ज्ञान होने का नाम अनुमान है, और व्यंजना से भी यही वात होती है, अत: व्यंजना और अनुमान मे कोई भेद नहीं।" इसका खंडन करते हुए, "व्यभिचारी (अन्यगामी) और प्रसिद्ध होने का जिन हेतुओं मे सन्देह है, उनसे भी अर्थ ध्वनित हो सकता है, पर अनुमान नही हो सकता यह स्वीकार किया है। इसी प्रकार "ध्वनि" (व्यंजनावृत्ति और व्यंग्यों के प्रतिपादन के मूलग्रंथ) के कर्धा (राजानक आनंदवर्धनाचार्य) ने भी माना है। तब यह सिद्ध हुआ कि "जिन शब्दों अथवा अर्थों से अन्य अर्थ ध्वनित होते है, वे व्यंजक अर्थ साधारण ही होते हैं, अर्थात् वे व्यंग्य से भी संबंध रखते हैं, और अन्यों से भी अनुमान की तरह असाधारण नहीं" इस वात को प्रतिपादन करनेवाले प्रामाणिक विद्वानों के ग्रंथों के साथ, उन व्यंजकों को असाधारण-किसी विशेष वस्तु से ही संबंध रखनेवाले-बतानेवाले तुम्हारे ग्रंथ का, विरोध स्पष्ट है।


लिये जाया करते थे, इस कारण संकेत का भंग होते देखकर उसने उनसे कहा-

हे धर्मचारिन्। अब आप विश्वस्त होकर फिरते रहिए, क्योंकि जिस कुत्ते से आप डरा करते थे, उस कुत्ते को, आज, गोदावरी नदी के जलप्राय प्रदेश के कुंज में रहनेवाले मत्त सिंह ने मार दिया।
तात्पर्य यह है कि घर मे कुत्ते से डरनेवाले पंडितजी! यदि आप कुंज मे पहुंचे तो फिर प्राणों का कुशल नहीं है उन्हें विदाई देनी ही पड़ेगी। इस से यह अभिव्यक्त होता है कि "आप वहाँ न जाइएगा।" [ ३६ ]यह तो हुई पुराने ग्रंथो से विरोध की बात। अब हम आपसे पूछते हैं आप जो "सब चंदन हट गया है" इत्यादि वाक्यार्थो को बावड़ी मे नहाने से हटाकर केवल संभोग के ही सिद्ध करने मे लगा रहे हैं, सो क्यों लगा रहे हैं? इससे व्यंग्य अर्थ निकल सके इसलिये? सो तो है नहीं; क्योंकि व्यग्य अर्थ निकलने के लिये "उसको व्यक्त करनेवाली वस्तुएँ उसी से संबंध रखनेवाली होनी चाहिएँ, वे और किसी से संबंध न रखें" इस बात का होना आवश्यक नहीं है। देखिए, दूती नायक से संभोग करके नायिका के पास आई है। उसकी दशा देखकर नायिका उससे कहती है-

ओण्णिद दोब्बल्ल चिन्ता अलसत्तण सणीससिअम्।
मह मन्दमाइणीए केरं सहि! तुह वि अहह! परिहवइ॥

हे सखि! हाय! मुझ मंदभागिनी के लिये तुझे भी जागरण, दुर्बलता, चिंता, आलस्य और दम भरजाने ने दबा रखा है, तू भी इनसे दुःखित हो रही है। यहाँ जागरण आदि बातें जैसी संयोगिनी (दूती) मे हैं, वैसी ही वियोगिनी (नायिका) मे भी हैं, एवं ये ही बातें रोगादि से भी हो सकती है; अतः ये सर्वथा साधारण बाते हैं। पर इन्हीं बातों पर जब यह विचार करते है इनकी कहनेवाली कौन है और वह इन बातों को किससे किस अवसर पर कह रही है तो स्पष्ट हो जाता है कि वह उसके संभोग को लक्ष्य करके कह रही है। अतः यह सिद्ध हुआ कि किसी बात का साधारण अथवा असा[ ३७ ] धारण होना उस बात से कोई व्यंग्य नहीं निकाल सकता, किंतु उसका कहनेवाला कौन है, वह बात किससे कही जा रही है-इत्यादि के साथ उसको समझने पर, व्यंजक साधारण हो अथवा असाधारण, व्यंग्य समझ मे आ सकता है। प्रत्युत यदि वह बात ऐसी हो कि जो किसी विशेष वस्तु से ही संबंध रखती हो, तो वह अनुमान के अनुकूल होगी और व्यंजना के प्रतिकूलअर्थात् उससे व्यजना नहीं, अपितु अनुमान होगा। अव यदि आप कहे कि "ऊपरी भाग' आदि शब्दों से रचित होने पर भी "सब चंदन उड़ गया है" इत्यादि वाक्यार्थ असाधारण न हुए; क्योंकि गीले कपड़े से पुंछ जाने आदि से भी वे बातें हो सकती हैं तो हम आपसे पूछते हैं कि बावड़ी के स्नान के हटा देने से क्या फल हुआ, उसके लिये क्यों इतना परिश्रम किया गया? क्योंकि जिस तरह एक स्थान पर व्यमिचरित होना-संभोग के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु से संबंध रखना-अनुमान के प्रतिकूल है और व्यंजना के नहीं, उसी प्रकार अनेक स्थानों पर व्यभिचरित होना भी। अतः यह सब प्रयास व्यर्थ है।

यह तो हुई एक बात। अब एक दूसरी बात और लीजिए। नायिका के इस कथन से यह व्यंग्य निकलता है कि "तू उसके पास ही रमण करने गई थी। विचारकर देखने से ज्ञात होगा कि यह व्यंग्य दो बातों से बना हुआ है। उनमे से एक बात है "उसके पास ही गई थी। यह, और दूसरी है [ ३८ ] वहाँ जाने का फल "रमण"। इनमे से "उसके पास ही गई थी" इस अंश को व्यंग्य सिद्ध करना, तुम्हारे हिसाब से, कठिन है। तुमने जो रीति बताई है, उसके अनुसार "सब चंदन हट गया" इत्यादि विशेषण वाक्यों के अर्थ बावड़ी के स्नान मे तो लग नहीं सकते, क्योंकि तुमने वैसा करने मे बाधा उपस्थित कर दी है; समझा दिया है कि वे वापी-स्लान मे नही लग सकते, अतः वाच्यार्थ में सब वाक्य के जो प्रधान अर्थ हैं कि "बावड़ी नहाने गई थी, उसके पास नहीं गई इन शब्दों मे विपरीत लक्षणा करनी पड़ेगी, तब उनका यह अर्थ होगा कि "बावड़ी नहाने नही गई", "उसके पास ही गई थी। अर्थात् वाच्य अर्थ मे जहाँ "गई थी" कहा है, वहाँ "नही गई थी" अर्थ करना पड़ेगा और जहाँ “नहीं गई थी" कहा है, वहाँ "गई थी" अर्थ करना पड़ेगा, अन्यथा बात ही न बनेगी। और वाच्यार्थ के बाधित होने पर जो अर्थ प्रकट होता है, वह व्यंजना से बोधित होता है अथवा व्यंग्य होता है, यह कहना उचित नहीं; क्योंकि वह लक्षणा का ही विषय है व्यंजना का नही। जैसे "अहो पूर्ण सरो यत्र लुठन्तः स्नांति मानवा:- अर्थात् आश्चर्य है कि यह सरोवर पूरा भरा हुआ है, जिसमे मनुष्य लेटते हुए नहा रहे हैं। इस वाक्य मे नहानेवाले मनुष्यों का विशेषण जो "लेटते हुए" है, उससे प्रकट होता है कि "तालाव भरा हुआ नही है। इस अर्थ को कोई भी व्यंग्य नहीं बता सकता, यह लक्ष्य ही है। तब सिद्ध हुआ [ ३९ ] कि पूर्वोक्त व्यंग्य का एक अंश "उसके पास गई थो" यह तो, आपके हिसाब से, व्यंग्य है नहीं, लक्ष्य है।

अब यदि आप कहे कि "उसके पास ही गई थी। इस अंश के लक्ष्य होने पर भी जो जाने का फल है "रमण", वह तो व्यंग्य ही रहा; क्योंकि वह तो लक्षणा से ज्ञात हो नहीं सकता। सो भी नही, क्योंकि आपने ही "चित्रमीमांसा मे लिखा है"अधम शब्द का अर्थ हीन है, और हीन दो प्रकार से हो सकता है-एक जाति से, दूसरे कर्म से। सो उत्तम नायिका अपने नायक को जाति से हीन तो बता नही सकती........." इत्यादि । तब यह सिद्ध हुआ कि "रमण" भी अर्थापत्ति प्रमाण से स्पष्ट प्रतीत होता है; क्योकि जो बात किसी दूसरी रीति से उपस्थित हो जाय, उसे शब्द का अर्थ नहीं माना जाता । पर यदि समझ लो कि "अर्थापत्ति' कोई पृथक् प्रमाण नहीं है, जैसा कि कई एक दर्शनकारों ने माना है, तो वहाँ जाने का फल "रमण' व्यंग्य हो सकता है, पर तथापि जो बात तुम चाहते हो, वह सिद्ध नही हो सकती। क्योंकि "स्तनों के ऊपरी भाग का चंदन हटना" आदि एवं नायक की "अधमता", ये जो वाच्य हैं, वे, तुम्हारे हिसाव से, केवल दूती के संभोग से ही सिद्ध हो सकते हैं, अन्य किसी प्रकार-अर्थात् बावड़ी मे नहाने आदि-से नहीं, इस कारण यह काव्य गुणीभूत व्यग्य हो जायगा; क्योंकि बेचारे व्यंग्य को ही उन वाच्य अर्थों को सिद्ध करना पड़ेगा, सो वह वाच्यों की अपेक्षा गौण हो जायगा। [ ४० ] तब तुमने जो इसे "ध्वनि-काव्य" माना है सो न हो सकेगा। इस तरह युक्ति के द्वारा भी तुम्हारा सब आडंबर व्यर्थ ही सिद्ध होता है। सो अत्यंत चतुर नायिका के कहे हुए इन विशेषणो का वाच्य अर्थ (वापीस्नान) और व्यंग्य अर्थ (संभोग) दोनों में साधारण होना-दोनों में बराबर लग जाना—ही उचित है, न कि एक (संभोग) ही मे लगना।

तब उनको यो लगाना चाहिए—"हे बांधव जन के (मेरे) ऊपर आई हुई पीड़ा को न जाननेवाली स्वार्थ मे तत्पर दूती। तू स्नान का समय न चूक जाय इसलिये, नदी और मेरे प्रिय दोनों के पास न जाकर, मेरे पास से स्नान करने के लिये सीधी बावड़ी चली गई, उस, दूसरे की पीड़ा को (जानते हुए भी) न जानकर दुःख देनेवाले, अतएव अधम के पास नही। यह तेरी दशा से सूचित होता है। देख, बावडी मे बहुतेरे युवा लोग नहाने के लिये आया करते है, उनसे लज्जित होने के कारण, तूने अपने हाथों को कंधे पर धरकर और उनमे ऑटी लगाकर स्तनों को मला है; अतः ऊँचा होने के कारण स्तनो का ऊपरी भाग ही मला जा सका और छाती का चंदन लगा ही रह गया। इसी तरह, जल्दी मे, अच्छी तरह न धोने के कारण ऊपर के होठ का रंग पूरा न उड़ सका, पर नीचे के होठ मे कुल्लो के जल, दॉत साफ करने की अंगुली आदि की रगड़ अधिक लगती है, इस कारण वह बिलकुल साफ हो गया। नेत्रो मे जल केवल लग ही पाया, अतः ऊपर ऊपर [ ४१ ] से ही काजल हट सका। इसी प्रकार तू दुबली है और ठंड पड़ रही है, सो शरीर रोमांचित हो गया है।" इस तरह चतुर नायिका की उक्ति के अभिप्राय का छिपा हुआ होना ही उचित है, नही तो उसकी सब चतुराई मिट्टी में मिल जायगी।

इस प्रकार जब इन वाक्यों के अर्थ साधारण होंगे, तो मुख्य अर्थ मे कोई वाधा न अवेगी; अतः यहाँ लक्षणा के लिये स्थान ही न रहेगा। वाच्यार्थ समझने के अनंतर जव यह सोचेंगे कि यह बात कौन किससे कह रही है, वात नायक के विषय की है, तब यह प्रतीत होगा-दुःख देने के कारण नायक को "अधम" कहा जा रहा है। और देखिए, वह अधम शब्द वाच्य और व्यंग्य दोनों अर्थों में समान रूप से अन्वित हो जाता है। फिर, "नायक ने, पहले, जो किसी प्रकार की बुराइयाँ की थी, उसके हिसाव से, नायिका ने उसे दुःखदायी वताया है", वाच्य अर्थ मे इस प्रकार समझा हुआ अधम शब्द व्यंजना-शक्ति के द्वारा "दूती से संभोग करने के कारण जो उसका दुःखदायित्व हुआ है। उस रूप में परिणत हो जाता है-उस शब्द से यह सिद्ध हो जाता है कि "नायक ने दूती से संभोग किया है।" यह है अलंकारशास्त्र के ज्ञाताओं के सिद्धांत का सार।

इससे "अधम-शब्द का अर्थ हीन है, और हीन दो प्रकार से हो सकता है-एक जाति से, दूसरे कर्म से। सो उत्तम नायिका अपने नायक को जाति से हीन तो वता नहीं सकती। अब रही कर्म से हीनता, सो उसे भी, दूती के संभोग आदि, [ ४२ ] जो अपने (नायिका के) अपराध बन सकते हैं, ऐसे कर्म के अतिरिक्त अन्य तो बता नही सकती। और वैसे कर्म भी जो दूती के भेजने के पहले हुए थे, वे तो सब सह ही लिए गए हैं, सो उनको उघाड़ने की आवश्यकता नहीं। तब अंततोगत्वा, सब बखेड़े के हटने के बाद, दूती का संभोग ही सिद्ध होता है। यह जो आप (अप्पय दीक्षित) ने लिखा है, वह भी खंडित हो जाता है। क्योंकि चतुर और उत्तम नायिका सखियों के सामने, उसी (दूती) से संभोग करना जो अपने नायक का अपराध है, उसे स्पष्ट प्रकट करे, यह सर्वथा अनुचित है; अतः जिन पुराने अपराधों को वह सह चुकी है, वे बड़े असह्य थे, इस कारण उसे दूती के सामने उन्ही का प्रतिपादन करना अभीष्ट था। बस, इतने मे सब समझ लीजिए।

  1. * किसी नायिका ने गोदावरी नदी के तीर-वर्ती एक कुज को अपना संकेतस्थान बना रखा था, पर वहाँ एक महात्माजी नित्य पुष्प लेने के