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हिंदी रसगंगाधर/काव्य का कारण

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हिंदी रसगंगाधर
श्रीगोकुलनाथ
काव्य का कारण

इलाहाबाद: इण्डियन प्रेस, पृष्ठ १९ से – २४ तक

 

 

काव्य का कारण

अच्छा, अब यह भी सोचिए कि काव्य का कारण—जिसके होने पर ही काव्य बन सकता है, अन्यथा नहीं—क्या वस्तु है? इस विषय में भी पंडितराज का प्राचीनों से मतभेद है; आप उनके इस विषय के विचार भी सुनिए। वे कहते हैं—

काव्य का कारण केवल प्रतिभा है, और प्रतिभा शब्द का अर्थ है—काव्य बनाने के लिये जो शब्द एवं अर्थ अनुकूल हों, जिनसे काव्य बन जाय, उनकी उपस्थिति; अर्थात् काव्य बनाने के लिये जहाँ जिस शब्द की और जिस अर्थ की आवश्यकता हो, वहाँ उसका तत्काल उपस्थित हो जाना, ऐसा नहीं कि कविजी काव्य बनाने के लिये अकुला रहे हैं; परंतु न तो उसमें जोड़ने के लिये कोई सुंदर पद ही मिलते हैं और न कोई ऐसी बात ही याद आती है कि जिससे उनका कार्य सिद्ध हो जाय। उस प्रतिभा के दो कारण है—एक तो, किसी देवता अथवा किसी महापुरुष की प्रसन्नता होने के कारण, किसी ऐसे भाग्य का उत्पन्न हो जाना कि जिससे काव्यधारा अविरत चलती रहे, और दूसरा—विलक्षण व्युत्पत्ति और काव्य बनाने के अभ्यास का होना। किंतु ये तीनों सम्मिलित रूप में कारण नहीं हैं; क्योंकि कई बालकों तथा अबोधों को भी केवल महापुरुष की कृपा से ही प्रतिभा उत्पन्न हो गई है (जैसे कि कवि कर्णपूर के विषय में किवदंती है)। आप कहेंगे कि वहाँ हम उस कवि के, पूर्वजन्म के, विलक्षण (जैसे दूसरों में नहीं होते) व्युत्पत्ति और काव्य करने का अभ्यास मान लेंगे। अर्थात् उसने पूर्वजन्म में इन बातों को सिद्ध कर लिया है, अब किसी महापुरुष की कृपा होते ही वे शक्तियाँ जग उठी। पर यों मानने में तीन दोष हैं—

१—गौरव अर्थात् जब उन दोनों के कारण न मानने पर भी केवल अदृष्ट (भाग्य) से काम चल सकता है, तो क्यों उन दोनों को उसके साथ लगाकर कारणों की संख्या बढ़ाई जाय।

२—मानाभाव अर्थात् इसमें कोई प्रमाण नहीं कि, ऐसे स्थान पर भी, इन तीनों को सम्मिलित रूप में ही प्रतिभा का कारण मानना चाहिए।

३—कार्य का बिना तीनों के कारण मानने पर भी सिद्ध हो जाना।

जब कि वेदादिक किसी प्रबल प्रमाण से यह सिद्ध किया गया हो कि अमुक वस्तु अमुक वस्तु का कारण है; पर हम संसार में कुछ स्थानों पर ऐसा देखते हों—उस वस्तु (कारण) के रहते हुए भी वह वस्तु (कार्य) उत्पन्न न हो, अथवा उसके न रहने पर भी वह उत्पन्न हो जाय, तब हमको, विवश होकर (क्योंकि वेदादिक झूठें तो हो नहीं सकते), यह मानना पड़ता है—इसका कारण, उस व्यक्ति का—जिसको कारण के बिना भी कार्य की प्राप्ति हो रही है अथवा कारण के होने पर भी कार्य की प्राप्ति नहीं हो रही है—पूर्वजन्म मे किए हुए, धर्म-अधर्म आदि हैं। पर यदि वेदादिक प्रबल प्रमाण के द्वारा कारण न बताए जाने पर, हमारे निश्चित किए हुए कारणों में भी, हम किसी वस्तु को किसी वस्तु का कारण बताकर जहाँ गड़बड़ आने लगे कह दे कि—इस बात को उसने पूर्वजन्म में कर लिया है, अतः ऐसा हो गया, तो भ्रम होने लगे—लोग किसी को भी किसी वस्तु का कारण बताने लगे। अतः पूर्वोक्त स्थल में पूर्व जन्म के व्युत्पत्ति और अभ्यास को कारण मानना उचित नहीं; क्योंकि व्युत्पत्ति और अभ्यास के बिना कविता हो ही न सके यह बात कुछ वेद में थोड़े ही लिखी हुई है कि जिसके लिये यह पंचायत करनी पड़े।

अब यदि आप कहें कि हम इस गड़बड़ में पड़ना नहीं चाहते, हम तो केवल अदृष्ट को ही कारण मान लेंगे। सो भी ठीक नहीं; क्योंकि बहुतेरे मनुष्य ऐसे देखने में आते हैं कि वे बहुत समय तक काव्य करना जानते ही नही, पर कुछ दिनों के अनतर जब उनको किसी प्रकार व्युत्पत्ति और अभ्यास हो जाता है, तब उनके प्रतिभा उत्पन्न हो जाती है—वे काव्य बनाने लगते है। यदि वहाँ भी अदृष्ट को कारण मानने लगो तो व्युत्पत्ति और अभ्यास के पहले ही उनमें प्रतिभा क्यों न उत्पन्न हो गई? आप कहेंगे—थोड़े दिन के लिये उनका कोई बुरा अदृष्ट मान लीजिए, जिसने प्रतिभा की उत्पत्ति को रोक दिया; तो हम कहेंगे कि प्रायः व्युत्पत्ति और अभ्यास होने पर ही कविता बनानेवाले अधिक देखने में आते हैं, इस कारण अनेक स्थानों पर दो दो (अच्छे और बुरे) अदृष्ट मानने की अपेक्षा, कविता के रोक देनेवाले अदृष्ट के नाश करने के लिये, आपको, जिन व्युत्पत्ति और अभ्यास की कल्पना करनी पड़ती है—जिनके उत्पन्न होने से प्रतिबंधक अदृष्ट नष्ट हो जाता है, उन्हीं को कारण मान लेना उचित है। इस कारण हम जो पहले बता पाए है कि इन तीनो को (अर्थात् अदृष्ट को पृथक् और व्युत्पत्ति-अभ्यास को पृथक्) कारण मानना ही सीधा रास्ता है।

अब एक और शंका होती है—यदि अदृष्ट से भी प्रतिभा उत्पन्न होती है और व्युत्पत्ति तथा अभ्यास से भी, और काव्य दोनों से बन सकता है, तो दो भिन्न भिन्न कारणों से एक ही प्रकार का काम (प्रतिभा) उत्पन्न होने के कारण दोनों के कामो में गोटाला हो जायगा। और यह उचित नही, क्योंकि प्रकृति का नियम है कि भिन्न भिन्न कारणों से कार्य भी भिन्न भिन्न ही उत्पन्न हो। इसका उत्तर यह है—यद्यपि प्रतिभा दोनों का नाम है, तथापि अदृष्ट से उत्पन्न होनेवाली प्रतिभा दूसरी है और व्युत्पत्ति तथा अभ्यास से उत्पन्न होनेवाली दूसरी, अतः अदृष्ट और व्युत्पत्ति—अभ्यास के कामों में गोटाला नहीं हो सकता। (इस बात को हम उदाहरण देकर स्पष्ट कर देते हैं—जैसे गन्ने से भी शक्कर बनती है और चुकंदर से भी, और लड्डू दोनों से बन सकते हैं, पर दोनों शक्कर भिन्न भिन्न प्रकार की होती हैं। इसी प्रकार पूर्वोक्त दो भिन्न भिन्न कारणों से उत्पन्न होनेवाली दोनों प्रतिभाएँ भिन्न भिन्न हैं और उन दोनों से काव्य बन सकता है।) बस, काव्य बनने के लिये किसी प्रकार की प्रतिभा होने की आवश्यकता है। तात्पर्य यह कि दोनों प्रकार की प्रतिभाओं से एक ही प्रकार का काव्य बनता है, काव्य में कोई भेद नहीं होता। दूसरा पक्ष यह है—दोनों प्रतिभाओं से काव्य भी भिन्न भिन्न प्रकार के होते हैं—अर्थात् अदृष्ट से जो प्रतिभा उत्पन्न होती है, उससे बना काव्य दूसरे प्रकार का होता है और व्युत्पत्ति तथा अभ्यास से उत्पन्न हुई प्रतिभा से बना दूसरे प्रकार का। अतः उन दोनों कारणों के कार्यों का कही भी मिलान नहीं होता, वे दोनों ठेठ तक भिन्न ही भिन्न रहती हैं।

इसके अनंतर एक बात और रह जाती है। वह यह कि—जिन मनुष्यों में व्युत्पत्ति और अभ्यास दोनों होते हैं, उनमें भी प्रतिभा क्यों नही उत्पन्न होती है इसके विषय में हम पहले ही कह चुके हैं कि वे व्युत्पत्ति और अभ्यास विलक्षण (विशेष प्रकार के) होते हैं। उन लोगों में वे वैसे नहीं होते; अतः उनसे काव्य नहीं बनाया जा सकता। अथवा, किसी विशेष प्रकार के पाप को उनकी प्रतिभा का प्रतिबंधक मान लेना चाहिए। आप कहेंगे कि आपको यह झगड़ा नया उठाना पड़ा, तो हम कहते है—यह नया नहीं है, यह तो तीनों को इकट्ठे कारण माननेवाले और केवल प्रतिभा अथवा शक्ति को कारण माननेवाले—दोनों के लिये समान ही आवश्यक है, क्योंकि प्रतिवादी जब मत्रादिको से, कुछ दिनों के लिये किसी अनेक काव्य बनानेवाले कवि की भी वाणी को रोक देता है, तो उससे काव्य नहीं बनाया जाता, यह देखा गया है।[]

  1. यहाँ महामहापाध्याय श्रीगंगाधर शास्त्रीजी की टिप्पणी है, जिसका सारांश यह है—प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास—तीनों को सम्मिलित रूप से ही विशिष्ट काव्य का कारण मानना उचित है। विशिष्ट काव्य का अर्थ है अलौकिक वर्णन की निपुणता से युक्त कवि का कार्य। अब देखिए, शक्ति दो प्रकार की होती है—एक काव्य को उत्पन्न करनेवाली और दूसरी (कवि को) व्युत्पन्न करनेवाली। उनमें से दूसरी व्युत्पादिका—शक्ति का नाम ही निपुणता है। और अभ्यास से काव्य में अलौकिकता आती है। पहली शक्ति से पद जोड़ देने पर भी दूसरी शक्ति के न होने पर विलक्षण वाक्यार्थ का ज्ञान न होने के कारण कवि में अलोकिक वर्णन की निपुणता न हो सकेगी। अतः यही उचित है कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों को—सम्मिलित रूप—काव्य का कारण माना जाय।
    इस पर हमें कुछ लिखना है। सुनिए प्राचीन और नवीन सभी आचार्यों के मत से काव्य उसी का नाम है, जो चमत्कारी हो, केवल तुकबंदी-मात्र को किसी ने भी काव्य नहीं माना। अर्थात् जिसे आप विशिष्ट काव्य कहते है, उसी का नाम तो काव्य है। तब यह सिद्ध होता है—जिसे आप उत्पादिका शक्ति मानते है, वह काव्य की उत्पादिका तभी हो सकती है, जब कि उसमें पूर्वोक्त कवि कर्म को उत्पन्न करने की योग्यता हो, न कि केवल तुकबंदी करवा देने की। अतएव काव्यप्रकाशकार का "शक्तिर्निपुणता" इस श्लोक की व्याख्या करते हुए, शक्ति के विषय में यह लिखना सगत होता है कि "शक्तिः कवित्वबीजरूप संस्कारविशेषः, यां बिना काव्यं न प्रसरेत्, प्रसृतं वो पहसनीयं स्यात्।" (अर्थात् शक्ति एक प्रकार का संस्कार है, जो कि कविता का बीजरूप है, जिसके बिना काव्य फैल नहीं सकता अथवा यों कहिए कि फैलने पर भी उपहसनीय होता है। अन्यथा बिना शक्ति के बनाए हुए काव्य को उपहसनीय लिखना कुछ भी तात्पर्य न रख सकेगा, क्योकि बिना शक्ति के काव्य उत्पन्न ही नहीं होता, तब उपहास किसका होगा? अतः यह मानना चाहिए कि कान्यप्रकाशकार के हिसाब से अनुपहसनीय अथवा आपके हिसाब से विशिष्ट काव्य के उत्पन्न करनेवाली शक्ति का नाम ही, शक्ति है और उसे ही कहते है प्रतिभा! अतएव जब किसी की रचना चमत्कारी नहीं होती तो हम कहते है कि कवि में प्रतिभा नहीं है। साधारण पदयोजना की शक्ति को प्रतिभा के रूप में परिणत करना व्युत्पत्ति और अभ्यास का काम है। अतः उनको प्रतिभा का कारण मानना ही युक्तिसंगत है, सहकारी मानना नहीं। सो तीनों को सम्मिलित रूप में कारण मानने की अपेक्षा अंतिम दोनों को प्रतिभा का कारण मानना और केवल प्रतिभा को काव्य का कारण मानना, जैसा कि पंडितराज का मत है, वंचित जँचता है।