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हिंदी रसगंगाधर/रसों के अवांतर भेद और उदाहरण आदि

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इलाहाबाद: इण्डियन प्रेस, पृष्ठ ९२ से – १३२ तक

 

रसों के अवांतर भेद और उदाहरण आदि
शृंगार-रस

शृंगार-रस दो प्रकार का है-संयोग और विप्रलंभ। यदि स्त्री पुरुषों के संयोग के समय मे प्रेम हो, तो 'संयोग-शृंगार' कहलाता है, और यदि वियोग के समय मे हो, तो 'विप्रलंभ-शृंगार। पर संयोग का अर्थ 'स्त्री-पुरुषो का एक स्थान पर रहना' नही है; क्योंकि एक पलंग पर सोते रहने पर भी, यदि ईर्ष्या आदि हों, तो 'विप्रलंभ-रस' का ही वर्णन किया जाता है। इसी तरह वियोग का अर्थ भी 'अलग अलग रहना नहीं है; क्योंकि वही दोष यहाँ भी कहा जा सकता है। अतः यह मानना चाहिए कि 'संयोग' और 'वियोग' ये दोनों एक प्रकार की चित्तवृत्तियाँ हैं, और वे हैं 'मिला हुआ हूँ' और 'बिछुड़ा हुआ हूँ' यह ज्ञान। उनमे से 'संयोग-शृंगार' का उदाहरण 'शयिता सविधेऽप्यनीश्वरा' एवं 'सोई सविध सकी न करि...' इत्यादि पहले वर्णन कर चुके हैं। जो कि 'चित्र-मीमांसा' मे लिखा है-"वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। जगतःपितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरी॥ (अर्थात् वाणी और अर्थ की तरह मिले हुए, जगत् के जननी-जनक पार्वती और परमेश्वर (शिव) को, वाणी और अर्थ के ज्ञान के लिये, अभिवादन करता हूँ) इस पद्य मे शृंगार-रस की ध्वनि है; क्योंकि इससे शिव-पार्वती का सर्वाधिक प्रेमयुक्त होना ध्वनित होता है।" सो यह ध्वनि के मार्ग को न समझने के कारण लिखा गया है। इस श्लोक मे पार्वती और परमेश्वर के विषय में कवि का प्रेम प्रधान है, और उन दोनों (शिव-पार्वती) का पारस्परिक प्रेम उसकी अपेक्षा गौण हो गया है; और गौण रति आदि के कारण काव्य को 'रस-ध्वनि' कहना उचित नहीं; क्योंकि यह सिद्धांत है-

भिन्नो रसाद्यलङ्कारादलङ्कार्यतया स्थितः।

अर्थात् जिसको अलंकारादिकों से शोभित किया जाता है, वह ( रसादिक) रस-भाव आदि को शोभित करनेवाले अलङ्कार रूप रस आदि से भिन्न है। तात्पर्य यह कि जिनके कारण काव्य को 'ध्वनिरूप' कहा जाता है, वे रसादिक किसी की अपेक्षा गौण नहीं होते, उन्हे अन्य अलंकारादिक शोभित करते हैं, वे किसी को नहीं। दूसरे रसादिको को अलङ्कत करनेवाले रसादिक उनसे भिन्न हैं। यह तो हुई 'संयोग-शृंगार' की बात, अब 'विप्रलंभ-शृंगार' का उदाहरण सुनिए; जैसे-

वाचो माङ्गलिकीः प्रयाणसमये जल्पत्यनल्पं जने
केलीमन्दिरमारुतायनमुखे विन्यस्तवक्त्राम्बुजा।
निःश्वासग्लपिताधरोपरिपतद्वाष्पावक्षोरुहा
वाला लोलविलोचना शिव! शिव! प्राणेशमालोकते॥
XXXX

पिय-गौन-समै सब लोग करें बहु भांति उचारन मंगल-बानी।
मुख-कंज दिए रति-मंदिर के सुठि गोख के द्वार महा-अकुलानी॥

अति-सांस ते सूखे भए अधरा पर ते कुच डारती लोचन-पानी।
वह बालिका चंचल नैनन ने निज-नाथ निहारत हाय! अयानी॥

एक सखी दूसरी सखी से कहती है-पतिदेव के परदेश जाने का समय है, लोग अत्यधिक मांगलिक वचन वोल रहे हैं, पर वह चंचलनयनी बालिका (नवोढ़ा) रति-भवन के झरोखे मे मुख-कमल डाले हुए बैठी है, अत्यंत श्वासों के कारण कुम्हलाए हुए अधरों पर अश्रु गिर रहे हैं और उनसे कुच भीग गए हैं। शिव! शिव!! ऐसी दशा को प्राप्त हुई वह अपने प्राणनाथ को देख रही है। उस बेचारी को न यह बोध है कि अश्रु गिरने से अशकुन होगा और न यही शंका है कि लोग क्या कहेंगे।

इस पद्य मे (नायिका के प्रेमपात्र) नायकरूपी आलंबन के, निःश्वास, अश्रु-पातादिरूप अनुभाव के और विषाद, चिंता, आवेग आदि व्यभिचारी भावों के संयोग से ध्वनित हुई नायिका की रति, वियोग-काल मे होने के कारण 'विप्रलंभ रस' के निर्देश का कारण है। अथवा; जैसे-

आविर्भूता यदवधि मधुस्यन्दिनी नन्दसूनोः
कान्तिः काचिनिखिलनयनाकर्षणे कार्मणज्ञा।
खासा दीर्घस्तदवधि मुखे पाण्डिमा गण्डयुग्मे
शून्या वृत्तिः कुलमृगदृशां चेतसि प्रादुरासीत्॥
XXXX

जनमी जब ते जग मे सजनी, मधु-धारन की बरसावनहारी।
ब्रजराजकिशोर की कान्ति कछू जन-नैन-विमोहिनी कामनगारी॥
तबते सगरी कुल-नारिन की सब हालत हाय! भई कछु न्यारी।
मुख दीरघ सास, कपालन पै सितता, हिय मे भइ शून्यता भारी॥

जब से मधु बरसानेवाली और सब मनुष्यों के नेत्रों को आकर्षण करने का जादू जाननेवाली नंद-नंदन की अनिर्वचनीय कांति उत्पन्न हुई है तब से कुलांगनाओं के मुख मे दीर्घ श्वास, दोनों कपोलों पर सफेदी एवं चित्त मे शून्यवृत्ति (विचाररहितता) उत्पन्न हो गई है। अथवा, जैसे-

नयनाञ्चलावमर्श या न कदाचित् पुरा सेहे।
आलिङ्गिताऽपि जोष तस्थौ सा गन्तुकेन दयितेन॥

XXXX
नैन-कोन को मिलन जो सहन कियो कबहूँ न।
आलिङ्गित हू पिय-गवन वहै करति है चूँ न।

जिस नायिका ने, पहले कभी, नेत्र के प्रांत का मिल जाना भी सहन न किया था, वही (वियोग के समय) परदेश जानेवाले पति से आलिंगन की हुई भी चुप खड़ी थी, चूँ भी न करती थी। इस पद्य मे भी स्वाभाविक चंचलता की निवृत्ति अनुभाव और जड़ता व्यभिचारी भाव है।

प्राचीन आचार्यों ने इस विप्रलंभ रस-को प्रवास आदि उपाधियों से पॉच प्रकार का माना है, पर प्रवास*[], अभिलाष, विरह, ईर्ष्या और शाप के कारण जो वियोग होते हैं, उनमें कोई विशेषता न समझ पड़ने के कारण हमने उनका विस्तार नहीं किया।

करुण-रस, जैसे-
अपहाय सकलवान्धवंचिन्तामुद्वास्य गुरुकुलमणयम्।
हा! तनय!! विनयशालिन्!!! कथमिव परलोकपथिकोऽभूः।

सब बंधुन को सोच तजि तजि गुरकुल को नेह।
हा! सुशील सुत!! किमि कियो अनत लोक ते गेह॥

हाय! अत्यंत सुशील बेटे! तू सब बंधुओं की चिता को त्यागकर और गुरुकुल के प्रेम को भी हटाकर किस तरह परलोक का पथिक हो गया!

यहाँ मरा हुआ पुत्र आलंबन है, उस समय मे आए हुए बांधवों का दर्शन आदि उहीपन हैं, रोना अनुभाव है और दैन्य आदि व्यभिचारी भाव हैं।

शांत-रस; जैसे-
मलयानिलकालकूटयो रमणीकुन्तलभोगिभोगयोः।
श्वपचात्मभुवोर्निरन्तरा मम जाता परमात्मनि स्थितिः॥


मलय-अनिल अरु गुरु मरल, तिय-कुन्तल अहि-देह।
सुपच रु विधि को भेद तजि मम थिति भई अछेह॥

मलयाचल के वायु और विष मे, स्त्रियों के सिंदूर-पूरित केश और मर्प के शरीर में एवं चण्डाल तथा ब्रह्मा मे भेद-भावरहित मेरी स्थिति, परमात्मा मे, हो गई है।

यहाँ सब जगत् आलंबन है, सब व्यक्तियों और वस्तुओं मे समानता अनुभाव है और मति आदि संचारी भाव हैं। यद्यपि पूर्वार्ध मे पहले उत्तम (मलय-पवन आदि) का वर्णन और पीछे अधम (विष आदि) का वर्णन है; पर उत्तरार्ध में पहले अधम (श्वपच) का और पीछे उत्तम (ब्रह्मा) का वर्णन है, अतः 'प्रक्रम-भंगा दोष है अर्थात् जिस क्रम से प्रारंभ किया गया, उसी क्रम का समाप्तिपर्यंत निर्वाह नहीं हो सका; तथापि "कहनेवाला, ब्रह्मरूप होने के कारण, उत्तमअधम के ज्ञान से रहित हो गया है। यह वात प्रकाशित करने के लिये 'क्रमभंग' गुण ही है-अर्थात् इससे वक्ता की उत्तमाधम-ज्ञान-शून्यता प्रकाशित होती है, जो कि ब्रह्मज्ञानी के लिये आवश्यक है। सो यह दोष नहीं, गुण है। यह तो हुआ शांतरस का उदाहरण; अव उसका प्रत्युदाहरण भी सुनिए-

सुरस्रोतविन्याः पुलिनमधितिष्ठन्नयनयो-
र्विधायान्तर्मुद्रामथ सपदि विद्राव्य विषयान्।

विधूतान्तर्ध्वान्ता मधुर-मधुरायां चिति कदा
निमग्नः स्यां कस्याञ्चन नव-नभस्याम्बुदरुचि॥
****

श्रीगंगा के पुलिन बैठि करि नयन-निमीलन।
तजिके महा-उपाधिल्प ये सकल विषयान॥
अन्त करण मलीन करि दियो जाने इकदम।
करिके दूर समग्र वह अज्ञानरूप तम॥
भादौं के नव-धन-सरिस परम मनोहर कान्तिमय।
मधुर मधुर चैतन्य मे होवेगो कठ नम विलय॥

श्रीगंगाजी के वालुकामय तट पर बैठा हुआ मैं, आँखें मीचकर, सब सांसारिक विषयों को, उसी समय, दूर हटाकर एवं अंतःकरण के अंधकार (अज्ञान) से रहित होकर, भाद्रपद के नवीन मेघ के समान कांतियुक्त किसी (अनिर्वचनीय) परममधुर चैतन्य मे कब निमग्न हो जाऊँगा-उसकी तन्मयता मुझे कब प्राप्त होगी।

यद्यपि इस पद्य में भी विषयों का निरादर आलंबन है, गंगा के तट आदि उहीपन हैं, आँखो का मींचना आदि अनुभाव हैं और उनके संयोग से स्थायी भाव निर्वेद की प्रतीति होती है; तथापि भगवान् वासुदेव को प्रेमपात्र मानकर जो कवि का प्रेम है, उसकी अपेक्षा निर्वेद गौण हो गया है। इस कारण निर्वेद के रहते हुए भी यह पद्य 'शांत-रस' की ध्वनि नहीं कहा जा सकता। यह पद्य मेरी (पंडितराज की) बनाई हुई 'करुणा-लहरी' नामक पुस्तक मे लिखा गया है और उसमे भाव (भगवत्प्रेम) ही प्रधान है, अतः इस पद्य मे भी उसी की प्रधानता उचित है। दूसरे, इस पद्य की ओजस्विनी रचना भी शांत-रस के प्रतिकूल है, इस कारण भी इसे उसके उदाहरण रूप में उपस्थित करना उचित नहीं। यदि कहो कि 'मलयानिलकालकूटयोः...' इस पूर्वोक्त पद्य मे भी 'परमात्मा मे स्थिति' का वर्णन है, अतः वहाँ भी भाव प्रधान होना चाहिए, उसे शांत-रस का उदाहरण कैसे कह दिया, तो उसका उत्तर यह है कि वहाँ 'परमात्मा मे स्थिति हो गई है। यह लिखा है, सो उसे अपने आत्मा मे भगवद्रूपता का बोध होने के कारण प्रेम की प्रतीति नहीं होती; क्योंकि प्रेम पृथक् समझने पर ही हो सकता है, ऐक्यज्ञान होने पर नहीं।

रौद्र-रस, जैसे-
नवोच्छलितयौवनस्फुरदखवगर्वज्वरे
मदीयगुरुकामकं गलितसाध्वसं वृश्चति।
अयं पततु निर्दयं दलितदृप्तभूभृद्गल-
स्खलद्रुधिरघस्मरो मम परश्वधो भैरवः॥

****

नव-जौवन की बाढ़ ते बड़े गरब ते फाटि।
मेरे गुरु को धनुष यह निरभै ह्वै दिय काटि।
निरभै ह्वै दिय काटि अबै यह अतिसय भीषण।
तृप्त दृप्त भूपाल-कंठ-शोणित करि भतण॥

मेरो फरसा पड़े तासु ऊपर निदेय-मन।
ह्वै जावै परतच्छ वच्छ को सब नव-जौवन॥

सीता-स्वयंवर मे, परशुराम ने, जब धनुष के टुकड़े हुए देखे तो उनसे न रहा गया। वे वोले-किसी को, नवयौवन की उमंग के कारण, अभिमानरूपी चर तेज हो गया है, तभी तो उसने निर्भय होकर मेरे गुरु-भगवान शिव का धनुष तोड़ डाला। अच्छा, अब (मेरी इच्छा है कि) उसके ऊपर यह मेरा भयंकर फरसा निर्दयता के साथ गिरे, जिसने काटे हुए अभिमानी भूमिपतियों के गले से झरते हुए रुधिर का पान किया है। मैं चाहता हूँ कि उस उन्मत्त की निर्दयतापूर्वक खबर ली जाय।

यहाँ जिसको परशुराम ने, उस समय, यह नही जाना था कि 'यह भगवान राम हैं', वह गुरु (शिवजी) के धनुष को तोड़ देनेवाला आलवन है। गुरुद्रोही का नाम न लेना चाहिए इस कारण, अथवा क्रोध उत्पन्न हो जाने के कारण, 'वाड़नेवाला' यह विशेषण मात्र ही कहा गया है, विशेष्य (तोड़नेवाले का नाम) नहीं कहा गया। एक प्रकार की भुवन व्यापी ध्वनि से अनुमान किया हुआ 'निर्भय होकर धनुष तोड़ देना' उद्दीपन है, कठोर वचन अनुभाव है और गर्व, उग्रता आदि संचारी भाव हैं। यह धनुष के भग की ध्वनि से समाधि टूट जाने पर परशुरामजी की उक्ति है। इस पद्य की अत्यंत उद्धत रचना भी रौद्ररस की परम ओजस्विता को पुष्ट करती है।

यद्यपि अन्यत्र गुरु का स्मरण होने पर अहंकार का निवृत्त हो जाना आवश्यक है, पर इस प्रसंग मे, ऐसे अवसर पर भी, गर्व का उत्कर्ष प्रकाशित होने से परशुरामजी की विवेकरहितता स्पष्ट प्रतीत होती है, और उसके द्वारा उनके क्रोध की अधिकता ज्ञात होती है। यहाँ गर्व का उत्कर्ष प्रकाशित करनेवाला, गुरु के साथ लगा हुआ 'मेरे' शब्द है; उससे 'अजहत्स्वार्था लक्षणा' के द्वारा यह ध्वनित होता है कि "मैं पृथ्वी को इक्कीस बार निःक्षत्रिय करनेवाला हूँ (फिर मेरे गुरु के धनुष को कौन छू सकता है। यह तो है उदाहरण, अब प्रत्युदाहरण सुनिए-

धनुर्विदलनध्वनिश्रवणतत्क्षणाविर्भव-
न्महागुरुवधस्मृतिः श्वसनवेगधूताधरः।
विलोचनविनिःसरद्बहलविस्फुलिङ्गव्रजो
रघुप्रवरमाक्षिपञ्जयति जामदग्न्यो मुनिः॥

XXXX

धनु-विदलन को शब्द सुनि मरण भयो तत्काल।
परम-गुरू जमदग्नि के वध को सब अहवाल॥
वध को सब अहवाल सांस कंपे दशनच्छद।
नैननि निकसत उग्र आग के कनिका बेहद॥
जयति परशुधर राम राम पैह्र निर्दय मन।
करत प्रबल आक्षेप कियो क्यों तै धनु-विदछन॥

जिनको धनुष टूटने का शब्द सुनते ही, तत्काल, महागुरु जमदग्नि के वध का स्मरण हो आया, अतएव श्वास-वायु के वेग से नीचे का होठ फड़कने लगा और नेत्रों से आग की चिनगारियों का भारी समूह निकलने लगा, ऐसी दशा मे रामचंद्र पर आक्षेप करते हुए मुनि परशुराम सबसे उत्कृष्ट हैं।

यहाँ भी, यद्यपि अपराधपात्र भगवान रामचंद्र पालंबन हैं, धनुष टूटने के शब्द का सुनना उद्दीपन है, श्वास तथा नेत्रों का जलना आदि अनुभाव है, पिता के वध का स्मरण, गर्व और उप्रता आदि संचारी भाव है और इनके द्वारा क्रोध अभिव्यक्त होता है; तथापि जिसके कारण कवि ने परशुरामजी का वर्णन किया है, उस कवि के प्रेम की अपेक्षा क्रोध गौण हो गया है, अतः उसके कारण इस पद्य को रौद्र-रस की ध्वनि नही कहा जा सकता।

अच्छा, अब यहाँ एक प्रसंगप्राप्त वात भी सुन लीजिए। 'काव्य-प्रकाश' मे रौद्र-रस का यह उदाहरण दिया गया है-

'कृतमनुमतं दृष्टं वा यैरिदं गुरुपातकम्
मनुजपशुभिर्निर्मर्यादैर्भवद्भिरुदायुधैः।
नरकरिपुणा सार्द्धं तेषां सभीमकिरीटिना-
मयमहमसृङ्मेदोमांसैः करोमि दिशां वलिम्॥'

'वेणीसंहार' नाटक के तृतीय अंक में द्रोण-वध से कुपित अश्वत्थामा की, अर्जुन आदि के प्रति, यह उक्ति है-

शस्त्र उठानेवाले जिन मर्यादारहित, नरपशुओ ने गुरु (द्रोणाचार्य) का वधरूपी पातक किया है या उसमे अनुमति दी है अथवा उसे आँखो देखा है, कृष्ण, भीम और अर्जुन के साथ साथ-उन सभी लोगो के रुधिर, मज्जा तथा मांस से अकेला ही मैं दिग्देवताओ की बलि करता हूँ।

इस पद्य की रचना रौद्र-रस को व्यक्त नहीं कर सकती-इस रचना मे वह शक्ति नहीं कि जिसके सुनते ही यह पता लग जाय कि यह रौद्र-रस के वर्णन का पद्य है; सो यह उस पद्य के निर्माता की अशक्ति ही है।

वीर-रस

वीर-रस चार प्रकार का है; क्योंकि वीर-रस का स्थायी भाव जो 'उत्साह' है, वह दान, दया, युद्ध और धर्म इन चार कारणों से चार प्रकार का है। उनमे से पहला-अर्थात् दानवीर; जैसे-

कियदिदमधिकं मे यद् द्विजायार्थयित्रे
कवचमरमणीयं कुंडले चार्पयामि।
अकरुणमवकृत्य द्राक् कृपाणेन निर्य-
ह्वहलरुधिरधारं मौलिमावेदयामि॥

XXXX

अरपे याचत दुजहिं कवच कुंडल साधारण।
कहहु कहा यह अधिक भयो मम हे सदस्य-गण॥
निर्दयता से काटि कठ झट पट्ट खड्ग सन।
भूरि रक्त की धार भरत शिर करो निवेदन॥

मेरे लिये यह क्या अधिक बात है कि मैं मॉगने आए हुए ब्राह्मण को, साधारण से, कवच और कुंडल अर्पण कर रहा हूँ। लीजिए, यदि वह चाहे तो, निर्दयता के साथ, तलवार से तत्काल काटकर गहरी रुधिर-धारा झरते हुए (अपने) शिर को भी निवेदन कर रहा हूँ। यह, ब्राह्मण का वेष धारण करके आए हुए इंद्र को कवच और कुण्डल देने के लिये, उद्यत देखकर, उस दान से आश्चर्ययुक्त सभासदो के प्रति, कर्ण का कथन है।

यहाँ माँगनेवाला आलंबन है, उसकी वर्णन की हुई स्तुति उद्दीपन है, कवचादिक का दान करना और उनको साधारण समझना अनुभाव है और 'मेरे लिये' इस शब्द से 'अर्थीतरसंक्रमितवाच्य ध्वनि' से सूचित किया हुआ गर्व एव अलौकिक पिता भगवान् भुवन-भास्कर से अपने उत्पन्न होने आदि का स्मरण संचारी भाव है। इस पद्य की रचना भी उन उन अर्थों के अनुकूल ओज और मृदुता दोनों से युक्त होने के कारण सहृदयों के हृदय (अन्तःकरण) मे चमत्कार उत्पन्न कर देनेवाली है। देखिए-पूर्वार्ध मे कवच और कुण्डल के अर्पण को साधारण बताना उत्साह का पोषक है इसलिये उसके अनुकूल मृदुरचना है, और उत्तरार्ध मे '......मौलि' के पहले, वक्ता के गर्व और उत्साह को पुष्ट करने के लिये, उद्धत है; पर उसके बाद ब्राह्मण के विषय मे विनययुक्तता प्रकाशित करने के लिये फिर मृदु है। इसी कारण 'निवेदन कर रहा हूँ! कहा, 'देवा हूँ' अथवा 'वितरण करता हूँ' नहीं। निम्नलिखित पद्य 'दान-वीर' का उदाहरण नही हो सकता-

यस्योद्दामदिवानिशार्थिविलसद्दानप्रवाहप्रथा-
माकर्ण्यावनिमण्डलागतवियद्बन्दीन्द्रवन्दाननात्।
ईर्ष्यानिर्भरफुल्लरोमनिकरव्यावल्गदूधःस्रव-
त्पीयूषप्रकरैः सुरेन्द्रसुरभिः प्रावृट्पयोदायते॥

****

जाचक-जन-हित नित्य सुभग निरवधि वितरन ते।
उपजी कीरति जासु, फिरे जे मनुज-भुवन ते॥
तिन बंदिन मुख जानि होत ईर्ष्या अति भारी।
ताते इकदम फूलि उठत रोमावलि सारी॥
सो चञ्चल-गादी गिरत नव-पय-चय-प्रासार सन।
होत सुरेश्वर की सुरभि ज्यो पावस को सघन घन॥

भूमंडल से लौटकर आए हुए स्वर्गीय बंदीजनो के समूह के मुख से, जिसकी, याचक लोगों में सुशोभित होनेवाली रात-दिन दान के प्रवाह की ख्याति को सुनकर ईर्ष्या के कारण अत्यंत पुलकित कामधेनु फड़कती हुई गादी मे से झरते हुए नवीन दुग्ध के समूहों के कारण वर्षा ऋतु के मेघ सी वन जाती है उसके स्तनों से दूध की अविरल धारा प्रारंभ हो जाती है।

यहाँ इंद्र-सभा मे बैठे हुए सब दर्शक लोग आलंवन है, भूमंडल से आए हुए स्वर्गीय वदीजना के मुख से किए हुए राजा के दान का वर्णन उद्दीपन है, गादी से करते हुए नवीन दूध का समूह अनुभाव है और ईर्ष्या के द्वारा ध्वनित हुई राजा के दान-वर्णन को साधारण दिखाने की बुद्धि, जिसे 'असूया' कहना चाहिए, वह और अन्य ऐसी ही चित्तवृत्तियाँ संचारी भाव हैं। इनके संयोग से यद्यपि कामधेनु का उत्साह अमिव्यक्त होता है; तथापि वह राजा की स्तुति की अपेक्षा गौण हो गया है, अतः उसको लेकर यहाँ वीर-रस नहीं कहा जा सकता। इसी कारण यह उदाहरण भी नहीं बन सकता-

साब्धिद्वीपकुलाचलां वसुमतीमाक्रम्य सप्तान्तरां
सवी द्यामपि सस्मितेन हरिणा मन्दं समालोकितः।
प्रादुर्भूतपरप्रमोदविदलद्रोमाञ्चितस्तत्क्षणं
व्यानम्रीकृतकन्धरोऽसुरवरो मौलिं पुरो न्यस्तवान्।

****

उदधि, दीप, कुल-अचल सहित सब भुवहि स्ववश कै।
सब सुरगहु कों, लगे देखिवे हरि सस्मित ह्वै॥
उपज्यो परम प्रमोद, भयो पुलकित, अरु सत्वर।
शिर आगे धरि दीन्ह असुर, करि नम्र शिरोधर॥

समुद्रो, द्वीपो एवं कुलपर्वतों के सहित पृथ्वी को और सात कोटवाले समग्र वर्ग को भी आक्रमण करने के अनन्तर भगवान् वामन ने जव कुछ हँसकर राजा बलि की तरफ (तीसरे पैंड के लिये ) थोड़ा सा देखा, तो उस असुरश्रेष्ठ ने अत्यन्त आनन्द की उत्पत्ति के कारण पुलकित होकर, तत्काल गरदन नीची करके सिर सामने रख दिया, कहा-लो, एक पैर इस पर भी धरकर इसे भी स्वीकार कर लो।

यहाँ भगवान् वामन आलंबन है, उनका थोड़ा सा देखना उद्दीपन है, रोमांचादिक अनुभाव हैं और हर्षादिक संचारी भाव हैं । यद्यपि इनके संयोग से 'उत्साह' अभिव्यक्त होता है, तथापि वह गौण हो गया है; क्योकि जिस तरह पहले पद्य मे दूसरे (कामधेनु) का उत्साह राजा की स्तुति को उत्कृष्ट करनेवाला था, उसी तरह यहाँ राजा (बलि) का उत्साह भी राजा की स्तुति को उत्कृष्ट करता है; सो स्तुति प्रधान हुई और उत्साह गौण।

इससे यह भी सिद्ध हुआ कि काव्यपरीक्षा-कर्त्ता श्रीवत्सलांछन भट्टाचार्य ने जो वीर-रस का यह उदाहरण दिया है-

'उत्पत्तिर्जमदग्नितः स भगवान् देवः पिनाकी गुरुः।
शौर्यं यत्तु न तद् गिरां पथि ननु व्यक्तं हि तत् कर्मभिः।
त्यागः सप्तसमुद्रमुद्रितमहीनिर्व्याजदानावधिः
क्षत्त्रब्रह्मतपोनिधेर्गगवतः किंवा न लोकोत्तरम्॥'

'महावीरचरित' नाटक के द्वितीय अंक मे धनुष तोड़ने से कुपित परशुराम के प्रति यह रामचन्द्र की उक्ति है-

भगवन्। आपकी महिमा लोकोत्तर है, आपके पिता महर्षि जमदग्नि हैं, आपने साक्षात् शिवजी से धनुर्वेद का अध्य यन किया है, आपकी वीरता तो आपके कर्तव्यों से ही स्पष्ट है। उसके वर्णन के लिये शब्द नही मिलते। आपके त्याग का तो कहना ही क्या? सप्त समुद्र मुद्रित पृथ्वी का, बिना किसी लगाव या स्वार्थ के, दे डालना हँसी खेल नहीं है। आप ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनो की तपस्या के निधान हैं। आपकी सभी बातें निराली है। वह उदाहरण ठीक नही; क्योंकि वह भी दूसरे का अग होने से गुणीभूत व्यंग हो गया है। 'रसध्वनि' मे वह उदाहरण उचित नहीं।

यहाँ एक शंका हो सकती है कि आपने जो 'दान-वीर' का उदाहरण दिया है 'अकरुणमवकृत्य.....इत्यादि'; उसमें प्रतीत होनेवाला 'दान-वीर (रस)' भी कर्ण की स्तुति का अंग है-उससे भी कर्ण की प्रशंसा सूचित होती है, अतः उसे आपने ध्वनि-काव्य कैसे बताया? हाँ, यह सच है; पर, थोड़ा ध्यान देकर देखिए, उस पद्य मे कवि का तात्पर्य तो कर्ण के वचन का केवल अनुवाद करने मात्र मे है, कर्ण की स्तुति करना तो उसका प्रतिपाद्य है नही, और कर्ण है महाशय, इस कारण उसका भी अपनी स्तुति मे तात्पर्य हो नहीं सकता, क्योंकि अपनी बड़ाई करना क्षुद्राशयों का काम है। सो उस वाक्य का अर्थ (तात्पर्य) तो कर्ण की स्तुति है नहीं, किंतु वीर-रस की प्रतीति के अनंतर, वैसे उत्साह के कारण, रसज्ञो के हृदय मे वह (स्तुति) अनुमित होती है। पर जहाँ राजा का वर्णन हो, वहाँ तो राजा की स्तुति मे ही पद्य का तात्पर्य रहता है। अतः वह स्तुति वाक्यार्थ रूप होती है, सो उसे प्रधान माने बिना गुजारा नही। दूसरा दयावीर; जैसे-

न कपोत! भवंतमण्वपि स्पृशतु श्येनसमुद्भवं भयम्।
इदमद्य मया तृणीकृतं भवदायुःकुशलं कलेवरम्॥

****

जनि कपोत, तुहि तनिक हूँ छुवै वाज-भय, आज।
यह तन तिनका मैं कियो तेरे जीवन-काज॥

हे कबूतर, (मैं चाहता हूँ कि) बाज का भय तेरा किचिन्मात्र भी स्पर्श न करे। आज, मैंने, तेरे जीवन को कुशलता प्रदान करनेवाले इस शरीर को तिनका बना दिया है-मैं इस शरीर को तिनके की तरह समझकर नष्ट कर रहा हूँ और चाहता हूँ कि बाज के द्वारा तुझे किसी प्रकार का भय न हो। अथवा इस पद्य की रचना यों समझिए-

न कपोतकपोतकं तव स्पृशतु श्येन मनागपि स्पृहा।
इदमद्य मया समर्पितं भवते चारुतरं कलेवरम्॥

****

जनि कपात-पातहि छुवै तनिक हु तुव मन बाज!
यह तुव हित अरपन कियो सुघर कलेवर आज॥

हे बाज। (मैं चाहता हूँ कि) तेरी इच्छा (इस) कबूतर के बच्चे का किचिन्मात्र भी स्पर्श न करे। मैंने,आज, तेरे लिये इस परम रमणीय शरीर का समपर्ण कर दिया है निर्मम होकर, इसे, तिनके की तरह तुझे सौंप दिया है। यह राजा शिबि की, पहले पद्य मे कबूतर के प्रति और दूसरे पद्य मे बाज के प्रति, उक्ति है।

यहाँ कबूतर आलंबन है, उसका व्याकुल होना उद्दीपन है और उसके लिये अपने शरीर का अर्पण करना अनुभाव है।

पर यह कहना कि 'इस पद्य मे शरीर के दान की प्रतीति होती है, इस कारण यह दानवीर की 'ध्वनि' हो जायगा, उचित नहीं; क्योंकि बाज का कबूतर खाद्य पदार्थ है, अतः वह कबूतर का याचक हो सकता है, राजा के शरीर का नहीं। बाज को जो शरीर दान किया गया है, सो तो कपात के शरीर की रक्षा के लिये बदले मे दिया गया है, वह दान नही, कितु 'लेन-देन' है। तीसरा युद्धवीर, जैसे-

रणे दीनान् देवान् दशवदन! विद्राव्य वहति
प्रभावप्रागल्भ्यं त्वयि तु मम कोऽयं परिकरः।
ललाटोद्यज्ज्वालाकवलितजगज्जालविभवो
भवो मे कोदण्डच्युतविशिखवेगं कलयतु॥

****

दीन-देवतनि दशवदन, रन छुड़ाइ तूं आज।
है प्रभाव-शाली, कहा तो साज-समाज॥
तोपै साज-समाज भाल की धधकत झारन
जारि दियो जिन विश्व वहै शिव बूझैं इहि रन॥

देखै मम कोदंड-मुक्त-शर-वेगहिँ तू जनि।
समुझै सगरे ठामु बापुरे दीन-देवतनि॥

हे दशानन! बेचारे देवताओं को रण में भगाकर भारी सामर्थ्य रखनेवाले तेरे विषय मे तो मेरी यह तैयारी क्या हो सकती है-तू तो चीज ही क्या है; पर जिनके ललाट से निकली हुई ज्वालाओं से सारे संसार का वैभव भस्म हो जाता है, वे महादेव, मेरे धनुष से निकले हुए बाणो के वेग को झेले। तात्पर्य यह कि तुझे तो मैं समझता ही क्या हूँ, पर यदि समग्र संसार के संहारक भगवान शिव भी आवें तो वे भी मेरे बाणों के वेग को देखकर चकित हो सकते हैं। यह रावण के प्रति भगवान राम की उक्ति है।

यहाँ महादेव आलंबन है, रण का देखना उद्दीपन है, रावण की अवज्ञा अनुभाव है और गर्व संचारी भाव है। रचना देवताओं के प्रस्ताव मे उद्धत नहीं है, जिसके द्वारा उनकी कायरता प्रकट होती है, और उससे यह सिद्ध होता है कि भगवान् रामचद्र उनको वीर-रस का आलंबन नही समझते। हाँ, रावण के प्रस्ताव मे देवताओं के दर्द को दमन करनेवाली वीरता का प्रतिपादन करना है, अत: उद्धत है, पर उसकी अवज्ञा की गई है, राम उसे अपनी बराबरी का नही समझते, अतएव वह उनके उत्साह का आलंबन नहीं है सो उसे आलंबन मानकर रस की प्रतीति नहीं हो सकती; इस कारण उस रचना मे उद्धतता का आधिक्य नहीं है। पर, भगवान् शिव परम उत्तम आलंबन विभाव हैं, और उनको पालंवन मान कर ही ओजस्वी वीर-रस संपन्न होता है, अतः उनके प्रस्ताव में पूर्णतया उद्धव रचना है।

चौथा धर्मवीर; जैसे-

सपदि विलयमेतु राज्यलक्ष्मीरुपरि पतन्त्वथवा कृपाणधाराः।
अपहरतुतरां शिरः कृतांतो मम तु मतिर्न मनागपैति धर्मात्॥

****

विलय होहु ततकाल राज्य लक्ष्मी मम सारी।
अथवा ऊपर परहु खरग-धारा भयकारी॥
हरहु कालहू सीस सहूंगो अविचल सब यह।
मेरी मति तो डिगै धरम ते तनिक न अब यह॥

चाहे, राज्य लक्ष्मी तत्काल विलीन हो जाय, अथवा वलवारों की धाराएँ सिर पर पड़ें, यद्वाखयं काल शिर उतार ले पर मेरी बुद्धि तो धर्म से किचिन्मान भी नही हटती। यह 'अधर्म से भी शत्रु को जीतना चाहिए' यों कहनेवाले के प्रति महाराज युधिष्ठिर का कथन है।

यहाँ धर्म आलंबन है, "न जातु कामान भयान लोभाद्धमत्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः(महाभारत उ॰ पर्व) जीवन के लिये भी कभी न छोड़ना चाहिए)" इत्यादि शास्त्रीय वाक्यों की आलोचना उद्दीपन है, सिर के कटने आदि का अंगीकार करना अनुभाव है और धृति संचारी भाव है।

र॰-८

वीर-रस के, चार ही नहीं, अनेक भेद हो सकते हैं।

इस तरह प्राचीन आचार्यों के अनुरोध से वीर-रस का चार प्रकार से वर्णन किया गया है; पर वास्तव मे विचार किया जाय तो, शृंगार की तरह, वीर-रस के भी बहुतेरे भेद निरूपण किए जा सकते हैं। देखिए, यदि पूर्वोक्त 'सपदि विलयमेतु" ...' इत्यादि अथवा 'विलय होहु वतकाल....' इत्यादि पद्य मे 'मम तु मतिर्न मनागपैति सत्यात्' अथवा 'मेरी मति तो डिगै सत्य ते तनिक न अब यह' इस तरह अंतिम चरण बदल दिया जाय तो 'सत्य-वीर' भी एक भेद हो सकता है। आप कहेगे कि सत्य भी धर्म के अन्तर्गत है, इस कारण 'धर्मवीर-रस' में ही 'सत्य-वीर' का भी समावेश हो जाता है। तो हम कहते हैं कि दान और दया भी धर्म के अंतर्गत ही हैं, फिर 'दानवीर' और 'दया-वीर' को भी अलग गिनना अनुचित है।

इसी तरह 'पांडित्य-वीर' भी प्रचीव होता है; जैसे-

अपि वक्ति गिरां पतिः स्वयं यदि तासामधिदेवताऽपि वा।
अयमस्मि पुरो हयाननस्मरणोंळधितवाङ्मयाम्बुधिः॥

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यदिं बोलैं वाक्पति स्वयं के सारद हू आइ।
हूँ तयार, हयमुख सुमिरि, सब-विधि विधा पाइ॥

सभा में बैठकर एक पंडितजी कह रहे हैं-यदि स्वयं बृहस्पति अथवा वाग्देवी भी बोलें, तो भी भगवान् हयग्रीव के स्मरण से समप्र साहित्य-समुद्र को पार करनेवाला यह मैं सामने उपस्थित हूँ-आप लोगों का मुझे कुछ भी भय नही है, जिसकी इच्छा आवे, वह बात करले।

यहाँ बृहस्पति और सरस्वती आदि प्रालंबन हैं, सभा आदि का दर्शन उद्दीपन है, सब विद्वानों का तिरस्कार अनुभाव है, गर्व संचारी भाव परिपोषक है और इनसे पुष्ट किया हुआ वक्ता का उत्साह प्रतीत होता है। आप कहेगे-यह वो 'युद्ध-वीर' ही है क्योंकि युद्ध-शब्द से वाद-विवाद का भी संग्रह हो जाता है, क्योंकि वह भी एक प्रकार का झगड़ा ही है। तो हम कहते हैं यों ही सही; पर 'क्षमा-वीर' के विषय मे आप स्या समाधान करेंगे? जैसे-

अपि बहलदहनजालं मूनि रिपुमै निरंतरं धमतु।
पातयतु वासिधारामहमणुमात्रं न किञ्चिदाभाषे॥

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भलैं अहित जन दहन-गन मम सिर सतत जराहि।
कै पटकहिं 'असि-धार, पै है। कछु बोलौ नाहि॥

भले ही शत्रु मेरे सिर पर निरंतर गहरी भाग जलाते रहें, अथवा तलवार की धार पटकते रहें, पर मैं कुछ भी बोलने का नहीं। अथवा 'बल-वीर' मे क्या समाधान करेंगे? जैसे-

परिहरतु धरां फणिप्रवीरः, सुखमयतां कमठोऽपि तां विहाय।
अहमिह पुरुहूत! पक्षकोणे निखिलमिदं जगदक्लमं वहामि॥

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फनि-पति धरनिहि परिहरै, कमठ हु करै अराम।
सुरपति, हौं निज-पंख पै राखों जगत तमाम॥

सर्पवीर शेषजी अपने ऊपर से पृथ्वी को हटा दें और कच्छप महाशय भी उसे छोड़कर आराम करे। हे इन्द्र! लो, मैं-एक ही, अपने पंख के एक कोने पर इस सब जगत् को विना घबराहट के धारण कर लेता हूँ। यह इंद्र के प्रति गरुड का कथन है।

आप कहेंगे कि 'अपि वक्ति' और 'परिहरतु धराम्..' इन दोनों पद्यों में तो गर्व ही ध्वनित होता है, उत्साह नहीं, और बीच के पद्य 'अपि वहल...' में धृति-भाव ध्वनित होवा है, अत: ये भाव की ध्वनियाँ हैं, रस की नही; तो फिर आप युद्ध-वीरादिकों मे भी गर्व आदि की ध्वनियो को ही क्यों नहीं बता देते, अथवा यावन्मात्र रस ध्वनियों को, उनमे जो व्यभिचारी भाव ध्वनित होते हैं, उनकी ध्वनियों हैं, यह कहकर क्यों नहीं गतार्थ कर देते? यदि आप कहे कि उनमे जो स्थायी भाव की प्रतीति होती है, वह छिपाई नही जा सकती-उसे स्वीकार करना ही पड़ता है, वो सोच देखिए, वही वाव यहाँ भी है। 'पीछ के पद्यों में तो उत्साह प्रतीत नही होता है और 'दया-वीर'-आदि में प्रतीत होता है'-यह कहना तो केवल राजाज्ञा है अर्थात् जबरदस्ती का लट्ठ है। अतः यह सिद्ध है कि पूर्वोक्त गणना अपर्याप्त ही है। अद्भुत-रस; जैसे-

चराचरजगज्जालसदनं वदनं तव।
गलद्गनगांभीर्य वीक्ष्यास्मि हतचेतना॥

xxxx

थावर-जंगम-जगत-गन-सदन बदन तुव जोह।
गई गगन की गहनता रही चेतना खोइ॥

जिसमे सव स्थावर और जंगम जगत निवास करता है, और जिसके देखने पर आकाश की भी गंभीरता गिर जाती है, उस तेरे मुख को देखकर मेरी बुद्धि नष्ट हो गई है मेरी प्रकल काम नहीं करती कि यह है क्या गजब ! यह, किसी समय, भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद को देखने के अनंतर, यशोदाजी की उक्ति है।

यहाँ मुख प्रालंबन है, उसके भीतर समग्र स्थावर-जंगम जगत् का देखना उद्दीपन है, बुद्धि का नष्ट हो जाना एवम् उसके द्वारा प्रतीत होनेवाले रोमांच, नेत्रों का विकसित हो जाना आदि अनुभाष हैं और त्रास-आदि व्यभिचारी भाव हैं । यहाँ पुत्र का प्रेम यद्यपि विद्यमान है, तथापि प्रतीत नहीं होता; क्योंकि उसका कोई व्यंजक शब्द नही है-इस पथ के किसी शब्द से उसकी प्रतीति नही होती। यदि प्रकरणादिक की पर्यालोचना करने पर वह प्रतीत भी हो जाय, तथापि आश्चर्य उसकी अपेक्षा गाय नहीं हो सकता। क्योंकि समझने की शक्ति ही जाती रही ऐसा कहने से आश्चर्य की ही प्रधानता प्रकट होती है। इसी तरह 'यह कोई महापुरुष है। यह समझकर भक्ति भी उत्पन्न ही नहीं हो सकती; क्योंकि उसमे यशोदा का यह निश्चय रुकावट डालता है कि 'यह बालक मेरा पुत्र है। सो भक्ति की अपेक्षा भी आश्चर्य गाण नहीं हो सकता।

सहृदय-शिरोमणि प्राचीन आचार्यों (काव्यप्रकाशकार) ने जो उदाहरण दिया है-

"चित्रं महानेष तवाऽवतारः
क्व कान्तिरेषाभिनवैव भङ्गिः।
लोकोत्तरं धैर्यमहो प्रभाव:
काऽप्याकृतिनूतन एष सर्गः॥

भगवान् वामन को देखकर बलि कहते हैं-यह आपका महान अवतार लोकोत्तर है, ऐसी कांति कहाँ प्राप्त हो सकती है? यह चलने, बैठने, देखने आदि का ढग सर्वथा नवीन ही है; अलौकिक धैर्य है, विलक्षण प्रभाव है, अनिर्वचनीय ' आकार है; यह एक नई सृष्टि है-अब तक ऐसा कोई उत्पन्न ही नही हुआ।

उसके विषय मे हमे यह कहना है कि इस पद्य में 'विस्मय' स्थायीभाव की प्रवीति भले ही हो, उसके विषय मे हमे कुछ नही कहना है; पर उस विस्मय के कारण इस पद्य को अद्भुत-रस की ध्वनि कैसे कहा जा सकता है? क्योंकि इस पद्य मे जिस महापुरुष का वर्णन किया गया है, उसके विषय मे स्तुति करनेवाले की जो भक्ति है, वही यहाँ प्रधान हैऔर विस्मय उसे उत्कृष्ट बनाता है, अतः उसकी अपेक्षा गौण हो गया है। जैसा कि महाभारत मे भगवद्गीता के अंदर,-जव अर्जुन ने विश्वरूप (विराट रूप ) के दर्शन किए तो उसने कहा-

"पश्यामि देवांस्तव देव! देहे सास्तथा भूत-विशेष संघान्-हे देव! मैं आपके शरीर मे सब देवताओं को तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के प्राणियों के समूहों को देख रहा हूँ"। इत्यादि वाक्यों के संदर्भ मे आश्चर्य प्रतीत होता है, परन्तु वहाँ, अर्जुन की, भगवान के विषय मे उत्पन्न हुई, भक्ति प्रधान है और आश्चर्य गौण। इस तरह यह सिद्ध हुआ कि इस आश्चर्य को यहाँ रसालंकार कहना उचित है, रस-ध्वनि कहना नही। पर यदि आप फिर भी कहें कि 'इसमे भक्ति की प्रतीति होती ही नही' वो हम सहृदयों से प्रार्थना करेंगे कि आप लोग थोड़ा, ऑखें मीचकर, सोचिए- देखिए कि इसमे भक्ति की प्रतीति होती है, अथवा नहीं।

हास्य-रस; जैसे-

श्रीतातपादैर्विहिते निवंधे
निरूपिता नूतनयुक्तिरेषा-
अंगं गवां पूर्वमहो पवित्रं
न वा कथं रासभधर्मपल्याः?

xxxx

दादाजी किय दंग बुधन, लेख लिखि यह जुगति-
सुचि गौ-पूरब-अंग रासभ-रानी को न क्यों?

श्रीमान् पिताजी ने जो निबंध लिखा है, उसमे यह एक नई युक्ति वर्णन की गई है। वह युक्ति यह है-आश्चर्य है कि यदि गायों का पूर्व अंग पवित्र है तो गर्दभ महाशय की धर्मपत्नीजी का वह अंग क्यों न पवित्र माना जाय? अर्थात् गौ और गर्दभी एक समान हैं।

यहाँ तार्किक (युक्ति सोचनेवाले) का पुत्र आलंवन है, उसका शंकारहित कथन उद्दीपन है, दाँत निकलना आदि अनुभाव है और उद्वेग आदि व्यभिचारी भाव हैं।

हास्य के भेद

हास्य-रस के विषय मे प्राचीन आचार्यों का कथन है कि-

आत्मस्थः परसंस्थश्चेत्यस्य भेदद्वयं मतम्।
आत्मस्थो द्रष्टुरुत्पन्नो विभावेक्षणमात्रतः॥
हसंतमपरं दृष्ट्वा विभावश्चोपजायते।
योऽसौ हास्यरसस्तः परस्थः परिकीर्तितः॥
उत्तमानां मध्यमानां नीचानामप्यसौ भवेत्।
व्यवस्था कथितस्तस्य षड़ भेदाः सन्ति चाऽपरे॥
स्मित च हसितं प्रोक्तमुत्तमे पुरुषे बुधैः।
भवेद्विहसित चोपहसितं मध्यमे नरे॥

नीचेऽपहसितं चातिहसितं परिकीर्तितम्।
ईषत्फुल्लकपोलाभ्यां कटाक्षरप्यनुल्वणैः॥
अदृश्यदशना हासा मधुरः स्मितमुच्यते।
वक्त्रनेत्रकपोलैश्चेदुत्फुल्ल रुपलक्षितः॥
किञ्चिल्लक्षितदन्तश्च तदा हसितमिष्यते।
सशब्दं मधुरं कायगतं वदनरागवत्॥
आकुञ्चितानि मन्द्रं च विदुवि हसितं बुधाः।
निकुञ्चितांसशीर्षश्च जिह्मदृष्टिविलोकनः॥
उत्फुल्छनासिको हासा नाम्नोपहसितं मतम्।
अस्थानजः साश्रदृष्टिराकम्पस्कंधमृजः॥
शाङ्गदेवेन गदितो हासोपहसिताह यः।
स्थलकर्णकटुवानो वाष्पपूरप्लुतेक्षणः॥
करोपगूढपावश्च हासोतिहसितं मतम्।

हास्य-रस दो प्रकार का है-एक आत्मस्थ, दूसरा परत्थ। आत्मत्थ उसे कहते हैं, जो देखनेवाले को विभाव (हास्य के विषय) के देखने मात्र से उत्पन्न हो जाता है; और जो हास्य-रस दूसरे को सता हुआ देखकर उत्पन्न होता है एवं जिसका विभाव भी हास्य ही होता है अर्थात् जो दूसरे के हँसने के कारण ही होता है, उसे रसज्ञ पुरुष परस्य कहते हैं। यह उत्तम, मध्यम और अधम तीनों प्रकार के व्यक्तियों में उत्पन्न होता है; अतः इसकी वीन अवस्याएँ कहलाती हैं। एवं उसके और भी छः भेद हैं-उत्तम पुरुष में स्मित और हसित, मध्यम पुरुष मे विहसित और उपहसित तथा नीच पुरुष में अपहसित और प्रतिहसित होते हैं। जिसमे कपोल थोड़े विकसित हों, नेत्रों के प्रान्त अधिक प्रकाशित न हों, दाँत दिखाई न दें और जो मधुर हो, वह हँसना स्मित कहलाता है। जिस हँसने मे मुख, नेत्र और कपोल विकसित हो जाये और कुछ कुछ दॉत भी दिखाई दें, उसे हसित माना जाता है। जिस हँसने मे शब्द होता हो, जो मधुर हो, जिसकी पहुँच शरीर के अन्य अवयवों मे भी हो, जिसमे मुंह लाल हो जाये, आँखें कुछ कुछ मिंच जाय और ध्वनि गंभीर हो, उसे विद्वान् लोग विहसित कहते हैं। जिसमे कन्धे और सिर सिकुड़ जायँ, टेढ़ी नजर से देखना पड़े और नाक फूल जाय उस हँसने का नाम उपहसित है। जो हँसना बे-मौके हो, जिसमें आँखों मे आँसू आ जाय और कंधे एवं केश खूब हिलने लगे, उस हंसने का शाङ्ग देव आचार्य ने अपहसित नाम रखा है। जिसमे बहुत भारी और कानों को अप्रिय लगनेवाला शब्द हो, नेत्र ऑसुओं के मारे भर जायँ और पसलियों को हाथों से पकड़ना पड़े, वह हँसना अतिहसित कहलाता है।

भयानक-रस; जैसे-

श्येनमम्बरतलादुपागत शुष्यदाननबिलो विलोकयन्।
कम्पमानतनुराकुलेक्षणः स्पन्दितुन हि शशाक लावकः॥

xxxx

नम ते झपटत बाज लखि भूल्यो सकल प्रपंच।

कंपित-तन व्याकुल-नयन लावक हिल्यो न रंच॥

एक दर्शक कहता है-बेचारे लवा (एक प्रकार का पक्षी) ने ज्योंही आकाश से झपटते हुए बाज को देखा, त्योंही मुँह सूख गया, देह थरथराने लगी, नेत्र व्याकुल हो गए और हिल भी न सका।

यहाँ बाज आलंबन है, उसका वेग-सहित झपटना उद्दीपन है, मुँह सूखना आदि अनुभाव हैं और दैन्य आदि व्यभिचारी भाव हैं।

वीभत्स-रस; जैसे-

नरवैर्विदारितान्त्राणां शबानां पूयशोणितम्।
आननेष्वनुलिम्पन्ति हृष्टा वेतालयोषितः॥

xxxx

फाड़ि नखन शव-आंतड़िन, रुधिर-मवाद निकारि।
लेपति अपने मुखन पै हरसि प्रेत-गन-नारि॥

एक मनुष्य किसी से रणांगण अथवा श्मशान का दृश्य कह रहा है-हर्षयुक्त वेतालों की स्त्रियाँ नखों से मुरदों की अंतड़ियों को फाड़कर मवाद और रुधिर को मुँह पर लेप रही हैं।

यहाँ मुरदे आलंबन हैं, अँतड़ियों का चीरना आदि उद्दीपन हैं, ऊपर से पाक्षिप्त किए हुए रोमांच, नेत्र मींचना आदि अनुभाव हैं और आवेग आदि संचारी भाव हैं।

'हास' और 'जुगुप्सा' का प्राश्रय कौन होता है?

अब एक शंका हो सकती है कि रति, क्रोध, उत्साह, भय, शोक, विस्मय और निवेद इन स्थायी-मावों में जिस तरह पालंबन और आश्रय दोनों की प्रतीति होती है, जैसे कि यदि शकुंतला के विषय में दुष्यंत का प्रेम है तो शकुंचला प्रेम का आलंबन है और दुष्यंत आश्रय, और वहाँ इन दोनों की प्रतीति होती है; उस तरह हास और जुगुप्सा में नहीं होती; क्योंकि इन दोनों में केवल आलंबन की ही प्रतीति होती है, उनमें आश्रय का वर्णन होता ही नही। और यदि पद्य सुननेवाले को ही उनका प्राश्रय माना जाय तो यह उचित नहीं; क्योंकि वह तो रस के आस्वाद का आधार हैउसे तो अलौकिक रस की चर्वणा होती है, सो वह लौकिक हास और जुगुप्सा का आप्रय नही हो सकता। हम कहते हैं कि हाँ, यह सच है; पर वहाँ उन दोनों भावों के आश्रयकिसी देखनेवाले पुरुष का आक्षेप कर लेना चाहिए, उसे ऊपर से समझ लेना चाहिए। और यदि ऐसा न करें, तो भी जिस तरह सुननेवाले को अपनी स्त्री के वर्णन मे लिखे हुए पद्यों से रस का उद्घोध हो जाता है अर्थात् वहाँ जो लौकिक रति का आश्रय है, वही रस का भी अनुभवकतों हो जाता है, उसी तरह यहाँ भी लौकिक भाव और रस के आश्रय को एक ही मान लेने में कोई बाधा नहीं।

इस तरह संक्षेप से रसों का निरूपण किया गया है।

रसालंकार

इन रसों के प्रधान होने पर, इनके कारण, काव्य को 'रस-ध्वनि' कहा जाता है और दूसरों की अपेक्षा गौण होने पर इन्हे 'रसालंकार' कहा जाता है, और ऐसी दशा मे वह काव्य, जिसमे ये आए हो, 'रसम्वनि' नही कहला सकता। कुछ लोगों का कथन है कि जब ये प्रधान हो, तभी इनको रस कहा जाना चाहिए, अन्यथा ये अलंकार-मात्र ही होते हैं, उनमे रस कहलाने की योग्यता ही नही होती। तथापि लोग जो उन्हें रसालंकार कहते हैं, उसी प्रकार सो जैसे 'अलकार-ध्वनि'*[] कहते हैं। इस बात को एक उदाहरण देकर समझा देते हैं। जिस तरह कोई ब्रामण बौद्धमत की दीक्षा लेकर 'श्रमण' (बौद्ध-मित्क) बन जाय, तब वह ब्राह्मण वो रहवा नही, तथापि लोग उसे पहले ब्राह्मण रहने के कारण ब्राह्मण'श्रमण' कहा करते हैं, बस, वही हिसाब यहाँ समझिए । अर्थात् जो किसी भी अवस्था मे रस या अलंकार शब्द से


व्यवहार में प्रयुक्त हो चुके हैं उनका अन्य अवस्था में भी उसी प्रकार व्यवहार होता है, और ये रस तभी कहे जाते हैं जब ये असंलक्ष्यक्रमव्यङग्य के रूप में रहते हैं। संलक्ष्यक्रम होने से तो इनका वस्तु शब्द से ही व्यवहार होता है।

ये 'असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य' क्यों कहलाते हैं?

ये रस 'असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य' कहलाते हैं, क्योंकि सहृदय पुरुष को जब सहसा रस का आखादन होता है, उस समय, यद्यपि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावो के. विमर्श का क्रम रहता है, तथापि जिस तरह शतपत्र कमल के सौ-के-सौ पत्रों को सूई से बेधन किया जाता है, उस समय, यह तो जान पड़ता है कि सौ-के-सौ ही पत्र विध गए; पर उनमे से कौन पहले विधा और कौन पीछे-इतना सोचने का अवसर ही नहीं मिलता, इसी प्रकार यहाँ भी, शीघ्रता के कारण, वह क्रम विदित नहीं हो पावा। परन्तु यह समझना उचित नहीं कि ये विना क्रम के ही व्यंग्य हैं इनका और व्यंजक विमावादिकोका कोई क्रम है ही नहीं, क्योंकि यदि ऐसा हो, तो रस की अभिव्यक्ति का और अभिव्यक्ति के कारणों का कार्यकारणभाव ही न बन सके-अर्थात विभावादिकों का रस के कारण रूप होना ही निर्मूल हो जाय, जो कि प्रतीति से सरासर विरुद्ध है।

रस नौ ही क्यों हैं?

अब यह प्रश्न होता है कि रस इतने ही क्यों हैं, यदि इनसे अधिक रस माने जायँ तो क्या बुराई है? उदाहरय के लिये देखिए कि जब भगवद्भक्त लोग भागवत आदि पुराणों का श्रवण करते हैं, उस समय वे जिस 'भक्ति-रस' का अनुभव करते हैं, उसे आप किसी तरह नही छिपा सकते। उस रस के भगवान बालंबन हैं, भागवतश्रवण आदि उद्दीपन हैं, रोमांच, अश्रुपात आदि अनुभाव हैं और हर्ष-आदि संचारी भाव हैं। तथा इसका स्थायी भाव है भगवान से प्रेम-रूप 'भक्ति'। इसका शान्त-रस मे भी अंतर्भाव नहीं हो सकता; क्योंकि अनुराग (प्रेम) वैराग्य से विरुद्ध है और शान्त-रस का स्थायी भाव है वैराग्य। अच्छा, इसका उत्तर भी सुनिए। भक्ति भी देवता आदि के विषय में जो रति (प्रेम) होती है, उसी का नाम है, और देवता आदि के विषय मे जो रति होती है, उसकी भावों मे गणना की गई है, सो वह रस नहीं, कितु भाव है; क्योंकि-

रतिर्देवादिविषया व्यभिचारी तथाञ्जितः।
भावः प्रोक्तस्तदाभासा हयनौचित्यप्रवर्तिताः॥

अर्थात् देवता-आदि के विषय में होनेवालाप्रेम और व्यंजनावृत्ति से ध्वनित हुआ व्यभिचारी भाव 'भाव' कहलाता है, और यदि रस तथा भाव अनुचित रीति से प्रवृत्त हों, तो 'रसाभास' और 'भावाभास' कहलाते हैं यह प्राचीन आचार्यों का सिद्धांत है। आप कहेंगे-यदि ऐसा ही है तो कामिनी के विषय मे जा प्रेम होता है, उसे भी 'भाव' कहिए; क्योंकि जैसा यह प्रेम वैसा ही वह भी प्रेम-इसमे उसमे भेद ही क्या है? अथवा भगवद्भक्ति को ही स्थायी भाव मान लीजिए और कामिनी आदि के विषय में जो प्रेम होता है, उसे (संचारी) भाव: क्योंकि उसमें कोई युक्ति तो है नहीं कि इन दोनों मे से अमुक को ही स्थायी मानना चाहिए। इसके उत्तर मे हम कहते हैं कि साहित्य शास्त्र मे रस-भाव-आदि की व्यवस्था भरत-आदि मुनियों के वचनों के अनुसार की गई है, अतः इस विषय मे खतंत्रता नहीं चल सकती। अन्यथा पुत्र आदि के विषय मे जो प्रेम होता है, उसे 'स्थायि भाव' क्यों न माना जाय और 'जुगुप्सा' और 'शोक' आदि को भाव ही क्यों न मान लिया जाय। यदि ऐसा करने लगें तो सारे शास्र मे ही बखेड़ा पड़ जाय और भरत-मुनि के वचन के अनुसार नियत की हुई जो रसों की नौ संख्या है, वह टूट जाय और वे कभी अधिक और कभी कम मान लिए जाया करें । इस कारण शास्त्र के अनुसार मानना ही उत्तम है।

रसों का परस्पर विरोध और विरोध

इन रसों का आपस में किसी के साथ अविरोध है और किसी के साथ विरोध। उनमे से वीर और शृगार का, शृगार और हास्य का, वीर और अद्भुत का, वीर और रौद्र का एवं शृंगार और अद्भुत का परस्पर विरोध नहीं है। श्रृंगार और बोभत्स का, शृंगार और करुण का, वीर और भयानक का, शांत और रौद्र का एवं शांत और शृंगार का विरोध है। यदि कवि प्रस्तुत रस को अच्छी तरह पुष्ट करना चाहे यदि उसकी इच्छा हो कि मेरे कान्य में रस का अच्छा परिपाक हो, तो उसे उचित है कि उस रस के अभिव्यक्त करनेवाले काव्य में उससे विरुद्ध रस के अंगों का वर्णन न करे; क्योंकि यदि विरुद्ध रस के अंगों का वर्णन किया जायगा, तो उसकी अभिव्यक्ति होने पर वह प्रस्तुत रस को बाधित करेगा अथवा 'सुंदोपसुंद-न्याय' *[] से दोनों नष्ट हो जायेंगे-न इसका ही मजा रहेगा, न उसका ही।

विरुद्ध-रसों का समावेश

पर, यदि कवि को विरुद्ध रसों का एक स्थान पर समा. वेश करना ही हो, तो विरोध का परिहार करके करना चाहिए। विरोध का परिहार कैसे करना चाहिए सो भी सुनिए। विरोध दो प्रकार का है-एक स्थितिविरोध और दूसरा ज्ञानविरोध। स्थितिविरोध का अर्थ है-एक ही आधार (पात्र) मे दोनों का न रह सकना, और ज्ञानविरोध का अर्थ है-एक के ज्ञान से दूसरे के ज्ञान का बाधित हो जाना अर्थात् जिन दो रसों का ज्ञान एक दूसरे का प्रतिद्वन्द्वी हो,



उनमें ज्ञानविरोध होता है। उनमें से पहला विरोध विरोधी रस को दूसरे आधार मे स्थापित कर देने से निवृत्त हो जाता है। जैसे कि यदि नायक मे वीर-रस का वर्णन करना हो, तो प्रतिनायक (उसके शत्रु) में भयानक का वर्णन करना चाहिए।

इस प्रकरण मे रस-पद से रसों के उपाधिरूप स्थायी भावों का ग्रहण किया गया है; क्योंकि रस तो दर्शक-समाज की व्यक्तियों में रहता है, नायक आदि में नहीं। एवं रस अद्वितीय आनंद-मय है, अर्थात् जब उसकी प्रतीति होती है, तब अन्य किसी की प्रवीति होती ही नहीं, तब उसके विरोध की बात ही चलाना अनुचित है।

विरुद्ध-रसों का स्थिति-विरोध कैसे मिटाया जा सकता है, इसका उदाहरण लीजिए-

कुण्डलीकृतकोदण्डदोर्दण्डस्य पुरस्तव।
मृगारातेरिव मृगाः परे नैवाऽवतस्थिरे॥

xxxx

कुंडल-सम धनु कर लिए तुव आगे रन-माहिं।
केहरि-समुहै मृग-सरिस ठहरि सके परि नाहिं॥

कवि कहता है-हे राजन्! जब आपने बैंचकर कुंडल के समान गोल किए हुए धनुष को हाथ मे लिया, तो आपके सामने सिंह के सामने मृगों के समान, शत्रु नही ठहर सके। (यहाँ नायक मे 'वीर' और प्रतिनायक मे 'भयानक' का वर्णन स्पष्ट ही है।) यह तो हुई पहले प्रकार के विरोध को निवृत्त करने की बात। अब दूसरे प्रकार के विरोध को निवृत्त करने की विधि भी सुनिए। वह (ज्ञान) विरोध भी, जो रस दोनों रसों का विरोधी न हो, उसे संधि (सुलह) करवानेवाले की तरह, विरुद्ध-रसों के बीच मे स्थापित कर देने से निवृत्त हो जाता है। जैसे कि मेरी (पंडितराज की) बनाई हुई आख्यायिका में कण्वाश्रम में स्थित महर्षि श्वेतकेतु के शांत-रस-प्रधान वर्णन के प्रस्तुत होने पर "यह कैसा रूप है, जिसका कमो अनुभव नहीं किया गया; यह वचन-माला की कैसी मधुरता है, जिसका वर्णन नहीं हो सकता" इस तरह अद्भुत-रस को मध्य में स्थापित करके वरवणिनी नामक नायिका के प्रति प्रेम का वर्णन किया गया है। वहाँ शान्त और शृङ्गार के मध्य में अदभुत आ जाने से विरोध हट गया अथवा जैसे-

सुराङ्गनाभिराश्लिष्टा व्योम्नि वीरा विमानगाः।
विलोकन्ते निजान् देहान् फेरुनारीभिरावृतान्॥

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सुर-नारिन सँग गगन में वीर विराजि विमान।
निरखत स्यारिन में घिरे अपने देह महान॥

देवांगनाओं से आलिंगन किए हुए, आकाश मे, विमानों मे बैठे हुए वीर, मादा-सियारों से घिरे हुए, अपने देहों को देख रहे हैं। यहाँ देवांगनाओं को प्रालंबन मानकर श्रृंगार-रस और वीरों के मृतक शरीरों को आलंबन मानकर बीभत्स-रस की प्रतीति होती है। ये दोनों परस्पर विरुद्ध हैं, अतः इन दोनों के मध्य मे वीरों की स्वर्गप्राप्ति का वर्णन करके उसके द्वारा आक्षिप्त वीर-रस प्रविष्ट कर दिया गया है। बीच में प्रवेश करने का अर्थ यह है कि परस्पर विरोधी रसों के आखादन का जो समय है उसके मध्य के समय मे उसका पाखादन होना। सो देखिए, यहाँ स्पष्ट ही है कि पूर्वोक्त पद्य के पूर्वार्ध मे शृंगार-रस का प्रावादन होने के अनंतर वोर-रस का प्रास्वादन होता है और उसके अनंतर दूसरे अर्द्ध मे बीभत्स का।

भूरेणुदिग्धान् नवपारिजात-
मालारजोवासितबाहुमध्याः।
गाढं शिवाभिः परिरभ्यमाणान्
सुराङ्गनाश्लिष्टभुजान्तरालाः॥
सशोणितैः क्रव्यभुजां स्फुरद्भिः
पक्षः खगानामुपवीज्यमानान्।
संवीजिताश्चन्दनवारिसेकैः
सुगन्धिभिः कल्पलतादुकूलैः॥
विमानपर्यङ्कतले निषण्णाः
कुतूहलाविष्टतया तदानीम्।

  1. * प्रिय के परदेश जाने की हालत में प्रवासरूप, समागम से पूर्व ही गुणश्रवण आदि से अभिलाषरूप, गुरुजनों की लज्जादि के कारण रुकने पर विरहरूप, मान से ईर्ष्यारूप और जिस तरह शकुंतला को दुर्वासा के शाप से वियोग हुआ उस तरह होने पर शापरूप उपाधियाँ हुआ करती हैं जिनके कारण वियोग को पाँच प्रकार का कहा जाता हैयह है प्राचीन श्राचार्यों का अभिप्राय।
  2. * इसका अभिप्राय यह है कि अलंकार उसका नाम है,जो किसी को शोभित करे, जिसे शोभित किया जाय उसका नही, और जो अर्थ ध्वनित होता है, वह किसी को शोभित नहीं करता, किंतु उसे अन्य उपकरण शोभित करते हैं। तब ध्वनित होनेवाले अर्थ को अलंकार रूप मानकर उसके कारण काव्य को अलंकारध्वनि कहना ठीक नहीं। किन्तु अलंकार्य ध्वनि कहना चाहिये, तथापि उसे 'अलंकारध्वनि' कहा जाता है।
  3. * सुंद और उपसुंद की कथा यों है। सुद और उपसुद नाम के दो दैत्य थे। उन्होने बड़ी भारी तपस्या करके भगवान् ब्रह्मा को प्रसन किया । ब्रह्मा जी के वरदान से वे सब के अवध्य रहे, केवल परस्पर की लड़ाई से वे मर सकते थे। विश्वविजयी दोनों भाइयों की तिलोत्तमा नाम की अप्सरा की प्राप्ति के लिये लड़ाई हुई और वे मर मिटे। दे॰ महामा॰ आ॰ अ॰ २२८-३२। इस तरह दोनों के समबल होने के कारण नष्ट हो जाने के ढंग को 'सुंदोपसुंदन्याय' कहते हैं।
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