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हिंदी रसगंगाधर/रस का स्वरूप और उसके विषय में ग्यारह मत

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इलाहाबाद: इण्डियन प्रेस, पृष्ठ ५५ से – ८४ तक

 

 

रस का स्वरूप और उसके विषय में ग्यारह मत
प्रधान लक्षण
(१)
अभिनवगुप्ताचार्य और मम्मट भट्ट का मत
(क)

सहृदय पुरुष, संसार में, जिन रवि-शोक आदि भावों का अनुभव करता है, वह कभी किसी से प्रेम करता है और कभी किसी का सोच इत्यादि, उनका उसके हृदय पर संस्कार जम जाता है—वे भाव वासनारूप से उसके हृदय में रहने लगते है। वे ही वासनारूप रति आदि स्थायी भाव, जो एक प्रकार की चित्तवृत्तियाँ हैं और जिनका वर्णन आगे स्पष्ट रूप से किया जायगा, जब स्वतः प्रकाशमान और वास्तव में विद्यमान आत्मानंद के साथ अनुभव किए जाते हैं, तो "रस" कहलाने लगते हैं। पर उस आनंदरूप आत्मा के ऊपर अज्ञान का आवरण आया हुआ है—वह अज्ञान से ढँक रहा है; और जब तक उस आत्मानंद का साथ न हो, तब तक वासनारूप रति आदि का अनुभव किया नहीं जा सकता। अतः उसके उस आवरण को दूर करने के लिये एक अलौकिक क्रिया उत्पन्न की जाती है। जब उस क्रिया के द्वारा अज्ञान, जो उस आनंद का आच्छादक है, दूर हो जाता है, तो अनुभवकर्त्ता में जो अल्पज्ञता रहती है, उसे जो कुछ पदार्थों का बोध होता है और कुछ का नही, वह लुप्त हो जाती है; और सांसारिक भेद-भाव निवृत्त होकर उसे आत्मानंद सहित रति आदि स्थायी भावों का अनुभव होने लगता है। पूर्वोक्त अलौकिक क्रिया को विभाव, अनुभाव और संचारी भाव उत्पन्न करते हैं—अर्थात् वह उन तीनों के संयोग से उत्पन्न होती है।

अब यह भी समझिए कि विभाव, अनुभाव और संचारी भाव क्या वस्तु हैं। जो रति आदि चित्तवृत्तियाँ आत्मानंद के साथ अनुभव करने पर रसरूप में परिणत होती हैं, वे जिन कारणों से उत्पन्न होती हैं, वे दो प्रकार के होते हैं। एक वे जिनसे वे उत्पन्न होती हैं और दूसरे वे जिनसे वे उद्दीप्त की जाती हैं, उन्हें जोश दिया जाता है। जिन कारणों से उत्पन्न होती हैं, उन्हें आलंबन कारण कहते हैं और जिनसे वे उद्दीप्त की जाती हैं, उन्हें उद्दीपन। इसी तरह पूर्वोक्त चित्तवृत्तियों के उत्पन्न होने पर, शरीर आदि में कुछ भाव उत्पन्न होते हैं, जो उनके कार्य होते हैं। और इसी प्रकार जब वे चित्तवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं तो उनके साथ अन्यान्य चित्तवृत्तियाँ भी उत्पन्न होती हैं, जो सहकारी होती हैं और उन चित्तवृत्तियों की सहायता करती हैं। इस बात को हम उदाहरण देकर समझा देते हैं। मान लीजिए कि शकुंतला के विषय में दुष्यंत की अंतरात्मा में रति अर्थात् प्रेम उत्पन्न हुआ, ऐसी दशा में रति का उत्पादन करनेवाली शकुंतला हुई; अतः वह प्रेम का आलंबन कारण हुई। चाँदनी चटक रही थी, वनलताएँ कुसुमित हो रही थीं; अतः वे और वैसी ही अन्य वस्तुएँ उद्दीपन कारण हुईं। अब दुष्यंत का प्रेम द्दढ़ हो गया और शकुंतला के प्राप्त न होने के कारण, उसके वियोग में, उसकी आँखों से लगें अश्रु गिरने। यह अश्रुपात उस प्रेम का कार्य हुआ। और इसी तरह उस प्रेम के साथ साथ, उसका सहकारी भाव, चिंता उत्पन्न हुई। वह सोचने लगा कि मुझे उसकी प्राप्ति कैसे हो! इसी तरह शोक आदि में भी समझो। पूर्वोक्त सभी बातों को हम संसार में देखा करते हैं। अब पूर्वोक्त प्रक्रिया के अनुसार, संसार में, रति आदि के जो शकुंतला आदि आलंबन कारण होते हैं, चाँदनी आदि उद्दीपन कारण होते हैं, उनसे अश्रुपातादि कार्य उत्पन्न होते हैं और चिंता आदि उनके सहकारी भाव होते हैं, वे ही जब, जहाँ जिस रस का वर्णन हो, उसके उचित एवं ललित शब्दों की रचना के कारण मनोहर काव्य के द्वारा उपस्थित होकर सहृदय पुरुषों के हृदय में प्रविष्ट होते हैं, तब सहृदयता और एक प्रकार की भावना—अर्थात् काव्य के बार बार अनुसंधान के प्रभाव से, उनमें से "शकुंतला दुष्यंत की स्त्री है" इत्यादि भाव निकल जाते हैं, और अलौकिक बनकर—संसार की वस्तुएँ न रहकर—जो कारण हैं वे विभाव, जो कार्य है वे अनुभाव और जो सहकारी हैं वे व्यभिचारी भाव कहलाने लगते हैं। बस, इन्हीं के द्वारा पूर्वोक्त अलौकिक क्रिया के द्वारा रसों की अभिव्यक्ति होती है।

इसी बात को मम्मटाचार्य काव्यप्रकाश में कहते हैं—  

व्यक्तः स तैर्विभावाद्यैः स्थायी भावो रसः स्मृतः।

अर्थात् स्थायी भाव (रति आदि) जब पूर्वोक्त विभावादिकों से व्यक्त होता है तो "रस" कहलाता है। और "व्यक्त होने" का अर्थ यह है कि जिसका अज्ञान रूप आवरण नष्ट हो गया है, उस चैतन्य का विषय होना—उसके द्वारा प्रकाशित होना। जैसे किसी बोरा आदि से ढँका हुआ दीपक, उस ढक्कन के हटा देने पर, पदार्थों को प्रकाशित करता है और स्वयं भी प्रकाशित होता है, इसी प्रकार आत्मा का चैतन्य विभावादि से मिश्रित रति आदि को प्रकाशित करता और स्वयं प्रकाशित होता है। रति आदि अंतःकरण के धर्म हैं और जितने अंतःकरण के धर्म हैं, उन सबको "साक्षिभास्य" माना गया है। "साक्षिभास्य" किसे कहते हैं सो भी समझ लीजिए। संसार के जितने पदार्थ है, उनको आत्मा अंतःकरण से संयुक्त होकर भासित करता है और अंतःकरण के धर्म—प्रेम आदि—उस साक्षात् देखनेवाले आत्मा के ही द्वारा प्रकाशित होते हैं। अब यह शंका होती है कि रति आदि, जो वासनारूप से अंतःकरण में रहते हैं, उनका केवल आत्मचैतन्य के द्वारा बोध हो सकता है; पर विभाव आदि पदार्थों—अर्थात् शकुंतला आदि—का, उसके द्वारा, कैसे भान होगा। इसका उत्तर यह है कि जैसे सपने में घोड़े आदि और जागते में (भ्रम होने पर) राँगे में चाँदी आदि साक्षिभास्य ही होती हैं, केवल आत्मा के द्वारा ही उनका भान होता है; क्योंकि वे कोई पदार्थ वो हैं नही, केवल कल्पना है; उसी प्रकार इन (विभावादि) को भी साक्षिभास्य मानने में कोई विरोध नहीं। अब रही यह शंका कि रस नित्य नहीं कहा जाता; क्योंकि वह भी उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली वस्तु के समान है, उसकी सदा तो स्फूर्त्ति होती नहीं; अतः व्यवहार से विरोध हो जायगा। सो इसका समाधान यह है कि—रस को ध्वनित करनेवाले विभावादिकों के (क्योंकि ये कल्पित है) अथवा उनके संयोग से उत्पन्न किए हुए अज्ञानरूप् आवरण के भंग की उत्पत्ति और विनाश के कारण रस की उत्पत्ति और विनाश मान लिए जाते हैं। जैसे कि वैयाकरण लोग अक्षरों को नित्य मानते हैं, तथापि वर्णों को व्यक्त करनेवाले तालु आदि स्थानों की क्रियाओं की उत्पत्ति और विनाश को अकार आदि अक्षरों की उत्पत्ति और विनाश मान लेते है। तब यह सिद्ध हुआ कि जब तक विभावादिकों की चर्वणा होती है—उनका अनुभव होता रहता है, तब तक आत्मानंद का आवरण भंग होता है और आवरण भंग होने पर ही रति आदि प्रकाशित होते हैं; अतः जब विभावादिकों की चर्वणा निवृत्त हो जाती है, तब प्रकाश ढँक जाता है, इस कारण स्थायी भाव यद्यपि विद्यमान रहता है, तथापि हमें उसका अनुभव नहीं होता।

(ख)

पहले पक्ष में यह बतलाया गया है कि विभावादिकों के संयोग से एक अलौकिक क्रिया उत्पन्न होती है और उसके द्वारा पूर्वोक्त रीति से रस का आस्वादन होता है, पर इस अलौकिक क्रिया के न मानने पर भी काम चल सकता है, इस अभिप्राय से कहते हैं—अथवा यों समझना चाहिए—

सहृदय पुरुष जो विभावादिकों का आस्वादन करता है, उसका सहृदयता के कारण, उसके ऊपर गहरा प्रभाव पड़ता है और उस प्रभाव के द्वारा, काव्य की व्यंजना से उत्पन्न की हुई उसकी चित्तवृत्ति, जिस रस के विभावादिकों का उसने आस्वादन किया है, उसके स्थायीभाव से युक्त अपने स्वरूपानंद को, जिसका वर्णन पहले हो चुका है, अपना विषय बना लेती है—अर्थात् तन्मय हो जाती है, जैसी कि सविकल्पक*[] समाधि में योगी की चित्तवृत्ति हो जाती है। तात्पर्य यह कि उसकी चित्तवृत्ति को उस समय स्थायी भाव से युक्त आत्मानंद के अतिरिक्त अन्य किसी पदार्थ का बोध नहीं रहता। अर्थात् पूर्वोक्त व्यापार के बिना, विभावादिकों के आस्वादन के प्रभाव से ही, चित्तवृत्ति रति आदि सहित आत्मानंद का अनुभव करने लगती है। यह आनंद अन्य सांसारिक सुखों के समान नहीं है, क्योंकि वे सब सुख अंतःकरण की वृत्तियों से युक्त चैतन्यरूप होते हैं, उनके अनुभव के समय चैतन्य का और अंतःकरण की वृत्तियों का योग रहता है; पर यह आनंद अंतःकरण की वृत्तियों से युक्त चैतन्यरूप नही, कितु शुद्ध चैतन्यरूप है; क्योंकि इस अनुभव के समय चित्तवृत्ति आनंदमय हो जाती है और आनंद अनवच्छिन्न रहता है, उसका अंतःकरण की वृत्तियों के द्वारा अवच्छेद नहीं रहता।

इस तरह, अभिनवगुप्ताचार्य ("ध्वनि" के टीकाकार) और मम्मट भट्ट (काव्यप्रकाशकार) आदि के ग्रंथों के वास्तविक तात्पर्य के अनुसार "अज्ञानरूप आवरण से रहित जो चैतन्य है, उससे युक्त रति आदि स्थायी भाव ही 'रस' हैं" यह स्थिर हुआ।

(ग)

वास्तव में तो आगे जो श्रुति हम लिखनेवाले हैं, उसके अनुसार, रति आदि से युक्त और आवरण-रहित चैतन्य का ही नाम 'रस' है।

अस्तु, कुछ भी हो, चाहे ज्ञानरूप आत्मा के द्वारा प्रकाशित होने वाले रति आदि को रस मानो अथवा रति आदि के विषय में होनेवाले ज्ञान को; दोनों ही तरह यह अवश्य सिद्ध है कि रस के स्वरूप में रति और चैतन्य दोनों का साथ है। हाँ, इतना भेद अवश्य है कि एक पक्ष मे चैतन्य विशेषण है और रति आदि विशेष्य और दूसरे पक्ष में रति आदि विशेषण हैं और चैतन्य विशेष्य। पर दोनों ही पक्षों में, विशेषण अथवा विशेष्य किसी रूप में रहनेवाले चैतन्यांश को लेकर रस की नित्यता और स्वतःप्रकाशमानता सिद्ध है और रवि आदि के अंश को लेकर अनित्यता और दूसरे के द्वारा प्रकाशित होना।

चैतन्य के आवरण का निवृत्त हो जाना—उसका अज्ञानरहित हो जाना—ही इस रस की चर्वणा (आस्वादन) कहलाती है, जैसा कि पहले कह आए हैं; अथवा अंतःकरण की वृत्ति के आनंदमय हो जाने को (जैसा कि दूसरा पक्ष है) रस की चर्वणा समझिए। यह चर्वणा परब्रह्म के आस्वाद-रूप समाधि से विलक्षण है, क्योंकि इसका आलंबन विभावादि विषयों (सांसारिक पदार्थों) से युक्त आत्मानंद है और समाधि के आनंद में विषय साथ रह नहीं सकते। यह चर्वणा केवल काव्य की व्यापार-व्यंजना से उत्पन्न की जाती है।

अब यह शंका हो सकती है कि इस आस्वादन में सुख का अंश प्रतीत होता है, इसमे क्या प्रमाण है? हम पूछते हैं कि समाधि में भी सुख का भान होता है, इसमे क्या प्रमाण है? प्रश्न दोनों में बराबर ही है। आप कहेंगे—

"सुखमात्यन्तिकं यत्तद् बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्" (भगवद्गीता) "अर्थात् समाधि में जो अत्यंत सुख है, उसे बुद्धि जान सकती है, इन्द्रियाँ नहीं।" इत्यादि शब्द प्रमाणरूप में विद्यमान है; तो हम कहेंगे कि हमारे पास भी दो प्रमाण विद्यमान हैं। एक तो "रसो वै सः" (अर्थात् वह आत्मा रसरूप है) और "रस्ँ ह्येवाऽयं लब्ध्वाऽऽनंदभवति" (रस को प्राप्त होकर ही यह आनंदरूप होता है) ये श्रुतियाँ और दूसरा सव सहृदयों का प्रत्यक्ष। आप सहदयों से पूछ देखिए कि इस चर्वणा में कुछ आनंद है अथवा नहीं। स्वयं अभिनवगुप्ताचार्य लिखते हैं—जो यह दूसरे (ख) पक्ष में 'चित्तवृत्ति के आनंदमय हो जाने' को रस की चर्वणा बताई गई है, वह शब्द की व्यापारव्यंजना से उत्पन्न होती है, इस कारण शब्द-प्रमाण के द्वारा ज्ञात होनेवाली है और प्रत्यक्ष सुख का आलंबन है—इसके द्वारा सुख का प्रत्यक्ष अनुभव होता है, इस कारण प्रत्यक्ष रूप है; जैसे कि "तत्त्वमसि" आदि वाक्यों से उत्पन्न होनेवाला ब्रह्मज्ञान।

(२)
भट्टनायक का मत

साहित्य शास्त्र के एक पुराने आचार्य भट्टनायक का कथन है कि—तटस्थ रहने पर—रस से कुछ संबंध न होने पर—यदि रस की प्रतीति मान ली जाय तो रस का आस्वादन नहीं हो सकता, और 'रस हमारे साथ संबंध रखता है' यह प्रतीत होना बन नहीं सकता, क्योंकि शकुंतलादिक सामाजिकों (नाटक देखनेवाले आदि) के तो विभाव हैं नही—वे उनके प्रेम आदि का तो आलंबन हो नहीं सकती; क्योंकि सामाजिकों से शकुंतला आदि का लेना देना क्या? और बिना विभाव के आलंबनरहित रस की प्रतीति हो नहीं सकती; क्योंकि जिसे हम अपना प्रेमपात्र समझना चाहते है, उससे हमारा कुछ संबंध तो अवश्य होना चाहिए—उसमे वह योग्यता होनी चाहिए कि वह हमारा प्रेमपात्र बन सके। आप कहेगे कि 'स्त्री होने' के कारण वे साधारण रूप से विभाव बनने की योग्यता रख सकती हैं। सो यह ठीक नहीं। जिसे हम विभाव (प्रेमपात्र) मानते हैं, उसके विषय में हमे यह ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि 'वह हमारे लिये अगम्य नहीं है—उसके साथ हमारा प्रेम हो सकता है', और वह ज्ञान भी ऐसा होना चाहिए कि जिसकी अप्रामाणिकता (गैरसबूती) न हो—अर्थात् कम से कम, हम यह न समझते हों कि यह बात बिलकुल गलत है। अन्यथा स्त्री तो हमारी बहिन आदि भी होती हैं, वे भी विभाव होने लगेगी। इसी तरह करुण-रसादिक में जिसके विषय में हम 'शोक' कर रहे हैं, वह अशोच्य (अर्थात् जिसका सोच करना अनुचित है, जैसे ब्रह्मज्ञानी) अथवा निदित पुरुष (जिसके मरने से किसी को कष्ट न हो) न होना चाहिए। अब जिसे हम विभाव मानते है, उसके विषय में वैसे (अगम्य होने आदि के) ज्ञान की उत्पत्ति का न होना किसी प्रतिबंधक (उस ज्ञान को रोकनेवाले) के सिद्ध हुए बिना बन नहीं सकता। यदि आप कहे कि 'दुष्यंतादिक (जिनकी शकुंतलादिक प्रेमपात्र थी) के साथ हमारा अपने को अभिन्न समझ लेना' ही उस ज्ञान का प्रतिबंधक है; सो ठोक नही; क्योंकि शकुंतला का नायक दुष्यंत पृथिवीपति और धीर पुरुष था और हम इस जमाने के क्षुद्र मनुष्य हैं, इस विरोध के स्पष्ट प्रतीत होने के कारण उसके साथ अपना अभेद समझना दुर्लभ है।

यह तो हुई एक बात। अब हम आपसे एक दूसरी बात पूछते हैं—यह जो हमे रस की प्रतीति होती है सो है क्या? दूसरा कोई प्रमाण तो इस बात को सिद्ध करनेवाला है नहीं; अतः (काव्य सुनने से उत्पन्न होने के कारण) इसे शब्द-प्रमाण से उत्पन्न हुई समझिए। सो हो नहीं सकता। क्योंकि ऐसा मानने पर, रात दिन व्यवहार में आनेवाले अन्य शब्दों के द्वारा ज्ञात हुए, स्त्री पुरुषों के वृत्तांतों के ज्ञान में जैसे कोई चित्ताकर्षकता नहीं होती, वही दशा इस प्रतीति की भी होगी। यदि इसे मानस ज्ञान समझें, तो यह भी नहीं बन सकता; क्योंकि सोच साचकर लाए हुए पदार्थों का मन में, जो बोध होता है, उससे इसमें विलक्षणता दिखाई देती है। न इसे स्मृति ही कह सकते हैं; क्योंकि उन पदार्थों का वैसा अनुभव पहले कभी नहीं हुआ है, और जिस वस्तु का अनुभव नही हुआ हो, उसकी स्मृति हो नहीं सकती। अतः यह मानना चाहिए कि अभिधा शक्ति के द्वारा जो पदार्थ समझाए जाते हैं, उन पर "भावकत्व" अथवा "भावना" नामक एक क्रिया की कार्रवाई होती है। उसका काम यह है—रस के विरोधी जो 'अगम्या होना आदि' के ज्ञान हैं, वे हटा दिए जाते हैं, और रस के अनुकूल 'कामिनीपन' आदि धर्म ही हमारे सामने आते हैं। इस तरह वह क्रिया दुष्यंत, शकुंतला, देश, काल, वय और स्थिति आदि सब पदार्थों को साधारण बना देती है, उनमे किसी प्रकार की विशेषता नही रहने देती कि जिससे हमारी रस-चर्वणा मे गड़बड़ पड़े। बस, यह सब कार्रवाई करके वह (भावना ) ठंडी पड़ जाती है। उसके अनंतर एक तीसरी क्रिया उत्पन्न होती है, जिसका नाम है "भोगकृत्त्व", अर्थात् पाखादन करना। उस क्रिया के प्रभाव से हमारे रजोगुण और तमोगुण का लय हो जाता है और सत्त्वगुण की वृद्धि होती है, जिससे हम अपने चैतन्यरूपी आनंद को प्राप्त होकर (सांसारिक झगड़ों से ) विश्राम पाने लगते है, उस समय हमे इन झगड़ों का कुछ भी बोध नही रहता, केवल आनंद ही आनंद का अनुभव होता है। बस, यह विश्राम ही रस का साक्षात्कार (अनुभव) है, और "रस" है इसके द्वारा अनुभव किए जानेवाले रति आदि स्थायी भाव, जिनको कि पूर्वोक्त भावना नामक क्रिया साधारण रूप मे-अर्थात् किसी व्यक्तिविशेष सं संबंध न रखनेवाले बनाकर-उपस्थित करती है। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि सत्त्वगुण को वृद्धि के कारण जो आनंद प्रकाशित होता है, उससे अभिन्न ज्ञान (चैतन्य ) का नाम ही 'भोग' है और उसके विषय (अनुभव में आनेवाले ) होते हैं रति आदि स्थायी भाव । अत: इस पक्ष मे भी (प्रथम पक्ष की तरह ही ) मोग किए जाते हुए (अर्थात् चैतन्य से युक्त) रति आदि अथवा रति आदि का भोग (अर्थात् रति आदि से युक्त चैतन्य ) इन दोनो का नाम रस है। यह आखाद ब्रह्मानंद के आखादं का समीपवर्ती या सहोदर कहलाता है, ब्रह्मानंद रूप नही, क्योंकि यह विषयों ( रति आदि) से मिश्रित रहता है और उस (ब्रह्मानंद) में विषयानंद सर्वथा नहीं रहता। इस तरह वह सिद्ध हुआ कि पूर्वोक्त रीति से काव्य के तीन अंश हैं-एक अभिधा, जिससे काव्यगत पदार्थों को समझा जाता है; दूसरा भावना, जिससे उनमे से व्यक्तिगतता हटा दी जाती है और तीसरा भोगीकृति, जिससे उनका आस्वादन किया जाता है।

इस मत मे पहन्ते मत से, केवल, भावकत्व अथवा भावना नामक अतिरिक्त क्रिया का स्वीकार करना ही विशेषता है; भोग आवरण से रहित चैतन्य रूप है और आवरण भंग करनेवाली भोगीकृति नामक क्रिया तो (पहले मत की) व्यंजना ही है, इसमे और उसमे कुछ अंतर नहीं। एवं भोगकृत्व तथा ध्वनित करना इन दोनों मे भो कोई भेद नहीं। शेष सव पद्धति वही है।

(३)
नवीन विद्वानो का मत

साहित्यशास्त्र के नवीन विद्वानो का मत है-काव्य में कवि के द्वारा और नाटक मे नट के द्वारा, जव विभाव आदि प्रकाशित कर दिए जाते है, वे उन्हें सहृदयों के सामने उपस्थित कर चुकते हैं, तब हमे, व्यंजना वृत्ति के द्वारा, दुष्यंत आदि की जो शकुंतला आदि के विषय मे रति थी, उसका ज्ञान होता है-हमारी समझ मे यह आवा है कि दुष्यंत आदि का शकुंतला आदि के साथ प्रेम था। तदनंतर सहृदयता के कारण एक प्रकार की भावना उत्पन्न होती है जो कि एक प्रकार का दोष है। इस दोष के प्रभाव से हमारा अंतरात्मा कल्पित दुष्यंतत्व से आच्छादित हो जाता है-अर्थान् हम उस दोष के कारण अपने को, मन ही मन, दुष्यंत समझने लगते हैं। तब जैसे (हमारे) अज्ञान से ढंके हुए सीप के टुकड़े मे चाँदी का टुकड़ा उत्पन्न हो जाता है-हमे सीप के स्थान मे चाँदी की प्रतीति होने लगती है; ठीक इसी तरह पूर्वोक्त दोष के कारण कल्पित दुष्यंतत्व से आच्छादित अपने आत्मा मे, शकुंतला आदि के विषय मे, अनिर्वचनीय सत् असत् से विलक्षण (अतएव जिनके स्वरूप का ठीक निर्णय नहीं किया जा सकता ऐसी) रति आदि चित्त-वृत्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं अर्थात् हमे शकुन्तला आदि के साथ व्यवहारतः बिलकुल झूठे प्रेम आदि उत्पन्न हो जाते हैं, और वे (चित्तवृत्तियाँ) आत्मचैतन्य के द्वारा प्रकाशित होती हैं। बस, उन्ही विलक्षण चित्तवृत्तियों का नाम "रस" है। यह रस एक प्रकार के ( पूर्वोक्त) दोष का कार्य है और उसका नाश होने पर नष्ट हो जाता है-अर्थात् जब तक हमारे ऊपर उस दोष का प्रभाव रहता है, तभी तक हमे उसकी प्रतीति होती है। यद्यपि यह नतो सुख रूप है, न व्यंग्य है और न इसका वर्णन हो सकता है; तथापि इसकी प्रतीति के अनंतर उत्पन्न होनेवाले सुख के साथ जो इसका भेद है, वह हमे प्रतीत नहीं होता; इस कारण हम इसका सुख शब्द से व्यवहार करते हैं। कह देते हैं कि 'रस' सुखरूप है। इसी तरह इसके पूर्व, व्यंजनावृत्ति के द्वारा, शकुंतला आदि के विषय मे जो दुष्यंत आदि की रति आदि का बान होता है, उसका और इस-झूठे प्रेम आदि-का भेद विदित नहीं होता, अत: हम इसे व्यंग्य और वर्णन करने योग्य कह देते हैं-अर्थान् हम यह कहने लगते हैं कि यह व्यंजना वृत्ति से प्रकाशित हुआ है और कवि ने इसका वर्णन किया है। इसी प्रकार सहृदयों की आत्मा को आच्छादित करनेवाला दुष्यंतत्व भी अनिर्वचनीय ही है, उसके भी स्वरूप का यथार्थ निरूपण नहीं हो सकता। वह हमारे आत्मा का आच्छादन कैसे करता है सो भी समझ लेना चाहिए। वह यों है कि जब हम अपने आपको दुष्यंत समझ लेते हैं, तब यह समझते हैं कि यह रति आदि हमारे ही हैं, किसी अन्य व्यक्ति के नही; बस, इसी का अर्थ यह है कि हमको दुष्यंतत्व ने आच्छादित कर दिया। इस तरह मानने से, भट्टनायक की जो ये शंकाएँ हैं कि-"दुष्यंत आदि के जो रति आदि हैं, उनका तो हमे आस्वादन नहीं हो सकता; अत: वे रस नही कहला सकते; और अपने रति आदि व्यक्त नही हो सकते, क्योंकि उनका शकुंतला आदि से कोई संबंध नहीं। यदि दुष्यंत के साथ अपना अभेद माने तो वह हो नहीं सकता, क्योंकि हमको 'वह राजा हम साधारण पुरुष' इत्यादि वाधक ज्ञान है-इत्यादि।" सो सव उड़ गई; इस पक्ष में उनको अवकाश ही नहीं है। और जो कि प्राचीन प्राचार्यों ने विभावादिको का साधारण होना (किसी विशेष व्यक्ति से संबंध न रखना) लिखा है, उसका भी बिना किसी दोष की कल्पना किए सिद्ध होना कठिन है, क्योकि काव्य मे जो शकुंतला आदि का वर्णन है, उसका बोध हमे शकुंतला (दुष्यंत की स्त्री) आदि के रूप मे ही होता है, केवल स्त्री के रूप मे नही। तब यह तो सिद्ध हो ही गया कि शकुंतला आदि मे जो विशेषता है, उसे निवृत्त करने के लिये किसी दो, की कल्पना करना आवश्यक है; और उसी दोष के द्वारा अपने आत्मा मे दुष्यंत आदि के साथ अभेद समझ लेना भी सहज ही सिद्ध हो सकता है, फिर यों ही क्यों न समझ लिया जाय कि किसी प्रकार की गड़बड़ ही न रहे।

अब यहाँ एक शंका होती है कि आपने "अनिर्वचनीय रति आदि के अनंतर जो सुख उत्पन्न होता है, उसका और रति का भेद ज्ञान न होने के कारण हम उसे सुखरूप कहते है"। इस कथन के द्वारा जो 'रति आदि के अनंतर केवल सुख का उत्पन्न होना' स्वीकार किया है, सो ठीक नहीं; क्योंकि रति के अनुभव से एक प्रकार का सुख उत्पन्न होता है, यह वात वन सकती है; पर करुण रसादिको के स्थायी भाव जो शोक आदि हैं, वे दु ख उत्पन्न करनेवाले है, यह प्रसिद्ध है; अतः उनको सहृदय पुरुषों के आनंद का कारण कैसे कहा जा सकता है-यह कैसे माना जा सकता है कि उनसे भी सहृदयों को आनंद ही मिलता है। प्रत्युत यह सिद्ध हो सकता है कि जिस तरह नायक को दुःख उत्पन्न होता है, उसी प्रकार सहृदय मनुष्य को भी होना चाहिए। यदि आप कहे कि सच्चे शोक आदि से दुःख उत्पन्न होता है, कल्पित से नहीं; अतः नायकों को दु:ख होता है और (कल्पित शोक आदि के अनुभवकर्ता) सहृदय को नहीं। तो हम कह सकते है कि जब हमको रस्सी मे सर्प का भ्रम होता है, तब भी हमे भय और कंप उत्पन्न नही होने चाहिए। दूसरे, यदि आप यह मानते हैं कि कल्पित शोकादिक से दुःख नहीं होता, तो हम कहेंगे कि आपके हिसाव से रति भी कल्पित है, अतः उससे भी सुख उत्पन्न नहीं होना चाहिए। इसका समाधान यह है कि यदि सहदयों के हृदय के द्वारा यह प्रमाणित हो चुका है कि जिस तरह शृंगार-रस-प्रधान काव्यो से आनंद उत्पन्न होता है, उसी प्रकार करुणरस-प्रधान काव्यों से भी केवल आनंद ही उत्पन्न होता है, तो यह नियम है कि "कार्य के अनुरोध से कारण की कल्पना कर लेनी चाहिए अर्थात् जैसे जैसे कार्य देखे जाते हैं, तदनुरूप ही उनके कारण समझ लिए जाते हैं" सो जिस तरह काव्य के व्यापार को आनंद का उत्पन्न करनेवाला मानते हो, उसी प्रकार उसे दुःख का रोकनेवाला भी मानना चाहिए । पर यदि आनंद की तरह दुःख भी प्रमाणसिद्ध है, उसका भी सहृदयों को अनुभव होता है, तो काव्य की क्रिया को दुःख को राकनवाली न मानना चाहिए। काव्य की अलौकिक क्रिया सं आनंद और शोक आदि से दु:ख, इस तरह अपने अपने कारण से सुख और दुःख दोनों उत्पन्न हो जायेंगे। अब यह प्रश्न हो सकता है कि यदि करुण रसादिक मे दुःख की भी प्रतीति होती है, तो ऐसे काव्यों के बनाने के लिये कवि, और सुनने के लिये सहृदय क्यों प्रवृत्त होगे ? क्योंकि जब ऐसे काव्य अनिष्ट का साधन है, तो उनसे निवृत्त होना ही उचित है। इसका उत्तर यह है कि जिस तरह चंदन का लेप करने से शीतलता-जन्य सुख अधिक होता है और उसके सूख जाने पर पपड़ियों के उखड़ने का कष्ट उसकी अपेक्षा कम; इसी प्रकार करुण रसादिक मे भी वांछनीय वस्तु अधिक है और अवांछनीय कम, इस कारण सहृदय लोग उनमे प्रवृत्त हो सकते है। और जो लोग काव्यों मे शोक आदि से भी केवल आनंद की ही उत्पत्ति मानते हैं, उनकी प्रवृत्ति मे तो कोई झगडा है ही नहीं। हॉ, उनसे आपका यह प्रश्न हो सकता है कि यदि करुण रसादिक मे केवल अानंद ही उत्पन्न होता है, तो फिर उनके अनुभव से अश्रुपातादिक क्यों हाते हैं ? इसका उत्तर यह है कि उन आनंदो का यही स्वभाव है, अत. जो अनुपात होता है, वह दुःख के कारण नही । अतएव भगवद्भक्त लोग जब भगवान का वर्णन सुनते हैं, तब उनको अश्रुपावादि होने लगते है; पर उस अवस्था मे किचिन्मात्र भी दुःख का अनुभव नहीं होता। आप कहेंगे कि करुण रसादिक मे शोक आदि से युक्त दशरथ आदि से अभेद मान लेने पर यदि आनंद आता है, तो स्वप्न आदि मे अथवा लन्निपात आदि में, अपने प्रात्मा मे, शोक आदि से युक्त दशरथ आदि के अभेद का आरोप कर लेने पर भी आनंद ही होना चाहिए; पर अनुभव यह है कि उन अवस्थाओं में केवल दुःख ही होता है; इस कारण यहाँ भी केवल दुःख होता है यही मानना उचित है। इसके उत्तर मे हम कहते हैं कि यह काव्य के अलौकिक व्यापार (व्यंजना) का प्रभाव है कि जिसके प्रयोग मे आए हुए शोक आदि सुंदरतारहित पदार्थ भी अलौकिक आनंद को उत्पन्न करने लगते हैं क्योंकि काव्य के व्यापार से उत्पन्न होनेवाला रुचिर प्रास्वाद, अन्य प्रमाणों से उत्पन्न होनेवाले अनुभव की अपेक्षा विलक्षण है। यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि पूर्वोक्त वाक्य के "काव्य के व्यापार से उत्पन्न होनेवाला" इस अंश का अर्थ है, काव्य के व्यापार से उत्पन्न होनेवाली भावना से उत्पन्न हुए रति आदि का आस्वाद, अतः रस का प्रास्वाद यद्यपि काव्य के व्यापार से उत्पन्न नहीं होता है, कितु काव्य के बार बार अनुसंधान से उत्पन्न होता है, तथापि कोई हानि नही। अव रही, शकुंतला आदि मे अगम्या होने का ज्ञान । हमे क्यों नही उत्पन्न होता है, यह बात, सो इसका उत्तर यह है कि अपने आत्मा मे दुष्यंत से अभेद समझ लेने के कारण हमे उस (अगम्या होने) की प्रतीति नहीं होती।

(४)
अन्य मत

इसके अतिरिक्त अन्य विद्वानों का मत है कि व्यंजना नामक क्रिया के (जिसे प्राचीन विद्वान् भी मानते हैं) और अनिर्वचनीय ख्याति के (जिसे नवीन विद्वान मानते हैं) मानने की कोई आवश्यकता नहीं, अर्थात रस न तो व्यंग्य है न अनिवचनीय; कितु शकुंतला आदि के विषय मे रति प्रादि से युक्त व्यक्ति के साथ अभेद का मनःकल्पित ज्ञान ही 'रस' है; अर्थात् रस एक प्रकार का भ्रम है, जो पूर्वोक्त व्यक्ति से हमे भूठे ही अभिन्न कर डालता है। उसके द्वारा, पूर्वोक्त दोष के प्रभाव से, हमको अपने आत्मा मे दुष्यंत आदि की तद्रूपता समझ पड़न लगती है, और उसका उत्पन्न करनेवाला है काव्यगत पदार्थों का वार बार अनुसंधान अर्थात् काव्य के पदार्थों को बार बार सोचने विचारने से इस प्रकार का भ्रम उत्पन्न हो जाया करता है। जो दुष्यंत-शकुंतला आदि इस ज्ञान के विपय होते हैं, अर्थात् जिनके विषय मे यह भ्रम होता है, वे विलक्षण हैं, उनका संसार की व्यावहारिक वस्तुओं से कोई संबंध नहीं।

आप कहेंगे कि यदि आप इस तरह के मनःकल्पित ज्ञान को ही रस मानते हैं, तो स्वप्न आदि मे जो इमी प्रकार का मान ज्ञान होता है, आपके हिसाब से, वह भी रस ही हुआ। वे कहते हैं, नहीं; इसी लिये तो हमने लिखा है कि वह काव्य के बार बार अनुसंधान से उत्पन्न होता है। स्वप्न के बोध मे वह बात नहीं है, अतः वह रस नही हो सकता । इस तरह मानने पर भी एक आपत्ति रहती है कि जो रति आदि हमारे अंदर हैं ही नहीं-सर्वथा मनःकल्पित है, उनका अनुभव ही कैसे होगा? पर यह आपत्ति नहीं हो सकती; क्योंकि यह रति आदि का अनुभव लौकिक तो है नहीं, कि इसमे जिन वस्तुओं का अनुभव होता है, उनका विद्यमान रहना आवश्यक हो, कितु भ्रम है। आप कहेगे कि जव रस भ्रमरूप है, तो "रस का प्रावादन होता है। यह व्यवहार कैसे सिद्ध हो सकता है; क्योंकि भ्रम तो स्वयं ज्ञान रूप है उसका आस्वादन क्या? इसका उत्तर यह है कि भ्रम रति आदि के विषय मे होता है, और रति आदि का आस्वादन हुआ करता है (यह अनुभवसिद्ध है); बस, इसी आधार पर यह व्यवहार हो गया है कि 'रसों का प्रास्वादन होता है। वास्तव मे 'रस' का आस्वादन नही होता। वे लोग यह भी कहते हैं। जिसे इस मत के अनुसार रस कहते है, यह ज्ञान तीन प्रकार से हो सकता है। एक यह कि शकुंतला आदि के विपय मे जो रति है, उससे युक्त मैं दुष्यंत हूँ; दूसरा यह कि शकुंतला आदि के विपय मे जो रवि है, उससे युक्त दुष्यंत मैं हूँ और तीसरा यह कि मैं शकुंतला आदि के विषय मे जो रति है, उससे और दुष्यंतत्व से युक्त हूँ। अतः इन लोगों को तीनों प्रकार के ज्ञान को रस मानना पड़ेगा।

अब एक बात और सुनिए। इन तीनों ज्ञानो मे जो रति विशेषणरूप से प्रविष्ट हो रही है, उसकी प्रतीति काव्य के शब्दों से तो होती नही, क्योकि उसमे रति आदि के वाचक शब्द लिखे नही रहते, और उसका बोध करानेवाली व्यंजना को ये स्वीकार नहीं करते, अतः इन्हे रति आदि के ज्ञान के लिये, पहले, (नट आदि को) चेष्टा आदि कारणो से सिद्ध अनुमान स्वीकार करना पड़ेगा। अर्थात् इनके मन मे रति आदि का, चेष्टा आदि का द्वारा, अनुमान कर लिया जाता है।

(५)
एक दल (भट्टलोल्लट इत्यादि) का मत

विद्वानों के एक दल का मत है कि दुष्यंत आदि मे रहनेवाले जो रति आदि है, प्रधानतया, वे ही रस हैं; उन्ही को, नाटक मे, सुंदर विभाव आदि का अभिनय दिखाने में निपुण दुष्यंत आदि का पार्ट लेनेवाले नट पर और काव्य मे काव्य पढ़नेवाले व्यक्ति के ऊपर आरोपित करके हम उसका अनुभव कर लेते हैं। इस मत मे भी रस का अनुभव, पूर्व मत की तरह, (तीनों प्रकार से ) 'शकुंतला के विषय मे जो रति है, उससे युक्त यह (नट ) दुष्यंत है' इत्यादि समझना चाहिए । इस मत के अनुसार "शकुंतला के विषय मे जो रति है उससे युक्त यह (नट) दुष्यंत है इस बोध मे दो अंश हैं, एक नट विषयक, दूसरा दुष्यंत विषयक आदि। इसमे नट जो विशेष्य है उसके सामने रहने से उसका बोध लैौकिक और बाकी का अलौकिक है।

(६)
कुछ विद्वानो (श्रीशंकुक प्रभृति) का मत है

कि दुष्यंत आदि में जो रति आदि रहते हैं, वे ही जब नट अथवा काव्यपाठक मे, उसे दुष्यंत समझकर, अनुमान कर लिए जाते हैं, तो उनका नाम 'रस' हो जाता है। नाटक आदि मे जो शकुंतला आदि विभाव परिज्ञात होते हैं, वे यद्यपि कृत्रिम होते हैं, तथापि उनको स्वाभाविक मानकर और नट को दुष्यंत मानकर पूर्वोक्त विभावादिकों से नट आदि मे रति आदि का अनुमान कर लिया जाता है। यद्यपि दुष्यंत आदि के चरित्रों का उससे भिन्न नट आदि के विषय मे अनुमित होना नियम-विरुद्ध है, तथापि अनुमान की सामग्री के बलवान होने के कारण, वह बन जाता है।

(७)
कितने ही कहते हैं

विभाव, अनुभाव और संचारी भाव ये तीनों ही सम्मिलित रूप मे रस कहलाते हैं।

(८)
बहुतेरों का कथन है

कि तीनो मे जो चमत्कारी हो, वही रस है, और यदि चमत्कारी न हो तो तीनो ही रस नही कहला सकते।

(९)
इनके अतिरिक्त कुछ लोग कहते हैं

कि बार बार चिंतन किया हुआ विभाव ही रस है।

(१०)
दूसरे कहते हैं

बार बार चिंतन किया हुआ अनुभाव ही रस है।

(११)
तीसरे कहते हैं

कि बार वार चितन किया हुआ व्यभिचारी भाव ही रस. रूप मे परिणत हो जाता है।

पूर्वोक्त मतों के अनुसार भरतसूत्र की व्याख्याएँ

यह तो हुआ रसों के विषय मे मतभेद। अब इन सबका मूल जो भरत-मुनि का यह सूत्र है कि-

"विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।"

इसकी पूर्वोक्त मतो के अनुसार व्याख्याएँ भी सुनिए । प्रथम मत के अनुसार-"विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावो के द्वारा, संयोग अर्थान् ध्वनित होने से, आत्मानंद से युक्त स्थायी भाव रूप अथवा स्थायी भाव से उपहित आत्मानंदरूप रस की, निष्पत्ति होती है अर्थात् वह अपने वास्तव रूप मे प्रकाशित होता है। यह अर्थ है।

द्वितीय मत के अनुसार-"विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावो के (सं+योग) सम्यक् अर्थात् साधारण रूप से, योग अर्थात् भावकत्व व्यापार के द्वारा भावना करने से, स्थायी भाव रूप उपाधि से युक्त सत्वगुण की वृद्धि से प्रका शित, अपने आत्मानंद-रूप रस की, निष्पत्ति अर्थात् भोग नामक साक्षात्कार के द्वारा अनुभव होता है" अर्थ है।

तृतीय मत के अनुसार-"विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावो के, संयोग अर्थात् एक प्रकार की भावनारूपी दोष से, दुष्यंत आदि के अनिर्वचनीय रति आदि रूप रस की, निष्पत्ति अर्थात् उत्पत्ति होती है। अर्थ है।

चतुर्थ मत के अनुसार-"विभावादिकों के, संयोग अर्थात् ज्ञान से, एक प्रकार के ज्ञानरूप रस की, निष्पत्ति अर्थात् उत्पत्ति होती है। अर्थ है।

पंचम मत के अनुसार-"विभावादिकों के, संयोग अर्थात् संबंध से, रस अर्थात् रति आदि की, निष्पत्ति होती है अर्थात् वे (नट आदि पर) आरोपित किए जाते हैं।' अर्थ है।

षष्ठ मत के अनुसार-"कृत्रिम होने पर भी स्वाभाविक रूप मे समझे हुए विभावादिकों के द्वारा, संयोग अर्थान् अनुमान के द्वारा, रस अर्थात् रति आदि की, निष्पत्ति होती है अर्थात् अनुमान कर लिया जाता है। अर्थ है।।

सप्तम मत के अनुसार-'विभावादिक वीनो के संयोग अर्थात् सम्मिलित होने से, रस की निष्पत्ति होती है अर्थात् रस कहलाने लगता है। अर्थ है।

अष्टम मत के अनुसार-"विभावादिकों मे से, संयोग अर्थात् चमत्कारी होने से रस कहलाता है" अर्थ है। अब जो तीन मत शेष रहे, उनमे सूत्र का अर्थ संगत नही होता, अत: उनका सूत्र से विरोध पर्यवसित होता है-अर्थात् वे स्वतंत्र मत हैं, सूत्रानुसारी नहीं।

विभावादिकों में से प्रत्येक को रसव्यंजक
क्यों नहीं माना जाता

विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव इनमे से केवल एक-अर्थात् केवल विभाव, केवल अनुभाव अथवा केवल व्यभिचारी भाव-का किसी नियत रस को ध्वनित करना नही बन सकता; क्योंकि वे जिस तरह एक रस के विभाव आदि होते हैं, उसी तरह दूसरे रस के भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिये देखिए, व्याघ्र आदि जिस तरह भयानक रस के विभाव हो सकते हैं, उसी प्रकार वीर, अद्भुत और रौद्र-रस के भी हो सकते है; अश्रुपातादिक जिस तरह श्रृंगार के अनुभाव हो सकते हैं, उसी प्रकार करुण और भयानक के भी हो सकते हैं; चितादिक जिस तरह श्रृंगार के व्यभिचारी हो सकते हैं, उसी प्रकार करुण, वीर और भयानक के भी हो सकते हैं। अतः सूत्र में तीनों को सम्मिलित रूप में ही ग्रहण किया गया है, प्रत्येक को पृथक पृथक् नहीं। जब इस प्रकार यह प्रमाणित हो चुका कि तीनों के सम्मिलित होने पर ही रस ध्वनित होता है, तब, जहाँ कही, किसी असाधारण रूप मे वर्णित विभाव, अनुभाव अथवा व्यभिचारी भाव मे से किसी एक से ही रस का उद्धोध हो जाता है, जैसे कि निम्नलिखित पद्य मे

परिमृदितमृणालीम्लानमङ्गं प्रवृत्तिः
कथमपि परिवारप्रार्थनाभिः क्रियासु।
कलयति च हिमांशोर्निष्कलङ्कस्य लक्ष्मी-
मभिनवकारिदन्तच्छेदपाण्डुः कपोलः॥

मालवीमाधव प्रकरण के प्रथम अड्डू का यह श्लोक है। माधव मकरंद से मालती का वर्णन कर रहे है-(मालती के) अंग अत्यंत रौंदी हुई कमल की जड़ के समान हो गए हैं, शरीरस्थितिमात्रोपयोगी क्रियाओं मे-परिवार के प्रार्थना करने पर, बड़ा कठिनता से प्रवृत्ति होती है, अर्थात् एक बार उपक्रममात्र होकर रह जाता है, चेष्टा नहीं होती और नए हाथी-दाँत के टुकड़े के समान श्वेत कपोल कलंकरहित चंद्रमा की शोभा को धारण करने लगे हैं-उनमे ललाई का लेश भी नही रहा है। यहाँ केवल अनुभाव के वर्णन मात्र से ही विप्रलंभ-शृंगार का आस्वादन होने लगता है। ऐसे स्थलों मे अन्य दोनों (जैसे यहाँ विभाव और व्यभिचारी भाव) का आक्षेप कर लिया जाता है। सो यह बात नहीं है कि रस कही सम्मिलितों से उत्पन्न होता है और कही एक ही से, कितु तीनों के सम्मेलन के बिना रस उत्पन्न होता ही नहीं, यह सिद्ध है।

सो इस तरह विद्वानों ने, यद्यपि अनेक प्रकार की बुद्धियों के द्वारा, रस को, अनेक रूपो मे समझा है, आज दिन तक भी इस विषय मे विचार स्थिर नही हो पाए हैं; तथापि इसमे किसी प्रकार का विवाद नही कि, इस संसार मे, रस एक

र॰-६ सौंदर्यमय वस्तु है और उसमे परमानंद की प्रतीति हुए बिना नहीं रहती।

रस कौन-कौन और कितने हैं?

पूर्वोक्त रस-शृंगार, करुण, शांत, रौद्र, वीर, अद्भुत, हास्य, भयानक और बीभत्स इस तरह नौ प्रकार का है; और इसमे प्रमाण है भरत मुनि का वाक्य। पर कुछ लोग कहते है-

शान्तस्य शमसाध्यत्वान्नटे च तदसम्भवात्।
अष्टावेव रसा नाट्ये न शान्तस्तत्र युज्यते॥

अर्थात् शांतरस के सिद्ध करने के लिये शांति की आवश्यकता है, और (सांसारिक झगड़ों में व्याप्त) नट मे उसका होना असंभव है, अतः नाट्य मे आठ ही रस होते हैं, उसमें शांतरस का होना नहीं बन सकता। इस बात को दूसरे विद्वान् मानना नहीं चाहते। वे कहते हैं आपने जो यह हेतु दिया है कि 'नट मे शांति का होना असंभव है', सो असंगत है-इस बात का यहाँ मेल नहीं मिलता, क्योंकि हम लोग नट मे रस का अभिव्यक्त होना स्वीकार ही नहीं करते। वह शांत रहे अथवा अशांत, यदि सामाजिक लोग शांतियुक्त होगे, तो उन्हे रस का आस्वादन होने में कोई बाधा नही। आप कहेंगे-यदि नट मे शांति न होगी तो वह शांतरस का अभिनय ही प्रकाशित नही कर सकेगा, तो हम आपसे कहेगे-नट जब भयानक अथवा रौद्ररस की अभिव्यक्ति के लिये अभिनय करता है, तब भी उसमे भय और क्रोध तो रहते नही; फिर वह उन रसों का अभिनय भी कैसे कर सकता है? यदि आप कहे कि नट मे क्रोध आदि के न होने के कारण, क्रोधादिक के वास्तविक कार्य वध-बंधन आदि के उत्पन्न न होने पर भी शिक्षा और अभ्यास आदि से बनावटी वध-बंधन आदि के उत्पन्न होने में कोई बाधा नहीं होती यह देखा ही जाता है, तो हम कहेंगे कि इस विषय मे भी वैसा ही क्यों नहीं समझ लेते ? दोनों स्थानों पर वही तो बात है। हाँ, आप यह कह सकते हैं कि सामाजिको मे भी, नाटकादि के द्वारा, शांतरस का उदय कैसे हो सकता है? क्योंकि विषयों से विमुख होना ही शांतरस का स्वरूप है, और नाटक में उसके विरोधी पदार्थगीत, वाद्य आदि-विद्यमान रहते हैं; अतः विरोधियों के द्वारा रस का आविर्भाव सिद्ध होना असंभव है। इसका उत्तर यह है कि जो लोग नाटक मे शांतरस को स्वीकार करते हैं, वे गीतवाद्य आदि को उसका विरोधी नही मानते; क्योंकि यदि ऐसा हो तो उनका फल-शांतरस का उदय-ही न बन पावे। दूसरे, यदि आप यावन्मात्र विषयों के चितन को शांतरस के विरुद्ध माने, तो शांतरस का आलंबन-संसार का अनित्य होना एवं उसके उद्दीपन पुराणो का सुनना, सत्संग, पवित्र वन और तीर्थों के दर्शन आदि भी विषय ही हैं, अतः वे भी उसके विरोधी हो जायँगे। इस कारण, यह मानना चाहिए कि जिनमे शांतरस के अनुकूल-संसार से विरक्त होने के उपयोगी वर्णन होता है-वे भजन-कीर्त्तन आदि शांतरस के अभिव्यंजक हो सकते हैं। इसी कारण, 'संगीतरत्नाकर' के अंतिम अध्याय मे-

अष्टावेव रसा नाट्येष्विति केचिदचूचुदन्।
तदचारु यतः कञ्चिन्न रसं स्वदते नटः॥

अर्थात् 'नाटकों मे आठ ही रस है। यह जो कुछ लोगो की शंका है, सो ठीक नही; क्योंकि नट किसी रस का आस्वादन नहीं करता इत्यादि लिखकर यह सिद्ध कर दिया है कि नाटकों में भी शांत-रस है। परंतु जो लोग 'नाटकों मे शांतरस नही है। यह मानते है, उन्हे भी, किसी प्रकार की बाधा न होने के कारण, एवं 'महाभारतादि ग्रंथो मे शांतरस ही प्रधान है। यह बात सब लोगों के अनुभव से सिद्ध होने के कारण, उसे (शांतरस को ) काव्यो में अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। इसी कारण, मम्मट भट्ट ने भी "अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः (नाटक मे पाठ रस माने गए हैं)" इस तरह प्रारंभ करके "शांताऽपि नवमो रसः (शांत भी नौवाँ रस है)" इस तरह उपसंहार किया है। अर्थात् उनके हिसाब से भी काव्यों में शांतरस सिद्ध है। तब रस नौ हैं, इस बात में कोई संदेह नहीं।

  1. * समाधिया दो प्रकार की है—एक सप्रज्ञात और दूसरी असंप्रज्ञात; इन्ही का नाम सविकल्पक और निर्विकल्पक भी है। सविकल्पक समाधि में ज्ञाता और ज्ञेय का पृथक् पृथक् अनुसंधान रहता है; पर निर्विकल्पक में कुछ नहीं रहता, योगी ब्रह्मानंद में लीन हो जाता है।