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हिंदी व्याकरण/प्रस्तावना

विकिस्रोत से
हिंदी व्याकरण
कामताप्रसाद गुरु

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १ से – ९ तक

 

 

 

१-प्रस्तावना।

(१) भाषा।

भाषा के द्वारा मनुष्य अपने विचार दूसरों पर भली भाँँति प्रकट कर सकता है और दूसरों के विचार आप समझ सकता है। मनुष्य के कार्य उसके विचारों से उत्पन्न होते हैं और इन कार्यों में दूसरों की सहायता अथवा सम्मति प्राप्त करने के लिए उसे वे विचार प्रकट करने पड़ते हैं। जगत का अधिकांश व्यवहार बोल-चाल अथवा लिखा-पढ़ी से चलता है, इसलिए भाषा जगत के व्यवहारका मूल है।

बहरे और गूंगे मनुष्य अपने विचार संकेतों से प्रकट करते हैं। बच्चा केवल रोकर अपनी इच्छा जनाता है। कभी कभी केवल मुख की चेष्टा से मनुष्य के विचार प्रकट हो जाते हैं। कोई कोई जंगली लोग बिना बोले ही सकेतों के द्वारा बात-चीत करते हैं। इन सब संकेतों को लोग ठीक ठीक नहीं समझ सकते और न इनसे सच विचार ठीक ठीक प्रकट हो सकते हैं। इस प्रकार की सांकेतिक भाषाओं से शिष्ट समाज का काम नहीं चल सकता। पशु-पक्षी जो बोली बोलते हैं उससे दुःख, सुख, भय आदि मनोविकारों के सिवा और कोई बात नहीं जानी जाती। मनुष्य की भाषा से उसके सव विचार भली भाति प्रकट होते हैं, इसलिए वह व्यक्त भाषा कहलाती है, दूसरी सब भाषाएँ या वोलियाँ अव्यक्त कहाती हैं।

व्यक्त भाषा के द्वारा मनुष्य एक-दूसरे के विचार ही नहीं जान लेते, बरन उसकी सहायता से नये विचार भी उत्पन्न होते है। किसी विषय को सोचते समय हम एक प्रकार का मानसिक संभाषण करते हैं, जिससे हमारे विचार भापा के रूप में प्रकट होते हैं। इसके सिवा भापा से धारणा-शक्ति को सहायता मिलती है। यदि हम अपने विचारों को एकत्र करके लिख ले तो आवश्यकता पड़ने पर हम लेख-रूप में उन्हें देख सकते हैं और बहुत समय बीत जाने पर भी हमें उनकी स्मरण हो सकता है। भापा की उन्नत या अवनत अबस्था राष्ट्रीय उन्नति या, अवनति का प्रतिबिंब हैं। प्रत्येक नया शब्द एक नये विचार का चित्र हैं और भाषा का इतिहास मानो उसके धोलनेवालों का इतिहास है।

भाषा स्थिर नहीं रहती, उसमें सदा परिवर्तन हुआ करते हैं। विद्वानों का अनुमान है कि कोई भी प्रचलित भाषा एक हजार वर्ष से अधिक समय तक एकसी नहीं रह सकती। जो हिंदी हम लोग आजकल बोलते हैं वह प्रपितामह आदि हमारे पूर्वजों के समय में इसी रूप में न बोली जाती थी, और न उन लोगों की हिंदी वैसी थी जैसी वह महाराज पृथ्वीराज के समय में बोली जाती थी। अपने पूर्वजों की भापा की खोज करते करते हमें अंत में एक ऐसी हिंदी भाषा का पता लगेगा जो हमारे लिये एक अपरिचित भाषा के समान कठिन होगी। भाषा में यह परिवर्तन धोरे धीरे होता है— इतना धीरे धीरे कि वह हंसको मालूम नहीं होता, पर, अंत में, इन परिवर्तनों के कारण नई नई भाषाएँ उत्पन्न हो जाती है। भाषा पर स्थान, जल-वायु और सभ्यता का बड़ा प्रभाव पड़ता है। बहुत से शब्द जो एक देश के लोग बोल सकते है, दूसरे देश के लोग तद्वत्न हीं बोल सकते। जल-वायु में हेर-फेर होने से लोगों के उच्चारण में अंतर पड़ जाता है। इसी प्रकार सभ्यता की उन्नति के कारण नये नये विचारों के लिए नये नये शब्दं बनाने पड़ते हैं, जिससे भाषा का शब्द-कोष बढ़ता जाता है। इसके साथही बहुतसी जातियाँ अवनत होती जाती हैं और उच्च भावों के अभाव में उनमे वाचक शब्ट लुप्त होते जाते हैं।

 विद्वान् और ग्रामीण मनुष्यों की भाषा में कुछ अंतर रहता

है। किसी शब्द का जैसा शुद्ध उच्चारण विद्वान् पंडित करते हैं वैसा सर्व-साधारण लोग नहीं कर सकते। इससे प्रधान भाषा बिगडकर उसकी शाखा-रूप 'नई नई बोलियाँ बन जाती हैं । भिन्न भिन्न दो भाषाओं के पास पास बोले जाने के कारण भी उन दोनों के मेल से एक नई बोली उत्पन्न हो जाती है ।

  भाषागत विचार प्रकट करने में एक विचार के प्रायः कई अंश

प्रकट करने पड़ते हैं। उन सभी अंशों के प्रकट करने पर उस समग्र विचार का मतलब अच्छी तरह समझ में आता है। प्रत्येक पूरी बात को वाक्यकहते हैं। प्रत्येक वाक्य मे प्रायः कई शव्दरहते है। प्रत्येक शब्द एक सार्थक ध्वनिहै जो कई मूल ध्वनियों के योग से वनती है। जब हम बोलते हैं तब शब्दों का उपयोग करते है और भिन्न भिन्न प्रकार के विचारों के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के शब्दों को काम में लाते हैं। यदि हम शब्द का ठीक ठीक उपयोग न करें तो हमारी भाषा में बड़ी गड़बड़ पड़ जाये और संभवत. कोई हमारी बात न समझ सके । यद्यपि भाषा में जिन शब्दो का उपयोग किया जाता है। वे किसी न किसी कारण से कल्पित किये गये है, तो भी जो शब्द जिस वस्तु का सूचक है। उसका इससे, प्रत्यक्ष में, कोई संबंध नहीं । 'परंतु शब्दों ने अपने वाच्य पदार्थादि की भावना को अपने में बॉध सा लिया है जिससे शब्दों का उच्चारण करते ही उन उन पदार्थों का बोध तत्काल हो जाता है। कोई कोई शब्द केवल अनुकरण-वाचक है, पर जिन सार्थक शब्दों से भाषा बनी है।उनके आगे ये शब्द चहुत थोड़े है। .

  जब हम उपस्थित लोगों पर अपने विचार प्रकट करते हैं तव वहुधा कथित भाषा काम में लाते हैं; पर जब हमें अपने विचार दूरवर्ती मनुष्यों के पास पहुँचाने का काम पड़ता है, अथवा भावी संतति के लिए उनके संग्रह की आवश्यकता होती है, तब हम लिखित भाषा का उपयोग करते हैं। लिखी हुई भाषा में शब्द की एक एक मूल-ध्वनि को पहचानने के लिए एक एक चिह्न नियत कर लिया जाता है जिसे वर्ण कहते हैं। ध्वनि कानों का विषय है, पर वर्ण ऑखों का, और यह ध्वनि का प्रतिनिधि है। पहले पहल केवल बोली हुई भापा का प्रचार था, पर पीछे से विचारों को स्थायी रूप देने के लिए कई प्रकार की लिपियाँनिकाली गई । वर्ण-लिपि निकलने के बहुत समय पहले तक लोगों में चित्र-लिपि का प्रचार था, जो आजकल भी पृथ्वी के कई भागों के जंगली लोगों में प्रचलित है । इस देश में भी कहीं कहीं ऐसी पुरानी वस्तुएँ मिली हैं जिनपर चित्र-लिपि के चिह्न मालूम पड़ते हैं। मिसर के पुराने खंडहरों और गुफाओं आदि में पुरानी चित्र-लिपि के अनेक नमूने पाये गये हैं और इन्हींसे वहाँ की वर्णमाला निकली है। कोई कोई

यह अनुमान करते हैं कि प्राचीन समय के चित्र-लेख के किसी किसी अवयव के कुछ लक्षण वर्तमान वर्गों के आकर में मिलते हैं, जैसे “ह” में हाथ और “ग” में गाय के आकार का कुछ न कुछ अनुकरण पाया जाता है। जिस प्रकार भिन्न भिन्न भाषाओं में एक ही विचार के लिए बहुधा भिन्न भिन्न शब्द होते हैं उसी प्रकार एक ही मूल-ध्वनि के लिए उनमें भिन्न भिन्न, अक्षर भी होते हैं।

(२) भाषा और व्याकरण ।

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• किसी भाषा की रचना को ध्यानपूर्वक देखने से जान पड़ता है कि उसमें जितने शब्दों का उपयोग होता है। उतने सभी भिन्न भिन्न प्रकार के विचार प्रकट करते हैं और अपने उपयोग केअनुसार कोई अधिक और कोई कम आवश्यक होते हैं । फिर, एक ही विचार को कई रूपों में प्रकट करने के लिए शब्दों के भी कई रूपांतर हो जाते हैं। भाषा में यह भी देखा जाता है कि कई शब्द दूसरे शब्दों से बनते हैं और उनसे एक नया ही अर्थ पाया जाता है। वाक्य में शब्दों का उपयोग किसी विशेष क्रम से होता है और उनमें रूप अथवा अर्थ के अनुसार परस्पर संबंध रहता है। इस अवस्था में यह आवश्यक है कि पूर्णता और स्पष्टतापूर्वक विचार प्रकट करने के लिए शब्दों के रूपों तथा प्रयोग मे स्थिरता और समानता हो । जिस शास्त्र मे शब्दों के शुद्ध रूप और प्रयोग के नियमों का निरूपण होता है उसे व्याकरण कहते हैं । व्याकरण के नियम बहुधा लिखी हुई भाषा के आधार पर निश्चित किये जाते हैं, क्योंकि उसमें शब्दों का प्रयोग बोली हुई भाषा की अपेक्षा अधिक सावधानी से किया जाता है। व्याकरण ( वि +आ + करण ) शब्द का अर्थ “भली भाति समझाना" है। व्याकरण में वे नियम समझाये जाते हैं जो शिष्ट जनों के द्वारा स्वीकृत शब्दों के रूपों और प्रयोग में दिखाई देते हैं ।

व्याकरण भापा के अधीन है और भाषा ही के अनुसार बदलता रहता है । वैयाकरण का काम यह नहीं कि वह अपनी ओर से नये नियम बनाकर भाषा को बदल दे । वह इतना ही कह सकता है कि अमुक प्रयोग अधिक शुद्ध है अथवा अधिकता से किया जाता है, पर उसकी सम्मति मानना या न मानना लोगों की इच्छा पर है। व्याकरण के संबंध में यह बात स्मरण रखने

योग्य है कि भाषा को नियमबद्ध करने के लिए व्याकरण नहीं बनाया जाता, वरन भाषा पहले बोली जाती है और उसके आधार पर व्या-करण की उत्पत्ति होती है। व्याकरण और छंद:शास्त्र का निर्माण करने के बरसों पहले से भाषा बोली जाती है और कविता रची जाती है।

(३) व्याकरण की सीमा।

लोग बहुधा यह समझते हैं कि व्याकरण पढ़कर वे शुद्ध शुद्ध बोलने और लिखने की रीति सीख लेते हैं। ऐसा समझना पूर्ण रूप से ठीक नहीं 1 यह सच है कि शब्दों की बनावट और उनके संबंध की खोज करने से भाषा के प्रयोग में शुद्धता , जाती है, पर यह बात गौण है । व्याकरण न पढ़कर भी लोग : शुद्ध शुद्ध बोलना और लिखना सीख सकते हैं। हिंदी के कई अच्छे लेखक व्याकरण नहीं जानते अथवा व्याकरण जानकर भी लेख लिखने में उसका उपयोग नहीं करते। उन्होंने अपनी मातृभाषा को लिखना अभ्यास से सीखा है। शिक्षित लोगों के लड़के, विना :व्याकरण जाने, शुद्ध भाषा सुनकर ही, शुद्ध शुद्ध बोलना सीख लेते हैं। परअशिक्षित लोगों के लड़के व्याकरण पढ़ लेने पर भी प्रायः अशुद्धही, बोलते हैं, यदि छोटा लड़का कोई चाक्य शुद्ध नहीं, बोल सकता तो उसकी माँ उसे व्याकरण का नियम नहीं समझाती, वरन शुद्धवाक्य बता देती है और लड़का वैसा ही बोलने लगता है।

व्याकरण पढ़ने से मनुष्य अच्छा लेखक या वक्ता नहीं हो सकता। विचारों की सत्यता अथवा असत्यता से भी व्याकरण का कोई संबंध नहीं । भाषा में व्याकरण की भूले न होने पर भी विचारों की भूले हो सकती हैं और रोचकता का अभाव रह सकता है। व्याकरण की सहायता से हम केवल- शब्दों का शुद्ध प्रयोग जानकर अपने विचार स्पष्टता से प्रकट कर सकते हैं, जिससे किसी भी विचारवान् मनुष्य को उनके समझने में कठिनाई अथवा संदेह न हो।

(४) व्याकरण से लाभ।

यहाँ अर्थ यह प्रश्न हो सकता है कि यदि भाषा व्याकरण के आश्रित नहीं और यदि व्याकरण की सहायता पाकर हमारी भाषा शुद्ध, रोचक और प्रामाणिक नहीं हो सकती, तो उसका निर्माण
करने और उसे पढ़ने से क्या लाभ? कुछ लोगों का यह भी आक्षेप है कि व्याकरण शुष्क और निरुपयोगी विषय है। इन प्रश्नों का उत्तर यह है कि भाषा से व्याकरण का प्रायः वही संबंध है जो प्राकृतिक विकारों से विज्ञान का है। वैज्ञानिक लोग ध्यानपूर्वक सृष्टि-क्रम का निरीक्षण करते हैं और जिन नियमों का प्रभाव- वे प्राकृतिक विकारों में देखते हैं। उन्हींको वे बहुधा सिद्धांतवत् ग्रहण कर लेते है। जिस प्रकार ससार में कोई भी प्राकृतिक घटना नियम- विरुद्ध नहीं होती उसी प्रकार भाषा भी नियम-विरुद्ध नहीं बोली ज़ाती । वैयाकरण इन्हीं नियमों का पता लगाकर सिद्धांत स्थिर करते है। व्याकरण मे भाषा की रचना, शब्दों की व्युत्पत्ति, और स्पष्टतापूर्वक विचार प्रकट करने के लिए, उनका शुद्ध प्रयोग बताया जाता है, जिनको जानकर हम अपनी भाषा के नियम जान सकते। हैं और उन भूलों का कारण समझ सकते है, जो कभी कभी नियमों का ज्ञान न होने के कारण वोलने या लिखने में हो जाती है। किसी भाषा का पूर्ण ज्ञान होने के लिए उसका व्याकरण जानना भी आवश्यक है। कभी कभी कठिन भापा का अर्थ केवल व्याकरण की सहायता से जाना जा सकता है। इसके सिवा व्याकरण के ज्ञान से विदेशी भाषा सीखना भी सहज हो जाता है।

कोई कोई वैयाकरण व्याकरण को शास्त्र मानते हैं और कोई कोई उसे कला समझते हैं। शास्त्र से हमको किसी विपय का ज्ञान विधिपूर्वक होता है और कला - से हम उस विषय का उपयोग सीखते हैं। व्याकरण को शास्त्र इसलिए कहते हैं कि उसके द्वारा हम भाषा के उन नियमों की खोज करते हैं जिनपर शब्दों का शुद्ध प्रयोग अवलंबित है, और वह कला इसलिए है कि हम शुद्ध भापा बोलने के लिए उन नियमों का पालन करते हैं। विचारों में शुद्धता तर्क-शास्त्र के ज्ञान से और भाषा की रोचकता साहित्य-शास्त्र के ज्ञान से आती है।

हिंदी-व्याकरण में प्रचलित साहित्यिक हिंदी के रूपांतर और रचना के बहु-जन-मान्य नियमों का क्रमपूर्ण संग्रह रहता है। इसमें प्रसंग-वश प्रांतीय और प्राचीन भाषाओं का भी यत्र तत्र विचार किया जाता है; पर वह केवल गौण रूप और तुलना की दृष्टि से।

(५) व्याकरण के विभाग ।

व्याकरण भाषा-संबंधी शास्त्र है और भाषा का मुख्य अंग वाक्य है। वाक्य शब्दों से बनता है और शब्द प्रायः मूल-ध्वनियों से । लिखी हुई भाषा में एक मूल-ध्वनि के लिए प्रायः एक चिह्न रहता है जिसे वर्ण कहते हैं। वर्ण, शब्द और वाक्य के विचार से व्याकरण के मुख्य तीन विभाग होते हैं--(१) वर्णविचार, (२) शब्द-साधन,(३) वाक्य-विन्यास।

(१) वर्ण-विचार व्याकरण का वह विभाग है जिसमें वर्षों के आकार, उच्चारण और उनके मेल से शब्द बनाने के नियम दिये जाते हैं।

(२) शब्द-साधन व्याकरण के उस विभाग को कहते हैं। जिसमें शब्दों के भेद, रूपांतर और व्युत्पत्ति का वर्णन रहता है।

(३) वाक्य-विन्यास व्याकरण के उस विभाग का नाम है जिसमें वाक्यों के अवयवों का परस्पर संबंध बताया जाता है और शब्दों से वाक्य बनाने के नियम दिये जाते हैं।

सू॰--कोई कोई लेखक गद्य के समान पद्य को भाषा का एक भेद मानकर व्याकरण में उसके अंग--छंद, रस और अलंकार--को विवेचन करते हैं। पर ये विषय यथार्थ में साहित्य शास्त्र के अंग हैं, जो भाषा को रोचक और प्रभावशालिनी बनाने के काम आते हैं।
व्याकरण से इनका कोई संबंध नहीं हैं, इसलिए इस पुस्तक में इनका विवेचन न किया जायगा । इसी प्रकार कहावतें और मुहावरे भी जो बहुधा व्याकरण की पुस्तकों में लिख दिये जाते हैं, व्याकरण के विषय नहीं हैं। केवल कविता की भाषा और काव्य-स्वतंत्रता का परोक्ष संबध व्याकरण से है,अतएव ये विषय प्रस्तुत पुस्तक के परिशिष्ट में दिये जायँगे।