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हिंदी व्याकरण/विस्मयादि-बोधक

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हिंदी व्याकरण
कामताप्रसाद गुरु

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ २१३ से – २१६ तक

 

चौथा अध्याय।

विस्मयादि-बोधक।

२४८—जिन अव्ययो का संबंध वाक्य से नही रहता और जो वक्ता के केवल हर्ष-शोकादि भाव सूचित करते हैं उन्हें विस्मयादि-बोधक अव्यय कहते हैं, जैसे, "हाय! अब मैं क्या करूँ!" (सत्य०)। "हैं! यह क्या कहते हो!" (परी०)। इन वाक्यों में "हाय" दु:ख और "हैं" आश्चर्य तथा क्रोध सूचित करता है और जिन वाक्यों में ये शब्द हैं उनसे इनका कोई संबंध नहीं है।

व्याकरण में इन शब्दों का विशेष महत्व नहीं, क्योंकि वाक्य का मुख्य काम जो विधान करना है उसमें इनके योग से कोई आवश्यक सहायता नहीं मिलती। इसके सिवा इनका प्रयोग केवल वहीं होता है जहाँ वाक्य के अर्थ की अपेक्षा अधिक तीव्र भाव सूचित करने की आवश्यकता होती है। "मैं अब क्या करूँ।" इस वाक्य से शोक पाया जाता है, परंतु यदि शोक की अधिक तीव्रता सूचित करनी हो तो इसके साथ "हाय" जोड़ देंगे; जैसे, "हाय! अब मैं क्या करूँ।" विस्मयादि-बोधक अव्ययों में अर्थ का अत्यंताभाव नहीं है, क्योंकि इनमें से प्रत्येक शब्द से पूरे वाक्य का अर्थ निकलता है, जैसे अकेले "हाय" के उच्चारण से यह भाव जाना जाता है कि "मुझे बड़ा दुःख है।" तथापि जिस प्रकार शरीर वा स्वर की चेष्टा से मनुष्य के मनेाविकारों का अनुमान किया जाता है उसी प्रकार विस्मयादि-बोधक अव्ययों से भी इन मनोविकारों का अनुमान होता है; और जिस प्रकार चेष्टा की व्याकरण में व्यक्त भाषा नहीं मानते उसी प्रकार विस्मयादि-बोधकों की गिनती वाक्य के अवयव में नहीं होती।

२४९—भिन्न भिन्न मनोविकार सूचित करने के लिए भिन्न भिन्न विस्मयादि-बोधक उपयोग में आते हैं; जैसे,

हर्षबोधक—आहा! वाह वा! धन्य धन्य! शाबाश! जय! जयति!

शोकबोधक—आह! ऊह! हा हा! हाय! दईया रे! बाप रे! त्राहि त्राहि! राम राम! हा राम!

आश्चर्यबोधक—वाह! हैं! ऐ! ओहो! वाह वा! क्या!

अनुमोदनबोधक—ठीक! वाह! अच्छा! शाबाश! हाँ हाँ! (कुछ अभिमान मे) भला!

तिरस्कारबोधक—छिः! हट! अरे! दूर! धिक्। चुप!

स्वीकारबोधक—हाॅ! जी हाॅ। अच्छा! जी! ठीक! बहुत अच्छा!

सम्बोधनद्योतक—अरे! रे! (छोटों के लिए), अजी! लो! हे! हो! क्या! अहो! क्यों!

[सू०—स्त्री के लिए "अरे" को रूप "अरी" और "रे" का रूप "री" होता है। आदर और बहुत्व के लिए दोनों लिंगों में "अहो", "अजी" आते हैं।

"हे", "हो" अदर और बहुत्व के लिए दोनों वचनों में आते हैं। "हो" बहुधा संज्ञा के आगे आता है। "सत्य-हरिश्चंद्र" में स्त्रीलिंग संज्ञा के साथ "रे" आया है; जैसे, "वाह रे! महानुभावता!" यह प्रयोग अशुद्ध है।]

२५०—कई एक क्रियाएँ, संज्ञाएँ, विशेषण और क्रियाविशेषण भी विस्मयादि-बोधक हो जाते हैं; जैसे, भगवान राम राम! अच्छा! लो! हट! चुप! क्यों! खैर! अस्तु!

२५१—कभी कभी पूरा वाक्य अथवा वाक्यांश विस्मयादि-बोधक हो जाता है, जैसे, क्या बात है! बहुत अच्छा! सर्वनाश हो गया! धन्य महाराज! क्यों न हो! भगवान न करे! इन वाक्यों और वाक्यांशों से मनोविकार अवश्य सूचित होते हैं, परंतु इन्हे विस्मयादि-बोधक मानना ठीक नहीं है। इनमे जो वाक्यांश हैं उनके अध्याहृत शब्दों को व्यक्त करने से वाक्य सहज ही बन सकते हैं। यदि इस प्रकार के वाक्यों और वाक्यांशों के विस्मयादि-बोधक अव्यय मानें तो फिर किसी भी मनोविकारसूचक वाक्य को विस्मयादि-बोधक अव्यय मानना होगा; जैसे, "अपराधी निर्दोष है, पर उसे फाँसी भी हो सकती है!" (शिव०)।

(क) कोई कोई लोग बोलने में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करते हैं जिनकी न तो वाक्य में कोई आवश्यकता होती है और न जिनका वाक्य के अर्थ से कोई संबध रहता है, जैसे, "जो है सो," "राम-आसरे," "क्या कहना है," "क्या नाम करके," इत्यादि। कविता में जु, सु, हि, अही, इत्यादि शब्द इसी प्रकार से आते हैं जिनका पादपूरक कहते हैं। "अपना" ("अपने") शब्द भी इसी प्रकार उपयोग में आता है; जैसे, "तू पढ़ लिखकर होशयार हो गया, अपना कमा खा।" (सर०)। ये सब एक प्रकार के व्यर्थ अव्यय हैं, और इनको अलग कर देने से वाक्यार्थ में कोई बाधा नहीं आती।

दूसरा भाग।

शब्द-साधन।

दूसरा परिच्छेद।

रूपांतर।

पहला अध्याय।

लिंग।

२५२—अलग अलग अर्थ सूचित करने के लिए शब्दों में जो विकार होते हैं उन्हें रूपांतर कहते हैं। (अं०—९१)।

[सु०—इस भाग के पहले तीन अध्यायों में संज्ञा के रूपांतरों का विवेचन किया जायेगा।]

२५३—संज्ञा में लिंग, वचन और कारक के कारण रूपांतर होता है।

२५४—संज्ञा के जिस रूप से वस्तु की (पुरुष व स्त्री) जाति का बोध होता है उसे लिंग कहते हैं। हिदी मे दो लिंग होते हैं—(१) पुल्लिंग और (२) स्त्रीलिंग।

[टी०—सृष्टि की संपूर्ण वस्तुओं की मुख्य दो जातियाँ—चेतन और जड़—हैं। चेतन वस्तुओं (जीवधारियों) में पुरुष और स्त्री-जाति का भेद होता है; परंतु जड़ पदार्थों में यह भेद नहीं होता। इसलिए संपूर्ण वस्तुओं की एकत्र तीन जातिय होती हैं—पुरुष, स्त्री और जड़। इन तीन जातियों के विचार से व्याकरण में उनके वाचक शब्दों को तीन लिंगों में बाँटते हैं—(१) पुल्लिंग (२) स्त्रीलिंग और (३) नपुंसक-लिंग। अंगरेजी व्याकरण में लिंग का निर्णय बहुधा इसी व्यवस्था के अनुसार होता है। संस्कृत, मराठी, गुजराती, आदि भाषाओं में भी तीन तीन लिंग होते है; परंतु उनमें कुछ जड़ पदार्थों