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हिंदी व्याकरण/सर्वनाम

विकिस्रोत से
हिंदी व्याकरण
कामताप्रसाद गुरु

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ८४ से – ११४ तक

 

दूसरा अध्याय।

सर्वनाम।

११३—सर्वनाम उस विकारी शब्द को कहते हैं जो पूर्वापर संबंध से किसी भी संज्ञा के बदले उपयोग में आता है; मैं (बोलने-वाला), तू (सुननेवाला ), यह (निकटवर्ती वस्तु), वह (दूरवर्ती वस्तु), इत्यादि।

[टी°—हिंदी के प्रायः सभी वैयाकरण सर्वनाम को संज्ञा का एक भेद मानते हैं। संस्कृत में "सर्व" (प्रातिपदिक) के समान जिन नामों (संज्ञाओं) का रूपांतर होता है उनका एक अलग वर्ग मानकर उसका नाम 'सर्वनाम' रक्खा गया है। 'सर्वनाम' शब्द एक और अर्थ में भी आता है। वह यह है कि सर्व (सब) नामों (सज्ञाओं) के बदले में जो शब्द आता है उसे सर्वनाम कहते हैं। हिदी मे 'सर्वनाम' शब्द से यही (पिछला) अर्थ लिया जाता है और इसीके अनुसार वैयाकरण सर्वनाम को संज्ञा का एक भेद मानते हैं। यथार्थ में सर्वनाम एक प्रकार का नाम अर्थात् संज्ञा ही है। जिस प्रकार संज्ञाओं के उपभेद व्यक्तिवाचक, जातिवाचक और भाववाचक हैं उसी प्रकार सर्वनाम भी एक उपभेद हो सकता है। पर सर्वनाम में एक विशेष विलक्षणता है जो संज्ञा में नहीं पाई जाती। संज्ञा से सदा उसी वस्तु का बोध होता है जिसका वह (संज्ञा) नाम है; परंतु सर्वनाम से, पूर्वापर संबंध के अनुसार, किसी भी वस्तु का बोध हो सकता है। 'लड़का' शब्द से लड़के ही का बोध होता है, घर, सड़क, आदि का बोध नहीं हो सकता, परंतु 'वह' कहने से पूर्वापर संबंध के अनुसार, लड़का, घर, सड़क, हाथी, घोडा, आदि किसी भी वस्तु का बोध हो सकता है। "मैं" बोलनेवाले के नाम के बदले आता है। इसलिए जब बोलनेवाला मोहन है तब "मैं" का अर्थ मोहन है; परंतु जब बोलनेवाला खरहा है (जैसा बहुधा कथा-कहानियों में होता है) तब "मैं" का अर्थ खरहा होता है। सर्वनाम की इसी विलक्षणता के कारण उसे हिंदी में एक अलग शब्द-भेद मानते हैं "भाषातत्वदीपिका" में भी सर्वनाम संज्ञा से भिन्न माना गया है; परंतु उसमें सर्वनाम का जो लक्षण दिया गया है वह निर्दोष नहीं है। "नाम को एक बार कहकर फिर उसकी जगह जो शब्द आता है उसे सर्वनाम कहते हैं।" यह लक्षण "मैं", "तू", "कौन" आदि सर्वनामों में घटित नहीं होता; इसलिए इसमें अव्याप्ति दोष है, और कहीं कहीं यह संज्ञाओं में भी घटित हो सकता है; इसलिए इसमें अतिव्याप्ति दोष भी है। एक ही संज्ञा का उपयोग बार बार करने से भाषा की दरिद्रता सूचित होती है, इसलिए एक संज्ञा के बदले उसी अर्थ की दूसरी संज्ञा का उपयोग करने की चाल है। यह बात छंद के विचार से कविता में बहुधा होती है, जैसे 'मनुष्य' के बदले 'मनुज', 'मानव', 'नर' आदि शब्द लिखे जाते हैं। सर्वनाम के पूर्वोक्त लक्षण के अनुसार इन सब पर्यायवाची शब्दों को भी सर्वनाम कहना पड़ेगा। यद्यपि सर्वनाम के कारण संज्ञा को बार बार नहीं दुहराना पड़ता, तथापि सर्वनाम का यह उपयोग उसका असाधारण धर्म नहीं है।

भाषाचंद्रोदय में "सर्वनाम" के लिए "संज्ञाप्रतिनिधि" शब्द का उपयोग किया गया है और संज्ञाप्रतिनिधि के कई भेदों में एक का नाम "सर्वनाम" रखा गया है। सर्वनाम के भेदों की मीमांसा इस अध्याय के अंत में की जायगी, परंतु "संज्ञाप्रतिनिधि" शब्द के विषय में केवल यही कहा जा सकता है कि हिंदी में "सर्वनाम" शब्द इतना रूढ़ हो गया है कि उसे बदलने से कोई लाभ नहीं है।]

११४—हिंदी में सब मिलाकर ११ सर्वनाम हैं—मैं, तू, आप, यह, वह, सो, जो, कोई, कुछ, कौन, क्या।

११५—प्रयोग के अनुसार सर्वनामों के छ भेद हैं—

( १ ) पुरुषवाचक—मैं, तू, आप (आदरसूचक)।

( २ ) निजवाचक—आप।

( ३ ) निश्चयवाचक—यह, वह, सो।

( ४ ) संबंधवाचक—जो।

( ५ ) प्रश्नवाचक—कौन, क्या।

( ६ ) अनिश्चयवाचक—कोई, कुछ।

११६—वक्ता अथवा लेखक की दृष्टि से संपूर्ण सृष्टि के तीन भाग किये जाते हैं—पहला,—स्वयं वक्ता वा लेखक, दूसरा,—श्रोता किंवा पाठक, और तीसरा,—कथाविषय अर्थात् वक्ता और श्रोता को छोड़कर और सब। सृष्टि के इन तीनों रूपों को व्याकरण में पुरुष कहते हैं और ये क्रमशः उत्तम, मध्यम और अन्यपुरुष कहाते हैं। इन तीन पुरुषों में उप्तम और मध्यमपुरुष ही प्रधान हैं, क्योंकि इनका अर्थ निश्चित रहता है। अन्यपुरुष का अर्थ अनिश्चित होने के कारण उसमें बाकी की सृष्टि के अर्थ का समावेश होता है। उत्तमपुरुष "मैं" और मध्यमपुरुष "तू" को छोड़कर शेष सर्वनाम और सब संज्ञाएँ अन्यपुरुष में आती हैं। इस अनिश्चित वस्तु-समूह को संक्षेप में व्यक्त करने के लिए 'वह' सर्वनाम को अन्यपुरुष के उदाहरण के लिए ले लेते हैं।

सर्वनामों के तीनों पुरुषों के उदाहरण ये हैं—उत्तमपुरुष-मैं, मध्यमपुरुष-तू, आप (आदरसूचक), अन्यपुरुष—यह, वह, आप (आदरसूचक), सो, जो, कौन, क्या, कोई, कुछ। (सब संज्ञाएँ अन्यपुरुष हैं।) सर्व-पुरुष-वाचक—आप (निजवाचक)।

[सूचना—(१) भाषा-भास्कर और दूसरे, हिंदी व्याकरणों में "आप" शब्द "आदर-सूचक" नाम से एक अलग वर्ग में गिना गया है। परंतु व्युत्पत्ति के अनुसार, सं°—आत्मन्, प्रा°—अप्प) "आप", यथार्थ में निजवाचक है, और आदर-सूचकत्व उसका एक विशेष प्रयोग है। आदरसूचक "आप" मध्यम और अन्यपुरुष सर्वनामों के लिए आता है। इसलिए उसकी गिनती पुरुषवाचक सर्वनामों में ही होनी चाहिए। निजवाचक "आप" अलग अलग स्थानों में अलग अलग पुरुषों के बदले आ सकता है, इसलिए ऊपर सर्वनामों के वर्गीकरण में यही निजवाचक "आप" "सर्व-पुरुप-वाचक" कहा गया है।

(२) "मैं", "तू" और "आप" (म° पु°) को छोड़कर सर्वनामों के जो और भेद हैं वे सब अन्यपुरुष सर्वनाम के ही भेद हैं। मैं, तू और आप (म° पु°) सर्वनामों के दूसरे भेदों में नहीं आते, इसलिए येही तीन सर्वनाम विशेषकर पुरुषवाचक हैं। वैसे तो प्रायः सभी सर्वनाम पुरुषवाचक कहे जा सकते हैं, क्योंकि उनसे पुरुषों का बोध होता है; परंतु दूसरे सर्वनामों में उत्तम और मध्यमपुरुष नहीं होते, इसलिए उत्तम और मध्यम पुरुषही प्रधान पुरुष वाचक हैं और बाकी सब सर्वनाम अप्रधान पुरुषवाचक हैं। सर्वनामों के अर्थ और प्रयोग का विचार करने में कहीं कहीं उनके रूपांतरों का (जो दूसरे प्रकरण का विषय है।) उल्लेख करना आवश्यक होगा।]

११७—मैं—उ° पु° (एकवचन)।

(अ) जब वक्ता या लेखक केवल अपनेही संबंध में कुछ विधान करता है तब वह इस सर्वनाम का प्रयोग करता है। जैसे भाषा-बद्ध करब मैं सोई। (राम°)। जो मैं ही कृतकार्य नहीं तो फिर और कौन हो सकता है? (गुटका)। "यह थैली मुझे मिली है।"

(आ) अपने से बड़े लोगों के साथ बोलने में अथवा देवता से प्रार्थना करने में; जैसे, "सारथी—अब मैंने भी तपोवन के चिन्ह देखे"। (शकु°)। "ह°-पित, मैं सावधान हूँ।" (सत्य°)।

(इ) स्त्री अपने लिए बहुधा "मैं" का ही प्रयोग करती है, जैसे, शकुंतला—मैं सच्ची क्या कहूँ। (शकु°)। रा°—अरी! आज मैंने ऐसे बुरे बुरे सपने देखे हैं कि जब से सोके उठी हूँ। कलेजा काँप रहा है। (सत्य°)। (अं°-११८ ऊ)।

११८—हम—उ° पु° (बहुवचन)।

इस बहुवचन का अर्थ संज्ञा के बहुवचन से भिन्न है। 'लड़के' शब्द एक से अधिक लड़कों का सूचक है, परंतु 'हम' शब्द एक से अधिक मैं (बोलनेवालों) का सूचक नहीं है, क्योंकि एक-साथ गाने या प्रार्थना करने के सिवा (अथवा सबकी ओर से लिखे हुए लेख में हस्ताक्षर करने के सिवा) एक से अधिक लोग मिलकर प्रायः कभी नहीं बोल सकते। ऐसी अवस्था में "हम" का ठीक अर्थ यही है कि वक्ता अपने साथियों की ओर से प्रतिनिधि होकर अपने तथा अपने साथियों के विचार एक-साथ प्रकट करता है।

(अ) संपादक और ग्रंथकार लोग अपने लिए, बहुधा उत्तमपुरुष बहुवचन का प्रयोग करते हैं; जैसे, "हमने एकही बात को दो दो तीन तीन तरह से लिखा है।" (स्वा°) हम पहले भाग के आरंभ में लिख आए हैं।" (इति°)।

(आ) बड़े बड़े अधिकारी और राजा-महाराजा; जैसे, "इसलिए अब हम इश्तिहार देते हैं"। (इतिः)। "ना°—यही तो हम भी कहते हैं।" (सत्य°)। "दुष्यंत—तुम्हारे देखने ही से हमारा सत्कार हो गया।" (शकु°)।

(इ) अपने कुटुंब, देश अथवा मनुष्य-जाति के संबंध में; जैसे, "हम योग, पाकर भी उसे उपयोग में लाते नहीं।" (भारत°)। "हम बनवासियों ने ऐसे भूषण आगे कभी न देखे थे।" (शकु°)। "हवा के बिना हम पल भर भी नही जी सकते।"

(ई) कभी कभी अभिमान अथवा क्रोध में; जैसे, "वि°—हम आधी दक्षिणा लेके क्या करे।" (सत्य°)। "माढव्य-इस मृगया-शील राजा की मित्रता से हम तो बड़े दुखी हैं।" (शकु°)।

[सूचना—हिंदी में "मैं" और "हम" के प्रयोग का बहुतसा अंतर आधुनिक है। देहाती लोग बहुधा 'हम' ही बोलते हैं, "मैं" नहीं बोलते। प्रेमसागर और रामचरितमानस में 'हम' के सब प्रयोग नहीं मिलते। अँगरेजी में "मैं" के बदले 'हम' का उपयोग करना भूल समझा जाता है; परंतु हिंदी में "मैं" के बदले "हम" बहुधा आता है।

"मैं" और "हम" के प्रयोग में इतनी अस्थिरता है कि, एक बार जिसके लिए "मैं" आता है, उसके लिए उसी अर्थ में फिर "हम" का उपयोग होता है। जैसे, "ना°—राम राम! भला, आपके आने से हम क्यों जायँगे? मैं तो जाने ही को था कि इतने में आप आ गये।" (सत्य°)। "दुष्यंत—अच्छा, हमारा संदेसा यथार्थ भुगता दीजो। मैं तपस्वियों की रक्षा को जाता हूं।" (शकु°)—। यह न होना चाहिये।]

(उ) कभी कभी एकही वाक्य मैं "मैं" और "हम" एकही पुरुष के लिए क्रमशः व्यक्ति और प्रतिनिधि के अर्थ में आते हैं; जैसे, "कुंभलिक- मुझे क्या दोष है, यह तो हमारा कुल-धर्म है।” (शकु० )। "मैं चाहता हूँ कि आगे को ऐसी सूरत न हो और हम सब एक-चित्त होकर रहें।” ( परी० ) ।

(ऊ) स्त्री अपने ही लिए 'हम' का उपयोग बहुत कम करती है। (अं-११७ इ ) । स्त्रीलिंग “हम” के साथ कभी कभी पुलिंग क्रिया आती है, जैसे, "गौतमी---लो अब निधड़क बात- चीत करो, हम जाते हैं।” (शकु० )। 'रानी-महाराज, अब हम महल में जाते हैं।' ( कर्पूर० )।

(ऋ) साधु-संत अपने लिए 'मैं' वा 'हम' का प्रयोग न करके बहुधा “अपने राम” बोलते हैं; जैसे—अब अपने राम जानेवाले हैं।

(ऋ) 'हम' से वहुत्व का बोध कराने के लिए उसके साथ बहुधा ‘लोग' शब्द लगा देते हैं, जैसे, ह०–आर्य, हमलोग तो क्षत्रिय हैं, हम दो बात कहाँ से जाने । ( सत्य० )।

११९---तू-मध्यमपुरुष (एकवचन ) । ( ग्राम्य-तैं ) । “तु' शब्द से निरादर वा हलकापन प्रकट होता है, इसलिए हिंदी में बहुधा एक व्यक्ति के लिए भी “तुम” का प्रयोग करते हैं। “तू” का प्रयोग प्रायः नीचे लिखे अर्थों में होता है---

(अ) देवता के लिए, जैसे, “देव, तू दयालु, दीन हौं, तू दानि, हौं भिखारी ।" ( विनय )। दीनबंधु, (तू) मुझ डूबते हुए को बचा । (गुटका० )।

(आ)छोटे लड़के अथवा चेले के लिए ( प्यार मे ), जैसे,—एक तप-स्विनी-अरे हठीले बालक, तू इस बन के पशुओं को क्यों सताता है ?” ( शकु० )।" उ०—तो चल, आगे आगे भीड़ हटाता चल ।” ( सत्य०)। .

(इ) परम मित्र के लिए, जैसे, "अनसूया-सखी तू क्या कहती है ?” ( शकु०)। “दुष्यंत-सखा, तुझसे भी तो माता पुत्र कहकर बोली हैं”। ( तथा )।

[ सूचन---छोटी अवस्था के भाई-बहिन आपस में “तू" का प्रयोग करते है । कहीं कहीं छोटे लड़के प्यार में मां से “तू” कहते हैं ।]

(ई) अवस्था और अधिकार में अपने से छोटे के लिए (परिचय में); जैसे, “रानी-मालती, यह रक्षा-बंधन तु सम्हालके अपने पास रख ।" ( सत्य० )। “दुष्यंत-( द्वारपाल से ) पर्वतायन, तू अपने काम में असावधानी मत करियो ।” ( शकु० )

(उ) तिरस्कार अथवा क्रोध में किसीसे; जैसे, "जरासंघ श्रीकृष्ण-चंद से अति अभिमान कर कहने लगा, अरे--तू मेरे सोंंही भाग जा, मैं तुझे क्या मारूं।” ( प्रेम०)। वि०–“बोल,अभी तैने मुझे पहचाना कि नहीं !” ( सत्य० ) ।

१२०–तुम-मध्यमपुरुष ( बहुवचन )।

यद्यपि 'हम' के समान 'तुम' बहुवचन है, तथापि शिष्टाचार के अनुरोध से इसका प्रयोग एक ही मनुष्य से बोलने में होता है । बहुत्व के लिए 'तुम' के साथ बहुधा ‘लोग' शब्द लगा देते हैं; जैसे,"मित्र, तुम बड़े निठुर हो।” (परी०)। “तुम लोग अभी तक कहाँ थे ?"

(अ) तिरस्कार और क्रोध को छोड़कर शेष अर्थों में “तू" के बदले बहुधा "तुम” का उपयोग होता है, जैसे, “दुष्यंत हे रैवतक,तुम सेनापति को बुलाओ।” (शकु०)। "आशुतोष तुम अव-ढर दानी ।” ( राम०')। "उ०—पुत्री, कहो तुम कौन कौन सेवा करोगी ।” ( सत्यं० )।

(आ) 'हम' के साथ 'तू' के बदले 'तुम' आता है, जैसे, ""दोनों प्यादे-तो तू हमारा मित्र है। हम तुम साथ ही साथ हाट को चलें ।" ( शकुं० )। (इ) आदर के लिए 'तुम' के बदले ‘आप’ आता है।( अं०-१२३ ) १२१--वह–अन्यपुरुष ( एकवचन )।

( यह, जो, कोई, कौन, इत्यादि सब सर्वनाम और सब संज्ञाएँ अन्यपुरुष हैं। यहाँ अन्यपुरुष के उदाहरण के लिए केवल 'वह' लिया गया है।)

हिंदी में आदर के लिए बहुधा बहुवचन सर्वनामों का प्रयोग किया जाता है। आदर का विचार छोड़कर 'वह' का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता है-

(अ) किसी एक प्राणी, पदार्थ वा धर्म के विषय में बोलने के लिए,जैसे, “ना०—निस्संदेह हरिश्चंद्र महाशय है। उसके आशय बहुत उदार हैं।” ( सत्य० )। "जैसी दुर्दशा उसकी हुई वहसब को विदित है।” (गुटका०)।

(आ) बड़े दरजे के आदमी के विषय में तिरस्कार दिखाने के लिए, जैसे, "वह ( श्रीकृष्ण ) तो गॅवार ग्वाल है।” (प्रेम०)। "इ०-राजा हरिश्चंद्र का प्रसंग निकला था सो उन्होंने उसकी बड़ी स्तुति की ।" ( सत्य॰) ।

(इ) आदर और बहुत्व के लिए (अं०-१२२)।

१२२--वे--अन्यपुरुष ( बहुवचन )। कोई कोई इसे “वह लिखते हैं। कवायद-उर्दू में इसका रूप "वै" लिखा है जिससे यह अनुमान नहीं होता कि इसका प्रयोग उर्दू की नकल हैं। पुस्तकों में भी बहुधा "वे" पाया जाता है। इस लिए बहुवचन का शुद्ध रूप "वे" है, “वह नहीं ।

(अ) एक से अधिक प्राणियों, पदार्थो वा धर्मों के विषय में बोलने के लिए "वै" -(वा "वह")-) आता है; जैसे, “लड़की तो रघु-वंशियों के भी होती है; पर वे जिलाते -कदापि नहीं ।” (गुटका०)। "ऐसी बातें वे हैं।" ( स्वा० )। "वह सौदागर की सब दूकान को अपने घर ले जाया चाहते हैं।” (परी० ) । (आ) एक ही व्यक्ति के विषय में आदर प्रकट करने के लिए; जैसे, "वे ( कालिदास ) असामान्य वैयाकरण थे ।” ( रघु० ) । क्या अच्छा होता जो वह इस काम को कर जाते ।” (रत्ना०)। “जो बाते मुनि के पीछे हुई सो उनसे किसने कह दी ?” (शकु०) ।

[सूचना-~-ऐतिहासिक पुरुषों प्रति आदर प्रकट करने के संबंध में हिंदी मैं बड़ी गड़बड़ है । श्रीधरभाषा-कोश में कई कवियों के संक्षिप्त चरित दिये गये हैं। उनमें कबीर के लिए एकवचन का और शेष के लिए बहुवचन का प्रयोग किया गया है। राजा शिवप्रसाद ने इतिहास-तिमिरनाशक मैं राम, शंकराचार्य और टॉड साहब के लिए बहुवचन का प्रयोग किया है और बुद्ध, अकबर, धृत-राष्ट्र और युधिष्ठिर के लिए एकवचन लिखा है। इन उदाहरणों से कोई निश्चित नियम नहीं बनाया जा सकता । तथापि यह बात जान पडती है कि आदर के लिए पात्र की जाति, गुण, पद और शील का विचार अवश्य किया जाता है । ऐतिहासिक पुरुर्षों के प्रति आजकल पहले की अपेक्षा अधिक आदर, दिखाया जाता है; और यह आदर-बुद्धि विदेशी ऐतिहासिक पुरुषों के लिए भी कई अंशों में पाई जाती है । आदर का प्रश्न छोड़कर, मृत ऐतिहासिक पुरुषों के लिए एकवचन ही का प्रयोग करना चाहिये । ]

११३-आप ( 'तुम' वा 'वे' के बदले )---मध्यम वा अन्य-पुरुष ( बहुवचन )।

यह पुरुपवाचक “आप” प्रयोग में निजवाचक “आप” (अं०-- १२५) से भिन्न है। इसका प्रयोग मध्यम और अन्यपुरुष बहुवचन में आदर के लिए होता है । प्राचीन कविता में आदरसूचक “आप” का प्रयोग बहुधा नहीं पाया जाता ।

(अ) अपने से बड़े दरजेवाले मनुष्य के लिए "तुम" के बदले “आप” का प्रयोग शिष्ट और आवश्यक समझा जाता है, जैसे, “स०- ___________________________________________

  • संस्कृत में आदर-सूचक “आप” के अर्थ में 'भवान्” शब्द आता है; पर उसका प्रयोग केवल अन्यपुरुष एकवचन में होता है।

भला आपने इसकी शांति का भी कुछ उपाय किया है?" ( सत्य० )। “तपस्वी हे पुरुकुलदीपक; आपको यही उचित है।" ( शकु० )।

(आ) बराबरवाले और अपने से कुछ छोटे दरजे के मनुष्य के लिए “तुम” के बदले बहुधा “आप” कहने की प्रथा है; जैसे, “इं०--भला आप उदार वा महाशय किसे कहते हैं ?’’ ( सत्य० ) ।"जब आप पूरी बात ही न सुनें तो मैं क्या जवाब दू"। (परी०)।

(इ) आदर के साथ बहुत्व के बोध के लिए “आप” के साथ बहुधा ‘लोग' लगा देते हैं, जैसे “ह०-आप लोग मेरे सिर-ऑखों पर हैं।" ( सत्य०)। इस विषय में आप लोगोंकी क्या राय है ?"

(ई) “आप” शब्द की अपेक्षा अधिक आदर सूचित करने के लिए बड़े पदाधिकारियों के प्रति श्रीमान्, महाराज, सरकार, हुजूर आदि शब्दों का प्रयोग होता है, जैसे, “सार०—मैं रास खींचता हूँ । महाराज उतर ले । (शकु०) । “मुझे श्रीमान के दर्शनों की लालसा थी सो आज पूरी हुई ।” “जो हुजूर की राय सो मेरी राय ।"

स्त्रियों के प्रति अतिशय आदर प्रदर्शित करने के लिए बहुधा “श्रीमती”, “देवी", आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जैसे-“तब से श्रीमती के शिक्षा-क्रम में विन्घ पड़ने लगा ।” ( हि० को०)

[सूचना–जहाँ “आप” को प्रयोग होना चाहिये वहा "तुम” या “हुजूर" कहना और जहा “तुम" कहना चाहिये वहाँ “आप” या “तू” कहना अनुचित हैं, क्योंकि इससे क्षोता का अपमान होता है।]

एक ही प्रसंग में “आप” और “तुम', “महाराज" और “आप” कहना असंगत है, जैसे, 'जिस बात की चिंता महाराज को है सो कभी न हुई होगी, क्योंकि तपोवन के विघ्न तो केवल आपके धनुष की टंकार ही से मिट जाते हैं।” (शकु०)। आपने बड़े प्यार से कहा कि आ बच्चे, पहले तू ही पानी पी ले। उसने तुम्हें विदेशी जान तुम्हारे हाथ से जल न पिया।” ( तथा ) ।

(उ) आदर की पराकाष्ठा सूचित करने के लिए वक्ता या लेखक अपने लिए दास, सेवक, फिदवी ( कचहरी की भाषा में ), कमतरीन, ( उर्दू ), आदि शब्दों में से किसी एक का प्रयोग करता है; जैसे, "सि०–कहिए यह दास आपके कौन काम आ सकता है ?” (मुद्रा०)। “हुजूर से फिदवी की यह अर्ज है।”

(ऊ) मध्यमपुरुष “आप” के साथ अन्यपुरुष बहुवचन क्रिया आती है; परंतु कहीं कहीं परिचय, वराबरी अथवा लघुता के विचार से मध्यमपुरुष बहुवचन क्रिया का भी प्रयोग होता है; जैसे, "ह०-आप मोल लोगे ?" ( सत्य० )। ऐसे समय में आप साथ न दोगे तो और कौन देगा ?” ( परी० )। "दो० ब्राह्मण - आप अगलों की रीति पर चलते हो ।” ( शकु० ) । यह प्रयोग शिष्ट नहीं है।

(ऋ) अन्यपुरुष मे आदर के लिए "वै” के बदले कभी कभी “आप आता है। अन्यपुरुष “आप” के साथ क्रिया सदा अन्यपुरुष बहुवचन में रहती है। उदा०-"श्रीमान् राजा कीर्तिशाह बहादुर का देहांत हो गया। अभी आपकी उम्र केवल उंतालिस वर्ष की थी ।” ( सर० )।

१२४–अप्रधान पुरुषवाचक सर्वनामों के नीचे लिखे पॉच भेद हैं-

( १ ) निजवाचक-आप ।

(२) निश्चयवाचक-यह, वह, सो ।

(३) अनिश्चयवाचक--कोई, कुछ।

(४) संबंधवाचक-जो ।

(५) प्रश्नवाचक-कौन, क्या । १२५-आप (निजवाचक )। प्रयोग में निजवाचक “आप” पुरुषवाचक, (आदरसूचक ) "आप" से भिन्न है। पुरुषवाचक “आप” एक का वाचक होकर भी नित्य बहुवचन में आता है; पर निजवाचक “आप” एकही रूप से दोनों वचनों में आता है। पुरुषवाचक “आप” केवल मध्यम और अन्यपुरुष में आता है, परंतु निजवाचक “आप” का प्रयोग तीनों पुरुषों में होता है । आदरसूचक “आप” वाक्य में अकेला अता है; किंतु निजवाचक "अप" दूसरे सर्वनामों के संबंध से आता है। "आप" के दोनों प्रयोगों में रूपातर का भी भेद है । ( अं०-३२४) ।

निजवाचक “आप” का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता है-

(अ) किसी संज्ञा या सर्वनाम के अवधारण के लिए, जैसे "मैं आप वहीं से आया हूँ ।” ( परी०)। “बनते कभी हम आप योगी ।" । ( भारत० )।

(आ) दूसरे व्यक्ति के निराकरण के लिए, जैसे,—“श्रीकृष्णजी ने ब्राह्मण को बिदा किया और आप चलने का विचार करने लगे।” ( प्रेम० ) । “वह अपने को सुधार रहा है।”

(इ) अवधारण के अर्थ में “आप” के साथ कभी कभी "ही" जोड़ देते हैं, जैसे, “नटी--मैं तो आपही आती थी।” ( सत्य० ) । “देत चाप आपहि चढ़ि गयऊ।” ( राम० )। “वह अपने पात्र के सपूर्ण गुण अपने ही में भरे हुए अनुमान करने लगता है ।" ( सर० )।

(ई) कभी-कभी "आप" के साथ उसका रूप "अपना" जोड़ देते हैं, जैसे, “किसी दिन मैं न आप अपने को भूल जाऊँ ।" (शकु० ) । “क्या वह अपने आप झुका है?" ( तथा ) “राजपूत वीर अपने आपको भूल गये ।” (उ) “आप” शब्द कभी कभी वाक्य में अकेला आता है और अन्य-पुरुष का बोधक होता है; जैसे “आप कुछ उपार्जन किया ही नहीं, जो था वह नाश हो गया।” ( सत्य० ) । “होम करन लागे मुनि झारी । आप रहे मख की रखवारी ।।” (राम०)।

(ऊ) सर्व-साधारण के अर्थ में भी “आप” आता है; जैसे आप भला तो जरा भला ।" ( कहा० )। अपने से बड़े का आदर करना उचित है !"

(ऋ) “आप” के बदले वो उसके साथ बहुधा "खुद" (उर्दू), “स्वयं” वा “स्वतः” ( संस्कृत ) का प्रयोग होता है। स्वयं स्वतः और खुद हिंदी मे अव्यय हैं और इनका प्रयोग बहुधा क्रियाविशेषण के समान होता है। आदरसूचक ‘आप’ के साथ द्विरुक्ति के निवारण के लिए इनमें से किसी एक का प्रयोग करना आवश्यक है ; जैसे, "आप खुद यह बात समझ सकते हैं।” “हम आज अपने आपको भी हैं स्वयं भूले हुए।" ( भारत० ) । “सुल्तान स्वतः वहाँ गये थे।” ( हित० ) । "हर आदमी खुद अपने ही को प्रचलित रीति-रस्मों का कारण बतलावे ।” ( स्वा० )।

(ए) कभी कभी “आप” के साथ निज (विशेषण) संज्ञा के समान आता है; पर इसका प्रयोग केवल संबंध-कारक में होता है । जैसे, “हम तुम्हें एक-अपने निज के काम में भेजा चाहते हैं।” ( मुद्रा० )।

(ऐ) “आप” शब्द का रूप “आपस”, “परस्पर के अर्थ में आता है। इसका प्रयोग केवल संबंध और अधिकरण-कारकों में होता है ; जैसे, “एक दूसरे की राय आपस में नहीं मिलती ।" ( स्वा० )। आपस की फूट बुरी होती है।” (ओ) “आपही”, “अपने आप”, “आपसे आप” और “आपही आप" का अर्थ “मन सं" वा "स्वभाव से" होता है और इनका प्रयोग क्रियाविशेषण-वाक्यांशो के समान होता है, जैसे, "ये मानवी यंत्र आपही आप घर बनाने लगे ।" (स्वा०) । "ई०--(आपही आप) नारदजी सारी पृथ्वी पर इधर उधर फिरा करते हैं ।" (सत्य०) । “मेरा दिल आपसे आप उमड़ा आता है ।" (परी॰) ।

१२६--जिस सर्वनाम से वक्ता के पास अथवा दूर की किसी वस्तु का बोध होता है उसे निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। निश्चयवाचक सर्वनाम तीन हैं—यह, वह, सेा ।

१२७---यह– एकवचन । इसका प्रयोग नीचे लिखे स्थानों में होता है--

(अ) पास की किसी वस्तु के विषय में बोलने के लिए, जैसे, “यह किसका पराक्रमी बालक है ?" (शकु०) । “यह कोई नया नियम नही है ।" (स्वा०) ।

(आ) पहले कही हुई सज्ञा या सज्ञा-वाक्यांश के बदले ; जैसे, "माधवीलता तो मेरी बहिन है, इसे क्यो न सींचती !" (शकु०) । “भला, सत्य धर्म पालना क्या हँसी खेल है। यह आप ऐसे महात्माओं ही का काम है।” (सत्य॰) ।

( इ ) पहले कहे हुए वाक्य के स्थान मे; जैसे, "सिंह को मार मणि ले कोई जतु एक अति डरावनी औंड़ी गुफा में गया , यह हम सब अपनी आँखों देख आये ।" (प्रेम०) । “मुझको आपके कहने का कभी कुछ रंज नहीं होता। इसके सिवाय मुझे इस अवसर पर आपकी कुछ सेवा करनी चाहिये थी ।" (परी०) ।

( इ ) पीछे आनेवाले वाक्य के स्थान में, जैसे, "उन्होंने अब यह चाहा कि अधिकारियों को प्रजा ही नियत किया करे ।" (स्वा०) । “मुझे इससे बड़ा आनंद है कि भारतेंदु जी की सब से पहले छेड़ी हुई यह पुस्तक आज पूरी हो गई ।" (रत्ना०) ।

[सू०-ऊपर के दूसरे वाक्य से जो ‘यह' शब्द आया है, वह यहां सर्व-नाम नहीं, किंतु विशेषण है; क्योंकि वह ‘पुस्तक' संज्ञा की विशेषता बताता है । सर्वनामों के विशेषणीभूत प्रयोगों का विचार आगे ( तीसरे अध्याय में) किया जायगा । ]

( उ ) कभी कभी संज्ञा या संज्ञा-वाक्यांश कहकर तुरंत ही उसके बदले निश्चय के अर्थ में "यह" का प्रयोग होता है, जैसे, “राम, यह व्यक्तिवाचक संज्ञा है ।” “अधिकार पाकर कष्ट देना, यह बड़ो को शोभा नहीं देता ।" (सत्य॰) । “शास्त्रो की बात में कविता का दखल समझना, यह भी धर्म के विरुद्ध है ।" (इति०) ।

[ सू०--इस प्रकार की रचना का प्रचार अब घट रहा है ।]

(ऊ) कभी कभी "यह" क्रियाविशेषण के समान आता है और तब उस का अर्थ “अभी" वा "अब" होता है जैसे, ‘लीजिये महाराज,यह मैं चला ।” ( मुद्रा० ) । “यह तो आप मुझको लज्जित करते हैं ।" ( परी० )।

(ऋ) आदर और बहुत्व के लिए, ( अं०-१२८) ।

१२८-ये-बहुवचन ।

‘ये 'यह' का बहुवचन है। कोई कोई लेखक बहुवचन मे भी 'यह' लिखते हैं । (अं०-१२२)। “ये" (और कभी कभी "यह") का प्रयोग बहुत्व और आदर के लिए होता है, जैसे, “यह भी तो उसी का गुण गाते हैं ।" (सत्य॰) । “यह तेरे तप के फल कदापि नहीं; इनको तो इस पेड़ पर तेरे अहंकार ने लगाया है ।" ( गुटका० ) । “ये वेही हैं जिनसे इंद्र और बावन-अवतार उत्पन्न हुए !" ( शकु०)। "ये हमारे यहाँ भेज दो । ( परी०)। (अ) “ये" के बदले आदर के लिए ‘आप’ का प्रयोग केवल बोलने में होता है और इसके लिए आदर-पात्र की और हाथ बढ़ा-कर सकेत करते हैं।

१२९-वह ( एकवचन ), वें ( बहुवचन ) ।

हिंदी में कोई विशेप अन्यपुरुष सर्वनाम नहीं है। उसके बदले दूरवर्ती निश्चयवाचक "वह" आता है। इस सर्वनाम के प्रयोग अन्यपुरुष के विवेचन मे बता दिये गये हैं। (अं०-१२१-१२२) । इससे दूर की वस्तु का बोध होता है।

(अ) “यह" और “ये" तथा “वह” और “वे" के प्रयोग में बहुधा स्थिरता नहीं पाई जाती । एक बार आदर वा बहुत्व के लिए किसी एक शब्द का प्रयोग करके लेखक लोग फिर उसी अर्थ मे उस शब्द का दूसरा रूप लाते हैं, जैसे, “यह टिड्डी-दल की तरह इतने दाग कहाँ से आये ? ये दाग वे दुर्वचन हैं जो तेरे मुख से निकला किये हैं। वह सब लाल लाल फल मेरे दान से लगे हैं ।" ( गुटका० )।"ये"सब बाते हरिश्चंद्र में सहज हैं ।" ( सत्य० )। “अरे । यह कौन देवता बडे प्रसन्न होकर श्मशान पर एकत्र हो रहे हैं ।" ( सत्य॰) ।

[ सू०–हमारी समझ में पहला रूप केवल आदर के लिए और दूसरा रूप बहुत्व के लिए लाना ठीक होगा । ]

(आ) पहले कही हुई दो वस्तुओं में से पहली के लिए "वह" और पिछली के लिए “यह" आता है, जैसे, "महात्मा और दुरात्मा मे इतना ही भेद है कि उनके मन, वचन और कर्म एक रहते हैं, इनके भिन्न भिन्न ।" ( सत्य० ) ।

कनक कनक तैं सौगुनी मादकता अधिकाय । वह खाये बौरात है यह पाये बौराय ।।-( सत० ) ।

( इ ) जिस वस्तु के सबध मे एक बार "यह" आता है उसीके लिए कभी कभी लेखक लोग असावधानी से तुरंतही "वह" लाते हैं, जैसे, “भला, महाराज, जब यह ऐसे दानी हैं तो उनकी लक्ष्मी कैसे स्थिर है?"( सत्य० ) । “जब मैं इन पेड़ों के पास से आया था तब तो उनमें फल-फूल कुछ भी नहीं था ।" ( गुटका० )

{ सू०---शब्दों के प्रयोग में ऐसी अस्थिरता से आशय समझने में कठिनाई होती है, और यह प्रयोग दूषित भी है ।

१३०----सो--( दोनों वचन ) ।

यह सर्वनाम बहुधा संबंधवाचक सर्वनाम “जो" के साथ आता है (अं०-१३४), और इसका अर्थ संज्ञा के वचन के अनु- सार “वह” वा “वे" होता है, जैसे, जिस बात की चिंता महा- राज को है सो ( वह ) कभी न हुई होगी ।" ( शकु० )। “जिन पौधो को तू सीच चुकी है सो (वे) तो इसी ग्रीष्म ऋतु से फूलेगे ।"( तथा ) । “आप जो न करो सो घोडा है ।" ( मुद्रा० )।

(अ) “वह"वा “वे" के समान "सो" अलग वाक्य में नहीं आता और न उसका प्रयोग "जो" के पहले होता है, परंतु कविता मे बहुधा इन नियमों का उल्लंघन हो जाता है; जैसे, "सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाय ।" ( सत० )। "सो सुनि भयउ भूप उर सोचू ।” ( राम० ) ।

(आ) “सो" कभी कभी समुच्चय-बोधक के समान उपयोग में आता है और उसका अर्थ “इसलिए" या "तब" होता है; जैसे, "तैने भी कभी उसका नाम नहीं लिया, सो क्या तू भी उसे मेरी ही भॉति भूल गया ?" ( शकु० )। "मलयकेतु हम लोगो से लड़ने के लिए उद्यत हो रहा है, सो यह लडाई के उद्योग का समय है।” ( मुद्रा० ) ।।

१३१-जिस सर्वनाम से किसी विशेष वस्तु का बोध नही होता उसेअनिश्चयवाचक' सर्वनाम कहते हैं । अनिश्चयवाचक सर्वनाम दो हैं--काई, कुछ। “कोई" और "कुछ" में साधारण अंतर यह है कि "कोई" पुरुष के लिए और "कुछ" पदार्थ वा धर्म के लिए आता है।

१३२--कोई-( दोनों वचन ) ।
इसका प्रयेाग एकवचन मे बहुधा नीचे लिखे अर्थों में होता है---

(अ) किसी अज्ञात पुरुष या बड़े जतु के लिये, जैसे, ‘‘ऐसा न हो कि कोई आ जाय ।" ( सत्य० ) । “दरवाजे पर कोई खडा है ।" “नाली में कोई बोलता है ।"

(आ)बहुत से ज्ञात पुरुषों में से किसी अनिश्चित पुरुष के लिए, जैसे, "है रे । कोई यहाँ ?" ( शकु० ) । "रघुवशिन महँ जहँ कोऊ होई । तेहि समाज अस कहहि न कोई ।।"--(राम०) ।

(ई)निषेधवाचक वाक्य में “केई" का अर्थ “सब" होता है, जैसे, “बड़ा पद मिलने से कोई बडा नही होता । ( सत्य० )। तू किसी को मत सता ।"

( ई )“कोई” के साथ "सव” और “हर" ( विशेषण ) आते हैं। “सब कोई" का अर्थ “सब लोग" और "हर कोई" का अर्थ “हर आदमी होता है। उदा०–“सब कीउ कहता राम सुठि साधू ।" (राम० ) । “यह काम हर कोई नहीं कर सकता ।"

( उ )अधिक अनिश्चय में "कोई" के साथ "एक" जोड देते हैं, जैसे, “कोई एक यह बात कहता था ।"

( ऊ )किसी ज्ञात पुरुष को छोड दूसरे अज्ञात पुरुष का वोध कराने के लिए "कोई" के साथ "और" या "दुसरा"लगा देते हैं, जैसे, “यह भेद कोई और न जाने ।" “कोई दूसरा होता तो मैं उसे न छोड़ता ।" (ऋ)आदर और वहुत्व के लिए भी "काई" आता है। पिछले अर्थ मे वहुधा "कोई" की द्विरुक्ति होती है। जैसे, “मेरे घर कोई आये हैं ।" “केाई केाई पोप के अनुयायियों ही को नही देख सकते ।" ( स्वा० ) । “किसी किसी की राय में विदेशी शब्दो का उपयोग मूर्खता है ।" ( सर० ) ।

( ए )अवधारण के लिए "कोई कोई" के बीच में "न" लगा दिया जाता है; जैसे, “यह काम कोई न कोई अवश्य करेगा ।"

( ऐ )कोई कोई । इन दुहरे शब्दो से विचित्रता सूचित होती है, जैसे, “कोई कहती थी यह उचक्का है, कोई कहती थी एक पक्का है ।" ( गुटका० ) । इसी अर्थ में "एक एक" आता हैं, जैसे--

"इक प्रविशहि इक निर्गमहि, भीर भूप दरबार ।"-(राम०)।

(ओ)संख्या-वाचक विशेषण के पहले "कोई' परिमाम-वाचक क्रियाविशेषण के समान आता है, और उसका अर्थ "लगभग" होता है ; जैसे, “इसमे कोई ४०० पृष्ठ हैं ।" ( सर० ) ।

१३३-कुछ--( एकवचन ) । दूसरे सर्वनामो के समान "कुछ" का रूपांतर नहीं होता। इसका प्रयोग बहुधा विशेषण के समान होता है । जव इसका प्रयोग संज्ञा के बदले में होता है तब यह नीचे लिखे अर्थों में आता है--

(अ )किसी अज्ञात पदार्थ वा धर्म के लिए: जैसे “धी में कुछ मिलि है।" "मेरे मन में आती हैं कि इससे कुछ पृछूँ ।" ( शकु० )।

(आ) छोटे जंतु वा पदार्थ के लिए;"जैसे पानी में कुछ है ।"

( इ )कभी कभी कुछ परिमाण-वाचक क्रिया-विशेषण के समान आता है। इस अर्थ में कभी कभी उसकी द्रिरूति भी होती है। उदा०--- "तेरे शरीर का ताप कुछ घटा कि नहीं ?" ( शकु० )। 'उसने उसके कुछ खिलाफ कार्रवाई की ।" ( स्वा० ) । “लडकी कुछ छोटी है ।” “दोनों की आकृति कुछ कुछ मिलती है ।"

(ई आश्चर्य, आनद वा तिरस्कार के अर्थ मे भी "कुछ" क्रिया- विशेषण होता है, जैसे, “हिंदी कुछ संस्कृत तो है नही ।" (सर०) । “हम लोग कुछ लडते नहीं हैं ।" "मेरा हाल कुछ न पूछो ।"

(उ) अवधारण के लिए "कुछ न कुछ" आता है, जैसे, “आर्य- जाति ने दिशाओ का नाम कुछ न कुछ रख लिया होगा ।" ( सर० )।

(ऊ) किसी ज्ञात पदार्थ वा धर्म को छोड़कर दूसरे अज्ञात पदार्थ वा धर्म का बोध कराने के लिए "कुछ" के साथ "और" आता है, जैसे, “तेरे मन में कुछ और ही है ।" (शकु॰) ।

(ऋ)भिन्नता या विपरीतता सूचित करने के लिए 'कुछ का कुछ’ आता है, जैसे, “आपने कुछ का कुछ समझ लिया।" “जिनसे ये कुछ के कुछ हो गये ।" ( इति० ) ।

(ऋ)कुछ" के साथ "सब” और “बहुत" आते हैं। “सब कुछ" का अर्थ "सब पदार्थ वा धर्म" है, और "बहुत कुछ" का अर्थ “बहुतसे पदार्थ वा धर्म" अथवा "अधिकता से" है। उदा०—“हम समझते सब कुछ हैं।"( सत्य० )। "लडका बहुत कुछ दौड़ता है ।" “यो भी बहुत कुछ हो रहेगा ।” ( सत्य० )।

(ए)कुछ कुछ। ये दुहरे शब्द विचित्रता सूचित करते हैं, जैसे, “एक कुछ कहता है और दूसरा कुछ।" (इति०) । "कुछ तेरा गुरु जानता है, कुछ मेरे से लोग जानते हैं ।" ( मुद्रा० )। "कुछ तुम समझे, कुछ हम समझे ।" ( कहा० ) । (ऐ)“कुछ कुछ" कभी कभी समुच्चय-बोधक के समान आकर दो वाक्यों को जोड़ते हैं; जैसे, “छापे की भूले कुछ प्रेस की असावधानी से और कुछ लेखकों के आलस से होती हैं ।" ( सर० )। “कुछ हम खुले, कुछ वह खुले ।"

(ओ)"कुछ कुछ" से कभी कभी "अयोग्यता" का अर्थ पाया जाता है; जैसे, "कुछ तुमने कमाया, कुछ तुम्हारा भाई कमावेगा ।"

१३४---जो-( दोनों वचन ) । हिंदी में संबंध-वाचक सर्वनाम एक ही है; इसलिए न्याय- शास्त्र के अनुसार इसका लक्षण नहीं बनाया जा सकता । भाषा- भास्कर को छोड़कर प्रायः सभी व्यकिरणों में संबंध-वाचक सर्वनाम का लक्षण नहीं दिया गया । भाषा-भास्कर में जो लक्षण है वह भी स्पष्ट नहीं है । लक्षण के अभाव में यहाँ इस सर्वनाम के केवल विशेष धर्म लिखे जाते हैं ।

(अ) “जो" के साथ "सो" वा "वह" का नित्य संबंध रहता है। "सो" वा “वह" निश्चयवाचक सर्वनाम है; परंतु संबंध- वाचक सर्वनाम के साथ आने पर इसे नित्य-संबंधी सर्वनाम कहते हैं । जिस वाक्य मे संबंध-वाचक सर्वनाम आता है उसका संबंध एक दूसरे वाक्य से रहता है जिसमें नित्य-संबंधी सर्वनाम आता है; जैसे, "जो वाले सो धी के जाय ।" (कहा॰) । “जो हरिश्चद्र ने किया वह तो अब कोई भी भारतवासी न करेगा ।"( सत्य०) ।

(आ)संबंध-वाचक और नित्य-संबंधी सर्वनाम एक ही सज्ञा के बदले आते हैं । जब इस संज्ञा का प्रयोग होता हैं तब यह ___________________________________________
"संबध-वाचक सर्वनाम उसे कहते हैं जो कही हुई संज्ञा में कुछ वर्णन मिलता है ।" ( भा० भा०) । बहुधा पहले वाक्य में आती है और सबंध-वाचक सर्वनाम दूसरे वाक्य में आता है, जैसे, “राजा भीष्मक का बड़ा बेटा जिसका नाम रुक्म था निपट झुंझलायके बोला ।" ( प्रेम० ) । "यह नारी कौन है जिसका रूप वस्त्रों में झलक रहा है ।" ( शकु० ) ।

( इ )जिस सज्ञा के बदले सवध-वाचक और नित्य-संबंधी सर्वनाम आते हैं उसके अर्थ की स्पष्टता के लिए बहुधा दोनों सर्वनामो में से किसी एक का प्रयोग विशेषण के समान होता है, जैसे, "क्या आप फिर उस परदे को डाला चाहते हैं। जो सत्य ने मेरे साम्हने से हटाया ?" ( गुटका० ) । "श्रीकृष्ण ने उन लकीरों को गिना जो उसने खैंची थीं ।" ( प्रेम० ) । "जिस हरिश्चद्र ने उदय से अस्त तक की पृथ्वी के लिए धर्म न छोडा, उसका धर्म आधा गज कपडे के वास्ते मत छुडाओ ।" (सत्य॰) ।

(ई) नित्य-सबधी “स" की अपेक्षा "वह" का प्रचार अधिक है । कभी कभी उसके बदले “यह'" "ऐसा," "सब" और "कौन" आते हैं, जैसे, “जिस शकुंतला ने तुम्हारे बिना सींचे कभी जल भी नही पिया उसको तुम पति के घर जाने की आज्ञा दो ।" ( शकु० ) । “संसार में ऐसी कोई चीज न थी जो उस राजा के लिए अलभ्य होती ।" ( रघु० ) । “वह कौनसा उपाय है जिससे यह पापी मनुष्य ईश्वर के कोप से छुटकारा पावे ।"( गुटका० ) । "सब लोग जो यह तमाशा देख रहे थे अचरज करने लगे ।"

( उ ) कभी कभी संवध-वाचक सर्वनाम अकेला पहले वाक्य में आता है और उसकी संज्ञा दूसरे वाक्य में बहुधा "ऐसा" वा “वह" के साथ आती है, जैसे, “जिसने कभी कोई पाप-कर्म नहीं किया था ऐसे राजा रघु ने यह उत्तर दिया ।" ( रघु० )। “प्रभु जो दीन्ह सो वर में पावा ।"

( उ ) “जो" कभी कभी एक वाक्य के बदले ( वहुधा उसके पीछे ) आता है, जैसे, “आ, वेग वेग चली आ, जिससे सब एक संग क्षेम-कुशल से कुटी में पहुँचे।” ( शकु० )। “लोहे के बदले उसमे सोना काम में आवे जिसमें भगवान भी उसे देखकर प्रसन्न हो जावें ।" ( गुटका० ) ।

( ऋ ) आदर और बहुत्व के लिए भी "जो" आता है; जैसे, "यह चारो कवित्त श्री बाबू गोपालचंद्र के बनाए हैं जो कविता में अपना नाम गिरिधरदास रखते थे ।" ( सत्य० ) । “यहाँ तो वे ही बडे हैं जो दूसरे को दोष लगाना पढे हैं।" ( शकु० )।

( ए ) "जो" के साथ कभी कभी फारसी का संबंध-वाचक सर्व-नाम “कि" आता है ( पर अब उसका प्रचार घट रहा है )। जैसे, “किसी" समय राजा हरिश्चंद्र बडा दानी हो गया है कि जिसकी कीर्ति संसार में अब तक छाय रही है ।" ( प्रेम० )। “कौन कौन से समय के फेरफार इन्हें झेलने पड़े कि जिनसे ये कुछ के कुछ हो गए !" ( इति० )।

( ऐ ) कभी कभी संबंध-वाचक वा नित्य-संबंधी सर्वनाम का लोप होता है। जैसे, “हुआ सो हुआ ।" ( शकु० ) । "जो पानी पीता है आपको असीस देता है ।" ( गुटका० )। कभी कभी दूसरे वाक्य ही का लोप होता है ; जैसे "जो आज्ञा ।" “जो हो ।"

( ओ ) समूह के अर्थ में संबंध-वाचक और निन्य-संबंधो सव नामों की बहुधा द्विरुक्ति होती है; जैसे' त्यो हरिचंद ज जो जो कह्यो सो किया चुप है करि कोटि उपाई । (सुंदरी०) । “कन्या के विवाह मे हमे जो जो वस्तु चाहिए सो सो सब इकट्ठी करो ।" ( प्रेम० ) ।

( औ ) “जो" कभी कभी समुच्चय-बोधक के समान आता है, और उसका अर्थ “यदि" वा "कि" होता है, जैसे, "क्या हुआ जो अब की लड़ाई मे हारे ।" ( प्रेम० )। “हर किसी की सामर्थ नहीं जो उसका साम्हना करे।" ( तथा )।

"जो सच पूछो तो इतनी भी बहुत हुई।" ( गुटका० ) ।

( क ) “जो" के साथ अनिश्चयवाचक सर्वनाम भी जोडे जाते हैं । “कोई" और "कुछ" के अर्थों मे जो अतर है वही "जो केई" और "जो कुछ" के अर्थों में भी है, जैसे “जो केाई नल को घर में घुसने देगा, जान से हाथ धोएगा ।" (गुटका०) । “महाराज जो कुछ कहो बहुत समझ बूझ- कर कहिये ।" ( शकु० )।

१३५–प्रश्नन करने के लिए जिन सर्वनाम का उपयोग होता हैं। उन्हें प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते हैं । ये दो हैं--कौन और क्या ।

१३६–“कौन" और "क्या" के प्रयोगो मे साधारण अंतर वही है जेा "कोई" और “कुछ" के प्रयोगों में है। ( अ०-१३२- १३३ )। “कौन" प्राणियों के लिए और विशेषकर मनुष्यों के लिए और "क्या" क्षुद्र प्राणी, पदार्थ वा धर्म के लिए आता है, जैसे, “हे महाराज, आप कौन है ?" (गुटका०)। “यह आशीर्वाद किसने दिया ।" (शकु०) । “तुम क्या कर सकते हो ?" “क्या समझते हो ?" ( सत्य० )। "क्या है ?" "क्या हुआ ?"

१३७----"कौन" का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता है-

( अ ) निर्धारण के अर्थ में "कौन" प्राणी, पदार्थ और धर्म, तीनों के लिए आता है, जैसे "ह०----ते। हम एक नियम पर विकेगे ।" "ध०----वह कौन ?" ( सत्य० )। “इसमे पाप कौन है और पुण्य कौन है ।" ( गुटका० ) । “यह कौन है जो मेरे अंचल के नहीं छोड़ता ।" (शकु०) । इसी अर्थ में "कैन" के साथ बहुधा "सा" प्रत्यय लगाया जाता है, जैसे, “मेरे ध्यान में नहीं आता कि महारानी शकुंतला कौनसी है ।" (शकु०)। तुम्हारा घर कैानसा है ?"

अ ) तिरस्कार के लिए; जैसे, "रोकनेवाली तुम कैान हो !" (शकु०) । "कैान जाने ।" "स्वर्ग कौन कहे, आपने अपने सत्यवल से ब्रह्म-पद पाया ।" ( सत्य० ) ।

( इ ) आश्चर्य अथवा दुःख मे; जैसे, "इसमे क्रोध की बात कैनसी है !"अरे । हमारी बात को यह उत्तर कैन देता है ?" (सत्य०)। “अरे ! आज मुझे किसने लूट लिया ।" ( तथा ) ।

( ई ) "कौन" कभी कभी क्रियाविशेषण होता है; जैसे, “आपको सत्संग कैन दुर्लभ हैं !" (सत्य॰) । ( उ ) वस्तुओं की भिन्नता, असंख्यता और तत्संबंधी आश्चर्य दिखाने के लिए "कौन" की द्विरुक्ति होती है; जैसे, “सभा में कौन कैान आये थे ?" मैं किस किसको बुलाऊँ।" "तूने पुण्यकर्म कौन कैनसे किये हैं ?" ( गुटका० ) ।

१३८-"क्या" नीचे लिखे अर्थों में आता है--

( अ ) किसी वस्तु का लक्षण जानने के लिए; जैसे, "मनुष्य क्या हैं ?" "आत्मा क्या है ?" “धर्म क्या है ?" इसी अर्थ में कौन का रूप “किसे" या “किसको" "कहना"क्रिया के साथ आता है, जैसे, “नदी किसे कहते हैं ?" ( अ ) किसी वस्तु के लिए तिरस्कार वा अनादर सूचित करने मे, जैसे, “वह आदमी क्या राक्षस है " “क्या हुआ। जो अब की लड़ाई में हारे ।"( प्रेम० ) । “भला हम दास लेके क्या करेगे ?" ( सत्य॰) । “धन तो क्या इस काम में तन भी लगाना चाहिये ।" "क्या जाने ।"

( इ ) आश्चर्य में, "जैसे, “ऊषा क्या देखती है कि चहुँ आर बिजली चमकने लगी ।" ( प्रेम०)। “क्या हुआ ।" “वाह ! क्या कहना है ।"

इसी अर्थ में "क्या" वहुधा क्रियाविशेषण के समान आता है, जैसे, "घोड़े दौडे क्या हैं, उड आये हैं ।" (शकु०) । “क्या अच्छी बात है ।"

( ई ) धमकी मे, जैसे, “तुम यह क्या करते हो।" “तुम यहाँ क्या बैठे हो ।"

( उ ) किसी वस्तु की दशा बताने में, जैसे, “हम कौन थे क्या हो गये हैं और क्या होगे अभी ।" ( भारत० ) ।

( ऊ ) कभी कभी “क्या" का प्रयोग विस्मयादि-बोधक के समान होता है--

( १ ) प्रश्न करने के लिए, जैसे, “क्या गाडी चली गई ?"

( २ ) आश्चर्य सूचित करने के लिए, जैसे, “क्या तुमको चिह्न दिखाई नहीं देते ।" ( शकु० ) ।

( ऋ ) अशक्यता के अर्थ में भी "क्या" क्रियाविशेषण होती है, जैसे, “हिंसक जीव मुझे क्या मारेंगे।" (रघु०)। “उसके मारने से परलोक क्या बिगडेगा ।"( गुटका० )।

( ऋ ) निश्चय कराने में भी "क्या" क्रियाविशेषण के समान आता है, जैसे, “सरोजिनी-माँ । मैं यह क्या बैठी हूँ ।" ( सरो० ) । "सिपाही वहाँ क्या जा रहा है ।" इन वाक्यों में "क्या” का अर्थ "अवश्य" वा “निस्संदेह" है।

( ए ) बहुत्व वा आश्चर्य में "क्या" की द्विरुक्ति होती है; जैसे, "विष देनेवाले लोगों ने क्या क्या किया ?" ( मुद्रा० ) । "मैं क्या क्या कहूँ !"

( ऐ ) क्या क्या । इन दुहरे शब्दों का प्रयोग समुच्चय-बोधक के समान होता है, जैसे, "क्या मनुष्य और क्या जीवजंतु, मैंने अपना सारा जन्म इन्हीका भला करने में गंवाया ।" ( गुटका० ) । ( अं०-२४४ )।

१३९-दशांतर सूचित करने के लिए "क्या से क्या" आता है, जैसे, “हम आज क्या से क्या हुए ।" ( भारत० ) ।

१४०--पुरुषवाचक, निजवाचक और निश्चयवाचक सर्वनामों में अवधारण के लिए “ही” “ही" वा "ई" प्रत्यय जोड़ते हैं, जैसे, मैं = मैंही, तू = तूही ; हम = हमी , तुम = तुम्ही ; आप = आपही, वह = वही , सो = सोई, यह = यही ; वे = वेही ; ये = यही ।

(क) अनिश्चय-वाचक सर्वनामों में "भी" अव्यय जोड़ा जाता है, जैसे, "कोई भी," “कुछ भी ।"

[ टी--हिंदी के भिन्न भिन्न व्याकरणों में सर्वनामों की संख्या और वर्गकिरण के संबंध में बहुत कुछ मत-भेद है । हिंदी के जो व्याकरण (ऐथरिगटन, कैलारी, ग्रीब्ज़, आदि) अंगरेज विद्वानों ने लिखे है और जिनकी सहायता प्रायः सभी हिंदी व्याकरण में पाई जाती है उनका उल्लेख करने की यहा अवश्यकता नहीं है; क्योंकि किसी भी भाषा के संबंध में केवल वही लोग प्रमाण माने जा सकते है जिनकी वह भाषा है, चाहे उन्होंने अपनी भाषा का व्याकरण विदेशियों ही की सहायता से सीखा वा लिखा हो। इसके सिवा यह व्याकरण हिंदी में लिखा गया है। इसलिए हमें केवल हिंदी में लिखे हुए व्याकरणों पर विचार करना चाहिए, यद्यपि उनमे भी कुछ ऐसे हैं जिनके लेखकोंं की मातृभाषा हिंदी नहीं है। पहले हम इन व्याकरणों में दी हुई सर्वनामों की संख्या का विचार करेंगे ।

सर्वनामों की संख्या "भाषा-प्रभाकर" में आठ, "हिंदी व्याकरण' में सात और "हिंदी बाल-बोध व्याकरण" में कोई सत्रह हैं । ये तीनों व्याकरण औरों से पीछे के हैं, इसलिए हमें समालोचना के निमित्त इन्हींकी बातों पर विचार करना है । इनके सिवा अधिक पुस्तकों के गुण-दोष दिखाने के लिए इस पुस्तक में स्थान की संकीर्णता है ।

( १ ) भाषा-प्रभाकर--मै, तू, वह, यह, जो, सो, कोई, कौन ।

( २ ) हिन्दी-व्याकरण -मैं, तू, आप, यह, वह, जो, कौन ।

( ३ ) हिन्दी-बालबोध-व्याकरण-मैं, तू, वह, जो, सो, कौन, क्या,

यह, कोई, सब, कुछ, एक, दूसरा, दोनों एक दूसरा, कई एक, आप ।

"भाषा-प्रभाकर" में क्या", "कुछ" और "आप" अलग अलग सर्वनाम नहीं माने गये हैं, यद्यपि सर्वनामों के वर्णन में इनका अर्थ दिया गया है। इसमें भी “आप" का केवल आदर-सूचक प्रयोग बताया गया है। फिर आगे अव्ययों में "क्या" और "कुछ" का उल्लेख किया गया है, परंतु वह भी इनके संबध में कोई बात स्पष्टता से नहीं लिखी गई । ऐसी अवस्था में समा-लोचना करना वृथा है ।

“हिदी-ब्याकरण" में “सो', 'कोई", "क्या” और “कुछ" सर्वनाम नहीं माने गये है। पर लेखक ने पुस्तक में सर्वनाम को जो लक्षण* दिया है। उसमें इन शब्दों का अंतर्भाव होता है, और उन्होंने स्वयं एक स्थान में (पृ० ८१ ) “कोई" को सर्वनाम के समान लिखा है, फिर न जाने क्यों यह शब्द भी सर्वनामों की सूची में नहीं रखा गया ? 'क्या' और 'कुछ' के विषय में अव्वय होने की संभावना हो भी सकती है, पर “सो" और "कोई" के विषय में किसी को भी संदेह नहीं हो सकता , क्योंकि इनके रूप और प्रयोग "वह”, “जो", “कौन” के नमूने पर होते हैं। जान पडता है कि मराठी में "कोण" शब्द प्रश्नवाचक और अनिश्चयवाचक दोनों होने के कारण लेखक ने “कोई" को “कौन" के अतर्गत माना है, परंतु हिंदी में "कौन" और “कोई" के रूप और प्रयोग अलग अलग है। लेखक ने कोई १५० अव्ययों की सूची में “कुछ", "क्या" और "सो" लिखे है, पर इन बहुत-से शब्दों में केवल दो या तीन के प्रयोग बताये गये है, और उनमें भी "कुछ",


“सर्वनाम उसे कहते हैं जो नाम के बदले में आया हो ।” "क्या" और “सो” का नाम तक नहीं है। बिना किसी वर्गीकरण के (चाहे वह पूर्णतया न्याय-सम्मत न हो ) केवल वर्णमाला के क्रम से १५० अव्ययों की सूची दे देने से उनका स्मरण कैसे रह सकता है और उनके प्रयोग का क्या ज्ञान हो सकता है? यदि किसी शब्द को केवल “अव्यय" कहने से काम चल सकता है तो फिर “विकारी" शब्दों के जो भेद संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया लेखक ने माने है, उन सबकी भी क्या आवश्यकता है ?

"हिदी-बाल-बोध व्याकरण" में सर्वनामों की संख्या सबसे अधिक है। लेखक ने "कोई” और “कुछ" के साथ "सब” को अनिश्चय-वाचक सर्वनाम माना है; और "एक”, “दूसर", "दोनो", "एक दूसर'श" "कई एक" आदि के निश्चयवाचक सर्वनामों में लिखा है। ये सब शब्द यथार्थ में विशेषण हैं, क्योंकि इनके रूप और प्रयेाग विशेषणोंं के समान होते है । "एक लड़का”, “दस लडके" और “सब लड़के", इन वाक्यांशों में संज्ञा के अर्थ के संबंध से "एक", "दस” और “सब" का प्रयोग व्याकरण में एक ही सा है—अर्थात् तीनों शब्द “लडका" संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करते हैं। इसलिए यदि ‘‘दस विशेषण है ते "सब" भी विशेषण है। हाँ, कभी कभी विशेष्य के लोप होने पर ऊपर लिखे शब्दों का प्रयोग सज्ञाओं के समान होता है, पर प्रयेाग की भिन्नता और भी कई शब्द-भेदों में पाई जाती है। हमने इन सब शब्दों को विशेपशषण मानकर एक अलग ही वर्ग में रक्खा है। जिन शब्दों के बाल-बोध-व्याकरण के कर्ता में निश्चय-वाचक सर्वनाम माना है वे सर्वनाम माने जाने पर भी निश्चयवाचक नहीं है । उदाहरण के लिए "एक" और दूसरा शब्द लीजिये । इनका प्रयोग "कोई" के समान होता है जो अनिश्चय-वाचक है । पर जब "एक" या "दूसरा” केवल संख्या वा क्रम का वोधक होता है तब वह अवश्य निश्चय-वाचक विशेषण ( वा सर्वनाम ) हेाता है; परंतु समालोचित पुस्तक में इन सर्वनामो के प्रयेागों के उदाहरण नहीं है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि लेखक ने किस अर्थ में इन्हें निश्चय-वाचकं माना है।

इन उदाहरणो से स्पष्ट है कि उपर कही हुई तीन पुस्तकों में जो कई शब्द सर्वनामों की सूची में दिये गये हैं अथवा छोड दिये गये हैं इनके लिए कोई प्रबल कारण नहीं है । अत्बब सर्वनामों के वर्गीकरण का कुछ विचार करना चाहिए ।

"भाषा-प्रभाकर" और हिन्दी-बाल-बोध व्याकरण" में सर्वनामों के पाँच पाँच भेद माने गये हैं, पर दोनोंं में निजवाचक सर्वनाम न अलग माना गया है और न किसी भेद के अतर्गत लिखा गया है। यद्यपि सर्वनामों के विवेचन में इसका कुछ उल्लेख हुआ हैं, पर वहा भी “आदर-सूचक" के अन्यपुरुष का प्रयोग नहीं बताया गया। हम इस अध्याय में बता चुके हैं कि हिंदी में "आप" एक अलग सर्वनाम है जो मूल में निजवाचक है और उसका एक प्रयोग आदर के लिए होता है। दोनों पुस्तको में "सो" संबंध वाचक लिखा गया है, पर यह सर्वनाम “वह" का पर्यायवाची होने के कारण यथार्थ में निश्चय-वाचक है और कभी कभी यह सबंध-वाचक सर्वनाम "जो” के बिना भी आता है ।

- "हिंदी-व्याकरण” में संस्कृत की देखादेखी सर्वनामों के भेद ही नहीं किये गये है, पर एक दो स्थानो में ( पृ॰ ६०-६१ ) “निज सूचक आप" शब्द का उपयोग हुआ है जिससे सर्वनामों के किसी न किसी वर्गीकरण की आवश्यकता जान पड़ती है। फिर न जाने लेखक ने इसका वर्गीकरण क्यों अनावश्यक समझा १]

१४१-“यह", “वह", “सो", “जो" और “कौन" के रूप “इस," “उस," “विस", जिस" और किस" के अंत्य “स” के स्थान में "तना" आदेश करने से परिमाण-वाचक विशेषण और “इ” को “ऐ" तथा "उ" को "वै" करके "सा" आदेश करने से गुणवाचक विशेषण बनते हैं। दूसरे सार्वनामिक विशेषणों के समान ये शब्द भी प्रयोग में कभी सर्वनाम और कभी विशेषण होते हैं। कभी कभी ये क्रिया-विशेषण भी होते हैं। इनके प्रयोग आगे विशेषण के अध्याय में लिखे जायेंगे ।  

नीचे के कोठे में इनकी व्युत्पत्ति समझाई जाती है—
सर्वनाम रूप परिमाणवाचक विशेषण गुणवाचक विशेषण
यह इस इतना ऐसा
वह उस उतना वैसा
सो तिस तितना तैसा
जो जिस जितना जैसा
कौन किस कितना कैसा

सर्वनामों की व्युत्पत्ति।

१४२—हिंदी के सब सर्वनाम प्राकृत के द्वारा संस्कृत से निकले हैं; जैसे,

संस्कृत प्राकृत हिंदी
अहम् अम्ह मैं, हम
त्वम् तुम्ह तू, तुम
एषः एअ यह, ये
सः सो सो, वह, वे
य: जो जो
क: को कौन
किम् किम् क्या
कोऽपि कोबि कोई