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हिंदुई साहित्य का इतिहास/प्रथम संस्करण (१८३९) की पहली जिल्द की भूमिका

विकिस्रोत से
हिंदुई साहित्य का इतिहास
गार्सां द तासी, अनुवादक लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय

इलाहाबाद, उत्तर-प्रदेश: हिंदुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ २९ से – ४३ तक

 


प्रथम संस्करण (१८३९) की पहली जिल्द की

 
भूमिका

ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे सन् की १६वीं शताब्दी से पूर्व भारत की आधुनिक भाषाओं ने सर्वत्र वेदों की पवित्र भाषा का स्थान ग्रहण कर लिया था। भारत के प्राचीन साम्राज्य में जिसका विकास हुआ उसे सामान्यतः 'भाषा' या 'भाखा', और विशेषतः 'हिन्दवी' या 'हिन्दुई' (हिन्दुओं की भाषा), के नाम से पुकारा जाता है। महमूद ग़ज़नवी के आक्रमण के समय इस नवीन भाषा का पूर्ण विकास न हो पाया था। बहुत बाद को, सत्रहवीं शताब्दी के लगभग अंत में, दिल्ली में पठान-वंश की स्थापना के समय, हिन्दुओं और ईरानियों के पारस्परिक सम्बन्धों के फलस्वरूप, मुसलमानों द्वारा विजित नगरों में विजयी और विजित की भाषाओं का एक प्रकार का मिश्रण हुआ। प्रसिद्ध विजेता तैमूर के दिल्ली पर अधिकार प्राप्त कर लेने के समय यह मिश्रण और भी स्थायी हो गया। सेना का बाजार नगर में स्थापित किया जाता था, और जो तातारी शब्द 'उर्दू' द्वारा सम्बोधित होता था, जिसका ठीक-ठीक अर्थ है 'सेना' और 'शिविर'। यहीं पर ख़ास तौर से हिन्दू -मुसलमानों की नई (मिश्रित) भाषा बोली जाती थी; साथ ही उसे सामान्य नाम 'उर्दू भाषा' भी मिला, यद्यपि कविगण उसे 'रेख़ता' (मिश्रित) के नाम से पुकारते हैं। इसी समय के लगभग , भारत के दक्षिण में, नर्मदा के दक्षिण में उत्तरोत्तर स्थापित किए गए विभिन्न राज्यों के शासक मुसलमान-वंशों के अंतर्गत समान भाषा सम्बन्धी घटना घटित हुई; और हिन्दू-मुसलमानों की मिश्रित भाषा ने एक विशेष नाम 'दक्खिनी' (दक्षिण की) ग्रहण किया। मध्ययुगीन फ्राँस को 'उई' (oil) और 'ओक' (oc) की भाँति, इन दोनों बोलियों का[] भारत में प्रचार हो गया है, एक का उत्तर में, दूसरी का दक्षिण में, जहाँ कहीं भी मुसलमानों ने अपने राज्य स्थापित किए, जब कि पुरानी बोली का प्रयोग अब भी गाँवों में, उत्तरी प्रान्तों के हिन्दुओं में, होता है;[] किन्तु यद्यपि शब्दों के चुनाव में ये बोलियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं, तो भी, उचित बात तो यह है कि वे अपनी-अपनी वाक्य-रचना-पद्धति के अंतर्गत एक ही और समान बोलियाँ हैं, और वे हमेशा 'हिन्दी' या 'हिन्द की'[] के अनिश्चित नाम से तथा यूरोपियन लोगों द्वारा 'हिन्दुस्तानी' के नाम से पुकारी जाती हैं; और जिस प्रकार जर्मन लेटिन या गोथिक अक्षरों में लिखी जाती है, उसी प्रकार स्थान और व्यक्तियों की रुचि के अनुसार हिन्दुस्तानी[] लिखने के लिए भी यद्यपि आज कल फ़ारसी अक्षरों का प्रयोग किया जाता है, हिन्दू, अपने पूर्वजों की भाँति प्रायः देवनागरी अक्षरों का प्रयोग करते हैं।[]

मैंने यहाँ हिन्दुस्तानी के राजनीतिक या व्यावसायिक लाभों के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा। इस तथ्य का, निर्विवाद होने के अतिरिक्त, मेरे विषय के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हैं। किन्तु, पहले तो, बोलचाल की भाषा के रूप में, हिन्दुस्तानी को समस्त एशिया में कोमलता और विशुद्धता की दृष्टि से जो ख्याति प्राप्त है वह अन्य किसी को नहीं है।[] फ़ारसी की एक कहावत कही जाती है जिसके अनुसार मुसलमान अरबी को पूर्वी मुसलमानों की भाषाओं के आधार और अत्यधिक पूर्ण भाषा के रूप में, तुर्की को कला और सरल साहित्य की भाषा के रूप में, और फ़ारसी को काव्य, इतिहास, उच्च स्तर के पत्र-व्यवहार की भाषा के रूप में मानते हैं। किन्तु जिस भाषा ने समाज की सामान्य परिस्थितियों में अन्य तीनों के गुण ग्रहण किए हैं वह हिन्दुस्तानी है, जो बोलचाल की भाषा और व्यावहारिक प्रयोग के, जिनके साथ उसका विशेष सम्बन्ध स्थापित किया जाता है, रूप में उनसे बहुत-कुछ मिलती-जुलती है।[] वह वास्तव में भारत की सबसे अधिक अभिव्यंजना-शक्ति-सम्पन्न और सबसे अधिक, शिष्ट प्रचलित भाषा है, यहाँ तक कि उसके सामान्य प्रयोग का कारण जानना अत्यधिक लाभदायक है।[] वह अपने आप दिन भर में एक नवीन महत्व ग्रहण कर लेती है। दफ़्तरों और अदालतों में तो उसने फ़ारसी का स्थान ग्रहण कर ही लिया है; निस्सन्देह वह शीघ्र ही राजनीतिक पत्र-व्यवहार में भी उसका स्थान ग्रहण कर लेगी।

लिखित भाषा के रूप में, प्रसिद्ध भारतीयविद्याविशारद विल्‌सन, जिनके शब्द ज्यों-के-त्यों मैंने इस लेख के लिए ग्रहण किए हैं, के साथ मैं कह सकता हूँ : 'हिन्दी की बोलियों का एक साहित्य है जो उनकी विशेषता है, और जो अत्यधिक रोचक है'; और यह रोचकता केवल काव्यगत ही नहीं, ऐतिहासिक और दार्शनिक भी है; हम पहले हिन्दुस्तानी के ऐतिहासिक महत्त्व की परीक्षा करेंगे। हिन्दुई में, जो हिन्दुस्तान की रोमांस की भाषा भी कही जा सकती हैं, जिसे मैं भारत का मध्ययुग कह सकता हूँ उससे संबंधित महत्त्वपूर्ण पद्यात्मक विवरण हैं। उनके महत्त्व का अनुमान बारहवीं शताब्दी में लिखित चन्द के काव्य, जिससे कर्नल टॉड ने 'ऐनल्स ऑव राजस्थान'[] की सामग्री ली, और सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में लिखित लाल कवि कृत बुन्देलों का इतिहास रचना से, जिससे मेजर पोग्‌सन (Pogson) ने हमें परिचित कराया था, लगाया जा सकता है। यदि यूरोपीय अब तक ऐसी बहुत कम रचनाओं से परिचित रहे हैं, तो इसका यह तात्पर्य नहीं कि वे और हैं ही नहीं। प्रसिद्ध अँगरेज़ विद्वान् जिसे मैंने अभी उद्धृत किया है हमें विश्वास दिलाता है कि इस प्रकार की अनेक रचनाएँ राजपूताने[१०] में भरी पड़ी हैं।[११] केवल एक उत्साही यात्री उनकी प्रतियाँ प्राप्त कर सकता है।

हिन्दुई और हिन्दुस्तानी में जीवनी सम्बन्धी कुछ रोचक रचनाएँ भी मिलती हैं। १६ वीं शताब्दी के अंत में लिखित, अत्यधिक प्रसिद्ध हिन्दू सन्तों की एक प्रकार की जीवनी 'भक्तमाल' प्रधान है।

जहाँ तक दार्शनिक महत्त्व से सम्बन्ध है, यह उसकी विशेषता है और यह विशेषता हिन्दुस्तानी को एक बहुत बड़ी हद तक उन्नत आत्माओं द्वारा दिया गया अपनापन प्रदान करती है। वह भारतवर्ष के धार्मिक सुधारों की भाषा है। जिस प्रकार यूरोप के ईसाई सुधारकों ने अपने मतों और धार्मिक उपदेशों के समर्थन के लिए जीवित भाषाएँ ग्रहण कीं; उसी प्रकार, भारत में हिन्दू और मुसलमान संप्रदायों के गुरुओं ने अपने सिद्धांतों के प्रचार के लिए सामान्यतः हिन्दुस्तानी का प्रयोग किया है। ऐसे गुरुओं में कबीर, नानक, दादू, बीरभान, बख़्तावर, और अंत में अभी हाल के मुसलमान सुधारकों में, अहमद नामक एक सैयद हैं। न केवल उनकी रचनाएँ ही हिन्दुस्तानी में हैं, वरन् उनके अनुयायी जो प्रार्थना करते हैं, वे जो भजन गाते हैं, वे भी उसी भाषा में हैं।

अंत में, हिन्दुस्तानी साहित्य का एक काव्यात्मक महत्व है, जो न तो किसी दूसरी भाषा से हीन है, और न जो वास्तव में कम है। सच तो यह है कि प्रत्येक साहित्य में एक अपनापन रहता है जो उसे आकर्षणपूर्ण बनाता है, प्रत्येक पुष्प की भाँति जिसमें, एक फ़ारसी कवि के कथनानुसार, अलग-अलग रंग ओ बू रहती है। भारतवर्ष वैसे भी कविता का प्रसिद्ध और प्राचीन देश है; यहाँ सब कुछ पद्य में है―कथाएँ, इतिहास, नैतिक रचनाएँ; कोष, यहाँ तक कि रुपए की गाथा भी[१२]। किन्तु जिस विशेषता का मैं उल्लेख कर रहा हूँ वह केवल कर्ण-सुखद शब्दों के सुन्दर सामंजस्य में, अलंकृत पंक्तियों के कम या अधिक अनुरूप क्रम में ही नहीं है; उसमें कुछ अधिक वास्तविकता है, यहाँ तक कि प्रकृति और भूमि सम्बन्धी उपयोगी विवरण भी उसी में हैं, जिनसे कम या ग़लत समझे जाने वाले शब्द-समूह की व्याख्या प्रस्तुत करने वाले मानव-जाति सम्बन्धी विस्तार ज्ञात होते हैं। मैं इतना और कहूँगा कि हिन्दुस्तानी कविता धर्म और उच्च दर्शन के सर्वोत्कृष्ट सिद्धान्तों के प्रचलित करने में विशेषतः प्रयुक्त हुई है। वास्तव में, उर्दू कविता का कोई संग्रह खोल लीजिए, और आपको उसमें मनुष्य और ईश्वर के मिलन-सम्बन्धी विविध रूपकों के अंतर्गत वे ही बातें मिलेंगी। सर्वत्र भ्रमर और कमल, बुलबुल और गुलाब, परवाना और शमा मिलेंगे।

हिन्दुस्तानी साहित्य में जो अत्यधिक प्रचुर हैं, वे दीवान, या ग़ज़ल-संग्रह, समान गति को एक प्रकार की कविता (ode) और विशेषतः दक्खिनी में, पद्यात्मक कथाएँ हैं। इन्हीं चीज़ों का फ़ारसी और तुर्की में स्थान है और इन तीनों साहित्यों में अनेक बातें समान हैं। हिन्दुस्तानी में अनेक अत्यन्त रोचक लोकप्रिय गीत भी हैं, और यही भाषा है जिसका वर्तमान भारत के नाटकों में बहुत सामान्य रूप से प्रयोग होता है।

मुझे यह कहना पड़ता है कि हिन्दुस्तानी साहित्य का बहुत बड़ा भाग, फ़ारसी, संस्कृत और अरबी से अनूदित है; किन्तु ये अनुवाद प्रायः महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि वे मूल के कठिन और संदिग्ध अंशों की व्याख्या करने के साधन सिद्ध हो सकते है; कभी-कभी ये अनुवाद ही हैं जो दुर्भाग्यवश खोई हुईं मूल रचनाओं के स्थान पर काम आते हैं।[१३] जहाँ तक फ़ारसी से अनूदित कही जाने वाली कथाओं से सम्बन्ध है, वे वास्तविक अनुवाद होने के स्थान पर अनुकरण मात्र हैं और परिचित कथाएँ ही नए ढंग से प्रस्तुत की गई हैं; अथवा एक सुन्दर अनुकरण हैं, जो कभी-कभी मूल की अपेक्षा अच्छी रहती हैं; उनकी रोचकता में कोई कमी नहीं होती।[१४] इसके अतिरिक्त मेरे विचार से हिन्दुस्तानी रचनाएँ फ़ारसी की रचनाओं (प्रायः जिनकी विशेषता अत्यधिक अतिशयोक्ति रहती है) से अधिक स्वाभाविक होती हैं। वास्तव में इस साहित्य का स्थान फ़ारसी की अतिशयोक्तियों और संस्कृत की उच्च कोटि की सरलता के बीच में है।

यूरोप में लगभग अज्ञात इसी साहित्य का विवरण मैं प्रस्तुत करना चाहता हूँ। मेरी इच्छा उसे समृद्ध बनाने वाले और विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करने वाले सभी प्रकार के पद्य और गद्य-ग्रन्थों की ओर संकेत करने की है। इसके लिए मैंने अनेक हिन्तुस्तानी-ग्रन्थों का अध्ययन किया है, और उससे भी अधिक सरसरी निगाह से देखे हैं। जहाँ तक हो सका है मैंने अधिक से अधिक हस्तलिखित ग्रन्थ प्राप्त करने की चेष्टा की है: सार्वजनिक और निजी पुस्तकालयों के हिन्दुस्तानी भण्डारों से परिचित होने के लिए मैं दो बार इँगलैंड गया हूँ, और मुझे यह बात ख़ास तौर से कहनी है कि मुझे संग्रह बहुत अच्छे मिले, और सहायता अत्यन्त उदार मिली। हिन्दुस्तानी के हस्तलिखित ग्रन्थों का जो सबसे अच्छा संग्रह मुझे मिल सका, वह ईस्ट इंडिया हाउस के पुस्तकालय का है, और इस पुस्तकालय में विशेषतः लीडन (Leyden) संग्रह इस प्रकार का सर्वोत्तम संग्रह है। डॉ॰ लीडन फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी के परीक्षक थे[१५]; उन्होंने इस भाषा का काफ़ी अध्ययन किया था। वास्तव में जो हिन्दुस्तानी की जिल्दें उन्होंने तैयार की हैं उसमें इतने अन्य अनेक प्राच्यविद्याविशारदों ने सहयोग प्रदान किया है, कि साहित्यिक जनता को देने के लिए उन्होंने मुझे जितने की आज्ञा प्रदान की थी उससे भी अधिक विवरण मैं प्रस्तुत कर सकता हूँ।

उन ग्रन्थकारों के लिए जिनके बारे में मुझे ज्ञात नहीं था, और अन्य के संबंध में कुछ विस्तार दे सकने के लिए, मुझे सामान्यतः जीवनियों और मूल संग्रहों का आश्रय लेना पड़ा है। इस प्रकार ग्रन्थ जो मुझे प्राप्त हो सके, या जिन्हें कम-से-कम मैं देख सका, निम्नलिखित हैं :

१. 'निकात् उस्‌शौअरा', अथवा कवियों के सुन्दर शब्द, मीर कृत, फ़ारसी में लिखित हिन्दी जीवनी;

२. 'तज़्‌किरा-इ शौअरा-इ हिन्दी', अथवा हिन्दी कवियों का विवरण, मुसहफ़ी (Mushafi) कृत, फ़ारसी में ही लिखित;

३. 'तज़्‌किरा-इ शौअरा-इ हिन्दी', अथवा हिन्दी कवियों का विवरण, फ़तह अली हुसेनी कृत, फ़ारसी में ही;

४. 'गुलज़ार-इ इब्राहीम' (वही), नवाब अली इब्राहीम ख़ाँ कृत ;

५. 'गुलशन-इ हिन्द', अथवा भारत का बाग़, लतीफ़ कृत, हिन्दुस्तानी में लिखित हिन्दी जीवनी;

६. 'दीवान-इ जहाँ', हिन्दुस्तानी संग्रह, बेनी नरायन कृत;

७. 'गुलदस्ता-इ निशात', अथवा ख़ुशी का ग़ुलदस्ता, मन्नू लाल कृत, फ़ारसी और हिन्दुस्तानी में एक प्रकार का वर्णनात्मक संग्रह।

इन रचनाओं में से सबसे अधिक बड़ी रचना अली इब्राहीम की है।[१६] उसमें लगभग तीन सौ कवियों के संबंध में सूचनाएँ, और उनकी रचनाओं से प्रायः बड़े-बड़े उद्धरण हैं। लेखक ने इस जीवनी को जो 'गुलज़ार-इ इब्राहीम' या अब्राहम का बाग़, शीर्षक दिया है, उसका सम्बन्ध अपने निजी नाम और साथ ही पूर्वपुरुष अब्राहम से है।[१७] हमारे जीवनी-लेखक ने १७७२ से १७८४, बारह वर्ष तक इस ग्रन्थ पर परिश्रम किया। उस समय वह बंगाल में, मुर्शिदाबाद में रहता था।

जिन अन्य रचनाओं का मैंने उल्लेख किया है उनके सम्बन्ध में मैं कुछ न कहूँगा; उनके रचयिताओं से सम्बन्धित लेखों में उनके बारे में कहा जायगा।

दुर्भाग्यवश ये तज़्‌किरे बहुत कम सन्तोषजनक रूप में लिखे गए हैं। उनमें प्रायः उल्लिखित कवियों के नाम और उनकी प्रतिभा के उदाहरणस्वरूप उनकी रचनाओं से कुछ पद्य उद्धृत किए हुए मिलते हैं। अत्यधिक विस्तृत सूचनाओं में, उनकी जन्म-तिथि प्रायः कभी नहीं मिलती, मृत्यु-तिथि और व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित विस्तार मुश्किल से मिलते हैं। उनकी रचनाओं के सम्बन्ध में भी लगभग कुछ नहीं कहा गया, इसी प्रकार उनके शीर्षकों के बारे में; हमारी समझ में यह कठिनाई से आता है कि इन कवियों ने अपने अस्थायी पद्यों का संग्रह 'दीवान' में किया है, और इस बात का संकेत केवल इसलिए प्राप्त होता है क्योंकि जिन कवियों ने एक या कई ऐसे संग्रह प्रकाशित किए हैं वे 'दीवान के रचयिता' कहे जाते हैं, जो शीर्षक उन्हें अन्य लेखकों से अलग करता है, और जो 'महा कवि' का समानार्थवाची प्रतीत होता है। इन तज़्‌किरों का ख़ास उपयोग यह है कि जिन कवियों की रचनाएँ यूरोप में अज्ञात हैं उनके उनमें अनेक अवतरण मिल जाते हैं। मूल जीवनी-लेखकों में से मीर एक ऐसे हैं जो उद्धृत पद्यों के सम्बन्ध में कभी-कभी अपना निर्णय देते हैं; वे दूसरों से ली गई बातों और कुछ हद तक अनुपयुक्त और त्रुटिपूर्ण प्रतीत होने वाली अभिव्यंजनाएँ चुनते हैं, और जिस कवि के अवतरण वे उद्धृत करते हैं उनमें किस तरह होना चाहिए था प्रायः यह बताते हैं। इसके अतिरिक्त, यदि विश्वास किया जाय तो ख़ास तौर से उर्दू कवियों से सम्बन्धित जीवनियों में उनका जीवनी ग्रन्थ सबसे अधिक प्राचीन है।[१८]

अन्य मूल तज़्‌किरों में से जिन तक मेरी पहुँच हो सकी है अनेक का उल्लेख मेरे प्रस्तुत ग्रन्थ में हुआ है, किन्तु जिनकी एक भी प्रति के यूरोप में होने के सम्बन्ध में मैं नहीं जानता। तो भी दो ऐसे हैं जिनका मैं यहाँ उल्लेख करना चाहता हूँ : वे दोनों सर गोर (Gore) के भाई, सर डब्ल्यू॰ आउज़्‌ले (Ouseley) के सुन्दर संग्रह में हैं। पहला अबुलहसन कृत तज़्‌किरा है; उसका इस संग्रह के मुद्रित सूचीपत्र में नं॰ ३७४ के अन्तर्गत, अकारादि क्रम से रखे गए, हिन्दस्तानी में लिखने वाले कवियों के एक इतिहास रूप में उल्लेख हुया है। नं॰ ३७१ के अन्तर्गत उल्लिखित, दूसरा 'तज़्‌किरा-इ शौअरा-इ जहाँगीर शाही' शीर्षक, अर्थात् सुलतान जहाँगीर के शासन-काल में रहने वाले कवियों का विवरण, है। लेखक ने तो इस बात का उल्लेख नहीं किया, किन्तु यह कहा जाता है कि उसमें उल्लिखित अनेक कवियों ने फ़ारसी में लिखा, लोगों का अनुमान है कि अन्य ने हिन्दुस्तानी में लिखा; और वह एक उर्दू का जीवनी-ग्रन्थ ही है। मैं ये दोनों तज़्‌किरे नहीं देख सका; किन्तु यदि, जैसी कि मुझे आशा है, दूसरी जिल्द छपने से पूर्व मुझे उनके सम्बन्ध में सूचना प्राप्त हो गई, तो निस्संदेह उनके द्वारा मुझे नवीन और अजीब बातें ज्ञात होंगी।

मौलिक जीवनियाँ जो मेरे ग्रन्थ का मूलाधार हैं सब अकारादिक्रम से रखीं गई हैं। मैंने यही पद्धति ग्रहण की है, यद्यपि शुरू में मेरा विचार काल-क्रम ग्रहण करने का था : और, मैं यह बात छिपाना नहीं चाहता कि, यह क्रम अधिक अच्छा रहता, या कम-से-कम जो शीर्षक मैंने अपने ग्रन्थ को दिया है उसके अधिक उपयुक्त होता; किन्तु मेरे पास अपूर्ण सूचनाएँ होने के कारण उसे ग्रहण करना कठिन ही था। वास्तव में, जब मैं उसके सम्बन्ध में कहना चाहता हूँ, मौलिक जीवनियाँ हमें यह नहीं बतातीं कि उल्लिखित कवियों ने किस काल में लिखा; और यद्यपि उनमें प्रायः काफ़ी अवतरण दिए गए हैं, तो भी उनसे शैली के सम्बन्ध में बहुत अधिक विचार नहीं किया ज़ा सकता, क्योंकि प्रतिलिपि करते समय उनमें ऐसे पाठ-सम्बन्धी परिवर्तन हो गए हैं जो उन्हें आधुनिक रूप प्रदान कर देते हैं, चाहे कभी-कभी वे प्राचीन ही हों। जहाँ तक हिन्दुई लेखकों से सम्बन्ध है, उनकी भी अधिकांश रचनाओं की निर्माण-तिथियाँ निश्चित नहीं हैं। यदि मैंने काल-क्रम वाली पद्धति ग्रहण की होती, तो अनेक विभाग स्थापित करने पड़ते : पहले में मैं उन लेखकों को रखता जिनका काल अच्छी तरह ज्ञात है; दूसरे में उनको जिनका काल सन्देहात्मक है; अंत में, तीसरे में, उन्हें जिनका काल अज्ञात है। यही विभाजन उन रचनाओं के लिए करना पड़ता जिन्हें इस ग्रन्थ के प्रधान अंश में स्थान नहीं मिल सका। अपना कार्य सरल बनाने और पाठक की सहूलियत दोनों ही दृष्टियों से मुझे यह पद्धति छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा।

तो मैंने उन लेखकों को अकारादिक्रम से रखा है जिनके नाम मैं संग्रहीत कर सका हूँ, और तत्पश्चात्, परिशिष्ट शीर्षक के अंतर्गत, उन रचनाओं की सूची रख दी है जिनका जीवनियों में कोई स्थान नहीं हो सकता था; और यद्यपि हिन्दुस्तानी साहित्य का यह विवरण स्वभावतः बहुत पूर्ण न हो, यह है भी ऐसा ही, किन्तु मैं यह विश्वास करने का साहस करता हूँ, कि इसमें रोचकता का अभाव नहीं है : क्योंकि अभी इस विषय पर कुछ लिखा नहीं गया, और यूरोपियनों में हिन्दुस्तानी के अध्ययन के प्रचारक, स्वयं गिलक्राइस्ट हिन्दी के किन्हीं तीस लेखकों का उल्लेख मुश्किल से कर सके थे। आज, मेरे पास सामग्री की कमी होने पर भी, मैंने केवल इस पहली जिल्द में सात सौ पचास लेखकों[१९] और नौ सौ से अधिक रचनाओं का उल्लेख किया है। प्रसंगवश, मैंने उर्दू-लेखकों की फ़ारसी रचनाओं का उल्लेख किया है और यह जानकर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि काफ़ी हिन्दुस्तानी कवियों ने फ़ारसी छन्द और इसी भाषा में ही ग्रन्थ लिखे हैं, जो इस बात की याद दिलाते हैं कि रसीन (Racine), ब्वालो (Boileau), और चौदहवें लुई के काल के बहुत से अत्यधिक प्रसिद्ध कवियों ने यदि अपनी कविताओं में लेटिन के कुछ अंश न रखे होते, तो वे अपने कार्यों के सम्बन्ध में एक ख़राब धारणा उत्पन्न करने वाले माने जाते।

हिन्दुई के लेखकों की परंपरा बारहवीं शताब्दी से प्रारंभ होकर हम लोगों के समय तक आती है।[२०] उत्तर के मुसलमान लेखकों की तेरहवीं शताब्दी के अंत या चौदहवीं शताब्दी के प्रारंभ में कुछ कविताएँ मिलती हैं। किन्तु इस साहित्य को प्रकाश में लाने वाले प्रसिद्ध कवियों के लिए अठारहवीं शताब्दी पर आना पड़ेगा : सौदा, मीर, हसन। दक्खिनी लेखकों की परंपरा सोलहवीं शताब्दी से प्रारंभ होती है, और अखण्ड रूप में हम लोगों के समय तक आती है। हिन्दी साहित्य की यह शाखा, जो अँगरेजों द्वारा नितान्त उपेक्षित रही है, मुझे विविधि प्रकार की रचनाओं की दृष्टि से अधिक समृद्ध प्रतीत होती है। मेरे ग्रन्थ में उसे एक उच्च स्थान प्राप्त हुआ है।

मेरे ग्रन्थ की दो जिल्दें हैं। पहली, जिसे मैं इस समय प्रकाशित कर रहा हूँ, में हैं : १. विवरण जो लगभग हिन्दी-लेखकों से सम्बन्धित है; २. परिशिष्ट में अज्ञात लेखकों और यूरोपियन लेखकों की रचनाओं से सम्बन्धित संक्षिप्त सूचनाएँ हैं[२१]; ३. अंत में, एक लेखकों की, और दूसरी रचनाओं की, दो अनुक्रमणिकाएँ हैं, जो इस प्रकार की रचना में अनिवार्य हैं। खोज-कार्य को और अधिक सरल बनाने के लिए, मैंने इसी एक जिल्द में जीवनी और ग्रन्थ-सम्बन्धी सभी अंश रख दिए हैं, जिससे यह पूर्ण हो गई है; इस जिल्द का और आकार न बढ़ाने तथा लेखों के अनुपात में समानता रखने के लिए, मैंने केवल अलभ्य और छोटे उद्धरण दिए हैं। अत्यधिक बड़े अंश और रूपरेखाएँ मैंने दूसरी जिल्द के लिए रख छोड़ी हैं। वह वास्तव में संग्रह भाग होगा। उसमें होंगे : १. प्रधान हिन्दी-रचनाओं के उद्धरण और रूपरेखाएँ; २. हिन्दुस्तानी पर प्रकाशित प्रारंभिक रचनाओं की सूची; ३. जीवनी और ग्रन्थों में परिवर्धन शीर्षक के अंतर्गत, मैं वे नई सूचनाएँ दूँगा जो मुझे पहली जिल्द की छपाई के दौरान और उसके बाद मिलेंगी।[२२]

मुझे एक कर्तव्य पूर्ण करना शेष रह जाता है, वह है ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड की पूर्वी-ग्रन्थ-अनुवाद समिति (Committee of Oriental Translations) के माननीय सदस्यों, और विशेषतः उनके आदरणीय सभापति, सर गोर आउज़्‌ले (Sir Gore Ouseley), को धन्यवाद देना है, जिन्होंने, एक बड़े दान द्वारा, एक ऐसे ग्रन्थ के प्रकाशन को प्रोत्साहन दिया जिसके लिए नियम अनुकूल नहीं थे। उन्होंने एक ऐसे ग्रन्थ के प्रकाशन के साधन की सुविधाएँ भी मुझे प्रदान की हैं जिसमें नए तथ्य प्रकट किए गए हैं जो सम्भवतः उनकी व्यापक सहायता के बिना अभी बहुत दिनों तक उपेक्षित पड़े रहते।

ऑरिएंटल ट्रान्सलेशन फ़ंड के नियमों की ३३ वीं (xxxiii) धारा के अनुसार मैंने जो हिज्जे ग्रहण किए हैं उनके बारे में बताना आवश्यक है। ये हिज्जे वही हैं जो 'Aventures de Kâmrûp' (कामरूप की साहसपूर्ण कथा) में रखे गए हैं, और जिन्हें मैंने, प्रस्तुत ग्रंथ की भाँति, पूर्वी-ग्रंथ-अनुवाद समिति के तत्वावधान में मुद्रित उक्त ग्रन्थ की भूमिका में विकसित किया है।

मैं यह आत्मश्लाघा करने का साहस करता हूँ कि इसमें त्रुटियों के मिलने पर भी[२३] साहित्यिक अध्ययनों का आदर करने वाले मेरे ग्रंथ को प्रसन्नता के साथ पढ़ेंगे; और इस सम्बन्ध में वली के साथ कहने की आज्ञा देंगे:

'मैं पारखियों के सामने अपनी रचना रखता हूँ, वैसे ही जैसे जौहरी से परखवाने के लिए रत्न।[२४]'

वही है मेरे हर्फ़ का क़द्रदाँ
कि जौहर न बूझे बजुज़ जौहरी

(फ़ारसी लिपि से)

 

  1. सेडन (Seddon) का ठीक ही कहना है ('ऐड्रेस ऑन दि लैंग्वेज ऐंड लिट्‌रेचर ऑव एशिया'— एशिया की भाषा और साहित्य पर भाषण) कि उर्दू और दक्खिनी का हिन्दुई के साथ वही संबंध हैं जो उइगूर (Ouīgour) का तुर्की और सैक्सन का अँगरेज़ी के साथ है।
  2. फ़ारसी और अरबी शब्दों के मिश्रण से रहित हिन्दी 'ठेठ' या 'खड़ी बोली' (शुद्ध भाषा) कही जाती है; ब्रज प्रदेश की ख़ास बोली, 'ब्रज भाखा' उन आधुनिक बोलियों में से है जो पुरानी हिन्दुई के सब से अधिक निकट हैं; अंत में भी 'पूर्वी भाखा', उसी बोली का एक दूसरा प्रकार जो दिल्ली के पूर्व में बोली जाती है।
  3. संक्षेप में, यह स्पष्ट है, कि हिन्दुस्तानी पुरानी हिन्दुस्तानी या हिन्दुई, और आधुनिक हिन्दुस्तानी में विभक्त है। हिन्दुई का काल वहाँ से प्रारंभ होता है जहाँ से संस्कृत का समाप्त होता है। आधुनिक का तीन बोलियों में उप-विभाजन है, दो उत्तर में, एक दक्षिण में। उत्तर की है उर्दू या मुसलमानी बोली, और ब्रज भाखा या हिन्दुओं की बोली (ठीक, या लगभग, पुरानी हिन्दुई)। दक्षिण की बोली या दक्खिनी का प्रयोग केवल मुसलमानों द्वारा होता है।
  4. हिन्दुस्तानी अरबी या भारतीय अक्षरों में लिखी जाती है। प्रथम या तो नस्तालीक या नस्ख़ी, या शिकस्ता है। नस्तालीक का सबसे अधिक प्रयोग होता है। नस्ख़ी का दक्षिण के कुछ प्रदेशों में प्रयोग होता है। शिकस्ता घसीट नस्तालीक अक्षर है। भारतीय अक्षर या तो देवनागरी या कैथी नागरी है ; नागरी के और भी थोड़े-बहुत विभिन्न रूप हैं। औरों के अतिरिक्त, कबीर की कविताओं का अक्षर कैथी नागरी है : कलकत्ते से कुछ पुस्तिकाएँ, छापने के लिए उसका व्यवहार किया गया है। पत्र और कुछ हस्तलिखित ग्रंथ घसीट नागरी अक्षरों में लिखे जाते हैं।
  5. जहाँ मैंने लेखकों के नाम और रचनाओं के शीर्षक मूल अक्षरों में दिए हैं, मैंने, अवसर के अनुकूल, अरबी या संस्कृत वर्णमाला का प्रयोग किया है।
  6. देखिए जो कुछ दिल्ली के अम्मन ने इसके संबंध में कहा है, मेरी 'रुदीमाँ' में उद्धृत, (प्रथम संस्करण का) पृ॰ ८०।
  7. सेडन, 'ऐड्‌रेस ऑन दि लैंग्वेज ऐंड लिट्‌रेचर ऑव एशिया', पृ॰ १२
  8. सात करोड़ से भी अधिक के लगभग भारतीय ऐसे हैं जिनकी मातृभाषा हिन्दुस्तानी है।
  9. इस लेखक तथा उसकी प्रसिद्ध कविता के संबंध में मैंने 'रूदीमाँ' द लॉग ऐंदुई' की भूमिका और अपने १८६८ के भाषण में जो कुछ कहा उसे देखिए, पृ॰ ४९ और ५०।
  10. 'मैकेन्‌जी कैटैलौग', पहली जिल्द, पृ॰ ५२ (lij)––१
  11. 'हर गुले रा रंगो बूए दोगरेस्त' (फ़ारसी लिपि से)। इस चरण का अन्वय अफ़सोस ने भी अपने 'आराइश-इ-महफ़िल' में किया है :

    हर एक गुल का है रंगो आलम जुदा
    नहीं लुत्फ़ से कोई ख़ाली ज़रा

    (फ़ारसी लिपि से)

  12. दे॰ 'आईन-इ-अकबरी' और मार्सडेन (Marsden) द्वारा 'न्यूमिस्मैटा ऑरिएंटालिआ' (Numismata Orientalia) शीर्षक रचना।
  13. उदाहरण के लिए, जैसा, मेरा विचार है, 'बैताल पचीसी' (तथा अन्य अनेक रचनाओं) का हाल है। सुरत पर लेख देखिए।
  14. विला ने 'तारीख़-इ-शेर शाही' के संबंध में जो कहा है वही अन्य सभी अनुवादों के संबंध में कहा जा सकता है : 'अपने तौर पर इसकी फ़ारसी चाहे जितनी पूर्ण हो, मैं भी अंत में इसे पूर्ण बना सका हूँ।'

    गर चे अपनी तौर पर थी फ़ारसी इसकी तमान
    लेक अच्छी तरह पाया इसने हुस्ने इनसिरान

    (फ़ारसी लिपि से)

    बंगाल की एशियाटिक सोसायटी के उत्साही मंत्री की स्नेहपूर्ण उदारता के कारण मुझे इस ग्रन्थ की हस्तलिखित प्रति प्राप्त हो सकी।

  15. ये वही विद्वान् हैं जिन्होंने डब्ल्यू॰ अर्सकिन (Erskine) द्वारा पूर्ण और शुद्ध किए गए और एडिनबरा से, १८२६ में प्रकाशित मुग़ल सुलतान बाबर के संस्मरणों का अनुवाद किया है, चौपेजा।
  16. मेरे पास उसकी दो प्रतियाँ है। सबसे अधिक प्राचीन, 'शाह-नामा' के संपादक, स्व॰ टर्नर मैकन (Turner Macan) की है; दूसरी मेरे आदरणीय मित्र श्री ट्रौयर (Troyer) के माध्यम द्वारा, भारत में, मेरे लिए उतारी गई थी। पहला, यद्यपि शिकस्ता में लिखा हुई है, बहुत सुंदर नस्तालीक में चित्रित दूसरी से अच्छी है; किन्तु दोनों में भद्दी ग़लतियाँ और वैसी ही भूलें पाई जाती हैं, विशेषतः दूसरी में।
  17. इस अंतिम संकेत को समझने के लिए, यह जानना ज़रूरी है कि, मुसलमानों के अनुसार, अग्नि-पूजा के संस्थापक, निमरूद (Nemrod) ने, विश्वासियों के पिता द्वारा इस तत्व की पूजा अस्वीकृत होने पर, अब्राहम को एक जलती हुई भट्ठी में फेंक दिया था, किन्तु यह भट्ठी फूलों की क्यारी में परिवर्तित हो गई।
  18. 'निकात उस्‌शौअरा' की भूमिका।
  19. मुझे यहाँ हिन्दुस्तानी रचनाओं के भारतीय संपादकों, और डॉ॰ गिलक्राइस्ट तथा अन्य यूरोपियनों द्वारा नियुक्त उनकी पुनर्निरीक्षण करने वालों के संबंध में कहना चाहिए था; किन्तु आगे अवसर आने पर उनके संबंध में कहना अच्छा रहेगा।
  20. संभवतः भारतीय नरेशों के पुस्तकालयों में प्राचीन काल की हिन्दी रचनाएँ है; किन्तु अभी तक यूरोपियनों को उनके बारे में ज्ञात नहीं है। लोकप्रिय गीतों से जहाँ तक संबंध है, वे तो निस्संदेह बहुत प्राचीन मिलते हैं; दूसरी जिल्द मैं मैं उनके संबंध में कहूँगा।
  21. जिन रचनाओं की ओर मैंने संकेत किया है उनके अतिरिक्त, अन्य अनेक हैं जो मुझे 'किताब' या 'पोथी' (पुस्तक); 'क़िस्सा', 'हिकायत' या 'नक्ल' (कथा); 'मसनवी', 'क़सीदा, 'रिसाला-मन्‌ज़्‌मा' (कविता) आदि अनिश्चित शीर्षकों के उल्लेख से, इधर-उधर मिली हैं––पूर्व की ख़राब परंपरा के अनुसार न पढ़े जाने वाले शीर्षकों तथा बिना शीर्षक की रचनाओं को छोड़ कर।
  22. कुछ शुद्धियों और अनेक नई बातों सहित, मुझे इस जिल्द के अंत में ही दे देनी चाहिए थी; किन्तु इसे बहुत बड़ी न बनाने के सवाल से मैं उन्हें दूसरी जिल्द में दूँगा।
  23. अन्य के अतिरिक्त, व्यक्तिवाचक नामों के संबंध में, पूरा ध्यान देने पर भी असावधानी से काफ़ी अनिश्चितता रह गई है। मैं पाठकों की विद्वत्ता पर छोड़ता हूँ कि वे उन्हें ठीक कर लेंगे।
  24. मेरे संस्करण का पृ॰ १२२