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हिन्दी-राष्ट्र या सूबा हिन्दुस्तान/सूबा हिन्दुस्तान

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४. सूबा हिन्दुस्तान
कांग्रेस द्वारा भारत को सूबों में विभक्त करने का सिद्धान्त

कांग्रेस महासभा ने भाषाओं की विभिन्नता के आधार पर भारत को प्रान्तों अथवा सूबों में विभक्त करने का यत्न किया है। एक भाषा बोलने वाले लोगों के एक शासन में होने से अनेक प्रकार की सुविधाएँ रहती हैं। इस प्रकार के स्वाभाविक विभाग प्रजा की शक्ति के विकास के लिए भी अत्यन्त हितकर होते हैं। भारत की अंग्रेज़ी सरकार का ध्यान इस ओर नहीं था। अब कुछ दिनों से लोगों को जाग्रति के कारण अंग्रेज़ी सरकार को भी इस ओर कुछ ध्यान देना पड़ रहा है। मद्रास प्रान्त में आन्ध्र लोग अलग होने का आन्दोलन कर रहे हैं। बिहार और उड़ीसा के अलग होने का प्रस्ताव भी उठ रहा है। इभर सिंध और कर्नाटक भी कुछ चेत रहे हैं। जो हो, महासभा ने भाषा के अनुसार सूबों के विभाग करने के सिद्धान्त को मान लिया है। महासभा के सूबे इसी सिद्धान्त को ध्यान में रख कर किये गये हैं, अतः ये विभाग भारत के वर्तमान प्रान्तों की अपेक्षा कहीं अधिक संतोषजनक मान्ने जाते हैं।

दक्षिण भारत के चार द्राविड़ सूबे—तामिल, आन्ध्र, केरल तथा कर्नाटक—पूर्ण रूप से स्वाभाविक हैं। वर्तमान मद्रास प्रान्त के साथ इनको मिलाने से इस नये सिद्धान्त के अनुसार विभाग करने के लाभ विदित होते हैं। इन नये विभागों से उन सूबों की प्रजा भी पूर्ण रूप से सन्तुष्ट है। आन्ध्र और उड़ीसा की सीमा पर कुछ आपस का झगड़ा था, लेकिन वह भी अब लिपट गया है। भारत के पूर्व के उड़ीसा, बंगाल तथा आसाम के सूबे भी ठीक हैं। दो एक ज़िलों के इधर उधर करने की आवश्यकता कदाचित् पड़े, और यह कभी भी हो सकता है। पश्चिम भारत के महाराष्ट्र, गुजरात, सिन्ध तथा पंजाब के सूबों के सम्बन्ध में भी कुछ विशेष परिवर्तन की आवश्यकता नहीं है। बम्बई नगर का सूबा उसकी विशेष स्थिति के कारण अलग माना जा सकता है, परन्तु मराठी मध्यप्रान्त तथा बरार के पृथक् सूबे रखना ठीक नहीं है। इन सूबों को भाषा मराठी है, अतः इनका महाराष्ट्र के साथ रहना स्वाभाविक है। इनके अलए सूबे रखने में कदाचित् वर्तमान प्रान्तीय विभागों का प्रभाव ही मुख्य कारण है।

हिन्दी-भाषा-भाषियों के संबंध में यह सिद्धान्त झूला दिया गया।

तो भी यहाँ तक के भारत के विभाग प्रायः सन्तोषजनक हैं। केवल थोड़े से मोटे मोटे हेर फेर करने की आवश्यकता होगी, जो बड़ी आसानी से किये जा सकेंगे। किन्तु भारत के शेष हिन्दी भाषा-भाषी मध्यभाग के सूबों के विभाग महासभा ने भी बड़ी अस्वाभाविक रीति से किये हैं। अब तक भाषा के सिद्धान्त को मानते हुए यहाँ आकर न मालूम उसे एक साथ क्यों भुला दिया गया। मुख्य कारण वर्तमान प्रान्तों का प्रभाव मालूम होता है। इसके अतिरिक्त एक अन्य विशेष कारण भी हैं। भारत के इस मध्य भाग को जनता बंगाल अथवा आन्ध्र के लोगों की तरह अपनी एकता को—जो कम से कम ठीक ठीक पृथक् सूबों के रूप में इकट्ठे होने में तो प्रकट होनी ही चाहिए—तनिक भी अनुभव नहीं करती। कहावत है, बिना रोये माता भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती, फिर शुष्कहृदय राजनीतिज्ञों से क्या आशा की जा सकती है? सम्भव है कि इन विभागों के करने वालों का, भारत के इस मध्य भाग के सम्बन्ध में अल्प ज्ञान भी इस गड़बड़ी का कारण हो। जो हो, फल यह हुआ है कि संयुक्त प्रान्त, हिन्दुस्तानी मध्य प्रान्त, बिहार, दिल्ली तथा अजमेर के सूबों की भाषा कांग्रेस के रजिस्टर में एक-हिंदुस्तानी-लिखी होने पर भी जो पांच सूबे अलग अलग रक्खे गये हैं और इनके विभाग भी बिना किसी स्वाभाविक नियम के किये गये हैं। भारत के इस हिंदुस्तानी भाषाभाषी मध्यभाग को स्वाभाविक रीति से सूबों में किस प्रकार विभक्त किया जा सकता है, जिससे यहाँ की जनता भी बंगाल, आन्ध्र, गुजरात तथा महाराष्ट्र आदि के लोगों की तरह अपनी स्वतन्त्र स्थिति को अनुभव करते हुये भावी संयुक्तभारत के बनाने में सहायक हो सके—इस समय इसी सम्बन्ध में कुछ विस्तार से विचार, करना है।  

प्रान्तीय विभाग के सम्बन्ध में हिन्दी-भाषा-भाषियों का आदर्श

यदि केवल भाषा ही सूबों के इन विभागों के करने की कसौटी हो, तो भारत का यह सम्पूर्ण मध्यभाग एक सूबा होना चाहिए क्योंकि इसकी भाषा एक-हिन्दुस्तानी-है। इस प्रस्ताव के विरुद्ध केवल एक बात कही जा सकती है और वह यह कि भारत का यह सूबा बहुत बड़ा हो जायगा—इसका प्रबन्ध करना दुस्तर होगा। किन्तु इस युक्ति को देकर, महासभा अथवा अन्य सूबों को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं हो सकता। यदि महासभा भाषा के अनुसार सूबों के विभागों के सिद्धान्त को मानती है—उसका ऐसा मानना ठीक भी है—और यदि ये सब हिन्दुस्तानी बोलनेवाले लोग एक सूबे में रहना चाहते हैं, तो कोई कारण नहीं कि शासन की कठिनाई का बहाना करके इन हिन्दुस्तानी बोलनेवाले लोगों को कई भागों में विभक्त कर दिया जाय। यह तो ठीक वैसी ही युक्ति होगी, जैसी बंगाल के दो टुकड़े करने के लिये भारत की अंग्रेज़ी सरकार देती थी। यदि किसी का परिवार बहुत बड़ा हो, परन्तु उसके सब लोग एक साथ रहना चाहते हों, तो दूसरे छोटे छोटे परिवारों का यह कह कर उस बड़े परिवार को ज़बर्दस्ती विभक्त करना, कि तुम्हें अपना प्रबन्ध करने में कठिनाई पड़ेगी इस लिये तुम भी हमारी तरह छोटे छोटे घर बना लो, कहाँ तक न्याय-सङ्गत होगा! इस संबंध में एक बात मुख्य है-उस बड़े परिवार के लोगों की एक में रहने की इच्छा तथा शक्ति। यह सच है कि भारत का यह मध्य का सूबा भारत के अन्य सूबों से क्षेत्रफल तथा जनसंख्या दोनों में सब से बड़ा होगा। कदाचित् संसार में इसकी टक्कर का कोई भी राष्ट्र न निकले, किन्तु किसी का बड़ा होना उसके भिन्न छिन्न किये जाने का कारण नहीं होना चाहिए। महासभा जब एक भाषा-भाषी होने के कारण ४½ करोड़ जनसंख्या का बंगाल का सूबा तथा साथ ही कुछ लाख प्राणियों का केरल का सूबा रख सकती है, तो उसे प्रायः १० करोड़ के इस सूबे के रखने में भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। वास्तव में यह हिन्दुस्तानी भाषा बोलनेवालों की इच्छा तथा शक्ति पर ही अवलम्बित है। इन दोनों के होने पर महासभा क्या, संसार को कोई भी शक्ति इन्हें अलग नहीं कर सकती।

अन्य छोटे छोटे सूबों को एक बात अवश्य खटकने वाली हो सकती है। उन्हें यह भय हो सकता है कि इतने विशाल सूबे के होने से इसके प्रतिनिधियों की संख्या महासभा में इतनी अधिक हो जावेगी कि यह अकेला ही जो चाहे सो करा सकेगा। यह युक्ति भी ठीक नहीं है। वर्तमान अवस्था में भी केरल, अजमेर तथा दिल्ली जैसे छोटे छोटे सूबों की स्थिति बंगाल, महाराष्ट्र अथवा पंजाब के आगे ठीक वैसी ही है, जैसी इस बड़े सूबे के हो जाने से आज कल के इन बड़े सूबों की हो सकती है। यह बात तो आपस के विश्वास पर छोड़नी पड़ेगी। यदि ऐसा ही भय है तो फिर भाषाओं के आधार पर स्वाभाविक प्रान्तिक विभाग करने का प्रश्न उठाना हो व्यर्थ है! एक एक या दो दो करोड़ की जनसंख्या के एक से सब सूबे बना देने चाहिए। यही इस भय को मिटाने का एक मात्र उपाय है। भारत को एक राष्ट्र मानने वाले लोगों को इस में कोई आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए। परन्तु बंगभंग के आन्दोलन की बीसियों नयी आवृत्तियों को देखने की इच्छा क्या अपनी महासभा को होगी?

सबसे पहिले इस सम्बन्ध में हम हिन्दी-भाषा-भाषियों को आपस में भली प्रकार विचार कर लेना चाहिए, तब इस प्रस्ताव को बाहर रखना उचित होगा। इस बड़े सूबे में वर्त्तमान निम्नलिखित प्रान्त सम्मिलित होंगे—संयुक्त प्रान्त, हिन्दुस्तानी मध्य प्रान्त, उड़ीसा को छोड़ कर शेष बिहार, दिल्ली, पंजाब में अम्बाले तक का सरहिन्द का भाग जिसकी भाषा हिन्दुस्तानी है, अजमेर, मध्य भारत के देशी राज्य तथा राजपूताना। इस अवस्था में इस बड़े सूबे का क्षेत्रफल प्रायः ४ लाख वर्ग मील होगा और जनसंख्या प्रायः १० करोड़ हो जावेगी। इस सूबे के शासन में कुछ विशेषता होगी। प्रायः आधा सूबा देशी राजाओं के शासन में होगा और शेष अंग्रेज़ी शासन में होगा; परन्तु इस कारण से कोई कठिनाई नहीं पड़नी चाहिए। जर्मन साम्राज्य में कई छोटे राज्य थे, किन्तु इस कारण वहाँ के शासन में कोई भारी बाधा कभी नहीं पड़ी। जिस प्रकार आज कल के प्रान्तों में कुछ देशी राज्य सम्मिलित हैं, उदाहरण के लिए संयुक्त प्रान्त में बनारस, रामपुर और गढ़वाल के राज्य, उसी प्रकार इस बड़े सूबे में मध्यभारत और राजपूताने के राज्य भी रह सकते हैं। महासभा की वर्तमान नीति देशीराज्यों के विषय में उदासीन रहने की है, अतः इस समय राजपूताना तथा मध्य भारत के राज्यों को छोड़ा जा सकता है, किन्तु यह सदा न हो सकेगा। एक भाषा बोलनेवाले लोग, चाहे वे इस समय अंग्रेज़ी शासन में हों या देशी राज्यों में, भविष्य में पृथक नहीं रह सकते। इसी कारण इस सम्बन्ध में विचार करने के लिए देशी राज्यों को भी सम्मिलित कर लिया है।

इतने विशाल सूबे के होने से उसको ठीक ठीक प्रदेशों में विभक्त करने का प्रश्न अत्यन्त महत्व का है। जब भाषाओं के आधार पर सूबों का संगठन किया गया है, तब बोलियों के स्वाभाविक विभागों को ध्यान में रखते हुए प्रदेशों की रचना करना अत्यन्त युक्तिसङ्गत प्रतीत होता है। 'भाषासर्वे' के अनुसार इस भूमि-भाग में निम्नलिखित सोलह मुख्य बोलियाँ बोली जाती हैं—खड़ीबोली, बांगडू, ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुन्देली, अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, मैथिली, मगही, मालवी, जयपुरी, मारवाड़ी, गढ़वाली और कमायूनी, अतः इस बड़े सूबे को इन सोलह प्रदेशों में बड़ी सुगमता से विभक्त किया जा सकता है। इस काम में कुछ अत्यन्त प्राचीन ऐतिहासिक स्मृति भी छिपी हुई है, जो इस प्रकार के विभाग को और भी सार्थक तथा मधुर बना देती है। इन वर्तमान बोलियों के भूमि-भागों और यहाँ के प्राचीन जनपदों में बड़ा भारी सादृश्य[] है। ऐसा मालूम पड़ता है कि प्रत्येक बोली का प्रदेश एक एक जनपद का प्रतिनिधि-रूप हो। बोलियोंके ये विभाग क्रम से निम्नलिखित जनपदों का स्मरण कराते हैं—कुरु, कुरुजांगल, शूरसेन, पञ्चाल, चेदि, कोसल, वत्स, महाकोसल, काशी, मिथिला, मगध, अवन्ति, वत्स्य और मरुदेश। गढ़वाल और कमायूँ में कोई प्राचीन प्रसिद्ध जनपद नहीं थे। बोलियों के आधार पर इस बड़े सूबे के प्रदेशों की रचना करने के लिए यह प्राचीन जनपदों के साथ सादृश्य क्या एक बड़े आकर्षण का कारण नहीं है?

सूबे के इन प्रदेशों को कई प्रान्तों के रूप में अलग अलग इकट्ठा किया जा सकता है और इन प्रान्तों के वर्तमान नाम रहने दिये जा सकते हैं। जैसे मैथिली और मगही बोलियों के प्रदेशों का एक प्रान्त बिहार नाम से रह सकता है। इसी प्रकार संयुक्त प्रान्त, मध्यप्रान्त तथा राजस्थान प्रान्त रह सकते हैं। सूबे के अन्दर इस तरह के प्रान्तों के रखने का प्रश्न शासन की सुविधा के लिए उठाया जा सकता है, किन्तु इस से भारी हानि यह हो सकती है कि इस प्रान्तिक भाव के बलिष्ठ हो जाने से सूबे की एकता में बाधा पड़ने का भय रहेगा। अमेरिका के संयुक्त राज्य की तरह प्राचीन जनपदों के नये रूप अर्थात् बोलियों के प्रदेशों और वर्तमान देशी राज्यों का एक सूबे के रूप में संगठन बड़ा सुन्दर हो सकता है। वर्तमान ज़िलों और प्रान्त के बीच में कमिश्नरियों की तरह इन प्रान्तें की रचना करना व्यर्थ है, कदाचित् हानिकर भी हो।

हिन्दी-भाषा-भाषियों को व्यवहारिक ढंग से सूबों में बांटना

सम्भव है इतना विशाल कार्य हाथ में लेने का साहस लोगों में न हो, अथवा इस सम्बन्ध में एकमत न हो। यदि भाई भाई अलग अलग घर करना चाहें, तो इसमें ज़बरदस्ती करना बेकार है। आपस में समझौते से बटवारा कर लेना लड़ कर जुदा होने से कहीं अच्छा है। यदि इस बड़े सूबे को यहाँ के लोगों की इच्छा के कारण कई सूबों में विभक्त करना ही पड़े, तो इसमें भी भाषा ही का आधार रखना उचित होगा। यह सदा ध्यान में रखना चाहिए कि इस सम्बन्ध में कांग्रेस का भी सिद्धान्त यही है। भाषासर्वे में दिये हुए भाषाओं के वैज्ञानिक पृथक्करण के अनुसार भारत के इस मध्य भाग की बोलियाँ तीन मुख्य भाषाओं में विभक्त की गयी हैं। भोजपुरी, मैथिली और मगही बोलियों को बिहारी भाषा का नाम दिया गया है। मालवी, जयपुरी तथा मारवाड़ी बोलियों को राजस्थानी भाषा के नाम से गिना है। शेष आठ बोलियों को हिन्दी भाषा माना है। ऊपर बतलाया जा चुका है कि हिन्दी के भी पूर्वी और पश्चिमी दो भाग किये गये हैं। पश्चिमी हिन्दी में बांगडू, खड़ीबोली, कन्नौजी, ब्रजभाषा और बुन्देली बोलियों, और पूर्वी में अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी बोलियों की गिनती की गई है।

भारत के मध्यभाग की भाषाओं के इस वैज्ञानिक विभाग के आधार पर बिहार और राजस्थान के दो पृथक् सूबे होने चाहिए। बिहार का पृथक् सूबा आजकल भारत-सरकार तथा महासभा दोनों ने मान रक्खा है। मुसलमान-काल में भी बिहार का सूबा प्रायः अलग रहा है। मौर्य तथा गुप्त साम्राज्य भी वास्तव में बिहार के लोगों के साम्राज्य थे। वैदिक धर्म के कलुषित तथा क्षीण हो जाने पर इसी भूमि से बुद्ध भगवान ने सनातन धर्म में प्रथम बार व्यापक सुधार करने का प्रयत्न आरम्भ किया था। अतः बिहार के सूबे के अलग करने में ऐतिहासिक क्रम भी समर्थक है। भाषाशास्त्र के सूक्ष्म भेदों को छोड़ कर शेष बातों में ग्रियर्सन महोदय ने भोजपुरी लोगों की गणना हिन्दी-भाषा-भाषी लोगों के साथ की है। इस समय भी भोजपुरी भूमिभाग संयुक्त-प्रान्त में है अतः इस भूमि-भाग के बिहार में जाने का प्रश्न तब तक उठाना उचित न होगा जब तक इस भूमि-भाग की जनता ही इसके लिये उत्सुक न हो। उड़ीसा को वर्तमान बिहार-सूबे से अवश्य अलग कर देना चाहिये। महासभा ने तो ऐसा मान ही रक्खा है।

राजस्थान के सूबे में प्रायः सम्पूर्ण वर्तमान राजपूताना आ जायगा। इसके अतिरिक्त मध्य-भारत का इन्दौर राज्य अर्थात् मालवा का प्रदेश भी इसमें मिलाना चाहिये क्योंकि यहाँ की मालवी बोली राजस्थानी भाषा में आती है। यहाँ के लोग भी राजस्थानियों से अधिक मेल खाते हैं। इस सूबे की विशेषता इसकी राजतन्त्र शासन-प्रणाली होगी। वर्तमान समय में भी राजपूताना अलग है। अजमेर को केन्द्र बना कर भविष्य में राजस्थान का एक पृथक् सूबा 'संयुक्त-भारत' में बहुत अच्छी तरह बन सकता है। निकट भूतकाल में भारत के क्षत्रियत्व की लाज हमारे इन्हीं राजपूत भाइयों ने रक्खी थी, अतः एक सूबे के रूप में इनका एक पृथक् संघ होना उचित ही है। सूबा राजस्थान मध्यकालीन हिन्दू-भारत की कुछ कुछ याद दिलाने का काम देगा।

सूबा हिन्दुस्तान

वैज्ञानिक पृथक्करण के अनुसार पूर्वी और पश्चिमी हिन्दी दो भिन्न भाषाएँ मानी गयी हैं। ग्रियर्सन साहब के मत में तो पूर्वीहिन्दी, पश्चिमीहिन्दी की अपेक्षा, पंजाबी के अधिक निकट है। इसी प्रकार पश्चिमीहिन्दी, पूर्वीहिन्दो की अपेक्षा, पजाबी के अधिक निकट है। इतनी विभिन्नता मानने पर भी सर्वे में अवधी, बघेली तथा छत्तीसगढ़ी बोली को पश्चिमी-बिहारी भाषा कहने के स्थान पर पूर्वी-हिन्दी-भाषा कहना ही उचित समझा गया, यह आश्चर्य है। इससे तो यही विदित होता है कि इन बोलियों में बिहारीपन व्याकरण के कुछ सूक्ष्म भेदों में भले ही हो, किन्तु वैसे अन्य सब बातों में ये पश्चिमी हिन्दी की बोलियों से ही मिलती हैं। बात भी ऐसी ही है। क्या आगरे में रहनेवाले आदमी के लिये तुलसीदास जी के रामचरितमानस की अपेक्षा ग्रन्थसाहब अधिक निकट हो सकता है, अथवा अयोध्या के लोगों को सूरदास और केशवदास के ललित ग्रन्थों की अपेक्षा विद्यापति ठाकुर की पदावली अधिक समझ में आवेगी? हिन्दीभाषा की इन पूर्वी और पश्चिमी बोलियों में इतनी अधिक समता है कि राष्ट्रीय दृष्टि से ये पृथक् नहीं मानी जा सकतीं। बंगाल की तरह हिन्दी-भाषा-भाषी लोगों के पूर्वी और पश्चिमी दो विभाग करना एक शरीर के दो टुकड़े करना होगा। अतः उचित यही है कि हिन्दी भाषा के अन्तर्गत गिनी जाने वाली खड़ीबोली बाँगडू , ब्रजभाषा, कन्नौजी, बुन्देली, अवधी, बाघेली, छत्तीसगढ़ी तथा भोजपुरी इन नौ बोलियों के प्रदेशों का एक सूबा बने। इस सूबे की भाषा हिन्दी या हिन्दुस्तानी है, अतः इसका नाम सूबा हिन्द या हिन्दुस्तान होना चाहिये। यहाँ के लोग हिन्दी या हिन्दुस्तानी कहलावेंगे। आगे हम इसके लिये सूबा हिन्दुस्तान नाम का प्रयोग करेंगे।

इस सूबा हिन्दुस्तान में वर्तमान निम्नलिखित प्रान्त होंगे :—संयुक्त प्रान्त, मध्यप्रान्त के चौदह हिन्दुस्तानी ज़िले, देहली का छोटा प्रान्त, पंजाब में यमुना और सतजल के बीच के अम्बाला, कर्नाल हांसी, हिसार और रोहतक के पाँच जिले जिनकी बोली हिन्दी है पंजाबी नहीं, इन्दौर केर छोड़कर मध्यभारत के शेष रीवा, पन्ना तथा ग्वालियर आदि देशी राज्य, राजपूताना के भरतपुर, धौलपुर, करौली और अलवर के राज्य जिनकी भाषा राजस्थानी नहीं है। चम्पारन, सारन और शाहाबाद के तीन भोजपुरी ज़िले भी, जो इस समय बिहार प्रान्त में हैं, इस बार आ जाने चाहिए। संपूर्ण भोजपुरी लोगों का एक ही सूबे में रहना उचित प्रतीत होता है। कमायूँ तथा गढ़वाल के लोग अपनी इच्छानुसार इस सूबा हिन्दुस्तान में रह सकते हैं। यह याद रखना चाहिये कि कमायूँ और गढ़वाल ने हिन्दी को ही अपनी साहित्यिक भाषा के रूप में अपना रक्खा है। इस समय भी वे संयुक्तप्रान्त के साथ हैं।

जो हो, वर्तमान हिन्दुस्तानी-मध्य-प्रान्त तथा आगरा और अवध के संयुक्त प्रान्तों का त्रिवेणी-संगम हिन्दुस्तानी लोगों के मोक्ष का एकमात्र उपाय है। सूबा हिन्दुस्तान बनाने के लिये इन तीनों का पूर्ण रूप से एक हो जाना नितान्त आवश्यक है। वास्तव में यह तीनों हैं भी एक। देहली तो अपनी है ही, इसके सिवाय यमुना पार सरस्वती नदी तक का सरहिन्द का भूमि-भाग भी अपना ही है। 'हिन्द' का 'सर' घड़ से अलग नहीं देखा जा सकता। पंजाब प्रान्त को यह भूमिभाग हमें देने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए क्योंकि यहाँ पंजाबी लोग अधिक संख्या में नहीं बसते। असली पंजाब तो सतलज तक है। इन्दौर को छोड़ कर मध्यभारत के शेष देशीराज्य अपने सूबे में पड़ेंगे। राजपूताना से भरतपुर आदि राज्यों को राजस्थान-संघ से अलग होने में कुछ आपत्ति हो सकती है। परन्तु इन गौण प्रश्नों पर अभी अधिक विस्तार से विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

यह सूबा हिन्दुस्तान प्राचीन काल के "मध्यदेश"[] नाम के प्रसिद्ध भूमि-भाग के प्रायः बिलकुल बराबर होगा।

इस सूबे का क्षेत्र-फल २ लाख वर्ग मील से कम तथा जनसंख्या प्रायः ५ करोड़ होगी। इस अवस्था में इस सूबे के बहुत बड़े होने का बहाना भी नहीं हो सकता है। शासन की सुविधा के लिए बोलियों के आधार पर इस सूबे को प्रदेशों में विभक्त करना तो आवश्यक तथा उचित ही होगा। साथ ही इन प्रदेशों को प्रान्तों में विभक्त करने का प्रश्न भी उठ सकता है। भोजपुरी भूमिभाग और अवध का एक पूर्वी प्रान्त बनाया जा सकता है। कन्नौजी, ब्रजभाषा, खड़ीबोली तथा बांगडू बोलियों के प्रदेशों का एक पश्चिमी प्रान्त बन सकता है। तथा यमुना के दक्षिण में बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड और छत्तीसगढ़, दक्षिण प्रान्त के नाम से एक जगह हो सकते हैं। किन्तु सूबा हिन्दुस्तान में इस प्रकार के प्रान्त बनाना अनावश्यक है इससे सूबे की एकता में बाधा पड़ने की सम्भावना हो सकती है।  

सूबा हिन्दुस्तान के टुकड़े करना आत्मघात करने के बराबर होगा

अंग्रेज़ी सरकार द्वारा केवल संयोगवश किये गये वर्तमान प्रान्तों के झूठे मोह में फँस कर एक तीसरा प्रस्ताव यह भी हो सकता है कि भावी सूबा हिन्दुस्तान के ये तीन प्रान्त क्यों न पृथक् पृथक् सूबे मान लिये जायँ। सम्भव है, आजकल बहुत से लोगों को यह प्रस्ताव रुचिकर हो। इस क्रम के अनुसार संयुक्तप्रान्त को तोड़कर उसके दो पृथक् सूबे बनाने होंगे। अवध और काशी का पूर्वी-प्रान्त -सूबा अवध या अन्य किसी नाम से प्रसिद्ध किया जा सकता है, तथा शेष आगरा प्रान्त और देहली तथा सरहिन्द को मिला कर बनाये हुये पश्चिमी प्रान्त को सूबा आगरा या देहली का नाम दिया जा सकता है। हिन्दुस्तानी मध्यप्रान्त, मध्यभारत के रीवाँ आदि के देशी राज्य, तथा यमुना के दक्षिण के संयुक्त प्रान्त के ज़िलों को मिलाकर एक तीसरा सूबा महाकोसल, मध्यप्रान्त, सूबा मध्यभारत, या किसी अन्य नाम से बनाया जा सकता है। अपने मूल हिन्दुस्तानी लोगों को इस प्रकार से सूबों में विभक्त करने में सबसे बड़ी बाधा तो यह होगी कि यह क्रम भाषा के आधार पर न होने के कारण अस्वाभाविक और काँग्रेस के सिद्धान्त के विरुद्ध होगा। दूसरे, इनमें कोई ऐसा ऐतिहासिक क्रम भी न होगा जिससे लोग अपने सूबों की प्राचीनता पर गर्व कर सकें और उसके कारण गौरव का अनुभव करें। तीसरे, एक ही भाषा-भाषी लोगों के विभक्त हो जाने से इनकी शक्ति का भारी अपव्यय तथा ह्रास होगा। व्यर्थ ही तीन शासन के स्वतन्त्रकेन्द्र, तीन प्रान्तीय कौंसिलें तथा तीन साहित्यसम्मेलन आदि बनाने होंगे। इस अवस्था में हम लोगों की शक्ति भारत के अन्य सूबों से बहुत कम हो जावेगी। अभी ही हम लोग बहुत पीछे हैं। इन सब के अतिरिक्त न इन सूबों के ठीक नाम हो सकेंगे और न लोगों के कुछ नाम पड़ सकेंगे। सूबे, भाषा तथा लोगों के नामों का सुन्दर एकीकरण जो बंगप्ल-बंगाली, गुजरातगुजराती तथा पंजाब-पंजाबी इत्यादि में मिलता है क्या आगराआगरी अथवा मध्यप्रान्त-मध्यप्रान्ती में मिल सकेगा? सूबा हिन्दुस्तान को इस तरह आगरा, अवध और मध्यभारत आदि नामों से अनेक पृथक् सूबों में विभक करने में हानि के सिवाय लाभ कुछ भी नहीं देख पड़ता। यत्न तो यह होना चाहिए कि बिहार, राजस्थान और हिन्दुस्तान्त तीनों का एक ही सूबा रहे। ऐसा न करके अपने ही को छिन्न-भिन्न कर डालना आत्मघात करने के बराबर होगा।

हिन्दी भाषा-भाषियों के सोलह प्रान्त

भारत के इस संपूर्ण मध्यभाग का एक और रीति से भी सूबों में विभाग हो सकता है। वह यह कि इसकी सोलह बोलियों के प्रदेश सोलह स्वतन्त्र सूबे हो जावें। बंगाल, महाराष्ट्र तथा पंजाब आदि सूबों की तरह इन सोलहों का भारत सरकार से सीधा सम्बन्ध रहे। सूबा हिन्दुस्तान के तीन पृथक् सूबे करने में जो हानियाँ ऊपर बतलायी गयी हैं, वे यहाँ और भी स्पष्ट रूप से लागू होंगी।
सवा करोड़ का अवध का सूबा या ३७ लाख का छत्तीसगढ़ का सूबा अलग हो सकता है, लेकिन साथ ही साढ़े चार करोड़ से अधिक सूबा बंगाल और प्रायः दो करोड़ के महाराष्ट्र को भी भूलना नहीं चाहिए। घर में जबर्दस्ती की दीवारें खड़ी करने से लाभ ही क्या? यद्यपि प्राचीन जनपदों के अनुसार शासन के स्वाभाविक विभाग यही होंगे, किन्तु साथ ही वर्तमान नवीन परिस्थिति तथा इस कारण से उत्पन्न अपने हानि-लाभ पर की दृष्टि रखनी चाहिए। फिर यह विभाग भाषा के अनुसार भी तो न होंगे। क्या जबलपुर और कानपुर के लोग भिन्न-भिन्न भाषाओं में अपना कार्य करेंगे? कदापि नहीं।

भारत के इस वृहत् मध्यभाग के इन चारों प्रकार के विभागों की रीति पर ध्यान देते हुए सब से उत्तम तो यही मालूम होता है कि इसके तीन पृथक् सूबे बिहार, हिन्दुस्तान तथा राजस्थान के नाम से रहें। इन तीनों सूबों की व्यवहार की भाषा एक हिन्दु-स्तानी होने के कारण, भारत के अन्य सूबों की अपेक्षा, इनका आपस में बहुत घनिष्ट सम्बन्ध रहेगा। एक प्रकार से यह आवश्यकता के कारण किये गए एक ही बड़े घर के तीन टुकड़े होंगे। इनमें बीच का, भारत का हृदय, सूबा हिन्दुस्तान होगा जहाँ की भाषा और लोग भारत तथा संसार में 'हिन्दुस्तानी' के नाम से प्रसिद्ध हो सकते हैं।

  1. इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन के लिए नागरी प्रचारिणी-पत्रिका, भाग ३, अंक ४ में "हिन्दुस्तान की वर्तमान बोलियां और उनका प्राचीन जनपदों से साद्दश्य" शीर्षक मेरा लेख देखिये।लेखक
  2. प्राचीन मध्यदेश के सम्बन्ध में विशेष रूप से जानने के लिए नागरी प्रचारिणी-पत्रिका भाग ३ अंक १ में "मध्य-देश का विकास" शीर्षक मेरा लेख देखिये।

    —लेखक