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हिन्दी भाषा की उत्पत्ति/१-पूर्ववर्ती काल

विकिस्रोत से
हिन्दी भाषा की उत्पत्ति
महावीर प्रसाद द्विवेदी

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ १ से – १७ तक

 
हिन्दी भाषा की उत्पत्ति
पहला अध्याय

पूर्ववर्ती काल

विषयारम्भ

हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का पता लगाने और उसका थोड़ा भी इतिहास लिखने में बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ हैं; क्योंकि इसके लिए पतेवार सामग्री कहीं नहीं मिलती। अधिकतर अनुमान ही के आधार पर इमारत खड़ी करनी पड़ती है, और यह सबका काम नहीं। इस विषय के विवेचन में पाश्चात्य पण्डितों ने बड़ा परिश्रम किया है। उनकी खोज की बदौलत अब इतनी सामग्री इकट्ठी हो गई है कि उसकी सहायता से हिन्दी की उत्पत्ति और विकास आदि का थोड़ा-बहुत पता लग सकता है। हिन्दी की माता कौन है? मातामही कौन है? प्रमातामही कौन है? कौन कब पैदा हुई? कौन कितने दिन तक रही? हिन्दी का कुटुम्ब कितना बड़ा है? उसकी इस समय हालत क्या है? इन सब बातों का पता लगाना-और फिर ऐतिहासिक पता, ऐसा वैसा नहीं—बहुत कठिन काम है। मैक्समूलर, काल्डवेल, बीम्स और हार्नली आदि विद्वानों ने इन विषयों पर बहुत कुछ लिखा है और बहुत-सी अज्ञात बातें जानी हैं, पर खोज, विचार और अध्ययन से भाषाशास्त्र-विषयक नित नई बातें मालूम होती जाती हैं। इससे पुराने सिद्धान्तों में परिवर्तन दरकार होता है! कोई-कोई सिद्धान्त तो बिलकुल ही असत्य साबित हो जाते हैं। अतएव भाषाशास्त्र की इमारत हमेशा ही गिरती रहती है और हमेशा ही उसकी मरम्मत हुआ करती है।

आजकल हिन्दी की तरफ़ लोगों का ध्यान पहले की अपेक्षा कुछ अधिक गया है। सारे हिन्दुस्तान में उसका प्रचार करने की चर्चा हो रही है। बंगाली, मदरासी, महाराष्ट्र, गुजराती सब लोग उसकी उपयुक्तता की तारीफ़ कर रहे हैं। ऐसे समय में इस बात के जानने की, हमारी समझ में, बड़ी ज़रूरत है कि हिन्दी किसे कहते हैं? हिन्दुस्तानी किसे कहते हैं? उर्दू किसे कहते हैं? इनकी उत्पत्ति कैसे और कहाँ से हुई और इनकी पूर्ववर्त्ती भाषाओं ने कितने रूपान्तरों के बाद इन्हें पैदा किया?

इन विषयों पर आज तक कितने ही लेख और छोटी-मोटी पुस्तकें निकल चुकी हैं। पर उनमें कही गई बहुतसी बातों के संशोधन की अब ज़रूरत है। इस देश की गवर्नमेंट जो यहाँ की भिन्न-भिन्न भाषाओं और बोलियों की परीक्षा कराकर उनका इतिहास आदि लिखा रही है उससे कितनी ही नई-नई बातें मालूम हुई हैं। यह काम प्रसिद्ध विद्वान डाक्टर ग्रियर्सन कर रहे हैं। १९०१ ईसवी में जो मर्दुमशुमारी हुई थी उसकी रिपोर्ट में एक अध्याय इस देश की भाषाओं के विषय में भी है। यह अध्याय इन्हीं डाक्टर ग्रियर्सन साहब का लिखा हुआ है। इसके लिखे और प्रकाशित किये जाने के बाद, भाषाओं की जाँच से सम्बन्ध रखनेवाली डाक्टर साहब ही की लिखी हुई कई किताबें निकली हैं। उनमें जो बातें हिन्दी के विषय में लिखी हैं वे डाक्टर साहब के लिखे हुए मर्दुमशुमारीवाले भाषा-विषयक प्रकरण से मिलती हैं। इससे मालूम होता है कि भाषाओं की जाँच से हिन्दी के विषय में जो बातें मालूम हुई हैं वे सब इस प्रकरण में आ गई हैं। इस निबन्ध के लिखने में डाक्टर ग्रियर्सन की इस पुस्तक से हमें बहुत सहायता मिली है। भाषाओं की जाँच से सम्बन्ध रखनेवाली सब किताबें जब निकल चुकेंगी तब डाक्टर साहब की भूमिका अलग पुस्तकाकार निकलेगी। सम्भव है उसमें कुछ नई बातें देखने को मिलें। पर तब तक ठहरने की हम विशेष ज़रूरत नहीं समझते; क्योंकि इस विषय के सिद्धान्त बड़े ही अस्थिर हैं—बड़े ही परिवर्तनशील हैं। जो सिद्धान्त आज दृढ़ समझा जाता है, कल किसी नई बात के मालूम होने पर, भ्रामक सिद्ध हो जाता है। इससे यदि वर्ष दो वर्ष ठहरने से कुछ नई बातें मालूम भी हो जायँ, तो कौन कह सकता है, आगे चलकर किसी दिन वे भी न भ्रामक सिद्ध हो जायँगी। अतएव, आगे की बातें आगे होती जायँगी। इस समय जो कुछ सामने है उसी के आधार पर हम इस विषय को थोड़े में लिखते हैं।

आदिम आर्य्यों का स्थान

हिन्दुस्तान में सब मिलाकर १४७ भाषायें या बोलियाँ बोली जाती हैं। उनमें से हिन्दी वह भाषा है जिसका सम्बन्ध एक ऐसी प्राचीन भाषा से है जिसे हमारे और यूरपवालों के पूर्वज किसी समय बोलते थे। अर्थात् एक समय ऐसा था जब दोनों के पूर्वज एक ही साथ, या पास-पास, रहते थे और एक ही भाषा बोलते थे। पर किस देश या किस प्रान्त में वे पास-पास रहते थे, यह बतलाना सहल नहीं है। इस विषय पर कितने ही विद्वानों ने कितने ही तर्क किये हैं। किसी ने हिन्दूकुश के आसपास बताया, किसी ने काकेशस के आसपास। किसी की राय हुई कि उत्तरी-पश्चिमी यूरप में ये लोग पास-पास रहते थे। किसी ने कहा नहीं, ये आरमीनियाँ में, या आक्सस नदी के किनारे, कहीं रहते थे। अब सबसे पिछला अन्दाज़ विद्वानों का यह है कि हमारे और यूरपवालों के आदि पुरखे दक्षिणी रूस के पहाड़ी प्रदेश में, जहाँ यूरप और एशिया की हद एक दूसरी से मिलती है वहाँ, रहते थे। वहाँ ये लोग पशु-पालन करते थे और चारे का जहाँ सुभीता होता था वहीं जाकर रहते थे। अपनी भेड़ें, बकरियाँ और गायें लिये ये घूमा करते थे। धीरे-धीरे कुछ लोग खेती भी करने लगे। और जब पास-पास रहने से गुज़ारा न हुआ तब उनमें से कुछ पश्चिम की ओर चल दिये, कुछ पूर्व की ओर। जो लोग पश्चिम की ओर गये उनसे ग्रीक, लैटिन, केल्टिक और ट्यू टानिक भाषा बोलनेवाली जातियों की उत्पत्ति हुई। जो पूर्व को गये उनसे भिन्न-भिन्न भाषायें बोलनेवाली जातियाँ उत्पन्न हुईं। उनमें से एक का नाम आर्य्य हुआ।

आर्य्य लोगों ने अपना आदिम स्थान कब छोड़ा, पता नहीं चलता। लेकिन छोड़ा ज़रूर, यह निःसन्देह है। बहुत करके उन्होंने कास्पियन सागर के उत्तर से प्रयाण किया और पूर्व की ओर बढ़ते गये। जब वे आक्सस और जकज़ारटिस नदियों के किनारे आये, तब वहाँ ठहर गये। वह देश उनको बहुत पसन्द आया। सम्भव है, वे खीवा के उस प्रान्त में ठहरे हों, जो औरों की अपेक्षा अधिक सरसब्ज़ है। एशिया में खीवा को ही आर्य्यों का सबसे पुराना निवास स्थान मानना चाहिए। वहाँ कुछ समय तक रहकर आर्य्य लोम पूर्वोक्त नदियों के किनारे-किनारे ख़ोक़न्द और बदख्शाँ तक आये। वहाँ इनके दो भाग हो गये। एक पश्चिम की तरफ़ मर्व और पूर्वी फ़ारस को गया, दूसरा हिन्दूकुश को लाँघकर काबुल की तराई में होता हुआ हिन्दुस्तान पहुँचा। जब तक इनके दो भाग नहीं हुए थे, ये लोग एक ही भाषा बोलते थे। पर दो भाग होने, अर्थात् एक के फ़ारिस और दूसरे के हिन्दुस्तान आने, से भाषा में भेद हो गया। फ़ारिसवालों की भाषा ईरानी हो गई और हिन्दुस्तानवालों की विशुद्ध "आर्य्य" १९०१ की मर्दुमशुमारी के अनुसार ईरानी और आर्य्य भाषा बोलनेवालों की संख्या इस प्रकार थी—

ईरानी १,३९७,७८६
आर्य्य २१९,७८०,६५०
कुल २२१,१७८,४३६

इस लेख में उन ईरानियों की गिनती है जो हिन्दुस्तान की हद में रहते हैं। फ़ारिस के ईरानियों से मतलब नहीं है। हिन्दुस्तान की कुल आबादी २९४,३६१,०५६ है। उसमें से ईरानी और आर्य्यों की भाषा बोलनेवालों की संख्या मालूम हो गई। बाक़ी जो लोग बचे वे यूरप और आफ़्रीक़ा आदि की, तथा कितनी ही अनार्य्य, भाषायें बोलते हैं। ईरानी और आर्य्य भाषाओं से यह मतलब नहीं कि इस नाम की कोई पृथक भाषायें हैं। नहीं, इनसे सिर्फ़ इतनाही मतलब है कि जो भाषाएँ २२ करोड़ आदमी इस समय हिन्दुस्तान में बोलते हैं वे पुरानी आर्य्य और ईरानी भाषाओं से उत्पन्न हुई हैं। ये दो शाखायें हैं। इन्हीं से और कितनी ही भाषाओं की उत्पत्ति हुई है।

ईरानी शाखा

ख़ोक़न्द और बदख़्शाँ तक सब आर्य्य साथ-साथ रहे। वहाँ से कुछ आर्य्य हिन्दुस्तान की तरफ़ आये और कुछ फ़ारिस की तरफ़ गये। इन फ़ारिस की तरफ़ जानेवालों में से कुछ लोग काश्मीर के उत्तर, पामीर, पहुँचे। ये लोग अब तक ईरानी भाषायें बोलते हैं। जो लोग फ़ारिस की तरफ़ गये थे वे धीरे-धीरे मर्व, फ़ारिस, अफ़ग़ानिस्तान और बिलोचिस्तान में फैल गये। वहाँ इनकी भाषा के दो भेद हो गये। परजिक और मीडिक।  

परजिक भाषा

परजिक भाषा का दूसरा नाम पुरानी फ़ारसी है। ईसा के पाँच-छः सौ वर्ष पहले ही से इसका प्रचार फ़ारिस में हो गया था। डारियस "प्रथम" के समय के शिलालेख सब इसी भाषा में हैं। बहुत काल तक इसका प्रचार फ़ारिस में रहा। यह फारिस के सब सूबों में बोली और लिखी जाती थी। ईसा के कोई ३०० वर्ष बाद इसका रूपान्तर पहलवी भाषा में हुआ। यह भाषा ईसा के ७०० वर्ष बाद तक रही। आज-कल फारिस में जो फ़ारसी बोली जाती है, पहलवी से उसका वही सम्बन्ध है जो सम्बन्ध भारत की प्राकृत भाषाओं का यहाँ की हिन्दी, बंगला, मराठी आदि वर्त्तमान भाषाओं से है। पहलवी के बाद फ़ारिस की भाषा को वह रूप मिला जो कोई हज़ार-ग्यारह सौ वर्ष से वहाँ अब तक प्रचलित है। यह वहाँ की वर्त्तमान फ़ारसी है। मुसल्मानी राज्य में इस भाषा का प्रचार हिन्दुस्तान में भी बहुत समय तक रहा। हिन्दू और मुसल्मान दोनों इसे सीखते थे और बहुधा बोलते भी थे। कुछ लोगों की जन्म-भाषा फ़ारसी ही थी। हिन्दुस्तान में अनेक ग्रन्थ भी इस भाषा में लिखे गये। विद्वान मुसल्मानों में अब भी फ़ारसी का बड़ा आदर है। पर रंगून, देहली, लखनऊ आदि में पुराने शाही खानदान के जो मुसल्मान बाकी हैं वही कभी-कभी फ़ारसी बोलते हैं। या अफ़ग़ानिस्तान और फारिस से आकर जो लोग यहाँ बस गये हैं, अथवा जो लोग इन देशों से व्यापार के लिए यहाँ आते हैं-विशेष करके घोड़ों के व्यापारी वे फ़ारसी बोलते हैं। फ़ारसी बोली और लोगों के मुँह से अब बहुत कम सुनने में आती है। यों तो फ़ारसी जाननेवाले उसे बोल लेते हैं, पर फ़ारसी उनकी बोली नहीं। इससे वे विशुद्ध फ़ारसी नहीं बोल सकते।

मुसल्मानी राज्य में जो लोग फ़ारिस और अफ़ग़ानिस्तान आदि देशों से आकर इस देश में बस गये थे और जिनकी सन्तति अबतक यहाँ वर्त्तमान है—वर्त्तमान है क्यों, बढ़ती जाती है—उनके पूर्वज ईरानियों के वंशज थे। अर्थात् वे लोग जो भाषा बोलते थे वह पुरानी ईरानी भाषा से उत्पन्न हुई थी। आर्य्यों ने अपनी जिस शाखा का साथ बदख़्शाँ के आस-पास कहीं छोड़ा था, उसी शाखा के वंशधर, सैकड़ों वर्ष बाद, हिन्दुस्तान में आकर फिर आर्य्यों के वंशजों के साथ रहने लगे। इस तरह का संयोग एक बार और भी बहुत पहले हो चुका था। डाक्टर ग्रियर्सन लिखते हैं कि सिकन्दर के समय में, और उसके बाद भी, सूर्य्योंपासक पुराने ईरानियों के वंशज, धर्म्मोंपदेश करने के लिए, इस देश में आये थे। इनमें से बहुत से शक (सीथियन। Scythians) लोग भी थे। इस बात को हुए कोई दो हज़ार वर्ष हुए। ये लोग इस देश में आकर धीरे-धीरे यहाँ के ब्राह्मणों में मिल गये और अब तक शाकद्वीपीय ब्राह्मण कहलाते हैं।

जब मुसल्मानों की प्रभुता फ़ारिस में बढ़ी, और वहाँ के अग्निपूजक ईरानियों पर अत्याचार होने लगे तब जरथुस्त्र के उपासक कुछ लोग इस देश में भग आये और हिन्दुस्तान के पश्चिम, गुजरात में, रहने लगे। आज-कल के पारसी उन्हीं की सन्तति हैं। पर यद्यपि भारत के शाकद्वीपीय ब्राह्मण और पारसी ईरानियों के वंशज हैं तथापि न तो वे ईरान ही की कोई भाषा बोलते हैं और न उनकी कोई शाखा ही। इनको इस देश में रहते बहुत दिन हो गये हैं। इसलिए इनकी बोली यहीं की बोली हो गई है।

मीडिक भाषा

मीडिक भाषा-समूह में बहुत सी भाषायें और बोलियाँ शामिल हैं। ईरान के कितने ही हिस्सों में यह भाषा बोली जाती थी। ये सब हिस्से, सूबे या प्रान्त पास ही पास न थे। कोई-कोई एक दूसरे से बहुत दूर थे। मीडिया पुराने ज़माने में फ़ारिस का वह हिस्सा कहलाता था जिसे इस समय पश्चिमी फ़ारिस कहते हैं। मीडिया ही की भाषा का नाम मीडिक है। पारसी लोगों का प्रसिद्ध धर्मग्रन्थ अवस्ता इसी पुरानी मीडिक भाषा में है। बहुत लोग अब तक यह समझते थे कि अवस्ता ग्रन्थ ज़ेन्द भाषा में है। उसका नाम ज़ेन्द-अवस्ता सुनकर यही भ्रम होता है। परन्तु यह भूल है। इस भूल के कारण एक योरोपीय पण्डित महोदय हैं। उन्होंने भ्रम से अवस्ता की रचना ज़ेन्द भाषा में बतला दी। और लोगों ने बिना निश्चय किये ही इस मत को मान लिया। पर अब यह बात अच्छी तरह साबित कर दी गई है कि अवस्ता की भाषा ज़ेन्द नहीं। भाषा उसकी पुरानी मीडिक है। अवस्ता का अनुवाद और उस पर भाष्य ईरान की पुरानी भाषा पहलवी में है। इस अनुवाद और भाष्य का नाम ज़ेन्द है, भाषा का नहीं। वेदों की तरह अवस्ता के भी सब अंश एक ही साथ निर्म्माण नहीं हुए। कोई पहले हुआ है, कोई पीछे। उसका सबसे पुराना भाग ईसा के कोई ६०० वर्ष पहले का मालूम होता है। जैसे परजिक भाषा रूपान्तर होते-होते, पहलवी भाषा हो गई, वैसे मीडिक भाषा को कालान्तर में कौन सा रूप प्राप्त हुआ, इसका पता नहीं चलता। परन्तु वर्त्तमान काल की कई भाषाओं में उसके चिह्न विद्यमान हैं। अर्थात् इस समय भी कितनी ही भाषायें और बोलियाँ विद्यमान हैं जो पुरानी मीडिक, या उसके रूपान्तर, से उत्पन्न हुई हैं। इसमें से गालचह, पश्तो, आरमुरी और बलोक मुख्य हैं। इनके सिवा कुर्दिश, मकरानी, मुञ्जानी आदि कितनी ही बोलियाँ भी इसी पुरानी मीडिक भाषा से सम्बन्ध रखती हैं। औरों की अपेक्षा पश्तो भाषा का साहित्य कुछ विशेष अच्छी दशा में है। उसमें बहुत सी उपयोगी और उत्तम पुस्तकें हैं। पर पश्तो बड़ी कर्णकटु भाषा है। कहावत मशहूर है कि अरबी विज्ञान है; तुर्की सुघरता है; फ़ारसी शक्कर है; हिन्दुस्तानी नमक है; और पश्तो गधे का रेंकना है।।

पुरानी संस्कृत

आदिम आर्यों की जो शाखा ईरान की तरफ़ गई उसका और उसकी भाषाओं का संक्षिप्त वर्णन हो चुका। अब उन आर्यों का हाल सुनिए जो ख़ोक़न्द और बदख़्शाँ का पहाड़ी देश छोड़कर दक्षिण की तरफ़ हिन्दुस्तान में आये। आदिम आर्य्यों की क्यों दो शाखायें हो गईं? क्यों एक शाखा एक तरफ़ गई, दूसरी, दूसरी तरफ़—इसका ठीक उत्तर नहीं दिया जा सकता। सम्भव है, धार्मिक मत-भेद के कारण यह बात हुई हो। या ईरानी आर्य्यों की राज्यप्रणाली हमारे पुराने आर्य्यों को पसन्द न आई हो। क्योंकि ईरानी लोग बहुत पुराने ज़माने से ही अपने में से एक आदमी को राजा बनाकर उसके अधीन रहने लगे थे। पर हिन्दुस्तान की तरफ़ आनेवाले अर्य्यों को यह बात पसन्द न थी। अथवा आर्य्यों के विभक्त होने का इन दो में से एक भी कारण न हो। सम्भव है वे यों ही दक्षिण की तरफ़ आने को बढ़ते गये हों। क्योंकि जो जातियाँ अपने पशु-समूह को साथ लिये घूमा करती हैं वे स्थिर तो रहती नहीं। हमेशा ही स्थान-परिवर्तन किया करती हैं। अतएव सम्भव है आर्य्य लोग अपनी तत्कालीन स्थिति के अनुसार हिन्दुस्तान की तरफ़ यों ही चले आये हों। चाहे जिस कारण से हो, आये वे लोग इस तरफ़ ज़रूर और आकर क़न्धार के आस-पास रहने लगे। वहाँ से वे काबुल की तराई में होते हुए पंजाब पहुँचे। पंजाब में आकर उनकी एक जाति बनी। बदख़्शाँ के पास वे लोग जो भाषा बोलते थे उसमें और उनकी तब की भाषा में अन्तर हो गया। पंजाब में आ कर बसने तक सैकड़ों वर्ष लगे होंगे। फिर भला क्यों न अन्तर हो जाय? धीरे-धीरे उनकी भाषा को वह रूप प्राप्त हुआ जिसे हम पुरानी संस्कृत कह सकते हैं। यह भाषा उस समय पंजाब और पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान में बोली जाती थी।  

आसुरी भाषा

आर्य्यों के पंजाब आने तक उनकी, और ईरानी शाखा के आर्य्यों की, भाषा परस्पर बहुत कुछ मिलती थी। पुरानी संस्कृत और मीडिक भाषा में परस्पर इतना सादृश्य है जिसे देख कर आश्चर्य होता है। जो लोग मीडिक भाषा बोलते थे उन्हीं का नाम असुर (अहुर) है। जब वे असुर हुए तब उनकी भाषा ज़रूर ही आसुरी हुई। वेदों और उनके बाद के संस्कृत-साहित्य को देखने से मालूम होता है कि देवोपासक आर्य्य सुरापान करते थे और असुरोपासक सुरापान के विरोधी थे। प्रमाण में वाल्मीकीय रामायण के बालकांड का ४५ वाँ सर्ग देखिए। जान पड़ता है, सुरापान न करने ही से ईरान की तरफ़ जानेवाले आर्य्यों से हमारे पूर्वज आर्य्य धृणा करने लगे थे। उनसे जुदा होने का भी शायद यही मुख्य कारण हो। पारसियों की अवस्ता में असुर उपास्य माने गये और सुर अर्थात् देवता घृणास्पद।

ऋग्वेद के बहुत पुराने अंशों में असुर और सुर (देव) दोनों पूज्य माने गये हैं। पर बाद के अंशों में कहीं-कहीं असुरों से घृणा की गई है। वेदों के उत्तर काल के साहित्य में तो असुर सर्वत्र ही हेय और निन्द्य माने गये हैं।

"असु" शब्द का अर्थ है "प्राण"। जो सप्राण या बलवान हो वही असुर है। बाबू महेशचन्द्र घोष "प्रवासी" में लिखते हैं कि 'असुर' शब्द ऋग्वेद में कोई १०० दफ़े आया है। उसमें से केवल ११ स्थल ऐसे हैं जहाँ इस शब्द का अर्थ देवशत्रु है। अन्यत्र सब कहीं सविता, पूषा, मित्र, वरुण, अग्नि, सोम और कहीं-कहीं श्रेष्ठ मनुष्यों के लिए भी "असुर" शब्द का प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के पहले मंडल का ३५ वाँ, दूसरे का २७ वाँ, सातवें का दूसरा और दसवें का १२४ वाँ सूक्त देखिए। इससे स्पष्ट है कि बहुत पुराने ज़माने में असुर शब्द का अर्थ बुरा नहीं था। और चूँकि अवस्ता में असुर (अहुर) की उपासना है, और वह पारसियों का पूज्य ग्रन्थ है, अतएव हमारे पारसी-बन्धु असुरोपासक हुए। याद रहे ये लोग भी उन्हीं आर्य्यों के वंशज हैं जिनके वंशज पंजाब में आकर बसे थे और जिनको हम लोग अपने पूज्य पूर्वज समझते हैं।

वैदिक देवताओं और याज्ञिक शब्दों की तुलना अवस्ता से करने पर यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि वेद और अवस्ता की भाषा बोलनेवालों के पूर्वज किसी समय एक ही भाषा बोलते थे। प्रमाण:—

वैदिक शब्द
मित्र
अर्य्य मन्
भग
वायु
दानव
गाया
मन्त्र

अवस्ता के शब्द
मिथ्र
ऐर्य्य मन्
वघ
वयु
दानु
गाथा
मन्थ्र

होता
आहुति

जओता
आजुइति

संस्कृत और अवस्ता की भाषा में इतना सादृश्य है कि दोनों का मिलान करने से इस बात में ज़रा भी सन्देह की जगह नहीं रह जाती कि किसी समय ये दोनों भाषायें एक ही थीं। शब्द, धातु, कृत, तद्धित, अव्यय इत्यादि सभी विषयों में विलक्षण सादृश्य है।

उदाहरण

संस्कृत
नरं
रथं
देव
गो
कर्ण
गव्य
शत
पशु
दात्र
पुत्रात्
दातरि
नः
मे
मम

अवस्ता की भाषा
नरेम्
रथेम्
दएव
गओ
करेन
गाव्य
सत
पसु
दाथ
पुथ्रात्
दातरि
नो
में
मम

स्वम्
सा
अस्ति
असि
अस्मि
इह
कुत्र

त्वम्
हा
अस्ति
अहि
अहमि
इध
कुथ्र

कितने ही वैदिक छन्द तक अवस्ता में तद्वत् पाये जाते हैं। इन उदाहरणों से साफ़ ज़ाहिर है कि वैदिक आर्य्यों के पूर्वज किसी समय वही भाषा बोलते थे जो कि ईरानी आर्य्यों के पूर्वज बोलते थे। अन्यथा दोनों की भाषाओं में इतना सादृश्य कभी न होता। भाषा-सादृश्य ही नहीं, किन्तु अवस्ता को ध्यानपूर्वक देखने से और भी कितनी ही बातों में विलक्षण सादृश्य देख पड़ता है। अतएव इस समय चाहे कोई जितना नाक-भौंह सिकोड़े, अवस्ता और वेद पुकारकर कह रहे हैं कि ईरानी और भारतवर्षीय आर्य्यों के पूर्वज किसी समय एक ही थे।

विशुद्ध संस्कृत का उत्पत्ति-स्थान

इस विवेचन से मालूम हुआ कि आर्य्यों के पंजाब में आकर बसने तक, अर्थात् उनकी भाषा को "पुरानी संस्कृत" का रूप प्राप्त होने तक, उनकी और ईरानवालों की मीडिक भाषा में, परस्पर बहुत कुछ समता थी। पुरानी संस्कृत कोई विशेष व्यापक भाषा न थी। उसके कितने ही भेद थे। उसकी कई शाखायें थीं। भारतवर्ष की वर्त्तमान आर्य्य-भाषायें उन्हीं में से, एक न एक से, निकली हैं। विशुद्ध संस्कृत भी इन्हीं भाषाओं के किसी न किसी रूप से परिष्कृत हुई है।

असंस्कृत आर्य्य-भाषायें।

चित्राल और गिलगिट आदि में कुछ ऐसी भाषायें बोली जाती हैं जो आर्य्यों ही की भाषाओं से उत्पन्न हुई हैं। पर वे संस्कृत से सम्बन्ध नहीं रखतीं। संस्कृत से उनका कोई सम्पर्क नहीं मालूम होता। जो लोग इन भाषाओं को बोलते हैं वे पञ्जाब में आकर बसे हुए आर्य्यों की सन्तति नहीं मालूम होते। आर्य्य लोग, दक्षिण की तरफ़ पञ्जाब में आकर, फिर उत्तर की ओर काफ़िरिस्तान, गिलगिट, चित्राल और काश्मीर की उत्तरी तराइयों में नहीं गये। बहुत सम्भव है कि आर्य्यों का जो समूह अपने आदिम स्थान से चलकर दक्षिण की तरफ़ आया था, उसका कुछ अंश अलग होकर, आक्सस नदी के किनारे-किनारे पामीर पहुँचा हो और वहाँ से गिलगिट और चित्राल आदि में बस गया हो। खोवार, बशगली, कलाशा, पशाई, लग़मानी आदि भाषायें या बोलियाँ जो काश्मीर के उत्तरी प्रदेशों में बोली जाती हैं, उनका संस्कृत से कुछ भी लगाव नहीं है। इनमें कुछ साहित्य भी नहीं है। और न इनके लिखने की कोई लिपि ही अलग है। जहाँ तक खोज की गई है उससे यही मालूम होता है कि ये भाषायें संस्कृत से उत्पन्न नहीं हुई। यहाँ संस्कृत से मतलब उस पुरानी संस्कृत से है जिसे पञ्जाब में रहनेवाले आर्य्य बोलते थे।

लग़मानी आदि असंस्कृत आर्य्य-भाषा बोलनेवालों की संख्या इस देश में बहुत ही कम है। १९०१ ईसवी में वह सिर्फ़ ५४, ४२५ थी।

इस तरह आर्य्य-भाषाओं के दो भेद हुए। एक असंस्कृत आर्य्य-भाषायें; दूसरी संस्कृतोत्पन्न आर्य्य-भाषायें। ऊपर एक जगह आर्य्य भाषायें बोलनेवालों की संख्या जो दी गई है उसमें असंस्कृत आर्य-भाषायें बोलनेवालों की संख्या शामिल है। उसे निकाल डालने से संस्कृतोत्पन्न आर्य्य-भाषायें बोलनेवालों की संख्या २१९, ७२६, २२५ रह जाती है।

कुछ दिन हुए लन्दन की रायल एशियाटिक सोसायटी ने एक पुस्तक प्रकाशित की है। उसमें उत्तर-पश्चिमी भारत की पिशाच-भाषाओं का वर्णन है। उसमें लिखा है कि असंस्कृत आर्य्य-भाषायें पुरानी पैशाची प्राकृत से निकली हैं। यहाँ उन्हीं पैशाची प्राकृतों से मतलब है जिनका वर्णन वररुचि ने किया है।