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हिन्दी भाषा की उत्पत्ति/६-उपसंहार

विकिस्रोत से
हिन्दी भाषा की उत्पत्ति
महावीर प्रसाद द्विवेदी
उपसंहार

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ ५६ से – – तक

 

 

छठा अध्याय
उपसंहार

आज तक कुछ लोगों का ख़याल था कि हिन्दी की जननी संस्कृत है। यह बात भारत की भाषाओं की खोज से ग़लत साबित हो गई। जो उद्गमस्थान परिमार्जित संस्कृत का है, हिन्दी जिन भाषाओं से निकली है उनका भी वही है। इस बात को सुनकर बहुतों को आश्चर्य होगा। सम्भव है उन्हें यह बात ठीक न जँचे, पर जब तक इसके ख़िलाफ़ कोई सबूत न दिये जायँ, तब तक इस सिद्धान्त को मानना ही पड़ेगा।

बिहारी भाषा

भाषाओं की जाँच से एक और भी नई बात मालूम हुई है। वह यह है कि बिहारी भाषा यद्यपि हिन्दी से बहुत कुछ मिलती-जुलती है तथापि वह उसकी शाखा नहीं। वह बँगला से अधिक सम्बन्ध रखती है, हिन्दी से कम। इसी से बिहारियों की गिनती हिन्दी बोलनेवालों में नहीं की गई। उसे एक निराली भाषा मानना पड़ा है। वह पूर्वी उपशाखा के अन्तर्गत है और बँगला, उड़िया और आसामी की बहन है। पूर्वी हिन्दी और बिहारी की डाँड़ा-मेड़ी है, पर पूर्वी हिन्दी की तरह वह अर्द्ध-मागध अपभ्रंश से नहीं निकली। वह पुराने मागध अपभ्रंश से उत्पन्न हुई है। बँगला देश के वासी 'स' को 'श' उच्चारण करते हैं। बिहारियों को भी ऐसा ही उच्चारण करना चाहिए था; क्योंकि उनकी भाषा का उत्पत्ति-स्थान वही है जो बंगालियों की भाषा का है। पर बिहारी ऐसा नहीं करते। इससे उनकी भाषा की उत्पत्ति के विषय में सन्देह नहीं करना चाहिए। पूर्वी हिन्दी बोलनेवालों से बिहारियों का अधिक सम्पर्क रहा है और अब भी है। बिहारियों की भाषा यद्यपि बँगला की बहन है तथापि बँगला की अपेक्षा संयुक्त प्रान्त से हो उनका हेल-मेल अधिक रहा है। इसी से उच्चारण-सम्बन्धी बंगालियों की 'श' वाली विशेषता बिहारियों की बोली से धीरे-धीरे जाती रही है। यद्यपि बिहारी 'स' को 'श' नहीं उच्चारण करते, तथापि 'स' को 'श' वे लिखते अब तक हैं। अब तक उनकी यह आदत नहीं छूटी।

बिहारी भाषा के अन्तर्गत पाँच बोलियाँ हैं। उनके नाम और बोलनेवालों की संख्या नीचे दी जाती है :—

मैथिली १०, ३८७, ८९८
मगही ६, ५८४, ४९७
भुजपुरी १७, ३६७, ०७८
पूर्वी २३६, २५९
अज्ञातनाम ४, ११२

३४, ५७९, ८४४

इस भाषा में विद्यापति ठाकुर बहुत प्रसिद्ध कवि हुए। और भी कितने ही कवि हुए हैं जिन्होंने नाटक और काव्यग्रन्थों की रचना की है।

बिहारियों की प्रधान लिपि कैथी है।  

पूर्वी हिन्दी

अर्द्धमागधी प्राकृत के अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी निकली है। जैन लोगों के प्रसिद्ध तीर्थङ्कर महावीर ने इस अर्द्धमागधी में अपने अनुगामियों को उपदेश दिया था। इसी से जैन लोग इस भाषा को बहुत पवित्र मानते हैं। उनके बहुत से ग्रन्थ इसी भाषा में हैं। तुलसीदास ने अपनी रामायण इस पूर्वी हिन्दी में लिखी है। इसके तीन भेद हैं। अथवा यों कहिए कि पूर्वी हिन्दी में तीन बोलियाँ शामिल हैं। अवधी, बघेली और छत्तीसगढ़ी। इनमें से अवधी भाषा में बहुत कुछ लिखा गया है। मलिक महम्मद जायसी और तुलसीदास इस भाषा के सबसे अधिक प्रसिद्ध कवि हुए। जिसे ब्रज-भाषा कहते हैं उसका मुक़ाबला, कविता की अगर और किसी भाषा ने किया है तो अवधी ही ने किया है। रीवाँ दरबार के कुछ कवियों ने बघेली भाषा में भी पुस्तकें लिखी हैं; पर अवधी भाषा के पुस्तक-समूह के सामने वे दाल में नमक के बराबर भी नहीं हैं। छत्तीसगढ़ी में तो साहित्य का प्रायः अभाव ही समझना चाहिए।

पश्चिमी हिन्दी

पूर्वी हिन्दी तो मध्यवर्ती शाखा से निकली है अर्थात् बाहरी और भीतरी दोनों शाखाओं की भाषाओं के मेल से बनी है; पश्चिमी हिन्दी की बात जुदा है। वह भीतरी शाखा से सम्बन्ध रखती है और राजस्थानी, गुजराती और पंजाबी की बहन है। इस भाषा के कई भेद हैं। उनमें से हिन्दुस्तानी, ब्रजभाषा, क़न्नौजी, बुँदेली, बाँगरू और दक्षिणी मुख्य हैं। इनके बोलने-वालों की संख्या इस प्रकार है।

हिन्दुस्तानी (ख़ास)
और तरह की हिन्दुस्तानी जिसमें
फुटकर भाषायें शामिल हैं
व्रजभाषा
क़न्नौजी
बुँदेल
बाँगरू
दक्षिण

...७, ०७२, ७४५

...५, ९२१, ३८४
...८, ३८०, ७२४
...५, ०८२, ००६
...५, ४६०, २८०
...२, ५०५, १५८
...६, २९२, ६२८
———————
कुल...४०, ७१४, ९२५

याद रखिए यह वर्गीकरण डाक्टर ग्रियर्सन का किया हुआ है। इसमें कहीं उर्दू का नाम नहीं आया। हिन्दी के जो दो बड़े-बड़े विभाग किये गये हैं उनमें से एक में भी उर्दू अलग भाषा या बोली नहीं मानी गई। जिसको लोग उर्दू कहते हैं उसके बोलनेवालों की संख्या हिन्दुस्तानी बोलनेवालों में शामिल है। इस भाषा के विषय में कुछ विशेष बातें लिखनी हैं। इससे उसे आगे के लिए रख छोड़ते हैं।

व्रज-भाषा

गंगा-यमुना के बीच के मध्यवर्ती प्रान्त में, और उसके दक्षिण, देहली से इटावे तक, ब्रज-भाषा बोली जाती है। गुड़गाँवा और भरतपुर, करोली और ग्वालियर की रियासतों में भी व्रज-भाषा के बोलनेवाले हैं। पुराने ज़माने में शूरसेन देश के एक भाग का नाम था व्रज। उसी के नामानुसार व्रज-भाषा का नाम हुआ है। इस भाषा के कवियों में सूरदास और बिहारी सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए। अँगरेज़-विद्वानों की, विशेष करके ग्रियर्सन साहब की, राय में सूरदास और तुलसीदास का परस्पर मुक़ाबला ही नहीं हो सकता; क्योंकि उनकी राय में तुलसीदास केवल कवि ही न थे, समाज-संशोधक भी थे। मनुष्य के मानसिक विकारों का जैसा अच्छा चित्र तुलसीदास ने अपनी कविता में खींचा है वैसा और किसी से नहीं खींचा गया।

क़न्नौजी

क़न्नौजी, व्रज-भाषा से बहुत कुछ मिलती-जुलती है। इटावा से इलाहाबाद के पास तक, अन्तर्वेद में, इसका प्रचार है। अवध के हरदोई और उन्नाव ज़िलों में भी यही भाषा बोली जाती है। हरदोई में ज्यादह उन्नाव में कम। इस भाषा में कुछ भी साहित्य नहीं है। कोई १०० वर्ष हुए श्रीरामपुर के पादरियों ने बाइबल का एक अनुवाद इस प्रान्तिक भाषा में प्रकाशित किया था। उसे देखने से मालूम होता है कि तब की और अब की भाषा में फ़र्क़ हो गया है। कितने ही शब्द जो पहले बोले जाते थे अब नहीं बोले जाते।

बुँदेली

बुँदेली बुँदेलखण्ड की बोली है। झाँसी, जालौन, हमीरपुर और ग्वालियर राज्य के पूर्वी प्रान्त में यह बोली जाती है। मध्यप्रदेश के दमोह, सागर, सिउनी, नरसिंहपुर ज़िलों की भी बोली बुँदेली ही है। छिंदवाड़ा और हुशङ्गाबाद तक के कुछ हिस्सों में यह बोली जाती है। बाइबल के एक-आध अनुवाद के सिवा इसमें भी कोई साहित्य नहीं है। ब्रज भाषा, क़न्नौजी और बुँदेली आपस में एक दूसरी से बहुत कुछ मिलती-जुलती हैं।

बाँगरू

हिसार, झींद, रोहतक, करनाल आदि ज़िलों की भाषा बाँगरू है। इन प्रान्तों की बोलियों के हरियानी और जाटु आदि भी नाम हैं, पर बाँगरू नाम अधिक सयुक्तिक और अधिक व्यापक है; क्योंकि बाँगर में, अर्थात् पंजाब के दक्षिण-पूर्व जो ऊँचा और खुश्क देश है उसमें, यह बोली जाती है। देहली के आस-पास की भी यही भाषा है। पर करनाल के आगे यह नहीं बोली जाती। वहाँ से पंजाबी शुरू होती है।

दक्षिणी

दक्षिण के मुसल्मान जो हिन्दी बोलते हैं उसका नाम दक्षिणी हिन्दी रक्खा गया है। इस हिन्दी के बोलनेवाले बम्बई, बरोदा, बरार, मध्यप्रदेश, कोचीन, कुर्ग, हैदराबाद, मदरास, माइसोर और ट्रावनकोर तक में पाये जाते हैं। ये लोग अपनी भाषा लिखते यद्यपि फ़ारसी अक्षरों में हैं, तथापि फ़ारसी शब्दों की भरमार नहीं करते। ये लोग मुझे या मुझको की जगह "मेरे को" बोलते हैं और कभी-कभी "में खाना खाया" की तरह के "ने" विहीन वाक्य प्रयोग करते हैं। दक्षिणी हिन्दी बोलनेवालों की संख्या थोड़ी नहीं है। कोई ६३ लाख है। सुदूरवर्ती माइसोर, कुर्ग, मदरास, और ट्रावनकोर तक में इस हिन्दी के बोलनेवाले हैं, और लाखों हैं।

हिन्दुस्तानी

हिन्दुस्तानी के दो भेद हैं। एक तो वह जो पश्चिमी हिन्दी की शाखा है, दूसरी वह जो साहित्य में काम आती है। पहली गङ्गा-यमुना के बीच का जो देश है उसके उत्तर में, रुहेलखण्ड में, और अम्बाला ज़िला के पूर्व में, बोली जाती है। यह पश्चिमी हिन्दी की शाखा है। यही धोरे-धीरे पंजाबी में परिणत हो गई है। मेरठ के आस-पास और उसके कुछ उत्तर यह भाषा अपने विशुद्ध रूप में बोली जाती है। वहाँ उसका वही रूप है जिसके अनुसार हिन्दी (हिन्दुस्तानी) का व्याकरण बना है। रुहेलखण्ड में यह धीरे-धीरे क़न्नौज में और अम्बाले में पंजाबी में परिणत हो गई है। दूसरी वह है जिसे पढ़े-लिखे आदमी बोलते हैं और जिसमें अख़बार और किताबें लिखी जाती हैं। हिन्दुस्तानी की उत्पत्ति और उसके प्रकारादि के विषय में आज तक भाषा-शास्त्र के विद्वानों की जो राय थी वह भ्रान्त साबित हुई है। मीर अम्मन ने अपने "बाग़ोबहार" की भूमिका में हिन्दुस्तानी भाषा की उत्पत्ति के विषय में लिखा है कि वह अनेक भाषाओं के मेल से उत्पन्न हुई है। कई जातियों और कई देशों के आदमी जो देहली के बाज़ार में परस्पर मिलते-जुलते और बात-चीत करते थे वही इस भाषा के उत्पादक हैं। यह बात अब तक ठीक मानी गई थी और डाक्टर ग्रियर्सन आदि सभी विद्वानों ने इस मत को क़बूल कर लिया था। पर भाषाओं की जाँच-पड़ताल से यह मत भ्रामक निकला। हिन्दुस्तानी और कुछ नहीं, सिर्फ़ ऊपरी दोआब की स्वदेशी भाषा है। वह देहली की बाज़ारू बोली हरगिज़ नहीं। हाँ उसके स्वाभाविक रूप पर साहित्य-परिमार्जन का जिलो ज़रूर चढ़ाया गया है और कुछ गँवारू मुहावरे उससे ज़रूर निकाल डाले गये हैं। बस उसके स्वाभाविक रूप में इतनी ही अस्वाभाविकता आई है। इस भाषा का "हिन्दुस्तानी" नाम हम लोगों का रक्खा हुआ नहीं है। यह साहब लोगों की कृपा का फल है। हम लोग तो इसे हिन्दी ही कहते हैं। देहली के बाज़ार में तुर्क, अफ़गान और फ़ारस-वालों का हिन्दुओं से सम्पर्क होने के पहले भी यह भाषा प्रचलित थी। पर उसका उर्दू नाम उसी समय से हुआ। देहली में मुसल्मानों के संयोग से हिन्दी भाषा का विकास ज़रूर बढ़ा। विकास ही नहीं, इसके प्रचार में भी वृद्धि हुई। इस देश में जहाँ-जहाँ मुग़ल बादशाहों के अधिकारी गये, वहाँ-वहाँ अपने साथ वे इस भाषा को भी लेते गये। अब इस समय इस भाषा का प्रचार इतना बढ़ गया है कि कोई प्रान्त, कोई सूबा, कोई शहर ऐसा नहीं जहाँ इसके बोलनेवाले न हों। बंगाली, मदरासी, गुजराती, महाराष्ट्र, नेपाली आदि लोगों की बोलियाँ जुदा-जुदा हैं। पर वे यदि हिन्दी बोल नहीं सकते तो प्रायः समझ ज़रूर सकते हैं। उनमें से अधिकांश तो ऐसे हैं जो बोल भी सकते हैं। भिन्न-भिन्न भाषायें बोलनेवाले जब एक दूसरे से मिलते हैं तब वे अपने विचार हिन्दी ही में प्रकट करते हैं। उस समय और कोई भाषा काम नहीं देती। इससे इसी को हिन्दुस्तान की प्रधान भाषा मानना चाहिए। और यदि देश भर में कभी एक भाषा होगी तो यही होगी।

"हिन्दुस्तानी" नाम यद्यपि अँगरेज़ों का दिया हुआ है तथापि है बहुत सार्थक। इससे हिन्दुस्तान भर में बोली जानेवाली भाषा का बोध होता है। यह बहुत अच्छी बात है। इस नाम के अन्तर्गत साहित्य की हिन्दी, सर्वसाधारण हिन्दी, दक्षिणी हिन्दी और उर्दू सबका समावेश हो सकता है। अत-एव हमारी समझ में इस नाम को स्वीकार कर लेना चाहिए।

उर्दू

उर्दू कोई जुदी भाषा नहीं। वह हिन्दी ही का एक भेद है; अथवा यों कहिए कि हिन्दुस्तानी की एक शाखा है। हिन्दी और उर्दू में अन्तर इतना ही है कि हिन्दी देवनागरी लिपि में लिखी जाती है और संस्कृत के शब्दों की उसमें अधिकता रहती है। उर्दू, फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है और उसमें फ़ारसी, अरबी के शब्दों की अधिकता रहती है। "उर्दू" शब्द "उर्दू-ए-मुअल्ला" से निकला है जिसका अर्थ है "शाही फ़ौज का बाज़ार"। इसी से किसी-किसी का ख़याल था कि यह भाषा देहली के बाज़ार ही की बदौलत बनी है। पर यह ख़याल ठीक नहीं। भाषा पहले ही से विद्यमान थी और उसका विशुद्ध रूप अब भी मेरठ-प्रान्त में बोला जाता है। बात सिर्फ़ यह हुई कि मुसल्मान जब यह बोली बोलने लगे तब उन्होंने उसमें अरबी, फ़ारसी के शब्द मिलाने शुरू कर दिये, जैसे कि आज-कल संस्कृत जानने वाले हिन्दी बोलने में आवश्यकता से ज़ियादा संस्कृत-शब्द काम में लाते हैं। उर्दू पश्चिमी हिन्दुस्तान के शहरों की बोली है। जिन मुसल्मानों या हिन्दुओं पर फ़ारसी भाषा और सभ्यता की छाया पड़ गई है वे, अन्यत्र भी, उर्दू ही बोलते हैं। बस, और कोई यह भाषा नहीं बोलता। इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुत से फ़ारसी, अरबी के शब्द हिन्दुस्तानी भाषा की सभी शाखाओं में आ गये हैं। अपढ़ देहातियों ही की बोली में नहीं, किन्तु हिन्दी के प्रसिद्ध प्रसिद्ध लेखकों की परिमार्जित भाषा में भी अरबी, फ़ारसी के शब्द आते हैँ। पर ऐसे शब्दों को अब विदेशी भाषा के शब्द न समझना चाहिए। वे अब हिन्दुस्तानी हो गये हैं और छोटे-छोटे बच्चे और स्त्रियाँ तक उन्हें बोलती हैं। उनसे घृणा करना या उन्हें निकालने की कोशिश करना वैसी ही उपहासास्पद बात है जैसी कि हिन्दी से संस्कृत के धन, वन, हार और संसार आदि शब्दों को निकालने की कोशिश करना है। अँगरेज़ी में हज़ारों शब्द ऐसे हैं जो लैटिन से आये हैं। यदि कोई उन्हें निकाल डालने की कोशिश कर तो कैसे कामयाब हो सकता है?

उर्दू में यदि अरबी, फ़ारसी के शब्दों की भरमार न की जाय तो उसमें और हिन्दी में कुछ भी भेद न रहे। पर उर्दू-वालों को फ़ारसी, अरबी के शब्द लिखने और बोलने की ज़िद सी है। कोई कोई लेखक इन वैदेशिक शब्दों के लिखने में सीमा के बाहर चले जाते हैं। उनकी भाषा सर्व-साधारण को प्राय: वैसी ही मालूम होती है जैसी कि दक्षिणी अफ़रीक़ा के जंगली आदमियों को जानसन की अँगरेज़ी यदि सुनाई जाय तो मालूम हो। बड़े बड़े वाक्य आप देखिए––में, ने, से; का, की, के; चला, मिला, हिला आदि––के सिवा आप को एक भी हिन्दुस्तानी शब्द उनमें न मिलेगा। व्याकरण भर हिन्दुस्तानी, बाक़ी सब फ़ारसी, अ़रबी शब्द। हमारी भाषा को शुरू-शुरू में हिन्दुओं ने भी खूब बिगाड़ा है। फ़ारसी पढ़ पढ़ कर वे मुसल्मानी राज्य में मुलाज़िम हुए और फ़ारसी, अ़रबी के शब्दों की भरमार करके अपनी भाषा का रूप बदला। मुसल्मान तो बहुत समय तक अपना सारा काम फ़ारसी ही में करते थे। पर हिन्दुओं ने शुरू ही से ऐसी भाषा का प्रचार किया। अब तो मुसल्मान और फ़ारसीदाँ हिन्दू, दोनों ऊँचे दरजे की उर्दू लिख लिखकर इन प्रान्तों की भाषा पर एक अत्याचार कर रहे हैं।

हिन्दी

"हिन्दी" शब्द कई अर्थों का बोधक है। अँगरेज़ लोग इसके दो अर्थ लगाते हैं। कभी कभी तो वे इसे उस भाषा का बोधक समझते हैं जिसे हम, हिन्दी लिखनेवाले, इन प्रान्तों के लोग, हिन्दी कहते हैं––अर्थात् वह भाषा जो "हिन्दुस्तानी" की शाखा है और जो देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। कभी कभी इसे उस भाषा या बोली के अर्थ में प्रयोग करते हैं जो बंगाल और पंजाब के बीच के देहात मेँ बोली जाती है। पर कोई कोई मुसल्मान इसे फ़ारसी का शब्द मानते हैं और "हिन्द के निवासी" के अर्थ में बोलते हैं। हिन्द (हिन्दुस्तान) के रहनेवालों को वे हिन्दी कहते हैं। "हिन्दी" मुसल्मान भी हो सकते हैं और हिन्दू भी। अमीर खुसरो ने "हिन्दी" को इसी अर्थ में लिखा है। इस हिसाब से जितनी भाषायें इस देश में बोली जाती हैं सभी हिन्दी कही जा सकती हैं।

जिसे हम हिन्दी या उच्च हिन्दी कहते हैं वह देवनागराक्षर में लिखी जाती है। इसका प्रचार कोई सौ-सवा सौ वर्ष के पहले न था। उसके पहले यदि किसी को देवनागरी में गद्य लिखना होता था तो वह अपने प्रान्त की भाषा––अवधी, बघेली, बुँदेली या व्रज-भाषा आदि––में लिखता था। लल्लू-लाल ने प्रेमसागर में पहले पहल यह भाषा देवनागरी अक्षरों में लिखी, और उर्दू लिखनेवाले जहाँ अरबी-फ़ारसी के शब्द प्रयोग करते वहाँ उन्होंने अपने देश के शब्द प्रयोग किये। याद रहे, लल्लूलाल ने कोई भाषा नहीं ईजाद की। उनके प्रेमसागर की भाषा दोआब में पहले ही से बोली जाती थी। पर उसी का उन्हों ने प्रेमसागर में प्रयोग किया और आवश्यकतानुसार संस्कृत के शब्द भी उसमें मिलाये। तभी से गद्य की वर्तमान हिन्दी का प्रचार हुआ। गद्य पहले भी था। कितनी ही पुस्तकों की टीकायें आदि गद्य में लिखी गई थी। पर वे सब प्रान्तिक भाषाओं में थीं। लल्लूलाल ने वर्तमान हिन्दी की नींव डाली और उसमें उन्हें कामयाबी भी हुई। यहाँ तक कि अब स्वप्न में भी किसी को गद्य लिखते समय अपने प्रान्त की अवधी, बघेली या व्रज-भाषा याद नहीं आती। पद्य लिखने में वे चाहे उनका भले ही अब तक पिण्ड न छोडें। हिन्दी में एक बड़ा भारी दोष इस समय यह घुस रहा है कि उसमें अनावश्यक संस्कृत शब्दों की भरमार की जाती है। इसका उल्लेख हम एक जगह पहले भी कर आये हैं। इससे हिन्दी और उर्दू का अन्तर बढ़ता जाता है, यह न हो तो अच्छा। इन प्रान्तों की गवर्नमेंट ने बड़ा अच्छा काम किया जो प्रारम्भिक शिक्षा की पाठ्य-पुस्तकों की भाषा एक कर दी। उर्दू और हिन्दी दोनों में उसने कुछ फर्क नहीं रक्खा। फ़र्क सिर्फ़ लिपि का रक्खा है। अर्थात् कुछ पुस्तकें फ़ारसी लिपि में छापी जाती हैं, कुछ नागरी में। यदि हम लोग हिन्दी में संस्कृत के और मुसल्मान उर्दू में अरबी-फ़ारसी के शब्द कम लिखें तो दोनों भाषाओं में बहुत थोड़ा भेद रह जाय और सम्भव है, किसी दिन दोनों समुदायों की लिपि और भाषा एक हो जाय। इससे यह मतलब नहीं कि संस्कृत कोई न पढ़े। नहीं, हिन्दू और मुसल्मान जो चाहें शौक से संस्कृत, अरबी और फ़ारसी पढ़ सकते हैं। पर समाचार-पत्रों, मासिक पुस्तकों और सर्वसाधारण के लिए उपयोगी पुस्तकों में जहाँ तक संस्कृत और अरबी-फ़ारसी के शब्दों का कम प्रयोग हो अच्छा है। इससे पढ़ने और समझनेवालों की संख्या बढ़ जायगी जिससे बहुत लाभ होगा।

पद्य

"हिन्दुस्तानी,” अर्थात् वर्तमान बोल-चाल की भाषा, के सबसे पुराने नमूने उर्दू की कविता में पाये जाते हैं। उर्दू क्यों उसे रेख्त़़ा कहना चाहिए। सोलहवीं सदी के अन्त में इसी भाषा में कविता होगे लगी। दक्षिण में इस कविता का आरम्भ हुआ। कोई १०० वर्ष बाद औरंगाबाद के वली नामक शायर ने उसकी बड़ी उन्नति की। वह "रेख़्ता का पिता" कहलाया। धीरे-धीरे देहली में भी इस कविता का प्रचार हुआ। अठारहवीं सदी के अन्त में सौदा और मीर तक़ी ने इस कविता में बड़ा नाम पाया। इसके बाद लखनऊ में भी इस भाषा के कितने ही नामी-नामी कवि हुए और कितने ही काव्य बने। और अब तक बराबर इसमें कविता होती जाती है। खेद है, हिन्दी में अभी कुछ ही दिन से बोल-चाल की भाषा में कविता शुरू हुई है।

डाॅक्टर ग्रियर्सन की राय है कि गद्य की हिन्दी, अर्थात् बोल-चाल की भाषा, में अच्छी कविता नहीं हो सकती। दो एक आदमियों ने गद्य की भाषा में कविता लिखने की कोशिश भी की; पर उन्हें बेतरह नाकामयाबी हुई और उपहास के सिवा उन्हें कुछ भी न मिला। इस पर हमारी प्रार्थना है कि डाॅक्टर साहब की राय सरासर ग़लत है। यदि दो-एक आदमी गद्य की हिन्दी में अच्छी कविता न लिख सके तो इससे यह कहाँ साबित हुआ कि कोई नहीं लिख सकता। डाॅक्टर साहब जब से विलायत गये हैं तब से इस देश के हिन्दी-साहित्य से आपका सम्पर्क छूट सा गया है। अब उनको चाहिए कि अपनी पुरानी राय बदल दें। बोल-चाल की भाषा में कितनी ही अच्छी-अच्छी कवितायें निकल चुकी हैं और बराबर निकलती जाती हैं। जितने प्रसिद्ध-प्रसिद्ध समाचार-पत्र और सामयिक पुस्तकें हिन्दी की हैं उनमें अब बोल-चाल की भाषा की अच्छी-अच्छी कवितायें हमेशा ही प्रकाशित हुआ करती हैं। जब उर्दू और हिन्दी प्रायः एक ही भाषा है और उर्दू में अच्छी कविता होती है तब कोई कारण नहीं कि हिन्दी में न हो सके––

बात अनोखी चाहिए भाषा कोई होय।

गद्य

बोल-चाल की भाषा की कविता में उर्दू––उर्दू क्यों हिन्दुस्तानी–– यद्यपि हिन्दी से जेठी है, तथापि गद्य दोनों का साथ ही साथ उत्पन्न हुआ है। कलकत्ते के फ़ोर्ट विलियम कालेज के लिए उर्दू और हिन्दी की पुस्तकें एक ही साथ तैयार हुई थीं। लल्लू-लाल का प्रेमसागर और मीर अम्मन का बाग़ो-बहार एक ही समय की रचना है। तथापि उर्दू भाषा और फ़ारसी अक्षरों का प्रचार सरकारी कचहरियों और दफ़्तरों में हो जाने से उर्दू ने हिन्दी की अपेक्षा अधिक उन्नति की। कुछ दिनों से समय ने पलटा खाया है। वह हिन्दी की भी थोड़ी बहुत अनुकूलता करने लगा है। हिन्दी की उन्नति हो चली है। कितने ही अच्छे-अच्छे समाचार-पत्र और मासिक पुस्तकें निकल रही हैं। पुस्तकें भी अच्छी-अच्छी प्रकाशित हो रही हैं। आशा है बहुत शीघ्र उसकी दशा सुधर जाय। हिन्दी भाषा और नागरी लिपि में गुण इतने हैं कि बहुत ही थोड़े साहाय्य और उत्साह से वह अच्छी उन्नति कर सकती है।

लिपि

जिसे हिन्दुस्तानी कहते हैं, अर्थात् जिसमें फ़ारसी-अरबी के क्लिष्ट शब्दों का जमघटा नहीं रहता, वह तो देवनागरी लिपि में लिखी जा सकती ही है। उसकी तो कुछ बात ही नहीं। जिसे उर्दू कहते हैं––जिसमें आजकल मुसल्मान और उर्दू दाँ हिन्दू अख़बार और साधारण विषयों की पुस्तकें लिखते हैं––वह भी देवनागरी लिपि में लिखी जा सकती है। पर डाकृर ग्रियर्सन की राय है कि वह नहीं लिखी जा सकती। खेद है, हमारी राय आप की राय से नहीं मिलती। कुछ दिन हुए इस विषय पर हमने एक लेख सरस्वती में प्रकाशित किया है और यथाशक्ति इस बात को सप्रमाण साबित भी कर दिया है कि उर्दू के अखबारों और रिसालों की भाषा अच्छी तरह देवनागरी में लिखी जा सकती है, और लेख का मतलब समझने में किसी तरह की बाधा नहीं आती। मुसल्मान लोग अपने अ़रबी-फ़ारसी के धार्मिक तथा अन्यान्य ग्रन्थ आनन्द से फ़ारसी, अ़रबी लिपि में लिखें। उनके विषय में किसी को कुछ नहीं कहना। कहना साधारण साहित्य के विषय में है जो देवनागरी लिपि में आसानी से लिखा जा सकता है। देवनागरी लिपि के जाननेवालों की संख्या फ़ारसी लिपि के जाननेवालों की संख्या से कई गुना अधिक है। इस दशा में सारे भारत में फ़ारसी लिपि का प्रचार होना सर्वथा असम्भव और नागरी का सर्वथा सम्भव है। यदि मुसल्मान सज्जन हिन्दुस्तान को अपना देश मानते हों, यदि स्वदेश-प्रीति को भी कोई चीज़ समझते हों, यदि एक लिपि के प्रचार से देश को लाभ पहुँचना सम्भव जानते हों तो हठ, दुराग्रह और कुतर्क छोड़कर उन्हें देवनागरी लिपि सीखनी चाहिए।