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दीवान-ए-ग़ालिब

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दीवान-ए-ग़ालिब
द्वारा मिर्जा ग़ालिब, अनुवादक सरदार जाफ़री

 
نام مرزا اسد اللہ خان
کنیت مرزا نوشہ
شاعرانہ نام 'اسد' اور 'غالب'
عنوان نجم الدولہ، دبیر الملک
پیدائش آگرہ، 27 دسمبر 1797
موت دہلی، 15 فروری 1869
مزار لوہارو خاندان کا قبرستان، سلطان جی، چوسٹھ کھمبہ نظام الدین، دہلی۔
 
 
नाम मिर्ज़ा असदुल्लाह ख़ाँ
उपनाम मिर्ज़ा नौशः
कविनाम 'असद' और 'ग़ालिब'
पदवि नज्मुद्दौलः, दबीरुलमुल्क
जन्म आगरा, २७ दिसम्बर १७९७
मृत्यु देहली, १५ फ़रवरी १८६९
मज़ार लोहारू वंश का कब्रिस्तान, सुलतानजी, चौसठ खंबा निजामुद्दीन, दिल्ली।
 

भूमिका

मानव मस्तिष्क का विस्तार असीमित होने के बावुजूद एक व्यक्ति का मस्तिष्क कितना ही विशाल क्यों न हो फिर भी सीमित रहता है। बड़े से बड़ा कवि और चिन्तक भी इस नियम का अपवाद नहीं। लेकिन उसकी रचना, कविता या स्वप्न जिसे वह अपने व्यक्तित्व से अलग करके आइने की तरह दुनिया के सामने रखदेता है, मानव-मस्तिष्क का असीमित विस्तार धारण करलेता है। आनेवाली पीढ़ियों का हर पाठक अपनी बौद्धिक योग्यता और भावना की तीव्रता के अनुसार उस रचना में नये अर्थों और गुणों की वृद्धि कर देता है। अतःएव ग़ालिब या शेक्सपियर की एक पंक्ति हज़ार अवसरो पर हज़ार नये अर्थ पैदा कर सकती है। उस के दामन में इतना विस्तार होता है कि वह आनेवाली ज़िन्दगी की ख़ुशियों और ग़मों को समेट सके। इसको समालोचना की भाषा में साधारणीकरण, सर्व व्यापकता, और तहदारी के नाम दिये जाते है, जो भावनारहित और विचारशून्य शाब्दिक बाज़ीगरी से भिन्न है और केवल उस समय पैदा होती है जब कवि अपने युग पर हावी होने के साथसाथ शब्दों के संगीत और उनके अर्थों के गुणों से भी भलीभाँति परिचित हो और उनको इस तरह छेड़ सके जैसे संगीतकार साज़ के तारों को छेड़ता है। साहित्य के लम्बे इतिहास में चन्द गिनी चुनी विभूतियाँ इस स्तर पर पूरी उतरती हैं। ग़ालिब उनमें एक है।

ग़ालिब उर्दू का अत्यन्त लोकप्रिय कवि है जिसे इकबाल ने गेटे का समकक्ष माना है। गत सौ वर्षों में दीवान-ए-ग़ालिब के अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं और असंख्य लेख लिखे गये हैं। हर समालोचक और पाठक ने अपनी रुचि और स्वभाव के अनुसार ग़ालिब के काव्य में गुंजाइश देखी। कभी प्रशंसा ने श्रद्धा का रूप धारण किया, कभी एक गंभीर विश्लेषण का और कभी उस अतिशयोक्ति का जो कला का सुन्दर आभूषण है।

ग़ालिब का व्यक्तित्व अत्यन्त आकर्षक और सर्वव्यापी था। वंश के विचार से वह ऐबक तुर्क था जिसका दादा उसके जन्म (आगरा, २७ दिसम्बर १७९७) से लगभग अर्धशताब्दि पूर्व समरक़न्द से हिन्दुस्तान आया था। इस ख़ान्दान ने ग़ालिब को "चौड़ा चकला हाड, लाँबा क़द, सिडौल इकहरा जिस्म भरे-भरे हाथ-पाँव, किताबी चेहरः, खड़ा नक्शः चौड़ी पेशानी, घनी लम्बी पलकें और, बड़ी बड़ी बादामी आँखें और सुर्ख़-ओ-सुपैद रँग" दिया था। जिस में मदिरा पान के चम्पई कान्ति पैदा कर दी थी। ग़ालिब का स्वभाव ईरानी था, धार्मिक विश्वास 'अरबी, शिक्षादीक्षा और संस्कार हिन्दुस्तानी और भाषा उर्दू। बुद्धि की कुशाग्रता और काव्य-प्रतिभा जन्मसिद्ध थी और ज़िन्दादिली, विचार-स्वातंत्र्य और शिष्टाचार ने सोने पर सुहागे का काम किया जिसके कारण लोग उसके अहं और अभिमान को भी सहन कर लेते थे। शेर कहना बचपन से प्रारम्भ कर दिया था और पच्चीस वर्ष की आयु से पूर्व ही अपने कुछ उत्तम कसीदे और ग़जले कहली थी और तीस-बत्तीस वर्ष की आयु मे कलकत्ते से दिल्ली तक एक हलचल मचा दी थी। शिक्षा के सम्बन्ध में काफ़ी जानकारी अब तक उपलब्ध नहीं होसकी है लेकिन ग़ालिब अपने युग की प्रचलित विद्याओ का पण्डित था और फ़ारसी भाषा, और साहित्य पर गहरी नजर रखता था। और फिर जीवन का अध्ययन इतना व्यापक था कि उसने स्वयं लिखा है कि सत्तर वर्ष की आयु में जन-साधारण से नहीं जनविशेष से सत्तर हज़ार व्यक्ति नजर से गुजर चुके है। "मैं मानव नही हूँ मानव-पारखी हूँ।" बादशाहो और धनवानो से लेकर मधुविक्रेताओ तक और दिल्ली के पण्डितो और विद्वानो से लेकर अंग्रेज अधिकारियो तक असंख्य व्यक्ति ग़ालिब के निजी दोस्तो में थे। जवानी की रंगरलियो का ज़िक्र अनेक बार स्वयं किया है। नृत्य, संगीत, मदिरा, सौन्दर्योपासना, जुआ किसी वस्तु से विरक्ति प्रकट नहीं की। और जब बीस पच्चीस वर्ष की आयु मे रंगरलियो से दिल हट गया तो सूफ़ियो जैसा स्वतन्त्र आचार-विचार अपनाया और हिन्दू मुसलमान ईसाई सब से एकसा व्यवहार किया। नमाज़ पढ़ी नहीं, रोज़ा रखा नही, शराब कभी छोड़ी नहीं। हमेशा स्वयं को गुनहगार कहा लेकिन खुदा, रसूल और इस्लाम पर पूरा विश्वास था। चन्द चीजो का शौक हवस की हद तक था। विद्या और प्रतिष्ठा की लालसा एक तीव्र तृष्णा बनकर उम्र भर साथ रही। कडवे करेले, इमली के खट्टे फूल, चने की दाल, अंगूर, आम, कबाब, शराब, मधुर राग और सुन्दर मुखडे हमेशा दिल को खीचते रहे। यो तो ग़ालिब उम्र भर इन चीजो के लिये तरसता रहा लेकिन यदि कभी चन्द चीजे एक साथ जमा होगई तो उस वक्त उसका दिमाग़ आस्मान पर पहुँच गया और उसने स्वयं को त्रिलोक का सम्राट समझ लिया।

चन्द घटनाएँ ग़ालिब के जीवन में बड़ी महत्वपूर्ण है। बचपन में अनाथ होजाना, दिल्ली का निवास और कलकत्ते की यात्रा। और इनका प्रभाव उसके व्यक्तित्व और काव्य पर बड़ा गहरा है। उसके प्रारम्भिक जीवन और शा'अिरी की बेगह-रवी प्रसिद्ध है। जो बच्चा पाँच वर्ष की आयु मे पिता के वात्सल्य से वंचित हो गया हो और जिसे कोई उपयुक्त तरबियत (शिक्षा-दीक्षा) न मिली हो वह अपनी प्रतिभा और गुणो के आधार पर ही आगे बढ़ सकता था। और इसमें बेराह-रवी बडी महत्वपूर्ण मंज़िल है जहाँ ठोकरे उस्ताद का काम करती है। कहा जाता है कि मीर ने ग़ालिब की प्रारम्भिक शा'अिरी देखकर कहा था कि कोई योग्य उस्ताद मिल गया तो अच्छा शा'अिर बन जायगा नही तो निरर्थक बकने लगेगा। एक ईरानी मुल्ला अब्दुस्समद के सिवाय, (जिसका अस्तित्व संदिग्ध है) जीवन के अनुभव ही ग़ालिब के उस्ताद रहे। ग़ालिब की प्रारम्भिक कठिन और उलझी हुई शा'अिरी पर, जिसके कुछ नमूने प्रस्तुत दीवान में भी बाकी रह गये है, जब आगरे वाले हँसे तो ग़ालिब के अहं ने उसकी कोई परवाह नहीं की। लेकिन शादी के बाद दिल्ली-निवास के दौरान में बड़े-बड़े विद्वानो और माने हुए कला-मर्मज्ञो के सम्पर्क में आने के बाद ग़ालिब उनकी राय की उपेक्षा न कर सका और पच्चीस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते रुचि सही शे'र की तरफ प्रवृत्त होगई। अपनी जागीर और पेन्शन के सिलसिले में ग़ालिब को तीस वर्ष की आयु में (सन् १८२७ ई.) कलकत्ते की जो यात्रा करनी पड़ी वह उसके जीवन का बहुत बडा मोड है। वहाँ उसने केवल नये जीवन की झलकियाँ ही नही देखी बल्कि अपनी असफलता के आइने मे अपना मुँह भी देखा। इस प्रकार ग़ालिब ने मुग़ल संस्कृति की आख़री बहार और नई प्रौद्योगिक संस्कृति के उभरते हुए चिन्ह और उनकी कैफ़ियतो को अपने व्यक्तित्व में समो लिया।

लेकिन इन सब से बडी घटना जीवन भर की निर्धनता है जिसने ग़ालिब को हमेशा बेचैन और व्याकुल रखा। अब न तो पूर्वजो की प्रतिष्ठा और वैभव बाकी था जिनके संबंध प्राचीन ईरानी बादशाहो से मिलते थे, और न बू'अली सीना की विद्या सीने मे थी। इसलिए ग़ालिब ने अपने क़लम को 'अलम (ध्वजा) बना लिया और पूर्वजो के टूटी हुई बर्छियो को कलम (फारसी से)। जिन्दगी ने ग़ालिब के साथ कुछ अच्छा व्यवहार नही किया और हमेशा उसकी रूह में रेगजार (मरुस्थल) ही उँडेले। लेकिन ग़ालिब की आत्मा ने जीवन को लाल:जार (पुष्पोद्यान) प्रदान किये। उसके स्वभाव की यह उदारता उर्दू भाषा और साहित्य को मालामाल कर गई।

यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि ग़ालिब के सामने विश्व और जीवन के बारे में कोई दृष्टिकोण था या नही। वह किसी दर्शन विशेष का निर्माता नहीं है इस लिए उसके यहाँ व्यवस्थित विचार और सन्देश की खोज व्यर्थ होगी। लेकिन ग़ालिब की शा'अिरी में चिन्तन के तत्व और दार्शनिक प्रवृत्ति से इनकार नही किया जा सकता। इसलिए रस्मी विचारो और गजल के परम्परागत विषयो की पैदा की हुई विपरीतता के बावुजूद विश्व और मानव के सम्बन्ध मे ग़ालिब की व्यापक प्रवृत्ति का अनुमान लगाना दिलचस्पी से ख़ाली नहीं है।

इसमें कोई संदेह नही कि उर्दू का यह महान कवि प्राचीन सूफियाना विचारों से प्रभावित था जो उसको अपने अध्य्यन के अलावा फ़ारसी और उर्दू काव्य से वरसे में मिले थे। यह कहने के बाद भी कि "शा 'अिर को तसव्वुफ़ शोभा नही देता" ग़ालिब ने सृष्टि को समझने के लिए और धर्म के दिखावे से बचने के लिए तसव्वुफ़ के कुछ विचारो से सहायता ली और उन्हीं से अपनी स्वतंत्र और तीखी प्रकृति का प्रशिक्षण किया।

वह वहदत-ए-बुजूद (विश्वदेवतावाद, जगीश्वरवाद, यह विश्वास कि सृष्टि के अनेक रूपो में एक ही तत्त्व विद्यमान है) का माननेवाला था। उसने अपनी फारसी मसनवी "अब्र-ए-गुहरबार" में विश्व को चेतना-दर्पण (आईन:-ए-आगही) कहा है जो ब्रह्म-रूप (वज्हुल्लाह) के दर्शन का वातावरण है। न केवल यह कि मानव जिस दिशा में मुँह करता है उस ओर "वह ही वह" नज़र आता है बल्कि जिस मुँह को मानव चारो ओर मोड़ रहा है वह ख़ुद "उसी" का मुँह है। दूसरी जगह फारसी गद्य में यह कहा है कि कण का अस्तित्व उसके अपने अहंकार (पिंदार) के अतिरिक्त कुछ नहीं, जो कुछ है परम्सत्य के सूर्य का आलोक है। दरिया हर जगह बह रहा है और उसमें तरंग, बुलबुले और भँवर उभर रहे है। और "हमःऊस्त" (सब कुछ वही है) ही "हम:ऊस्त" है (ग़ज़ल ९९, शेर ६, ७; ग़ज़ल १६३ शेर ४, ५, ६, ७)।

चूँकि सृष्टि एक वहदत (एकत्व, अद्वैत) है और अस्लज़ात (ब्रह्म) नश्वर नहीं है इसलिए विश्व भी नश्वर नहीं हो सकता। ग़ालिब ने यह बात इतनी खुलकर कहीं नहीं कही है लेकिन अपनी फारसी पुस्तक "मेहर-ए-नीम रोज़" में यह विश्वास प्रकट किया है कि जगत्का का कोई बाह्य अस्तित्व नहीं है (या'नी ख़ुदा की ज़ात से अलग जगत की कल्पना केवल भ्रम है "हर चंद्र कहें कि है, नहीं है") इसलिए अनश्वरता, नश्वरता, नवीनता और पुरातनता का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता। सिफ़ात (गुण) 'अन-ए-ज़ात (स्वयंब्रह्म) हैं और आलोक सूर्य से अलग नहीं। कयामत (प्रलय) के बाद नया आदम (मनु) पैदा होगा और एक आदम के बाद दूसरा आदम प्रकट होगा और संसार योंही चलता रहेगा। ग़ालिब के इस शे'र से भी इस विचार की पुष्टि होती है:

आगइश-ए-जमान से फ़ारिग़ नही हनोज़
पेश-ए-नज़र है आइनः दाइम निकाब में

(९९-९)

यहीं से दूसरा प्रश्न उत्पन्न होता है। यदि विश्व ब्रह्म का प्रकाश है तो वे चीजें जिन्हें बदी, गुनाह, मुसीबत, तकलीफ़, दर्द और ग़म कहा जाता है कहाँ से आयी हैं, अंतर्विरोध कहाँ से उभरते है। इसका बॅधा-टका पुराना जवाब तो यह है कि आलोक ब्रह्म से जितना दूर होता जाता है उतनी ही उसमे मलिनता (कसाफ़त) आती जाती है। किन्तु इस उत्तर की तार्किक कमज़ोरी यह है कि अन्तर ब्रह्म से अलग वस्तु बन जाता है और "हमःऊस्त" के सर्वव्यापी घेरे को तोड़ देता है।

ग़ालिब ने यह प्रश्न उठाया जरूर किन्तु इसका संतोषप्रद उत्तर न दे सका। स्वयं सूफ़ियों और दार्शनिको से यह प्रश्न नहीं सँभल सका तो एक कवि से क्या आशा की जा सकती है। अपनी एक फ़ारसी मसनवी "अब्र-ए-गुहरबार" के "मुनाजात" वाले हिस्से में ग़ालिब केवल यह कह सका कि सिफ़ात-ए-कमाल (गुण) के एक बिन्दु से तमाम अंतर्विरोधी वस्तुएँ पैदा होती हैं लेकिन यह वर्णन-चमत्कार जो "हमःऊस्त" का विवरण है, असली प्रश्न का उत्तर नहीं है। इससे अधिक कवितामय और संतोषप्रद उत्तर फ़ारसी के पहले कसीदे में मिलता है जिसमे ग़ालिब खुदा से संबोधन करता है कि तूने अन्य के संदेह (वहम-ए-ग़ैर) से दुनिया में हलचल मचा रखी है। खुद ही एक अक्षर कहा और खुद ही शंका में पड़ गया। यह खुद और ग़ैर-ए-खुद का विभाजन ऐसा है कि देखनेवाला और देखा जानेवाला एक होते हुए भी दो मालूम दे रहे हैं और इनके बीच में पूजा की रीति (रस्म-ए-परस्तिश) का पर्दा पड़ा हुआ है। यद्यपि अद्वैत में द्वैत की समाई नहीं है। फिर आगे चलकर वह गुप्त भेद से पर्दा उठाता है और कहता है कि दुख दर्द भी वहीं से आये हैं किन्तु इस लिए कि सुख-चैन का आनंद बढ़ा दें। हेमन्त का औचित्य ग़ालिब ने आनंद के नवीनीकरण में ढूँढा है। कठिनाइयाँ एक प्रकार की परीक्षा है ताकि मित्र शत्रु की दृष्टि से छिपा रहे। और अतिथि के पथ में काँटे इसलिए बिछाये गये है कि जब जीर्णता का इलाज किया जाय तो सुख का नया आनंद मिले मानो ख़ुद और ग़ैर-ए-ख़ुद का विभाजन एक ऐसी विपरीतता का कारण है जो जीवन को जीवन बनाती है। यह विपरीतता अद्वैत है द्वैत नहीं—

लताफ़त बेकसाफ़त जल्वः पैदा कर नहीं सकती
चमन जंगार है आईनः-ए-बाद-ए-बहारी का(४८)

यहाँ पहुँचकर बदी नेकी का एक हिस्सा बन जाती है। अपूर्ण और पूर्ण का भेद समाप्त हो जाता है (४२–४)। पदार्थ और आत्मा, जीवन और मृत्यु सब एक हो जाते हैं। धर्म और धार्मिक विश्वास की हैसियत "मरुस्थल" से अधिक नहीं रहती। रिति-रिवाज और सम्प्रदाय का त्याग ईमान (विश्वास) का अंग बन जाते है (११२–१४)। हर्ष और विषाद का विभाजन निरर्थक हो जाता है। बहार और खिज़ाँ एक दूसरे के गले मे बाँहें डाल लेती हैं। एक ही रंग का पैमाना घूम रहा है। बहार (वसंत) इसका एक रंग है और खिज़ाँ (पतझड़) दूसरा। दिन रात एक दूसरे के पीछे दौड़ रहे हैं। यह सब अद्वैत का आवेश और उत्क्रोश है। एक बिंदु है जो तेजी से घूम रहा है और अपनी उड़ान के वेग से नाचता हुआ शोला बन गया है। यह अस्तित्व कष्ट और आराम की कल्पना से निस्पृह है। डूबनेवाले ने लहर का तमाँचा खाया है और प्यासे ने पानी पी लिया। वैसे दरिया ने स्वयं न किसी को डुबोना चाहा और न पानी पिलाना चाहा। वह अपने आप में लीन है। क्रिया और प्रतिक्रिया उसकी तरंगे हैं जिनसे आज कल और कल आज बन रहा है—

है तिलिस्म-ए-दह्‍र में सद हश्र-ए-पादाश-ए-'अमल
आगही ग़ाफ़िल, कि यक इमरोज़ बे फ़र्दा नहीं(जमीमः २५)

वहदत-ए-वुजूद (विश्वदेवतावाद) की सीमाएँ कहीं तो वेदात से जा मिलती हैं और कहीं नौफलातूनियत (NEO PLATONISM) से। यह दर्शन ज़ात-ए-मुत‍्लक (ब्रह्म), नफ़ि-ए-सिफ़ात (निर्गुणत्व), और संसारत्याग से लेकर उपमाओं से आरोपित और गुणों से सजी हुई ज़ात (ईश्वर) के विचार तक फैला हुआ है, और जब इसमें ईरानी और तातारी पैगेनिज्म (कुफ़‍्‍र) का सम्मिश्रण हो जाता है तो आनन्दप्राप्ति का पहलू भी पैदा हो जाता है। और अब यह अपने अपने साहस पर निर्भर है कि मनुष्य इस मंजिल पर पहुँचकर संसार को तज दे या शौक का हाथ बढ़ाकर इस रंग और प्रकाश, ध्वनि और संगीत से भरे हुए नाचते खिलौने को उठाले।

ग़ालिब ने निश्चय ही इस विश्वास से एक बड़ा आशावादी दृष्टिकोण अपनाया जो उसके सारे काव्य में ख़ून-ए-बहार की तरह दौड़ रहा है। दुख और संताप आनंद के नवीनीकरण की बुनियादें हैं। इसलिए इनसे विमुख रहना मृत्यु, और खेलना जीवन की दलील है। स्वयं मृत्यु जीवन का आनंद बढ़ा देती है और कार्य-आनंद का साहस प्रदान करती है (२२)। संसार की कठिनाइयाँ इसलिए हैं कि मानवता की तलवार सान पर चढ़ जाय और जौहर चमक उठे। ग़ालिब ने अपने एक और फारसी कसीदे में कहा है कि मेरा जुनून (उन्माद) मुझे बेकार नहीं बैठने देता, आग जितनी तेज है उतनी ही मैं और उसे हवा दे रहा हूँ, मौत से लड़ता हूँ और नंगी तलवारों पर अपने शरीर को फेंकता हूँ, तलवार और कटार से खेलता हूँ और तीरों को चूमता हूँ।

यही कारण है कि ग़ालिब के ग़म इतने आकर्षक हैं। उनमें जो भरपूर हर्ष की कैफ़ियत है वह उर्दू के किसी कवि के यहाँ नहीं मिलेगी। केवल इकबाल उसमें गालिब के निकट आता है। किन्तु वहाँ भी आशावाद का चितन-पक्ष अस्तित्व के हर्ष की भावुक कैफ़ियत पर हावी है। गालिब की शा'अिरी में ग़म और हर्ष को अलग अलग करना लगभग असंभव है। इसलिए उसे केवल ग़म या केवल हर्ष का कवि समझना भूल है। वह वास्तव में ग़म की खुशी का शा'अिर है। यानी वह मुसीबतों से लड़कर हर्ष का सामान प्राप्त करता है जैसे शराब की कड़वाहट सहन करके मदिरता की मंजिल प्राप्त की जाती है, फिर वह कड़वाहट स्वयं मदिर बन जाती है।

इसके बाद यह समझने में कोई कठिनाई नहीं रह जाती कि ग़ालिब के विश्व में मनुष्य का क्या स्थान है। वह भी अन्य सचराचर की भाँति ब्रह्म का प्रकाश है। किन्तु मानव तथा अन्य सचराचर में एक अंतर है। और यह बहुत बड़ा अंतर है। मानव के पास कामना है, भावना है, शौक है, तड़प है। उसके अंतःकरण में एक हलचल है जो अस्तित्व-सागर में जल की आर्द्रता की तरह और रेशम के लच्छे में तार की तरह है (फ़ारसी मसनवी)। और सबसे बड़ी बात यह है कि उसके पास बुद्धि है। वह अपने हाथों और मन के सहयोग से अपना चरित्र और आचरण प्राप्त करता है, और बुद्धि और प्राण के मिलन से वाक‍्शक्ति (अब्र-ए-गुहरबार)। उसकी बुद्धि सीमित सही किन्तु असीम बुद्धि का एक अंश है। ग़ालिब ने "मुग़न्नीनामे" में इस बुद्धि को विश्व की शृंगारकारिणी शक्ति कहा है जो रूहानियों (आध्यात्मवादियों) की उषा का प्रकाश और यूनानियों के विज्ञान की रातों का दीप है। संसार की सारी शोभा इसी मानव के कारण है—

ज़िमा गर्मस्त इन हंगामः बिनगर शोर-ए-हस्ती रा
कयामत मी दमद अज़ पर्दः-ए-खाके कि इन्साँ शुद

(दुनिया की यह हलचल मेरे कारण है और मिट्टी के उस पर्दे में प्रलय मचल रहा है जो मानव बन गया है)

ग़ालिब की दृष्टि में मानव की महानता इतनी विशद है कि वह उसे सृष्टि का अक्ष (धुरा) समझता है और विश्व की सृष्टि का कारण ठहराता है।

जि आफ़रीनिश-ए-'आलम ग़रज जुज़ आदम नीस्त
बगिर्द-ए-नुक्तः-ए-मा दौर-ए-हफ्त परकारस्त

(विश्व की सृष्टि का उद्देश्य मानव के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मैं केन्द्र हूँ और मेरे चारों ओर सात वृत्त घूम रहे है)

मिट्टी के पर्दे से उठनेवाले इस कयामत के फ़ितने का सारा प्रयास यह है कि इस सृष्टि को जिसमें वह चारों ओर से घिरा हुआ है देखे और समझे। हर समय और हर रंग में दुनिया के तमाशे में तन्मय और विभोर रहे और अपनी संकीर्ण आँखों को उन्मीलित करता रहे (११८)। अपने चारों ओर बिखरी छवि के पर्दे उठाये और उनके अर्थ तक पहुँचने के लिए दिल-ओ-जिगर का खून कर डाले और यदि तत्त्व को समझने का सामान न हो तो भी रूप की जादूगरी के तमाशे में खोजाय (५२–४)। संभव है कि इस सौन्दर्योपासक और दर्शनाभिलाषी के लिए बहार को अवकाश न हो और निगार (सुन्दरी) को प्रेम न हो। न सही, बहार फिर बहार है, निगार फिर निगार है। चमन (उद्यान) की शीतलता और सुरभित समीर से और मा'शूक़ की मस्त अदा से तो इन्कार संभव नहीं है (२१०–९,१०)। कामना की अग्निशाला तो बहरहाल प्रज्वलित रखी जा सकती है क्योंकि जबतक कल्पना, अनुध्यान और अभिलाषा की संपत्ति पास है उस समय तक—

हर चेः दर मब्दः-ए-फैयाज़ बुवद आन-ए-मनस्त
गुल जुदा नाशुदः अज़ शाख बदामान-ए-मनस्त

(जो कुछ उदार सृष्टि के पास है मेरा है। डाल से न टूटा हुआ फूल मेरी गोद में है) इसलिए ग़ालिब की शा'अिरी में संसार, आनंद और इच्छा के त्याग के विषय कदाचित ही मिलेंगे जो परंपरागत रूप से चले आये हैं किन्तु ग़ालिब के अपने स्वभाव का अंश नही है।

ग़ालिब की अभिरुचि रस और आनंद की प्राप्ति में सीमाओं का बंधन नहीं मानती। वह सौन्दर्य को इस प्रकार आत्मसात कर लेना चाहता है कि निगाहों को भी अपने और मा'शूक के बीच बाधा समझता है (४२–५) इस स्थिति में स्पष्ट ही निगाह की सफलता भी उसे शांति प्रदान नहीं कर सकती और वह अपने अतृप्त हृदय की शांति के लिए तड़पता रह जाता है (१५३–६)। जब पीने पर आता है तो घड़े को प्याला बना लेना चाहता है (१३४–२) और जब गुनाहों पर आता है तो गुनाहों का सागर पानी की कमी से सूख जाता है (३९–६)। ग़ालिब की आनंद-तृष्णा का अति सुन्दर उदाहरण उर्दू की प्रसिद्ध ग़ज़ल "मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए" (२३४) और फ़ारसी की ग़ज़ल में मिलता है जहाँ वह अमूल्य मधुपात्र की गर्दिश से मृत्यु और मान्यताओं को भी बदल देना चाहता है। वह स्वच्छंद साहस के साथ अनुद्देश्य लालसा को भी आवश्यक समझता है (१८९–२) और एक अत्यंत मृदुल "लोलुपता' की मंजिल में पहुंच जाता है। शायद यह बात जवानी की बेराहरवी ने सिखलादी थी कि आवारगी में अपमान तो होता है लेकिन तबी'अत सान पर चढ़ जाती है (२११–३)।

ग़ालिब की आवारगी और लोलुपता के गवाह उसके दिलचस्प पैमाने (मापदण्ड) हैं। रोने का पैमाना वह गुनाह जो किये नहीं गये (२३१–१०) थकन का पैमाना पूरे बयाबान का विस्तार भी नहीं (११) क्योंकि जब बयाबान के बयाबान थकन से भर जाते हैं तो अभिरुचि की गति की लहरों पर पदचिन्ह बुलबुलों की तरह बहने लगते हैं और उसकी शान्ति के लिये दोजहान भी काफी नहीं है (१०३)। सारा सम्भावनाजगत कामना का केवल एक कदम मालूम होता है (ज़मीमः १२)। ग़ालिब का काव्य दूसरे क़दम की खोज है और यह खोज एक अविराम दुख, तड़प, जलन, कसक और गति में परिवर्तित हो गई है। "शौक-ए-अिनॉ गुसेख़्तः दरिया कहे जिसे" (२३०–५)

"शौक" ग़ालिब का अत्यंत प्रिय शब्द है और इस परिवार के अन्य शब्द तमन्ना, आरज़ू और ख़्वाहिश से उसकी कविता छलक रही है। जुनून (उन्माद) जो शौक की अंतिम मंज़िल है उसको सदा उकसाता रहता है। उसे ज्ञात है कि शौक अत्यंत विनम्रता में भी मानव को गर्वोन्नत कर देता है और कण को मरुस्थल का विस्तार और बूँद को सागर का आवेग प्रदान करता है (४३–३)। इसलिए शौक और तलब (तृष्णा) की राह में वह एक क्षण के लिए भी निश्चित नहीं होना चाहता। मंज़िल से कहीं अधिक रस मंज़िल की जुस्तुजू (तलाश) में है। "जब मैं बिहिश्त (स्वर्ग) का तसव्वुर (कल्पना) करता हूँ और सोचता हूँ कि अगर मग़फ़िरत (मुक्ति) हो गई और एक कस्र (प्रासाद) मिला और एक हूर (अप्सरा) मिली अकामत (आवास) जाविदाँ (शाश्वत) है और इस एक नेकबख्त के साथ ज़िन्दगानी है इस तसव्वुर से जी घबराता है और कलेजा मुँह को आता है। हय, हय वह हूर अजीरन हो जायगी। तबीयत क्यूँ न घबरायगी वही ज़मुर्रदी काख़ (पन्ने का घर) और वही तूबा (कल्पवृक्ष) की एक शाख"। (एक पत्र से उद्धृत)। और ग़ालिब के उस्ताद ने युवावस्था के आरंभ में यह नुक्ता सिखा दिया था कि शकर का मज़ा चख लेना मगर मक्खी बन कर शहद पर कभी न बैठना नहीं तो उड़ने की शक्ति बाकी नहीं रहेगी। इसीलिए ग़ालिब मंज़िल का नही मंज़िल के पथ का, तृप्ति का नहीं तृष्णा के रस का कवि है। प्यास बुझा लेना उसका उद्देश्य नहीं प्यास को बढ़ाना उसका आदर्श है।

रश्क बर तश्नः-ए-तन‍्हा रव-ए-वादी दारम्
न बर आसूदः दिलान-ए-हरम-ओ-ज़मज़म-ए-शाँ

(ईर्ष्या मार्ग में अकेले भटकने वाले प्यासे से होती है न कि हरम-ओ-ज़मज़म पर पहुँच कर तृप्त हो जाने वालों से)। आरजू के डंक का आनंद रहगुज़ारो के आनंद से परिचित कराता है और इस चीज़ ने ग़ालिब की कविता को गति की भावना से भरपूर कर दिया है जिसका प्रकटीकरण मौज (तरंग) तूफ़ान, तलातुम (आवेग), शोला (ज्वाला), सीमाब (पारा), बर्क (बिजली) और परवाज़ (उड़ान) के शब्दों की बहुतायत से होता है। यह भाव रच-बस कर ग़ालिब के सौन्दर्यबोध का महत्वपूर्ण अंग बन गया है। अतःएव ग़ालिब का मा'शूक भी बर्क-ओ-शरर (बिजली और आग) है और ग़ालिब उसकी गति का उपासक (६१–५ व १५९–५)।

इसके साथ गालिब की गतिवान और नर्त्तित इमेजरी [IMAGERY] है जो चित्रांकन की पराकाष्ठा है। जब वह अपनी अछूती उपमाओं और अनुपम रूपकों का जादू जगाता है तो हर अक्षर नृत्य करने लगता है। स्थिर चित्र तरल बन जाते हैं। एकाकी विचार रंग और सुगंध का एक आकार बनकर सामने आता है। अरण्य गति के उत्ताप से जलने लगते हैं (७०–२), बयाबान पथिक के क़दमों के आगे-आगे भागने लगते है (१९१), बेजान पत्थरों के सीने में अनगढ़ी मूर्तियाँ नृत्य करने लगती हैं (फारसी ग़जल) आइनों के जौहर में पलके विकंपित हो उठती हैं (१८–४), मदिरा-पात्रों के हाथों की रेखाओं में रक्त दौड़ने लगता है (११२–१३), मा'शूक़ के वार्त्तालाप से दीवारों में जान पड़ जाती है (१७४) और कद की मोहकता देखकर सर्व-ओ-सनोवर छाया की भाँति साथ-साथ घूमने लगते हैं (१७४–२) फूलों की डालियाँ अँगड़ाई लेकर उन्मुख होने लगती हैं और फूल स्वयमेव गोश-ए-दस्तार के पास पहुँच जाते हैं (७३–६) बस एक बिजली और आग और पारे की सी हालत होती है (१६४–३) और उम्र व्याकुलता की राहों पर चलती है और माह व वर्ष की माप सूर्य की गर्दिश के बजाय बिजलियों की चमक और तड़प से की जाती है (१५३)। ग़ालिब के यहाँ कल्पना के छलावे भी इसी यथार्थ की चुग़ली खा रहे है। कल्पना की छलाँग कहने के लिये एक कलात्मक विशेषता है किन्तु वास्तव में यह छिपी हुई व्याकुलता का प्रकट रूप है। चूँकि वह बहुत सी बातें अनकही छोड़ देता है इसलिए शे'र दूरूह अवश्य हो जाता है लेकिन इससे शे'र का सौन्दर्य बढ़ जाता है और अर्थ का अँचल अधिक विस्तार धारण कर लेता है—

तू और आराइश-ए-खम-ए-काकुल
मैं और अंदेशःहा-ए-दूर-ओ-दराज़(७२–२)

यह हर्ष और आनंद बटोरने, और दुख झेलने और कामना की कैफियते जो सिमटकर कमान और गति की कल्पना और विचारों के छलावों में परिणत हो गई हैं, आकस्मिक चीज़ नहीं है। निश्चय ही इसमे ग़ालिब के स्वभाव के तीखेपन और सूफ़ियाना शा'अिरी की उन परम्पराओं का बड़ा हाथ है जो स्वस्थ हैं। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है। ग़ालिब का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी यह तक़ाज़ा करता है कि वातावरण के प्रभावों से दृष्टिविमुख न हुआ जाय। दुनिया को "चेतना दर्पण" कहने वाला और उसके तमाशे पर जोर देने वाला शा'अिरी को काफ़ियः पैमाई (तुकबन्दी) के बजाय अर्थपूर्णता का दर्जा देनेवाला और लेखनी के कम्पन पर बुद्धि के बन्धन लगाने वाला (मुग़न्नी नामः) शा'अिर अपने वातावरण से अनभिज्ञ रह कर केवल अपने खून-ए-दिल के उछालने पर सन्तुष्ट नहीं होसकता था—

चाक मत कर जैब बे अय्याम-ए-गुल
कुछ उधर का भी इशारा चाहिये[१९०–४]

जब वह कहता है कि अंजुमन-ए-आर्ज़ू (कामना की महाफिल) से बाहर साँस लेना भी हराम है (५७) तो यह केवल चन्द सिक्कों, चन्द प्यालों और चन्द चुम्बनों की आरज़ू नहीं है बल्कि एक अरचित-उद्यान की कामना है जिसकी कल्पना के आनन्द ने गीत छेड़ने पर मजबूर कर दिया है (जमीमः २१) और उस अरचित उद्यान को केवल निजी इच्छा का उद्यान समझ लेना, ग़ालिब का अपमान है। इसमें सामाजिक संभावनाओ की कल्पना इसलिए सम्मिलित है कि ग़ालिब के पास सामाजिक प्रगति का एक उत्तम विचार मौजूद था और निर्माण की अभिलाषा उसके दिल का सबसे बड़ा दर्द (१३६)। ग़ज़ल के किसी शे'र के संबंध में यह कहना कि उसका वास्तविक प्रेरक क्या था, कठिन है क्योंकि उसपर रूपकों के आवरण पड़े होते हैं (६०–६, ७)। लेकिन ग़ालिब ने अपने पत्रों में ग़दर [१८५७] की तबाही के बाद देहली के जो हृदय विदारक मर्सिये लिखे हैं उन्हीमें एक जगह यह हसरत-ए-तामीर [निर्माण की अभिलाषा] का शे'र भी लिखा हुआ नज़र आता है—"दिल्ली का हाल तो यह है—

घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
वो जो रखते थे हम इक हसरत-ए-ता'मीर सो है"[१३६]

इन छः शब्दों और दो पंक्तियों के पीछे ग़ालिब के विचारों की एक दुनिया आबाद है जो ग़ालिब के पत्रों में देखी जा सकती है। १८५७ से बहुत पहले ग़ालिब ने यह अनुमान कर लिया था कि मुग़ल संस्कृति और समाज का दीप अब सदा के लिए बुझनेवाला है। यद्यपि इसकी प्राचीन मान्यताएँ ग़ालिब को बहुत प्रिय थीं लेकिन उसे यह भी ज्ञात था कि इमारत बेबुनियाद हो चुकी है और जड़े खोखली हैं। हवा का कोई भी झोंका उसे गिरा सकता है। ग़ालिब के निजी हालात भी इससे मिलते जुलते थे। जो सोग घर में था वही आगरे और देहली पर छाया था और दोनों ने मिलकर ग़ालिब को युवावस्था के आरंभ ही से उदास कर दिया था।

लेकिन इसीके साथ ग़ालिब ने उस नयी दुनिया की झलक देख ली थी जो विज्ञान और उद्योग की प्रगति के साथ आ रही थी वह अंग्रेजी पूँजीवाद की शोषण-शक्ति का अनुमान न लगा सका (और यदि लगाया हो तो उसका सुबूत नहीं मिलता) लेकिन अंग्रेज़ों के लाये हुए विज्ञान और उद्योग ने उसे इतना प्रभावित किया कि जब ग़दर से कई वर्ष पहले सर सैयद अहमद खाँ ने अबुल फ़ज्ल की "आईन-ए-अकबरी" का परिशोधन किया और ग़ालिब से उसकी समीक्षा लिखने की इच्छा प्रकट की तो ग़ालिब ने ग़ज़ल के रूपकों के सारे आवरण अलग रखकर स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि आँखें खोल कर साहिबान-ए-इंग्लिस्तान को देखो कि ये अपने कला-कौशल में अगलों से आगे बढ़ गये हैं। उन्होंने हवा और लहरों को बेकार करके आग और धुएँ की शक्ति से अपनी नावें सागर में तैरा दी है। यह बिना मिज़राब के सँगीत उत्पन्न कर रहे है और उनके जादू से शब्द चिड़ियो की तरह उड़ते है, हवा में आग लग जाती है और फिर बिना दीप के नगर आलोकित हो जाते है। इस विधान के आगे बाक़ी सारे विधान जीर्ण हो चुके हैं। जब मोतियों का ख़ज़ाना सामने हो तो पुराने खलियानो से दाने चुनने की क्या आवश्यकता है। यह कहने के बाद ग़ालिब ने जो निष्कर्ष निकाला है वह महत्वपूर्ण है। आईन-ए-अकबरी के अच्छा होने में क्या संदेह है, लेकिन उदार सृष्टि को कृपण नहीं समझना चाहिए क्योंकि गुणों का कोई अन्त नहीं है। ख़ूब से ख़ूबतर का क्रम जारी रहता है। इसलिए मृतकोपासना शुभ कार्य नहीं है (फ़ारसी मसनवी नं १०)।

इसके बाद कोई संदेह नहीं रह जाता कि ग़ालिब के पास समाज-विकास का एक उत्तम आदर्श था और वह अकबर-कालीन विधान की तुलना में नये औद्योगिक विधान को प्रधानता देता था और विज्ञान के आविष्कारों और विचारों को शा'अिरी में स्थान देने के पक्ष में था (खुतूत—मेहर ५४८)। ग़ालिब के लिए यह अनुमान लगाना कठिन था कि इस नयी व्यवस्था के सामाजिक संबंध क्या है और इसकी प्रकृति में किस प्रकार की विनाशकता है। लेकिन इसका एक शे'र ऐसा अवश्य है जो एक क्षण के लिए चौंका देता है—

ग़ारतगर-ए-नामूस न हो गर हवस-ए-ज़र
क्यों शाहिद-ए-गुल बाग़ से बाज़ार में आवे(१७४–८)

ग़ज़ल गीतिमय (ग़िनाई, LYRICAL) और आंतरिक (SUBJECTIVE) काव्य की पराकाष्ठा है। इसलिए इसके शे'रो में व्याक्तिगत मनोभाव और सामाजिक व्याकुलता के मध्य सीमा निर्धारित करना कठिन है, फिर भी यह अनुभव कर लेना कठिन नहीं कि ग़ालिब अपने युग से अत्यंत निराश था। इस निराशा में निजी असमर्थताओं (नारसाइयों) और समाजी विवशताओं ने मिलकर एक कैफ़ियत पैदा करदी थी। ग़ालिब को ज़िन्दगी जिस तरह भुगतनी पड़ी वह एक भावुक हृदय का खून करदेने के लिए काफ़ी है। पाँच वर्ष की आयु में बाप का और आठ-नौ वर्ष की आयु में चचा का साया सर से उठ गया। एक संपन्न ननिहाल में माँ के बेरंग आँचल के नीचे बचपन व्यतीत किया और आरंभिक युवावस्था की चंदरोजा फ़ुरसत-ए-गुनाह के बदले उम्र भर की असफलता, विफलता, उत्ताप और जलन मिली। अठारह-उन्नीस वर्ष की आयु से जीवन की निर्मताओं का सामना करने के लिए अकेले मैदान में उतरना पड़ा। आय का कोई साधन नहीं था। बाप और चचा की मृत्यु के बाद जो जागीर पालन-पोषण के लिए थी उसका अधिकांश लोग खा गये और ग़ालिब उम्र भर हाथों में अर्ज़ियाँ और क़सीदे लिये हुए देहली, लखनऊ, कलकत्ता, कानपुर, दर-बदर ठोकरें खाता फिरा, अयोग्य धनवानों और अंग्रेज़ अफ़सरो की झूठी प्रशंसा में हृदय-रक्त उगला और उसके बाद भी क़र्ज़ की शराब पी और भीख पर जिन्दगी गुजारी। मरते समय [दिल्ली, १५ फरवरी १८६९] भी यह कटु अनुभूति साथ थी कि विधवा पत्नी पर ग़रीबी और निर्धनता में क्या बीतेगी। यह भी हुआ कि अृणदाताओं की नालिश और डिग्रियों के डर से घर में छिपकर बैठना पड़ा और किसी शत्‍रु के षड़यंत्र से जुए (शतरंज और चौसर) की लत में क़ैदख़ाने का अपमान सहन करना पड़ा। मुग़ल दरबार में, जिसकी बहार लुट चुकी थी, वह आदर-पद भी न मिला जो निम्नतर कोटि के कयिवो को प्राप्त हो रहा था और आयु के अन्तिम चरण में एक बौद्धिक वाद-विवाद के अपराध में बरसों माँ-बहन की गालियाँ खानी पड़ी। युवावस्था में युवती प्रेयसी का जनाज़ा आँखों के सामने उठ गया जिसकी अदाएँ उम्रभर तड़पाती रही। घर में बच्चों के खेल-कूद के बजाय उनकी लाशें नज़र आयीं। जिस भांजे को गोद लिया था वह जवान मर गया, दिल्ली आँखो के सामने उजड़ी, बंधु-बाधव आँखों के सामने क़त्ल हुए, समकालीन कवि और विद्वान फाँसियों पर चढ़ा दिये गये और काले पानी भेज दिये गये और ग़ालिब के लिए "मातम-ए-यक शहर-ए-आरज़ू" (कामना नगरी का शोक) (१७–२) के अतिरिक्त कुछ बाक़ी नहीं रह गया। इन हालात में वह यही कहने पर विवश था—

न गुल-ए-नग़्मः हूँ न पर्दः-ए-साज़
मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज[७२]

ग़ालिब को यह दुख था कि "कलंदरि-ओ-आज़ादगि-ओ-ईसार-ओ-करम" (स्वतंत्रता, त्याग और उदारता) के जो जौहर उसको मिले थे वह प्रकट न हो सके। "अगर तमाम 'आलम में न हो सके न सही, जिस शहर में रहूँ उस शहर में तो भूखा-नंगा नज़र न आये। खुदा का मकहूर (कोप-भाजन) ख़ल्क का मरदूद (बहिष्कृत) बूढ़ा, नातवान (दुर्बल), बीमार, फ़कीर, नकबत (दरिद्रता) में गिरफ़्तार मेरे और मुआमिलात-ए-कलाम-ओ-कमाल (कविता और गुण) से क़त्'-ए-नज़र करो (अनदेखा करो)। वह जो किसी को भीख माँगते न देख सके और ख़ुद दर-बदर भीख माँगे वह मैं हूँ" (एक ख़त)। इस ख़त के पीछे ग़ालिब का मानव के संबंध में विचार काम कर रहा है जिसको उसने अपने एक फ़ारसी कसीदे (२६) में भी प्रस्तुत किया है। एक और जगह कहता है कि ख़ुदा ने सिर्फ़ ईमान की ज्योति जगाई है। सभ्यता और शहरों का शृंगार तो मनुष्य से है (जमीमः ३४)। जब उस मनुष्य का अपमान ग़ालिब से सहन न हो सका तो कभी तो खुदा से फ़रियाद की कि आज हम इतने पतित क्यों हैं (९९–६) और कभी यह कह कर दिल को दिलासा दे लिया—

आराइश-ए-जमाना ज़ि बेदाद करदः अन्द
हर ख़ूँ कि रेख़्त गाजः-ए-रू-ए-ज़मीं शनास

(ज़माने का शृंगार अत्याचार से किया गया है और जो भी रक्त प्रवाहित किया गया है वह धरती का अंगराग बन गया है)।

निराशा का स्वर ग़ालिब की अनगिनत ग़ज़लों और शे'रों में मिलता है। वह उसकी अत्यंत सहज और प्रभावशाली रचनाएँ हैं जो दिल से एक चीख बनकर बाहर निकली हैं (२१, १६१, १६२, १६३, २१६)। ये आहो की तरह प्रकट शृंगार से अरंजित हैं। लेकिन ग़ालिब का महान व्यक्तित्व उसकी निराशा को केवल भावुकता के स्तर से उठाकर बुद्धि और ज्ञान के स्तर पर ले आता है और ग़ालिब लड़ने के लिये अपने हथियार सम्भाल लेता है और अपनी तल्ख़ नवाई [कटु वाणी] को व्यंग में बदल देता है।

क्या वह नमरूद की खुदाई थी
बन्दगी में मिरा भला न हुआ(२७–६)

वह अत्यन्त कठिन अवस्था में भी जी खोल कर हँसना जानता है। इसपर ग़ालिब के अनगिनत चुटकुले और पत्र गवाह हैं कि उसने भूख, मौत, अपमान, हर चीज का सामना एक मर्दाना जहरीली हँसी से किया। व्यंग के तीर विफलता और असन्तोष के विषय में बुझाये जाते हैं और आत्मविश्वास और अहं के धनुष से फेंके जाते हैं। प्रकटतः यह खुशदिली की मामूली सी क्रिया मालूम होती है लेकिन वास्तव में वह एक ढाल थी जिसका ग़ालिब ने जमाने के वारों से बचने के लिये उपयोग किया। इस खुशदिली की छाप ग़ालिब की शा'अिरी पर पड़ रही है [८०–२, ९२–३, १०९, १२७–४, १७५, २०२, २२०]। वह व्यंग और हास्य की छलनी में ख़ून के आसुओं को छान देता है और छलनी के भीगे हुए छेदों पर असंख्य मुस्कुराते हुए होठों का भ्रम होता है।

की मिरे कत्ल के बा'द उसने जफ़ा से तौब
हाय उस ज़ूद पशेमाँ का पशेमाँ होना
(१८–८)
यह फित्‍नः आदमी की खाना वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आस्माँ क्यों हो(१२७–८)

यह बड़ा तीखा व्यंग है जो हँस-हँस कर ज़ख्म खाने का सामर्थ्य प्रदान करता है। और इस सामर्थ्य ही में ग़ालिब के आत्मसम्मान और व्यक्तित्व [INDIVIDUALITY] का भेद छुपा हुआ है जिसे ज़माने की विपत्तियो ने अहं और आत्मश्लाघा में बदल दिया—

ज़मानः सख्त कम आज़ार है, बजान-ए-असद
वगरनः हम तो तवक्को'अ ज़ियाद रखते हैं(११०)

यह अधिक मज़बूत ढाल थी। इसके बिना संसार के दुखों का सामना सम्भव नहीं था। ग़ालिब के अहं ने कभी किसी की परवा नहीं की। न प्रेमसंताप के सामने उसका सर झुका न जग-संताप के। मजनूँ हो या फ़रहाद, ख़िज्‍र हो या सिकन्दर, ज़माना हो या ख़ूबान-ए-दिल आज़ार [दुख देनेवाला मा'शूक] कोई ग़ालिब की आँखों में नहीं समाता। वह खुदा की बन्दगी में भी मनमौजी और अभिमानी रहा। [२३–२] और बेवफ़ाओं के 'अिश्क में भी [१२७–४] उसका सबसे अधिक सुन्दर विवरण इस ग़ज़ल में है—

"बाज़ीचः-ए-अत्फ़ाल है दुनिया मिरे आगे"[२०९]

यह शान कसीदो में भी बाकी है, यद्यपि यह ग़ालिब की शा'अिरी और जीवन का कमजोर पहलू है। लेकिन यह स्वीकार न करना ज़ुल्म होगा कि मजबूर होकर उसने अपना हाथ ज़रूर फैलाया मगर इसको सदा जलील पेशा समझता रहा, और एक जगह अफ़सोस किया है कि आधी शा'अिरी अपात्रों की प्रशंसा में व्यर्थ हो गई। यही कारण है कि क़सीदो का प्रशंसात्मक अंश कमजोर है और तशबीब [आरंभिक भाग] अत्यंत काव्यमय। ग़ालिब को इसका एहसास था कि जिसकी प्रशंसा कर रहा हूँ उससे मेरा दर्जा ऊँचा है इसलिए उसने कहीं कहीं स्वयं अपनी प्रशंसा का पहलू निकाल लिया है।

ग़ालिब का अंतिम आश्रयस्थल उसका अनुध्यान और कल्पना है क्योंकि "निर्धनो के जीवन का आधार कल्पना पर है" (एक खत)। इस जगत में पहुँचकर वह विश्व पर राज्य करने लगता है और जीवन के हर अभाव की पूर्त्ति कर लेता है। यह स्वप्‍नों का संसार है और यहाँ स्वप्‍नों का निर्माण करनेवाले के अतिरिक्त किसी का शासन नहीं चलता। यहाँ बादशाह अजगर मालूम होने लगते हैं और शा'अिर पैग़म्बर हो जाता है और जिब्रईल (ख़ुदा का संदेश लेकर आनेवाला फ़रिश्ता) "नाकः-ए-शौक का हुदीख्वान" (अपने गीत से शौक़ को आगे बढ़ानेवाला)। यहाँ निर्दयता नहीं है केवल करुणा है। अपूर्ण कामनाएँ नहीं है केवल कामनापूर्ति का हर्ष है, क़दहसाजी (प्याले बनाना) और साक़ीतराशी [साकी गढ़ना] है। प्यास जितनी बढ़ती है सागर का उबाल भी उतना ही बढ़ता है। बुरे हालात में जीने का हौसला जाग उठता है और जिगर का खून पीकर चेहरे की ताजगी बढ़ जाती है (अब्र-ए-गुहरबार)। अनुध्यान अरचित उद्यानो से कुसुमचयन करता है और बहारों के गीत गाता है। इस दुनिया मे केवल गति और उड़ान है और आगे बढ़े जाने का मस्ताना अमल, "ता बाज़गश्त से न रहे मुद्द'आ मुझे" (१५०–३)।

ग़ालिब की ये सारी विशेषताएँ मिलकर उसके प्रेम के दृष्टिकोण को ऐसा रूप देती हैं जिससे पहले उर्दू शा'अिरी अपरिचित थी। सौन्दर्य के असीम आकर्षण के सामने, जिसमें अफ़लातूनियत कम है और जिस्मानियत (शारीरिकता) अधिक, अत्यधिक समर्पण और श्रद्धा के बावजूद गालिब का 'अिश्क स्वाभिमानी और मस्तकोन्नत है। जीवन के लिए यदि यह नियम है कि जो नालः (आर्त्तनाद) होठों तक नहीं आया वह सीने का दाग़ बन गया (२३–५, ११६, १२२–६, १४९–८, १५४–५, १९७, २१२–२) इसलिए दुख के सहन का साहस कम होना चाहिये और क्रोध का आवेग अधिक (फारसी शे'र) तो 'अिश्क के लिए यह नियम कि:—

'अिज्ज-ओ-नियाज़ से तो वह आया न राह पर
दामन को उसके आज हरीफ़ानः खैचिये(जमीमः ३८–२)

उर्दू ग़ज़ल की साकेतिकता का तकाज़ा यह है कि केवल मा'शूक़ को नहीं बल्कि हर आदर्श को चाहे वह नये जीवन की कामना ही क्यों न हो इसी तरह दामन खेच कर प्राप्त किया जा सकता है। शायद यही कारण है कि ग़ालिब ने अपने आप को आईन-ए-ग़ज़लख्वानी (काव्य-शास्त्र) में गुस्ताख़ (धृष्ट और अशिष्ट) कहा है (१७८–१२)।

इससे उर्दू शा'अिरी को एक नया मिज़ाज (स्वभाव और स्वर) मिला जिसके स्वाभिमान में हल्के से विद्रोह का सम्मिश्रण है। यह कभी तशकीक (शंका) के रूप में उभरता है और कभी व्यंग के और कभी कल्पना की कमंदें बन जाता है। ग़ालिब के समकालीन इस मिज़ाज को नहीं समझ सके जो खून के घूँट पीकर मुसकुराता है और जीवन तथा मानव को नयी गरिमा प्रदान करता है। ग़ालिब से पहले खुदा और मा'शूक पर किसने व्यंग किया था, दुख-सहन के बाँध किसने तोड़े थे, ज़ुल्म-ओ-सितम (अन्याय और अत्याचार) की चलती हुई तलवार को अपनी व्याकुलता के सागर की रक्त-तरंग किसने बनाया था (१३३–५), किसने ग़जल की भावना में विचार का इतना अधिक सम्मिश्रण किया था, किसने ग़ज़ल और क़सीदे की भाषा का अंतर मिटाकर नयी नज्म (आधुनिक काव्य-शैली) की बुनियादे रखी थीं (इसीलिए ग़ालिब की ग़ज़ल का स्वर मीर के स्वर से ऊँचा है)।

१९ वीं शताब्दी के अंत और २० वीं शताब्दी के आरंभ मे ग़ालिब की लोकप्रियता में जो अभिवृद्धि हुई है उसमें और बातों के अतिरिक्त इस नये मिजाज का भी योग है। यह स्वतंत्रता की चेतना से जागृत नये हिन्दोस्तान के नये मिज़ाज से एकस्वर है, जिसे विगत वैभव पर गर्व भी है और दुख भी है और नयी महानता की तलाश भी। ग़ालिब ने राजनीतिक कविता नहीं की लेकिन नये युग के मिज़ाज को समो लिया। और जब नये तूफान से खेलनेवाले आये तो उन्होने प्रलयंकारी तरंगो से लड़ने के लिए ग़ालिब की शा'अिरी से शक्ति प्राप्त की "ग़ालिब की कला के कारण गजल प्रेम-वर्णन से बढ़कर जीवन-वर्णन बनती है और जीवन के विभिन्न युगों, करवटों और क्रांतियो का साथ देने लगती है" (आले अहमद सुरूर)। यह आकस्मिक बात नहीं है कि उर्दू की पुरानी शा'अिरी से विद्रोह करनेवाला हाली ग़ालिब का शिष्य था और नयी शिक्षा पर बल देनेवाला सर सैयद ग़दर से पहले नये विज्ञान और उद्योग की प्रशंसा ग़ालिब से सुन चुका था। और यह भी आकस्मिक बात नहीं है कि देशभक्त शिबली की ग़ज़लों में ग़ालिब की प्रतिध्वनि है और इकबाल के चिंतन और कला पर ग़ालिब के चिंतन और कला के सूर्य की किरणें पड़ रही है। जोश मलीहाबादी से लेकर आज के शा'अिरो तक कोई ऐसा नहीं है जो किसी न किसी रूप में ग़ालिब से प्रभावित न हो। ग़ालिब के अनगिनत शे'र उत्तरी भारत के लोगों की ज़बान पर चढ़े हुए हैं और उर्दू जाननेवाला शायद ही कोई घर दीवान-ए-ग़ालिब से खाली हो।

आज हमारे हाथ में ग़ालिब की शा'अिरी दो युगों की तर्जुमान बन कर आयी है। उसमें एक युग का मदिरालस और दूसरे युग की मादकता है, जाती हुई रात की वेदना और उदीयमान उषा का हर्ष मिश्रित हो गया है।

ग़ालिब की महानता केवल इसमें नहीं है कि उसने अपने युग की आंतरिक व्याकुलता को समेट लिया बल्कि इसमें कि उसने नयी व्याकुलता पैदा की। उसकी शा'अिरी अपने युग के बंधनो को तोड़ देती है और भूत और भविष्य के विस्तार में फैल जाती है। ग़ालिब ने अपने हर अनुभव को जो एक अत्यंत मृदुल सौन्दर्यबोध रखनेवाले मस्तिष्क की प्रक्रिया थी, मानवी मनोविज्ञान की आग में तपाकर पिघलाया है, व्यापक नियम की कसौटियों पर कसा है और फिर काव्य के रूप में ढाला है। तब उसके यहाँ एक विश्व कवि का स्वर पैदा हुआ है और वह जीवन के हर क्षण का कवि बन गया है। वह मानव-आत्मा की बहुरंगी अवस्थाओं से परिचित है। अत्यधिक हर्ष हो या अत्यधिक निराशा, शंका की दशा हो या कल्पना की जादूगरी हो, दर्शन की गूढ़ समस्याएँ हो या अत्यंत निम्नकोटि की वस्तुएँ, चुम्बनों की मादकता हो या अलिंगन का आनंद, हर स्थिति में ग़ालिब की शा'अिरी साथ देगी। निम्नतर कोटि के कवि उसकी किसी एक अदा को अपना विचार-दर्शन बना सकते हैं, लेकिन ग़ालिब एकसाथ अपनी सारी अदाओं का जादू डालता है।

इस शा'अिरी का रसास्वादन कर सकने के लिए केवल शाब्दिक अर्थों का ज्ञान पर्याप्त नहीं है। शे'रो को बार-बार पढ़ना भी आवश्यक है। फिर शब्द अक्षरों के समूह के रूप में नहीं बल्कि चित्रों के रूप में पहचाने जायेंगे। मनुष्यों के चेहरों की तरह वे धीरे-धीरे सुपरिचित बनेंगे और अपना व्यक्तित्व प्रकट करेंगे। फिर शब्दों की ध्वनि का लोच महसूस होगा और उनके परस्पर टकराव की झनकार से कान परिचित होंगे। तब जाकर अर्थ-संगीत और आंतरिक स्वर के द्वार खुलेंगे। इस तरह शाब्दिक अर्थों से गुजरकर काव्यात्मक अर्थों तक पहुँचने का पथ मिलेगा। और उल्लासजनित मत्तता की वह अवस्था प्राप्त होगी जहाँ वफ़ा (प्रेम-निर्वाह) का शब्द मा'शूक की ज़ुल्फों (अलकों) की तरह सुरभित हो उठेगा और सर्व-ए-चराग़ों (दीप-सज्जित वृक्ष) नृत्य करता नजर आयेगा 'अिश्क (प्रेम) अभिरुचि और आचारण बन जायगा, प्रेयसी का सौन्दर्य सृष्टि के सौन्दर्य में परिणत हो जायगा, नाज़ (रूप-गर्व) वह आदर्श बन जायगा जिसकी प्राप्ति के लिए तन-मन की बाजी लगाना सुरुचि का परिचायक है, शमशीर-ओ-सिनाँ (तलवार और बर्छी) का तेज और अंदाज-ओ-अदा (हाव-भाव) की सुन्दरता प्रकट होगी, फ़िराक (विरह) का दर्द कामना की मृदुलता में परिणत हो जायगा और विसाल (मिलन) तृष्णा के आनंद की परितृप्ति में; शौक (आकांक्षा) एक निमणि-शक्ति बनकर उभरेगा और दश्त-ओ-सहरा (मैदान और जंगल) संभावनाओं का विस्तार धारण कर लेंगे, जुनून (उन्माद) जिज्ञासा बन जायगा जिसकी राहें कभी जिन्दाँ (कारागार) की जंजीरे रोकेंगी और कभी दैर-ओ-हरम (मन्दिर और मस्जिद) की दीवारें, जिन्होंने अपने अन्दर लालसा की थकन को सजा रखा है; (जमीमः २०–२) और मैख़ानः (मदिरालय) पूर्ण मानवता और पूर्ण स्वतंत्रता की मंज़िल बनकर सामने आयगा। फिर दीवान-ए-ग़ालिब के हर पृष्ठ पर उसकी कल्पना की सृष्टि अँगड़ाइयाँ लेने लगेगी, उसके सरापा नाज़ महबूब आँखो के सामने मुस्कुरायेंगे और दुनिया ज्यादा खूबसूरत हो जायगी और मानव अधिक आदरणीय।

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प्रचलित दीवान-ए-ग़ालिब वास्तव में ग़ालिब के उर्दू काव्य का संग्रह हैं जिसके कई संस्करण ग़ालिब के जीवनकाल में प्रकाशित हुए। मैंने इस संस्करण के लिए श्री मालिक राम द्वारा सम्पादित दीवान का उपयोग किया है जिसका मूल मतबः-ए-निज़ामी कानपुर के संस्करण (१८६२ ई॰) पर आधारित है। और इसका संशोधन स्वयं ग़ालिब ने किया था।

मैंने केवल ग़ज़ले मूल-क्रम के साथ बाकी रखी हैं और ज़मीमे (परिशिष्ट) में भी दो कत'ओ के 'अलावः बाकी अश'आर ग़ज़लो के ही है।

'आम तौर से उर्दू लिखावट में विरामचिन्हों और मात्राओं का रिवाज नहीं है। और 'अिबारत अटकल से पढ़ी जाती है इसलिए दीवान-ए-ग़ालिब के विभिन्न संस्करणों में कुछ इजाफ़तों में विरोध मिलता है, जो या तो दीवान सम्पादित करनेवालो ने जल्दी में लिखदी है या कातिब ने सजावट के लिए लगादी है। मालिक राम ने विरामचिन्हों के मु'आमले में बड़े परिश्रम और सावधानी से काम लिया है लेकिन ऐ'राब लगाने में उन्होने भी इतनी सावधानी नहीं बरती। मैंने विरामचिन्ह ज्यों के त्यों रखे हैं लेकिन कुछ इज़ाफ़तों के मु'आमले में विरोध किया है। उदाहरण के लिये मालिक राम के यहाँ और कुछ दूसरे संस्करणों में "जोश-ए-कदह से बज्म-ए-चराग़ाँ किये हुये" लिखा है। मैंने बज्म की इज़ाफ़त बाकी नहीं रखी। इसी तरह "चश्म-ए-दल्लाल जिन्स-ए-रुस्वाई" के बजाय मैंने 'चश्म, दल्लाल-ए-जिन्स-ए-रुस्वाई' लिखा है। लेकिन यह बात केवल चन्द शे'रो तक सीमित है।

उच्चारण का प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। विदेशी भाषाओं के चन्द शब्द उर्दू भाषा में आकर बिगड़ चुके हैं। चूँँकि इस तरह वह उर्दू के शब्द बन गये हैं इसलिए मैं साधारणतः बोलचाल के उच्चारण (तद‍्भव) को मूल फ़ारसी या 'अरबी उच्चारण (तत्सम) पर प्रधानता देता हूँ। यही कारण है कि मैंने सुवाल को सवाल, गिरिफ़्तार को गिरफ़्तार और निश्तर को नश्तर लिखा है। ऐसे शब्दों में भी जिनके दो उच्चारण हैं, मैंने बोलचाल के उच्चारण को बेहतर समझा है। इसकी कसौटी मेरा निजी ज्ञान है। इसलिये 'अज्ज़ पर 'अिज्ज़ को और सिताइश पर सताइश को प्रधानता दी है लेकिन इतनी सावधानी बरती है कि हिन्दी शब्दावली में कोष्ठक के अन्दर दूसरा उच्चारण भी लिख दिया है। मैंने कुछ शब्द जैसे ख़जाँ, चराग़ और नशात को नहीं बदला है लेकिन मेरा विचार है कि उर्दू में ख़िज़ाँ, चिराग़ और निशात प्रचलित है और उनका इसी तरह प्रयोग करना चाहिये। यह दूसरा प्रश्न है कि स्वयं ग़ालिब ने क्या उच्चारण किया। जब तक इसकी छानबीन न की जाय उस समय तक हम निजी रुचि की कसौटी का प्रयोग करने पर बाध्य हैं।

नागरी लिपि में उर्दू काव्य और साहित्य का एक बड़ा भाग प्रकाशित हो चुका है। लेकिन उर्दू को नागरी लिपि में परिवर्तित करने के प्रश्न पर पूरी तरह विचार नहीं किया गया। प्रारम्भ में यह असावधानी स्वाभाविक थी, लेकिन अब, जबकि हिन्दी हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा बन चुकी है और उसको देवनागरी लिपि द्वारा हिन्दुस्तान की विभिन्न भाषाओं की पूँजी को अपने दामन में समेटना है तो यह आवश्यक है कि लिपि के प्रश्नों पर साहित्यिक और वैज्ञानिक रूप से विचार किया जाय और दूसरी भाषाओं की आवाज़ों को व्यक्त करने के लिये नयी 'अलामते और संकेत अपनाये जाये। यह जीवित भाषाओं की विशेषता है और नागरी लिपि पहिले भी क, ख, ग, ज और फ के नीचे बिन्दी लगाकर अपने जीवित होने का सुबूत दे चुकी है।

उर्दू साहित्य हिन्दी साहित्य से सब से अधिक निकट है और दोनों की बोलचाल की भाषा और स्थान एक ही है। लेकिन फिर भी उर्दू में कुछ ऐसी विशेषतायें है जो हिन्दी से भिन्न हैं जैसे 'अत्फ़ और इजाफत।

'अत्फ़ दो या दो से अधिक शब्दों या वाक्यों को मिलाने का काम देता है। 'अत्फ़ के बहुत से अक्षर हैं लेकिन यहाँ पर केवल उस वाव (,) से बहस है जो और के अर्थ मे प्रयुक्त होता है। जैसे "गुल और बुलबुल" की जगह गुल-ओ-बुलबुल।

इजाफत एक शब्द से दूसरे शब्द का सम्बन्ध प्रकट करती है। इजाफत की 'अलामत ज़ेर से लिखी जाती है जो अक्षर के नीचे लगाया जाता है और उसके प्रयोग से गुल का रँग "रँग-ए-गुल" और ग़ालिब का दीवान "दीवान-ए-ग़ालिब" हो जाता है।

नागरी में 'अत्फ़ और इजाफत के लिखने के जो तरीके प्रचलित हैं, वह दोषपूर्ण है। उनसे शब्दों का मूल-रूप बिगड़ जाता है और कभी कभी अर्थ का अनर्थ हो जाने की आशंका होती है। जैसे साधारणतः "गुल और बुलबुल" को लिखने के लिए "गुलो बुलबुल" लिखा जाता है या गुल व बुलबुल। एक में गुल का रूप बिगड़ गया है और दूसरे में उच्चारण की अशुद्धि की सम्भावना है।

इस दीवान में 'अत्फ के वाव (,) के लिए -ओ- की 'अलामत अपनाई गई है और "गुल-ओ-बुलबुल" लिखा गया है।

इजाफ़त के लिए -ए- की 'अलामत अपनाई गई है। और दीवाने ग़ालिब के बजाय जिसका अर्थ पागल ग़ालिब भी हो सकता है, "दीवान-ए-गालिब" लिखा गया है। इस तरह शब्द का मूल रूप बाकी रहता है और इजाफत का जेर ये (ݻ) में नहीं बदलता।

उर्दू के तीन अक्षरों के लिए भी नये चिह्नों से काम लिया गया है। एक श़े (ڌ) दूसरे 'अैन (ع) और तीसरे छोटी हे (ه)

जिस अक्षर को उर्दू में (ڈ) लिखते है उसकी आवाज हिन्दी में मौजूद नहीं है यह ज़ और श के बीच की आवाज है। इसलिए श के नीचे बिन्दी लगादी गई है (श़)

'अैन (ع) की आवाज उर्दू में अलिफ़ (ݴ) की आवाज से मिल गई है इसलिए नागरी लिपि में साधारणतः दोनों अक्षरों को एक ही तरह लिखा जाता है। जिन शब्दों के आरम्भ में 'अैन आता है उन में कोई बाधा नहीं आती। जैसे "आशिक" और "औरत"। लेकिन जिन शब्दों के अन्त में या बीच में 'अैन आता है वहाँ उसकी अलग आवाज का प्रकट करना आवश्यक हो जाता है। कभी कभी 'अैन अलिफ़ के साथ भी आता है। जैसे 'आदत या विदा'अ। इस जगह लिखावट में 'अैन को अलिफ़ से अलग करने की जरूरत पड़ती है। यही कारण है कि इस दीवान में अलिफ़ (ݴ) के लिए (अ) और 'अैन (ع) के लिए ('अ) की 'अलामत प्रयोग की गई है।

'अैन दूसरे अक्षरों की तरह गतिवान भी आता है और गतिहीन भी। गतिवान 'अैन के लिखने में कोई कठिनाई नहीं आती और उसे हर जगह सब आवाजों को व्यक्त करने में समर्थ नहीं है क्योंकि मानव मस्तिष्क की तरह मानव कंठ भी असीमित योग्यता का मालिक है। उर्दू के वे शब्द जिनका दूसरा अक्षर बड़ी हे (ح) हो और यह हे (ح) गतिहीन हो और पहले अक्षर पर जबर हो तो उसे जबर नहीं बोला जाता बल्कि उस की आवाज जबर और ज़ेर के बीच में होती है। जैसे अह‍्मद, मह‍्बूब, बह‍्‍र, वह‍्शत वग़ैरः। इनका उच्चारण करते समय पहले अक्षर को हमेशः अ और ए के बीच बोलना चाहिये। कभी कभी छोटी हे (ه) के शब्दों के साथ भी यही होता है। जैसे क़ह‍्‍र।

उर्दू की एक और विशेषता यह है कि शा'अिरी में कुछ शब्दों की याये मज्हूल (मोटी आवाज़ देनेवाली ये) को ख़ारिज करके उसे ज़ेर से बदल दिया जाता है। इस तरह आवाज़ छोटी हो जाती है। उदाहरण के लिए एक (ایک) और मेरे (میرے) से जब याये मज्हूल ख़ारिज होती है तो 'ए' की आवाज छोटी हो जाती है। और इसे (ݴک) और (ے) लिखा जाता है। नागरी में इस आवाज़ को जो वास्तव में ज़ेर की खालिस आवाज़ है, व्यक्त करने का कोई तरीका नहीं। इसलिये मजबूरन ऐसे स्थानों पर इ की अलामत प्रयोग में लाई गई है। जैसे (इक) और (मिरे) यही सूरत कहीं कहीं वाव के साथ भी पेश आती है जहाँ उसकी पूरी आवाज़ कट कर पेश की आवाज़ में बदल जाती है। जैसे कोहसार کوہسار से کوہسار इसको मजबूरन (कुह्सार) लिखा गया है।

मेरी राय यह है कि नागरी लिपि की मात्राओं में उर्दू के ज़ेर () और पेश (') को सम्मिलित कर लेना चाहिये। चूँकि ज़बर जिसका रूप ज़ेर जैसा ही होता है और अक्षर के ऊपर लगाया जाता है, नागरी अक्षरों में सम्मिलित होता है, इसलिये इसे नागरी लिपि की मात्राओं में सम्मिलित करने की जरूरत नहीं। अलबत्तः किसी अक्षर से जबर की हरकत को ख़ारिज करने के लिए उसके नीचे हलन्त लगा देना चाहिये। जैसे (शम्'अ) के म और (बह‍्‍र) के "ह" में लगाया गया है।

इस तरह नागरी लिपि उर्दू की आवाज़ों को बड़ी हद तक व्यक्त करने में समर्थ हो जायगी।

नागरी लिपि में संशोधन और परिवर्द्धन का जो प्रस्ताव यहाँ पेश किया गया है, सम्भव है कि हिन्दी के कुछ क्षेत्रों में इसे स्वीकार करने योग्य न समझा जाय। लेकिन यह विश्वास है कि यह प्रस्ताव उन लोगों को भी सोचने का अवसर अवश्य देगा और इस प्रकार नागरी लिपि के दूसरे प्रश्‍नों पर भी, जिन्हे मैंने यहाँ नहीं छेड़ा है, विचार-विनिमय और वाद-विवाद हो सकेगा।  

अन्त में उन सब मित्रों के प्रति आभार प्रकट करते हुए मुझे अत्यन्त हर्ष होता है जिनके सहयोग से दीवान-ए-ग़ालिब का प्रस्तुत संस्करण प्रकाशित हुआ है। सबसे पहिले मैं लाला योधराज का आभारी हूँ जिनकी उदारता और विशाल हृदयता से हिन्दुस्तानी बुक ट्रस्ट अस्तित्व में आया। दीवान-ए-ग़ालिब इस ट्रस्ट का प्रथम ग्रन्थ है। मीर, इकबाल और उर्दू के दूसरे महान कवियो के संकलन भविष्य में प्रकाशित होंगे। मेरे आदरणीय मित्र श्री शहाबुद्दीन देस्‍नवी ने अपनी अत्यन्त व्यस्तता के बावजूद हिन्दुस्तानी बुक ट्रस्ट के स्थापन और दीवान के मुद्रण में जिस तरह प्रयत्‍न किया है और अपना बहुमूल्य समय दिया है उसकी प्रशंसा के लिये शब्द नाकाफी हैं। श्री वी. शंकर के कीमती मशवरों के साथ-साथ जो काम करनेवालों के मार्गदर्शन और उत्साहवर्धन का कारण हुए, डाक्टर मुल्कराज आनन्द और उनकी सहयोगिनी मिस सैयार के परामर्श से दीवान-ए-ग़ालिब का हर पृष्ठ सुसज्जित है और इसका यह सुन्दर और मनोहर रूप उन्ही के प्रयत्‍नों का नतीजः है। मैं श्री मालिक राम का भी आभारी हूँ, जिन्होने अपने सम्पादित दीवान-ए-ग़ालिब का उपयोग करने की अनुमति देकर मेरे काम को बहुत आसान बना दिया। श्री मुग़नी अमरोहवी ने ग़ज़लों को देवनागरी में लिपिबद्ध किया और हर पृष्ठ का संशोधन किया और श्री प्रेम स्वरूप शर्मा ने शब्दावली सम्पादित करने में मेरा हाथ बटाया। इन दोनों मित्रों के सहयोग के बिना इस कर्तव्य से भारमुक्त होना मेरे लिये असम्भव था।

अदबी प्रिंटिंग प्रेस के सभी कार्यकर्ता विशेष रूप से मेरे धन्यवाद के अधिकारी हैं। उन्होंने दिन रात एक करके दीवान-ए-ग़ालिब इतनी स्वच्छता के साथ छापा है और अपने और अपने प्रेस के लिए दिलों के अन्दर जगह पैदा करली है।

खुदा करे इस दीवान के प्रकाशन से हिन्दी वालों और उर्दू वालों के दिलों में प्रेम के नये पुष्प खिलें और हमारा देश और हमारी भाषा उन की सुगंध से महक उठे।

बम्बई

सरदार जा'फ़री

जुलाई १९५८
 
 

लिखावट और उच्चारण का नक़्शः

श़ ڈ   'अैन ع
ज़ और श के बीच की आवाज़ 'अ (पूरा ) ' (आधा)

छोटी हे [:] [ه]

लिखावट उच्चारण
नग़मः नग़मा
नग़मः-ए- अअे नग़मअे
नग़मः-ओ- अओ नग़मओ

'अत्फ़ [-ओ-] [و] عطف
(दो शब्दों का जोड़)

गुल-ओ-बुलबुल गुलो-बुलबुल
लालः-ओ-गुल अओ लालओ-गुल
अदा-ओ-नाज़ आओ अदाओ-नाज़

इज़ाफ़त [-ए-] [ ِ] اضافت
(दो शब्दों का संबंध)

ग़म-ए-दिल अे ग़मे-दिल
नग़मः-ए-दिल अअे नग़मअे-दिल
हवा-ए-दिल आअे हवाअे-दिल

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