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हिंदी रसगंगाधर

विकिस्रोत से
हिंदी रसगंगाधर
अनुवादक
श्रीगोकुलनाथ

 
Published by
K. Mittra
at The Indian Press, Ltd.,
Allahabad.
 

Printed by
A.Bose,
at The Indian Press, Ltd.,
Benares-Branch.

 

परिचय

जयपुर राज्य के शेखावाटी प्रांत मे खेतड़ी राज्य है। वहाँ के राजा श्रीअजीतसिंहजी बहादुर बड़े यशस्वी और विद्याप्रेमी हुए। गणित शास्त्र में उनकी अद्भुत गति थी। विज्ञान उन्हें बहुत प्रिय था। राजनीति में वह दक्ष और गुणग्राहिता में अद्वितीय थे। दर्शन और अध्यात्म की रुचि उन्हें इतनी थी कि विलायत जाने के पहले और पीछे स्वामी विवेकानंद उनके यहाँ महीनों रहे। स्वामीजी से घंटो शास्त्र चर्चा हुआ करती। राजपूताने में प्रसिद्ध है कि जयपुर के पुण्यश्लोक महाराज श्रीरामसिंहजी को छोड़कर ऐसी सर्वतोमुख प्रतिभा राजा श्रीअजीतसिंहजी ही में दिखाई दी।

राजा श्रीअजीतसिंहजी की रानी आउआ (मारवाड़) चाँपावतजी के गर्भ से तीन संतति हुईं—दो कन्या, एक पुत्र। ज्येष्ठ कन्या श्रीमती सूर्यकुमारी थीं जिनका विवाह शाहपुरा के राजाधिराज सर श्रीनाहरसिंहजी के ज्येष्ठ चिरंजीव और युवराज राजकुमार श्रीउमेदसिंहजी से हुआ। छोटी कन्या श्रीमती चाँदकुँवर का विवाह प्रतापगढ़ के महारावल साहब के युवराज महाराजकुमार श्रीमानसिंहजी से हुआ। तीसरी संतान जयसिंहजी थे जो राजा श्रीअजीतसिंहजी और रानी चाँपावतजी के स्वर्गवास के पीछे खेतड़ी के राजा हुए।

इन तीनों के शुभचिंतकों के लिये तीनों की स्मृति, संचित कर्मों के परिणाम से, दुःखमय हुई। जयसिंहजी का स्वर्गवास सत्रह वर्ष की अवस्था में हुआ। सारी प्रजा, सब शुभचिंतक, संबंधी, मित्र और गुरुजनों का हृदय आज भी उस आँच से जल ही रहा है। अश्वत्थामा के व्रण की तरह यह घाव कभी भरने का नहीं। ऐसे आशामय जीवन का ऐसा निराशात्मक परिणाम कदाचित् ही हुआ हो। श्रीसूर्यकुमारीजी को एक मात्र भाई के वियोग की ऐसी ठेस लगी कि दो ही तीन वर्ष में उनका शरीरांत हुआ। श्रीचाँदकुँवर बाईजी को वैधव्य की विषम यातना भोगनी पड़ी और भ्रातृवियोग और पति-वियोग दोनों का असह्य दुःख झेल रही है। उनके एकमात्र चिरंजीव प्रतापगढ़ के कुँवर श्रीरामसिंहजी से मातामह राजा श्रीअजीतसिंहजी का कुल प्रजावान् है।

श्रीमती सूर्य्यकुमारीजी के कोई संतति जीवित न रही। उनके बहुत आग्रह करने पर भी राजकुमार श्रीउमेदसिंहजी ने उनके जीवन-काल में दूसरा विवाह नहीं किया। किंतु उनके वियोग के पीछे, उनके आज्ञानुसार, कृष्णगढ़ में विवाह किया जिससे उनके चिरंजीव वंशांकुर विद्यमान है।

श्रीमती सूर्य्यकुमारीजी बहुत शिक्षिता थीं। उनका अध्ययन बहुत विस्तृत था। उनका हिंदी का पुस्तकालय परिपूर्ण था। हिंदी इतनी अच्छी लिखती थीं और अक्षर इतने सुंदर होते थे कि देखने वाले चमस्कृत रह जाते। स्वर्गवास के कुछ समय के पूर्व श्रीमती ने कहा था कि स्वामी विवेकानंदजी के सब ग्रंथों, व्याख्यानों और लेखों का प्रामाणिक हिंदी अनुवाद मैं छपवाऊँगी। बाल्यकाल से ही स्वामीजी के लेखों और अध्यात्म विशेषतः अद्वैत वेदांत की ओर श्रीमती की रुचि थी। श्रीमती के निदेशानुसार इसका कार्यक्रम बांधा गया। साथ ही श्रीमती ने यह इच्छा प्रकट की कि इस संबंध में हिंदी में उत्तमोत्तम ग्रंथों के प्रकाशन के लिये एक अक्षय निधि की व्यवस्था का भी सूत्रपात हो जाय। इसका व्यवस्थापन बनते बनते श्रीमती का स्वर्गवास हो गया।

राजकुमार उमेदसिंहजी ने श्रीमती की अंतिम कामना के अनुसार बीस हजार रुपए देकर काशी-नागरीप्रचारिणी सभा के द्वारा इस ग्रंथमाला के प्रकाशन की व्यवस्था की है। स्वामी विवेकानंदजी के यावत् निबंधों के अतिरिक्त और भी उत्तमोत्तम ग्रंथ इस ग्रंथमाला में छापे जायँगे और अल्प मूल्य पर सर्वसाधारण के लिये सुलभ होंगे। ग्रंथमाला की बिक्री की आय इसी में लगाई जायगी। यों श्रीमती सूर्य्यकुमारी तथा श्रीमान् उमेदसिंहजी के पुण्य तथा यश की निरंतर वृद्धि होगी और हिंदी भाषा का अभ्युदय तथा उसके पाठकों को ज्ञान-लाभ होगा।

 

 

निवेदन

पुञ्जीभूतिः सुबहुजनिभिः श्रेयसां संचितानाम्
साक्षाद्भाग्यं ननु निवसतां नन्दपल्लीषु पुंसाम्।
पात्रं प्रेम्णां ब्रजनववधूमानसादुद्गतानाम्
आम्नायानां किमपि हृदयं स्मर्यतां मञ्जुमूर्ति॥

उद्देश्य और परिस्थिति

जिस समय मैं श्रोनाथद्वार की संस्कृत पाठशाला मे अध्यापक था, उस समय मेरे एक मित्र वैद्य श्रीकृष्ण शर्मा हिंदी साहित्य सम्मेलन की मध्यमा परीक्षा दे रहे थे। वे कभी कभी मेरे पास भी रसों और अलंकारों का विषय समझने के लिये आ जाया करते थे। मुझे उस समय अनुभव हुआ कि हिंदी भाषा में रसों और भावों के विषय को प्राचीन शैली से यथार्थ रूप में समझा देनेवाला कोई भी ग्रंथ नही है। उन्होंने मुझसे आग्रह भी किया था कि आप इस विषय में कुछ लिखिए; पर अवसराभाव से उस समय कुछ भी न हो सका। अस्तु।

उस बात को आज कोई चार-पाँच वर्ष हो गए। विक्रम संवत् १९८२ के माघ मास में मैंने किसी विशेष कारण-वश श्रीनाथद्वार छोड़ दिया। उसके कुछ ही दिनों बाद—चैत्र में—बंबई निवासी गोस्वामिकुलकौस्तुभ श्रीगोकुलनाथजी महाराज ने मुझे जूनागढ़ और चापासनी (जोधपुर, मारवाड़) के आचार्यसनों पर विराजमान चि॰ गोस्वामी श्रीपुरुषोत्तमलालजी तथा चि॰ गोस्वामी श्रीव्रजभूषणलालजी के अध्यापन के लिये नियुक्त किया। इसी अवसर में मुझे काशी की साहित्याचार्य परीक्षा के लिये रसगंगाधर के अध्ययन और मनन की आवश्यकता हुई। रसगंगाधर से परिचित सभी संस्कृताभिज्ञ इस बात को मानते हैं कि रसों और भावों का जैसा विशद विवेचन रसगंगाधर में है, वैसा और कही नहीं है। अतः इस समय मेरे हृदय में अपने पूर्वोक्त मित्र के आग्रह की स्मृति जागरित हुई और विचार हुआ कि क्या ही अच्छा हो, यदि यह ग्रंथ हिंदी-भाषा-भाषियों के भी उपयोग में आ सकें। इस विचार के कुछ दिन पूर्व, मेरे मित्र और भूपाल-नोबल्स स्कूल, उदयपुर (मेवाड़) के अध्यापक साहित्यशास्री श्रीगिरिधर शर्मा व्यास ने मुझसे इस अनुवाद के लिये कहा भी था। कदाचित् उनका यह विश्वास था कि मेरा अनुवाद संस्कृत रसगंगाधर के अध्येता छात्रों के लिये भी उपयोगी होगा।

चापासनी एक छोटा सा गाँव है, इतना छोटा कि वहाँ सब मिलाकर सौ मनुष्यों की भी वस्ती नहीं है। यद्यपि अध्ययन, अध्यापन और भोजन-निर्माणादि के कारण (क्योंकि मैं यहाँ सकुटुंव नही रहता था) बहुत ही कम समय बच पाता था; तथापि यहाँ कोई ऐसा व्यक्ति नहीं था जो मुझसे इस समय को भी छीन लेता। हाँ, यदि मैं उसका दुरुपयोग ही करना चाहता तो बात दूसरी थी। सो मैंने इस अनुवाद का कार्य आरम्भ कर ही डाला।

पर पूर्वोक्त आचार्यकुमार यहाँ स्थिर रूप से नहीं रह पाते। उन्हें भारतवर्ष के अधिकांश भाग में फिरते रहना होता है। और मैं तो रहा उनके साथ; इस कारण तथा अन्यान्य कारणों से भी मुझे खूब ही भ्रमण करना पड़ता है। सो इस (प्रथमानन) के अनुवाद के लिखते समय मैंने कराँची, हैदराबाद (सिंध), जोधपुर (कई बार), जयपुर (कई बार) अहमदावाद, बड़ौदा, ईडर, बीकानेर, नागोर, जूनागढ़ (कई बार), काशी, मथुरा और श्रीनाथद्वार आदि अनेक प्रसिद्ध नगरों के अतिरिक्त काठियावाड़ के शतावधि गावँड़ों में—प्रायः आज पहुँचे और कल चले, इस हिसाब से—भ्रमण किया है, और आज भी यही क्रम वर्त्तमान है।

गावँड़ों में प्रायः किसानों के घरों में रहना होता है। उन गोमयगंधी अंधतमसावृत तथा खटमलों और पिस्सुओं के नियत निवासों मेंं जिन कष्टों का अनुभव होता है, उन्हें अनुभविता के अतिरिक्त कौन समझ सकेगा? हाँ, कभी-कभी अच्छे घर भी प्राप्त हो जाते हैं; पर भाग्य से ही। फिर वहाँ पहुँचते ही घर जमाना, भोजन बनाना, पूर्वोक्त कुमारों को पढ़ाना और आवश्यकता हो तो व्याख्यानादि भी देना पड़ता है। इसके उपरांत यदि सद्भाग्य से कुछ समय प्राप्त हो गया और शरीर तथा मन स्वस्थ रहा तो इस अनुवाद के लिखने का अवसर आता है। पर, ऐसी परिस्थिति में एकाग्रता और स्वास्थ्य कहाँ तक रह सकते हैं, इसका पता भुक्तभोगी को ही हो सकता है।

मुझे इस बात का बोध है कि मैं यह सब लिखकर आपका और अपना दोनों का समय नष्ट कर रहा हूँ; तथापि यह समझकर कि मेरी परिस्थिति का अनुभव हो जाने के कारण, आप, इस अनुवाद में कदाचित् कोई त्रुटि रह गई हो तो क्षमा कर सकेगे, ये बातें लिख दी गईं हैं। मैं आशा करता हूँ कि आप मुझे इस समय घातित्व के दोष से मुक्त कर देंगे।

अनुवाद

मैं अनुवाद उसे मानता हूँ, जिसे,जिस भाषा में वह लिखा गया है, उस भाषा-मात्र को जाननेवाला मनुष्य समझ सकें। उसे मूलग्रंथ की भाषा के अध्ययन की आवश्यकता ही न पड़े। पर, आजकल हिंदी-भाषा में संस्कृत-भाषा ऐसी मिल गई है कि बिना उसके हिंदी का कुछ काम ही नहीं चल सकता, इसे उससे सर्वथा पृथक् कर देना असंभव ही है। जब समाचारपत्रों की भाषा भी संस्कृतप्रचुर होती जा रही है, तब पुस्तकों की भाषा के विषय में तो कहना ही क्या है। फिर यह वो एक ऐसे ग्रंथ का अनुवाद है जिसके विषय और भाषा इतने गंभीर हैं कि उनकी टक्कर से, ऐसे वैसे संस्कृतज्ञों का तो सिर चकराने लगता है। ऐसी स्थिति में हमारे जैसा अल्पज्ञ और व्यग्रचित्त प्राणी इस कार्य में कृतकृत्य होने की आशा करें, यह यद्यपि दुस्साहस-मात्र ही है तथापि यह समझ -कर कि संस्कृत-भाषा के महा विद्वान् तो इस काम को हाथ में लेंगे नही; क्योंकि वे बहुधा हिंदी में लेख लिखने में अपना अपमान मानते हैं, हमने अपनी अयोग्यता समझते हुए भी यह कुचेष्टा कर ही डाली। हाँ, इसमें कोई संदेह नहीं कि हमने अपने पूर्वोक्त सिद्धांत के अनुसार, जहाँ तक हो सका, अनुवाद के सरल और बामुहाविरे बनाने के प्रयत्न में किसी प्रकार की कमी नहीं की; और नव्य न्याय की शैली से लिखे हुए इस ग्रंथ के अनुवाद में भी, बिना किसी विशेष कारण के, कही अवच्छेदक तथा अवच्छिन्न शब्द नहीं आने दिया और उन स्थलों का तात्पर्य लिखने का प्रयत्न किया है। अब हम सफल हुए अथवा असफल, इस बात का निर्णय विद्वान् लोग करेंगे। वे कृपाकर इस बात को भी ध्यान में रखेंगे कि शास्त्रीय विषय सरल से सरल करने पर भी कहानी नहीं बन सकता।

पद्यानुवाद

हमने एक और कुचेष्टा की है। वह है उदाहरण-पद्यों का पद्यानुवाद। इसका कारण केवल यह है कि पद्य में जो एक प्रकार की बन्धकृत विशेषता होती है, वह केवल गद्यानुवाद में नहीं आ सकती; और हमारी इच्छा थी कि हिंदी के ज्ञाता मात्र भी उसका अनुभव कर सकें। अतएव हमने अनुवाद में इस बात का ध्यान रखा है कि मूल में जहाँ नागरिका, उप- नागरिका अथवा ग्राम्य वृत्ति है वहाँ अनुवाद में भी वही वृत्ति रहे, यहाँ तक कि जहाँ एक पद्य में तीन-तीन वृत्तियाँ बदली हैं, वहाँ भी उनके निर्वाह का यथाशक्ति प्रयत्न किया जाय। इतने पर भी मतभेद हो सकता है,और ऐसा होना अनिवार्य भी है।

विषय-विवेचन

हमने एक अनधिकार चेष्टा और की है। वह है भूमिका का 'विषय-विवेचन' भाग। इसमें हमने जिन विषयों का विवेचन किया है, वे अत्यन्त गंभीर और अत्यधिक सामग्री तथा अध्ययन की अपेक्षा रखते हैं; और हमें विश्वास है कि इस विषय में हमारे जैसे अल्पज्ञ और अल्पबुद्धि प्राणी से अनेक भूलें हुई होगी। और कई बातों की कमी तो हमारे जानते में भी रह गई है, जिसे हम पूरा नहीं कर सकें। सद्भाग्य से यदि हमारे सामने इसके द्वितीय संस्करण का सुयोग आवेगा और उस समय हमारी परिस्थिति अच्छी होगी, तो हम उसे पूर्ण करने का प्रयत्न करेंगे। इतने पर भी यह समझकर कि हमारे इस विषय को छोड़ देने पर, संभव है, कोई भावी विद्वान् इसे सर्वांगपूर्ण बना सकें और इस समय भी जैसा कुछ संभव है, वह इन विषयों के अध्येताओं के उपयोगी हो, हमसे जो कुछ बन पड़ा लिख ही दिया है। इसके लिखने में भी हमें अपनी परिस्थिति के कारण अत्यंत कष्ट उठाना पड़ा है। हम आशा करते हैं कि हमारे गुणग्राहक विद्वान् हमारी अल्पज्ञता और परिस्थिति को समझकर तथा भगवान् श्रीकृष्णचंद्र की इस उक्ति को स्मरण करके कि "सर्वारंभा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः" दोषों पर दृष्टि न देंगे और हमे क्षमा करेंगे। 'विषय विवेचन' प्रकरण में जो आचार्यों के काल लिखे गए हैं, वे प्रायः म॰म॰ श्रीदुर्गाप्रसादजी द्विवेदी की साहित्यदर्पण की भूमिका से और श्रीसुशीलकुमार दे, एम॰ ए॰ के 'संस्कृत पोय्‌टिक्स' से लिए गए हैं, एतदर्थ उन्हें धन्यवाद है।

 

अड़चनें

अनुवाद करने में हमें अनेक अड़चनें भी उपस्थित हुईं। सबसे बड़ी अड़चन तो यह थी कि इस ग्रंथ पर कोई विवेचना-पूर्ण और विशद व्याख्या नहीं है, केवल नागेश भट्ट की गुरुमर्म-प्रकाश नामक टिप्पणी है, जिसमें उसके नामानुसार मोटे मोटे मर्म्मों पर प्रकाश डाला गया है, अतः अधिकांश स्थलों की विवेचना का भार इस अल्पज्ञ की तुच्छ बुद्धि पर ही आ पड़ा। दूसरी अड़चन यह थी कि यह ग्रंथ अब तक दो स्थानों से प्रकाशित हुआ है। एक काशी से और दूसरा 'काव्यमाला' में बंबई से। पर, न जाने क्यों दोनों ही संस्करण स्थान स्थान पर अशुद्ध हैं। काशीवाला संस्करण तो मुद्रणोपयोगी लेख-चिह्नों से भी शून्य है, उसमें तो विशेषतः पाराग्राफ तोड़ने का भी परिश्रम नहीं किया गया। यथेष्ट व्याख्या से रहित अशुद्ध और जटिल ग्रंथ को शुद्ध करके उसका यथोचित अनुवाद करने में कितनी कठिनता होती है, उसे वही समझ सकता है, जिसे यह काम पड़ा हो। सो यह भार भी इस तुच्छ बुद्धि पर ही आ पड़ा। पर इसमें कोई संदेह नहीं कि दोनों पुस्तकों के संवाद से हमें संशोधनकार्य में बहुत कुछ सहायता मिली है। तीसरी अड़चन यह थी कि उपर्युक्त भ्रमण के कारण हमें अपेक्षित पुस्तकादि भी नहीं प्राप्त हो सकती थीं; और सुतरां काठियावाड़ में; क्योंकि यहाँ संस्कृत भाषा का बिलकुल प्रचार नहीं है। इसके अतिरिक्त हमारे स्वास्थ्य ने भी समय समय पर अंतराय उपस्थित कर दिया। पर, इन सब अड़चनों के होते हुए भी जहाँ तक हो सका, हमने गड़बड़-घोटाला चलाने की कोशिश नहीं की; इस प्रकार प्रथमानन का यह अनुवाद आप की सेवा में उपस्थित है। इसमें संदेह नहीं कि यदि हमारी परिस्थिति और स्वास्थ्य अच्छे होते तो यह अनुवाद इससे कही अच्छे रूप मे सिद्ध होता। अस्तु, ईश्वरेच्छा।

 

अनुग्राहक

अब अंत मे हम अपनी अनुग्राहक मंडली का स्मरण करके इस कथा को समाप्त करते हैं—

इस विषय में हम सबसे पहले अपने परमपूजनीय पितृचरण पंडित श्रीमथुरालालजी चतुर्वेदी का, जो इस समय अनंत सुख का अनुभव कर रहे हैं, स्मरण करेंगे; क्योंकि यह जो कुछ आपके सामने है, वह उन्हीं के अकृत्रिम प्रेम, संस्कृत-शिक्षण, श्रम और हार्दिक आशीर्वाद का फल है।

तदनंतर श्रीमदल्लभाचार्य के प्रधान पीठ पर विराजमान गोस्वामितिलक श्रीगोवर्धनलालजी महाराज और उनके विद्याप्रेमी कुमार श्रीदामोदरलालजी महोदय के निःस्वार्थ अनुग्रह और मेरे विद्यागुरु शीघ्र कवि श्रीनन्दकिशोर शास्त्रीजी के उपकार का स्मरण आवश्यक है; क्योंकि इस अकिंचन का, किशोरावस्था के अनंतर, शिक्षण और रक्षण उन्हीं की सहायता से हुआ है।

इसके बाद हमारे परममाननीय महामहोपाध्याय पं॰ श्रीगिरिधरशर्मा चतुर्वेदीजी का स्मरण अपेक्षित है; क्योंकि रसगंगाधर की अनेक ग्रंथ-ग्रंथियों के शिथिलीकरण में उनका बहुत कुछ हाथ है।

अब यदि इस अवसर पर हम अपने परम सुहृद् काशी-निवासी साहित्यभूषण श्रीसाँवलजी नागर का स्मरण न करें, तो कदाचित् हमारा सा कृतघ्न कोई न होगा, क्योंकि इस पुस्तक का लेखन और प्रकाशन उनके उत्साहदान और निष्काम सौहार्द से बहुत कुछ संबंध रखता है।

अंत मे श्रीगोवर्द्धनधरण से प्रार्थना करते हैं कि वे इस अनुवाद को साहित्यानुरागियों का प्रेमपात्र और चिरायु करें। इति शम्।

 
वैशाख कृष्ण ८ शुक्रवार पुरुषोत्तम शर्म्मा चतुर्वेदी
सं० १९८४ जयपुर
 

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