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हिंदी रसगंगाधर/पंडितराज का परिचय

विकिस्रोत से
हिंदी रसगंगाधर
अनुवादक
श्रीगोकुलनाथ

 

पंडितराज का परिचय
जाति, वंश, अभ्युदय और शिष्य आदि

पंडितराज जगन्नाथ तैलंग[] जाति के ब्राह्मण थे। उनका जातीय उपनाम वेगिनाडु अथवा वेल्लनाडु था, जिसे वेल्लनाटीय[] भी कहा जाता है और जो श्रीमद्वल्लभाचार्य के सजातीय उत्तरभारतीय तैलंगो का, अब तक, उपनाम है। इनका एक 'उपनाम' त्रिशुली,[] भी था, जो कि जयपुर की जनता में अब तक भी प्रसिद्ध है। उनके पिता का नाम पेरुभट्ट[] अथवा पेरम[] भट्ट था और माता का नाम 'लक्ष्मी'[]। पेरुभट्ट महाविद्वान् थे। उन्होंने ज्ञानेद्र[] भित्तु नामक विद्वान यति से वेदांत शास्त्र, महेद्र पंडित से न्याय और वैशेषिक शास्त्र. खंड देव पंडित से पूर्वमीमांसा शास्त्र और शेष[] वीरेश्वर पंडित से व्याकरण महाभाष्य पढ़ा था। इसके अतिरिक्त वे वेदादिक अन्य शास्त्रों के भी ज्ञाता थे, जैसा कि रसगंगाधर के 'सर्व विद्याधर'[] पद से सूचित होता है। पंडितराज ने प्रायः इन्ही से अध्ययन किया था; पर इनके गुरु शेष वीरेश्वर से भी कुछ पढ़ा हो ऐसा प्रतीत होता है, यह बात 'मनोरमाकुचमर्दन' नामक ग्रंथ के

'अस्मद्गुगुरूपंडितवीरेश्वराणाम्' इस पद से सूचित होती है। ये स्वयं भी वेद, वेदांत, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा, व्याकरण और साहित्य आदि शास्त्रों के महाविद्वान् थे, ऐसा रसगंगाधर मे स्थान स्थान पर उद्धृत प्रमाणों, लेखों और प्रतिपादन-शैली से सिद्ध है और इस विषय में किसी प्रकार के प्रमाण की आवश्यकता नहीं रहती।

जब ये नवयुवक ही थे, उसी समय, इनका, तत्कालीन बादशाह शाहजहाँ के दरबार मे प्रवेश हो गया था, और बादशाह ने इनकी विद्वत्ता से संतुष्ट होकर इन्हें 'पंडितराज'[१०] की पदवी प्रदान की थी। इनकी युवावस्था का अधिकांश शाहजहाँ[११] तथा उसके पुत्र दाराशिकोह[१२] की छत्रच्छाया मे ही व्यतीत हुआ था। शाही जमाने के संस्कृत-पंडितों मे हम इन्हें परम भाग्यशाली मानते हैं, क्योंकि 'तख्तताऊस' और 'ताजमहल' आदि परम-रम्य वस्तुओं के वनवानेवाले और बड़ी भारी शान-शौकत से रहनेवाले सार्वभौम शाहजहाँ के उस शक्रोपम वैभव के भोग मे इनका भी एक भाग था।

'संग्राम-सार'[१३] और 'रस-रहस्य'[१४] आदि ग्रंथों के निर्माता, जयपुर-नरेश श्रीरामसिंहजी प्रथम के आश्रित, ब्रजभाषा के सुप्रसिद्ध कवि माथुर चतुर्वेदी श्रीकुलपति मिश्र, जो आगरे के रहनेवाले थे, इनके शिष्य थे और इन पर उनकी अत्यंत श्रद्धा-भक्ति थी। इसके प्रमाण में हम 'संग्राम-सार' से दो पद्य उद्धृत करते हैं। वे ये हैं—

शब्द-जोग में शेष, न्याय गौतम कनाद मुनि।
सांख्य कपिल, अरु व्यास ब्रह्मपथ, कर्मनु जैमिनि॥
वेद अंग-जुत पढ़े, शील-तप ऋषि वसिष्ठ सम।
अलंकार-रस-रूप अष्टभाषा-कविता-क्षम॥

तैलंग वेलनाटीय द्विज जगन्नाथ तिरशूलधर।
शाहिजहाँ दिल्लीश किय पंडितराज प्रसिद्ध धर॥
उनके पग को ध्यान धरि इष्टदेव सम जानि।
उक्ति-जुक्ति बहु भेद भरि ग्रंथहि कहौ बखानि॥

—संग्रामसार, प्रथम परिच्छेद, पद्य ४-५

इसके अतिरिक्त 'रस-रहस्य' में जो उन्होंने काव्यलक्षण लिखा है, वह भी इन्हीं की शैली का है। काव्यप्रकाश तथा साहित्यदर्पण के काव्यलक्षण पृथक् लिखे गए हैं तथा साहित्यदर्पण के काव्यलक्षण का तो खंडन भी किया गया है। रसरहस्य का काव्यलक्षण यों है—

जग ते अद्भुत सुख-सदन शब्द रु अर्थ कवित्त।
यह लक्षण मैंने कियो समुझि ग्रंथ बहु चित्त॥

पर मिश्रजी के इस पद्य से एवम् उनके रचित समग्र रसरहस्य से भी यह सिद्ध होता है कि जिस समय पंडितराज और मिश्रजी का समागम रहा, उस समय या तो पंडितराज रसगंगाधर लिख नहीं पाए थे, या इनका समागम ही स्वल्प रहा था; क्योंकि उस पुस्तक में केवल इस लक्षण के अतिरिक्त जितनी बातें लिखी गई हैं, वे सब 'काव्यप्रकाश' से ली गई हैं और इस लक्षण में भी शब्द और अर्थ दोनों को काव्य माना गया है, जो कि 'रसगंगाधर' के लक्षण के विरुद्ध है।

पंडितराज के एक दूसरे शिष्य का भी पता लगता है। वे पंडितराज के सजातीय थे और उनका नाम नारायण भट्ट था। उनके विषय मे उनके भतीजे हरिहर भट्ट ने, जो महाविद्वान् थे, स्वनिर्मित 'कुलप्रबंध' नामक काव्य में यों लिखा है कि—

लब्ध्वा विद्या निखिलाः पंडितराजाजगन्नाथात्।
नारायणस्तु दैवादल्पायुः स्वपुरीमगमत्॥

अर्थात् पंडितराज जगन्नाथ से सब विद्याएँ प्राप्त करके नारायण भट्ट तो, भाग्यवशात्, थोड़ी ही अवस्था में स्वर्ग को सिधार गए[१५]

इस सबसे यह पता लगता है कि पंडितराज के, संस्कृत और हिंदी दोनों भाषाओं के ज्ञाता, अनेक अच्छे अच्छे विद्वान् शिष्य थे।

किंवदंतियाँ और समय

पंडितराज के विषय में अनेक किवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। कुछ लोग कहते हैं कि "जगन्नाथ पंडितराज ने तैलंग देश से जयपुर आकर वहाँ एक पाठशाला स्थापित की थी और वहीं उन्होने किसी काजी को, जो दिल्ली से आया था, मुसलमानों के मजहबी ग्रंथों को बहुत शीघ्र पढ़कर विवाद में हरा दिया था। वह काजी जब दिल्ली गया, तो उसने बादशाह के सामने पंडितराज की विद्या-बुद्धि की बड़ी प्रशंसा की। बादशाह यह सब सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने इन्हें जयपुर से दिल्ली बुलाकर इनका बड़ा आदर-सत्कार किया। वहाँ ये महाशय किसी यवन-कन्या पर आसक्त हो गए और बादशाह की कृपा से इनका उसके साथ ब्याह भी हो गया। इस तरह इन्होंने अपनी यौवनावस्था बादशाह के आश्रय में ही सुखपूर्वक बिताई। जब ये बुड्ढे हुए तब काशी चले गए। पर वहाँ अप्पय दीक्षित प्रादि विद्वानों ने यह कहकर कि 'यह तो यवनी के संसर्ग से दूषित है' इनका तिरस्कार किया और इन्हें जाति से निकाल दिया। तब ये गंगातट पर गए और सबसे ऊपर की सीढ़ी पर बैठकर उसी समय बनाए हुए अपने पद्यों से (जिनका संग्रह 'गंगालहरी' नामक पुस्तक में है) लगे गंगाजी की स्तुति करने। फिर क्या था, भक्तवत्सला गंगाजी प्रसन्न हुईं और प्रत्येक श्लोक पर एक एक सीढ़ी चढ़ती गईं और बावनवे पद्य के पढ़ने पर पंडितराज के पास आ पहुँची, एवं उस यवनकन्या सहित इन महाशय को अपनी प्रेमपूर्ण गोदी में बिठाकर स्नान करवा दिया। ईर्ष्या-द्वेष से कलुषित बेचारे काशी के पंडित पंडितराज के इस प्रभाव को देखकर अत्यंत चकित हो गए और फिर कुछ न बोल सके।"

दूसरे लोगो का यह भी कहना है कि—"जब ये महाशय दिल्ली-नरेंद्र शाहजहाँ के कृपापात्र हो गए और उनकी कृपा से इन्हें अच्छी संपत्ति प्राप्त हो गई, तब, जवानी के दिन तो थे ही, इनके विवेक का प्रकाश लुप्त हो गया और ये अंधे हो कर किसी यवनयुवती पर आसक्त हो गए। पर थोड़े समय के बाद वह मर गई। बेचारे पंडितराज उसके विरह मे बड़े घबड़ाए और दिल्ली छोड़कर काशी चले गए। पर वहाँ के पंडितों ने, जो पहले इनके आचरणों को सुन चुके थे, इनका अनादर किया और ये स्वयं भी पंडितों के तिरस्कार एवं प्रियतमा की विरहाग्नि से दुःखित हुए और कहीं चैन न पा सके। परिणाम यह हुआ कि अपनी बनाई हुई गंगालहरी को पढ़ते हुए, जब बरसात में गंगा की बाढ़ आ रही थी तब, उसमें कूद पड़े और डूबकर मर गए।[१६]"

एक किवदंती यह भी है कि—"जब ये वृद्ध होकर काशी में जा रहे थे, तब एक दिन प्रभात के समय, ठंडी ठंडी हवा में, पंडितराज अपनी उस यवनयुवती को बगल मे लिए हुए, गंगातट पर, मुँह पर वस्त्र ओढ़े हुए सोए हुए थे और इनकी सफेद चोटी खटिया से नीचे लटक रही थी। इतने में अप्पय दीक्षित वहाँ स्नान करने चले आए। उन्हें एक वृद्ध मनुष्य की यह दशा देखकर दुःख हुआ और कहने लगे कि "कि-निश्शंकं शेषे, शेषे वयसि त्वमागते मृत्यौ।" अर्थात् महाशय, मौत आ चुकी है, अब इस शेष वय में क्यों निडर होकर सो रहे हो? अब तो कुछ ईश्वर का स्मरण-भजन करो और अपने जीवन को सुधारो। पर, इस पद्य के सुनते ही पंडितराज ने ज्योंही मुँह उघाड़कर उनकी तरफ देखा, त्योंही पंडितराज को पहचानकर अप्पय दीक्षित ने इस पद्य का उत्तरार्ध यो पढ़ दिया कि "अथवा सुखं शयोथा, निकटे जागर्त्ति जाह्नवी भवतः" अर्थात् अथवा आप सुख से सोते रहिए क्योंकि आपके पास में भगवती जाह्नवी जग रही हैं। बस, आपकी फिकर उन्हें है, आप निडर रहिए[१७]।"

यह भी कहा जाता है कि "पंडितराज जिस समय काशी में पढ़ते थे, उस समय जयपुर-नरेश मिरजा राजा जयसिंहजी काशीयात्रा करने गए थे। वहाँ की विद्वन्मंडली में इनकी प्रगल्भता देखकर वे बड़े प्रसन्न हुए और इन्हें अपने साथ जयपुर ले आए। साथ ले आने का कारण यह था कि शाही दरबार में राजपूत लोगों के विषय में मुल्ला लोग यह कहा करते थे कि 'आप लोग वास्तविक क्षत्रिय नहीं हैं, क्योंकि जब परशुरामजी ने पृथ्वी को २१ बार निःक्षत्रिय कर दिया, तो फिर आप लोगों के पूर्वज बच कहाँ से सकते थे?' दूसरे, यह भी कहा जाता था कि 'अरबी भाषा संस्कृत-भाषा से प्राचीन है'। ये बातें पूर्वोक्त नरेश को बहुत खटका करतीं थीं। पंडितराज ने वादा किया था कि हम उन्हें निरुत्तर कर देंगे। जब वे उन्हें साथ ले पाए, तब पंडितराज ने कहा कि—'पहली बात का—अर्थात् राजपूत लोगों के वास्तविक क्षत्रिय होने का—जवाब तो हम आज ही दे सकते हैं; पर दूसरी बात का—अर्थात् अरबी संस्कृत से प्राचीन है, इसका जवाब तब दिया जा सकता है जब हम अरबी पढ़ लें। सो राजाजी ने उन्हें अरबी पढ़ने की अनुमति दी और उन्होंने कुछ दिन आगरे मे रहकर अरबी का यथेष्ट ज्ञान प्राप्त कर लिया। तदनंतर ये बादशाह के सामने उपस्थित किए गए। पूछने पर इन्होंने पहली बात का यह प्रत्युत्तर दिया कि—'निःक्षत्रिय होने का अर्थ यदि यह लगाया जाता है कि एक भी क्षत्रिय नहीं बचा, तो फिर आप ही कहिए कि पृथ्वी २१ बार कैसे निःक्षत्रिय हुई, क्योंकि क्षत्रियमात्र की समाप्ति तो एक ही बार में हो गई होगी। और यदि यह कहो कि कुछ बच रहते थे, तो जब २० बार बचते रहे तो २१वीं बार भी अवश्य ही कुछ बच रहे होंगे। बस, उन्हीं की संतान ये राजपूत लोग हैं।' और दूसरी बात के उत्तर के विषय मे यों कहा जाता है कि अरबी भाषा में मुसलमानों की एक धर्मपुस्तक बताई जाती है, जिसका नाम 'हदीस' है। उसमें एक जगह यह लिखा है कि—'ऐ मुसलमानो! हिंदू लोग जिस तरह मानते हैं, उससे उलटा तुम्हें मानना चाहिए।' सो पंडितराज ने कहा कि 'बिना भाषा के तो कोई धर्म हो नहीं सकता, और आपका 'हदीस' इस बात की सूचना देता है कि उस वाक्य से पहले भी हिदुओं का कोई धर्म था। अतः जब धर्म था तो भाषा अवश्यमेव थी और हिंदुओं की धार्मिक भाषा संस्कृत के अतिरिक्त अन्य कोई हो नहीं सकती; इस कारण आपको मानना पड़ेगा कि संस्कृत अरबी से प्राचीन है।' कहा जाता है कि इन तर्कों से बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और तब से शाही दरबार में इनका भारी दबदबा हो गया।[१८]"

यह तो हुई किंवदंतियों की बात। अब समय का विचार कीजिए। इस विषय में अब तक लोगों ने मोटे तौर पर यह सोच लिया है कि शाहजहाँ का राज्याभिषेक सन् १६२८ ई॰ में हुआ और सन् १६५८ ई॰ में औरंगजेब के द्वारा वह कैद कर लिया गया तथा सन् १६६६ ई॰ मे मर गया। बस, यही पंडितराज का समय है। अतएव यह कहा जाता है कि 'अप्पय दीक्षित पंडितराज के समकालिक नहीं थे एवं उनके इनके कुछ विरोध नही था' इत्यादि।

पर, इस विषय में अब कुछ नवीन प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं, जिन पर विचार करना आवश्यक है। अप्पय दीक्षित का एक ग्रंथ 'सिद्धान्तलेशसंग्रह' नाम का है। उसके कुंभकोणवाले संस्करण की भूमिका में विद्वान् भूमिका-लेखक ने २-३ श्लोक ऐसे लिखे हैं कि जिनसे पंडितराज के समय के विषय में कुछ सूक्ष्म विचार हो सकता है और पहली किंवदंती का कुछ अंश सिद्ध सा हो जाता है। उनमें से पहला श्लोक, जिसको उन्होंने काव्यप्रकाश की व्याख्या में नागेश भट्ट का लिखा हुआ बतलाया है, यह है—

दृप्यद्दाविड़दुर्ग्रहग्रहवशान्म्लिष्टं गुरुद्रोहिणा
यन्म्लेच्छेति वचोऽविचिन्त्य सदसि प्रौढेऽपि भट्टोजिना।
तत्सत्यापितमेव धैर्यनिधिना यत्स व्यमृनात्कुचं
निर्वध्याऽस्य मनोरमामवशयन्नप्पयाद्यान् स्थितान्॥

अर्थात् गर्वयुक्त द्राविड़ (अप्पय दीक्षित अथवा द्राविड़ लोगों) के दुराग्रह रूपी भूत के आवेश से गुरुद्रोही भट्टोजि दीक्षित ने भरी सभा मे बिना सोचे-समझे (पंडितराज से) अस्पष्टतया जो 'म्लेच्छ' यह शब्द कह दिया था उसको धैर्यनिधि पंडितराज ने सत्य कर दिखाया, क्योंकि इतने अप्पयादिक विद्वानों के विद्यमान रहते हुए, उन्हें विवश करके भट्टोजि दीक्षित की मनोरमा (सिद्धांतकौमुदी की व्याख्या) का कुचमर्दन (खंडन) कर दिया। बात भी ठीक है, जब पंडितराज को म्लेच्छ ही बना दिया गया, तो वे म्लेच्छ कहनेवाले की मनोरमा (स्त्री) का कुचमर्दन करके क्यों न उसे म्लेच्छता का चमत्कार दिखा देते।

दूसरा श्लोक 'शब्दकौस्तुभशाणोत्तेजन' नामक पुस्तक का है। वह यों है—

अप्पय्यदुर्ग्रहविचेतितचेतनानामार्यद्रुहामयमहं शमयेऽवलेपान्।

 

अर्थात् अप्पय दीक्षित के दुराग्रह से जिनकी बुद्धि मूर्च्छित हो गई है, उन गुरुद्रोहियों के गर्वों को यह मैं शांतकर रहा हूँ।

तीसरा श्लोक बाल कवि का बनाया हुआ बताया जाता है, जिनको अप्पय दीक्षित के भ्राता के पौत्र नीलकंठ ने 'नल-चरित' नामक ग्रंथ में अप्पय दीक्षित के समकालिक माना है। उन्होंने लिखा है कि—

यष्टुं विश्वजिता यता परिघरं सर्वे बुधा निर्जिता
भट्टोजिप्रमुखाः, स पंडित जगन्नाथोऽपि निस्तारितः।
पूर्वेऽर्धे, चरमें, द्विसप्ततितमस्याऽब्दस्य सद्विश्वजि—
द्याजी यश्च चिदम्बरे स्वमभजज्ज्योतिः सतां पश्यताम्॥

अर्थात् अप्पय दीक्षित ने अपनी आयु के ७२वें वर्ष के पूर्वार्ध में, विश्वजित् यज्ञ करने के लिये, पृथ्वी के चारों तरफ घूमते हुए भट्टोजि दीक्षित आदि सब विद्वानों को विजय किया और उस—सुप्रसिद्ध—पंडित जगन्नाथ का भी उद्धार कर दिया। फिर उसी वर्ष के उत्तरार्ध में विश्वजित् यज्ञ किया और चिदंबर क्षेत्र में सब सज्जनों के देखते हुए आत्मज्योति को प्राप्त हो गए।

अब यहाँ विचार करने की बात यह है कि अप्पय दीक्षित पंडितराज के समकालिक हो सकते हैं, अथवा नही। हमारी समझ से समकालिक हो सकते हैं। कारण यह है कि भट्टोजि दीक्षित के गुरु शेषश्रीकृष्ण थे[१९]। और शेषवीरेश्वर शेषश्रीकृष्ण के पुत्र थे यह भी सिद्ध है[२०]। यही शेषवीरेश्वर पंडितराज के पिता पेरुभट्ट के एवं पंडितराज के गुरु हैं, जैसा कि पहले बताया जा चुका है। सो यह सिद्ध हो जाता है कि शेषवीरेश्वर और भट्टोजि दीक्षित समकालिक थे; क्योकि एक शेषश्रीकृष्ण के पुत्र थे और दूसरे शिष्य। और बहुत संभव है कि शेषवीरेश्वर भट्टोजि दोक्षित से बड़े रहे हों। कारण, एक तो उन्होंने अपने विद्यमान रहते भी मनोरमा का खंडन अपने पुत्र और शिष्य (पंडितराज) के द्वारा करवाया और अपने स्वयं पिता की पुस्तक के खंडन के प्रतिवाद में, कुछ भी न लिखा, जिसका रहस्य यही प्रतीत होता है कि उन्होंने अपने से छोटो की प्रतिद्वंद्विता करना अनुचित समझा हो। यह असंभव भी नहीं; क्योंकि प्राचीन पंडितों के शिष्य तो अति वृद्धावस्था तक—किंबहुना, देहावसान तक—हुआ करते थे और आज-दिन भी ऐसा देखा जाता है। पर, इसमें कोई संदेह नहीं कि दोनों समकालिक थे। साथ ही पूर्वोद्धृत श्लोकों से भी यह सिद्ध हो जाता है कि भट्टोजि दीक्षित और अप्पय दीक्षित समकालिक थे। तब, जब पंडितराज शेषवीरेश्वर से पढ़ सकते थे, तो भट्टोजि दीक्षित और अप्पय दीक्षित भी उनके समय में रहे हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।

पर, यहाँ एक और भी विचारणीय बात है, जिसने कि अप्पय दीक्षित को जगन्नाथ के समकालिक मानने में ऐतिहासिकों को भ्रांत कर दिया है। वह यह है कि पूर्वोक्त नीलकंठ दीक्षित, जो अप्पय दीक्षित के भ्राता के पौत्र थे, अपने बनाए हुए 'नीलकंठविजय' नामक चंपू मे लिखते हैं—

अष्टत्रिंशदुपस्कृतसप्तशताधिकचतुःसहस्रेषु।
कलिवर्षेषु गतेषु ग्रथितः किल नीलकंठविजयोऽयम्॥

अर्थात् वह 'नीलकंठविजय' कलियुग के ४७३८ वर्ष बीतने पर लिखा गया है।

यह समय ईसवी सन् १६३९ के लगभग होता है और उस समय शाहजहाँ का राजत्वकाल था। सो यह सिद्ध किया जाता है कि यह नीलकंठ पंडितराज का समकालिक था, इसके दादा अप्पय दीक्षित नहीं।

नीलकंठ ने स्वनिर्मित 'त्यागराजस्तव में यह लिखा है कि—

योऽतनुताऽनुजसूनुजमनुग्रहेणात्मतुल्यमहिमानम्॥

अर्थात् जिन (अप्पय दीक्षित) ने अपने छोटे भाई के पौत्र (मुझ) को, अनुग्रह करके, अपने समान प्रभाववाला बना दिया। इससे यह सिद्ध होता है कि नीलकंठ ने अप्पय दीक्षित से अध्ययन किया था। पर उसी भूमिका मे 'ब्रह्मविद्यापत्रिका' का हवाला देकर यह लिखा गया है— 'नीलकंठविजय' को कवि ने अपनी आयु के तीसवें वर्ष मे लिखा है और कवि जिस समय बारह वर्ष का था, उसी समय सत्तर वर्ष के वृद्ध अप्पय दीक्षित ने उस पर अनुग्रह किया था। अतः अप्पय दीक्षित का जन्म सन् १५५० ई॰ होता है[२१]

ऊपर उद्धृत बाल कवि के श्लोक से यह सिद्ध होता है कि अप्पय दीक्षित का देहावसान ७२ वर्ष की अवस्था में हुआ था। महामहोपाध्याय श्री गंगाधर शास्त्रीजी ने सिद्धांतलेशसंग्रह के काशीवाले संस्करण की भूमिका में एक पद्य स्वयं अप्पय दीक्षित का भी उद्धृत किया है। वह यों है—'वयांसि मम सप्ततेरुपरि नैव भोगे स्पृहा न किंचिदहमर्थये शिवपदं दिदृक्षे परम्। अर्थात् मेरी अवस्था इस समय ७० वर्ष से ऊपर है, अब मुझे विषय-भोग की अभिलाषा नहीं रही, अब तो केवल कैलासवास की इच्छा है।' इससे भी यही सिद्ध होता है कि उनका प्रयाण उपर्युक्त श्लोक के वर्णित समय में ही हुआ होगा। सो ब्रह्मविद्यापत्रिका के अनुसार उनका मृत्युकाल १६२२ ई॰ सिद्ध होता है, जो शाहजहाँ के राजत्व काल से पहले है।

पर यह बात पूर्णतया निर्णीत नहीं कही जा सकती। क्योंकि यह मानना कि 'दीक्षितजी ने सत्तर वर्ष की अवस्था में १२ वर्ष के पौत्र पर अनुग्रह किया था', केवल किंवदंतीमूलक है, और पूर्वोक्त सिद्धांतलेशसंग्रह के भूमिका-लेखक भी इसके मानने में विप्रतिपन्न हैं। अतः हमारी समझ में तो यह आता है कि 'नीलकंठविजय' के लिखते समय दीक्षितजी भी उपस्थित थे, और पौत्र की अवस्था उस समय ३० वर्ष की थी। नीलकंठ ने स्वयं भी अप्पय दीक्षित की वंदना में वर्तमान काल का प्रयोग किया है[२२], और ७०-७२ वर्ष के दादा के ३० वर्ष का पौत्र होना कुछ असंभव भी नहीं। सो यह सिद्ध हो जाता है कि अप्पय दीक्षित भी शाहजहाँ के राजत्वकाल तक विद्यमान थे।

अब यह विचार कीजिए कि पंडितराज दारा के विनाश और शाहजहाँ के कारावास तक दिल्ली में थे अथवा नहीं। यह कहा जा सकता है कि दारा के अभ्युदय और यौवन तक वे वहाँ थे, जैसा कि 'जगदाभरण' के प्रणयन से सिद्ध होता है। सो यह तो उस दुर्घटना के बहुत पूर्वकाल में भी बन सकता है। कारण औरंगजेब के राज्यारोहण का वय चालीस वर्ष है, जो इतिहासप्रसिद्ध है। तब वह शाहजहाँ के राज्यारोहण के समय दस वर्ष का सिद्ध होता है। और, दारा तो उससे लगभग ६ वर्ष बड़ा होना चाहिए, क्योंकि औरंगजेब से बड़ा शुजा और उससे बड़ा दारा था। सो ई॰ सन् १६३९ तक, जो 'नीलकंठविजय' का लेखनकाल है, दारा सत्ताईस वर्ष के लगभग सिद्ध होता है, जब कि उसका पूर्ण यौवन कहा जा सकता है। अब, यदि हम पंडितराज को दारा के समवयस्क मान लें तो कोई अनुपपत्ति न होगी; प्रत्युत यह सिद्ध हो सकता है कि समवयस्कों मे प्रीति अधिक हुआ करती है, इस कारण समवयस्क ही रहे हों। और, यदि यह माना जाय कि दारा का उनके पास अध्ययनादि, जो कि उसके हिंदूधर्म की अभिरुचि और संस्कृतज्ञान आदि ऐतिहासिक वृत्तों से विदित है, हुआ हो, तो अधिक वय भी हो सकता है। निदान यह सिद्ध हो जाता है कि पंडितराज अप्पय दीक्षित की वृद्धावस्था में अवश्य विद्यमान थे। हाँ, यह कहा जा सकता है कि अप्पय दीक्षित और भट्टोजि दीक्षित आदि वृद्ध रहे होंगे और पंडितराज युवा। अतएव उस समय के उन कट्टर सामाजिक लोगों ने, बादशाही दरबार में रहने के कारण, इन पर संदेह करके इन्हें तिरस्कृत किया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। अप्पय दीक्षित द्राविड़ थे, भट्टोजि दीक्षित महाराष्ट्र और पंडितराज तैलंग; और आज-दिन तक भी इन जातियों में परस्पर सहभोज होता है; अतः अप्पय दीक्षित और भट्टोजि दीक्षित ने, जो उस समय वृद्ध थे, इनकी पंचायती में प्रधानता पाई हो तो कोई असंभव बात नहीं। अप्पय दीक्षित अंतिम वय मे कुछ समय काशी रहे भी थे और वहाँ के समाज में उनका अच्छा सम्मान था, यह भी उसी भूमिका से सिद्ध होता है। पंडितराज ने भी रसगंगाधर में अप्पय दीक्षित के नाम के स्थान पर, कई जगह, 'द्रविडशिरोमणिभिः' और 'द्रविडपुङ्गवै' शब्द लिखे हैं, जो कि इनके सरपंच होने की सूचना देते हैं।

जब यह बात ठीक हो गई कि अप्पय दीक्षित और भट्टोजि दीक्षित इनके समय में थे, तो पूर्वोक्त श्लोकों के अर्थ को मिथ्या मानने में कोई विशेष उपपत्ति नहीं रह जाती। अब यह बात सामने आती है कि भट्टोजि दीक्षित ने इन्हें भरी सभा मे 'म्लेच्छ' क्यों कहा था। विचारने पर इसके दो कारण हो सकते हैं—एक तो यह कि यवन सम्राट् के दरबार में रहने के कारण इन पर यवनों के संसर्ग का आक्षेप किया गया हो, और दूसरा वही, जो सर्वत्र प्रसिद्ध है कि इनका किसी यवनयुवती से संपर्क रहा हो। पहले कारण में तो प्रमाण देने की कोई आवश्यकता ही नहीं; क्योकि वे शाहजहाँ और दाराशिकोह के कृपापात्र थे यह निस्संदेह है। रही दूसरी बात, सो वह भी सर्वथा असंभव तो नहीं है; क्योंकि दिल्लीश्वर के कृपापात्र अतएव सर्वविध संपत्ति से संपन्न और तत्कालीन दिल्ली जैसे विलासमय नगर के निवासी नवयुवक को, उन उन्मादक नवयौवन के दिवसों ने, जो कंगालों को भी पागल बना देते हैं, यदि किसी यवन विलासिनी पर आसक्त होने के लिये विवश कर दिया हो और उन्होंने किसी यवनी को रख लिया हो तो आश्चर्य की क्या बात है। रही काव्यमालासंपादक की यह बात, कि यवन युवती की आसक्ति को प्रमाणित करनेवाले श्लोक उनकी किसी पुस्तक में नहीं मिलते। सो यह कोई ऐसी दुःसमाधेय बात नहीं है; क्योंकि सभी कवियों के सभी पद्य पुस्तकों मे संगृहीत नहीं होते, कुछ फुटकर भी रह जाते हैं। फिर पंडितराज जैसे विद्वान् अपनी पुस्तक में उन उन्मादक दिवसों के लिखे हुए कुसंसर्गसूचक श्लोकों को संगृहीत करते यह भी अघटित ही है।

अस्तु, कुछ भी हो। हम एक महा विद्वान् को कलंकित करना नहीं चाहते; पर इतिहास की दृष्टि से हमारे विचार में जो कुछ सत्य आया, उसे छिपाना भी उचित नहीं था। हाँ, इतना अवश्य सिद्ध है कि अप्पय दीक्षित और भट्टोजि दीक्षित पंडितराज के समय मे वर्त्तमान और जाति के सरपंच थे, और उनको इन पर यवन-संसर्ग का संदेह था, तथा इसी कारण इनका उनका मनोमालिन्य था। बाल कवि के श्लोक से यह भी सिद्ध है कि अप्पय दीक्षित की अंतिमावस्था में इनका निस्तार भी हो गया था। पर, इनका वर्षों का द्वेष इतने मात्र से सर्वथा शुद्ध न हुआ और वह रसगंगाधर में झलक ही आता है।

हाँ, दूसरी किंवदंती में जो यह कहा गया है कि 'वे डूब मरे' सो सर्वथा मिथ्या है; क्योंकि रसगंगाधर गंगालहरी के बहुत पीछे बना है और इसमें स्थान स्थान पर उसके पद्य उद्धृत हैं। तीसरी किंवदंती भी मिथ्या प्रतीत होती है, क्योंकि अप्पय दीक्षित के सामने पंडितराज का वृद्ध होना किसी तरह सिद्ध नहीं होता।  

स्वभावादि

पंडितराज का स्वभाव उद्धत, अभिमानपूर्ण और महान् से महान् पुरुष के भी दोषों को सहसा उघाड़ देनेवाला था। नमूने के तौर पर एक एक उदाहरण सुनिए। पहले उद्धतता को लीजिए। किसी कवि से उसके बनाए हुए पद्य सुनने के पहले आप कह रहे हैं कि—

निर्माणे यदि मार्मिकोऽसि नितरामत्यंतपाकद्रव–
न्मृद्वीकामधुमाधुरीमदपरीहारोद्धुराणां गिराम्।
काव्यं तर्हिं सखे सुखेन कथय त्वं सम्मुखे मादृशां
नो चेद्दुष्कृतमात्मना कृतमिव स्वांताद्वहिर्मा कृथाः।

हे सखे! यदि आप अत्यंत पक जाने के कारण टपकती हुई दाख और शहद की मधुरता के मद को दूर कर देने में तत्पर वचनों की रचना के पूर्णतया मर्मज्ञ हैं, तब तो अपनी कविता को मेरे से मनुष्यों के सामने बड़े मजे से कहते रहिए। पर यदि आपमें वह शक्ति न हो, तो, जिस तरह मनुष्य अपने किए हुए पाप को किसी के सामने प्रकट नहीं करता, उसी तरह आप भी अपनी कविता को अपने हृदय से बाहर न होने दीजिए। आप अपने उस अपराध को मन के मन में ही रखिए, कहीं ऐसा न हो कि जबान पर आ जाय।

देखिए तो कैसी उद्धतता है। कविता को अपराध तो बना ही दिया, केवल सजा देना बाकी रह गया। सो, शायद, वह वेचारा वैसे पद्य बोला ही न होगा, अन्यथा, अधिक नही तो, एकाध थप्पड़ का पुरस्कार तो अवश्य ही प्राप्त हो जाता।

अब अभिमान की बात सुनिए। आप कहते हैं—

आमूलाद्रत्नसानोर्मलयवलयितादा च कूलात्पयोधे–
र्यावन्तः सन्ति काव्यप्रणयनपटवस्ते विशङ्कं वदन्तु।
मृद्वीकामध्यनिर्यन्मसृणरसझरीमाधुरीभाग्यभाजां
वाचामाचार्यताया पदमनुभवितुं कोऽस्ति धन्यो मदन्यः॥

सुमेरु पर्वत की तरहटी से लेकर मलयाचल से घिरे हुए समुद्रतट तक, जितने भी कविता करने में निपुण पुरुष हैं, वे निर्भय होकर कहें कि दाखों के अंदर से निकलनेवाली चिकनी रसधारा की मधुरता का भग्य जिन्हें प्राप्त है—अर्थात् जिनकी कविता उसके समान मधुर है, उन वाणियों के आचार्य पद का अनुभव करने के लिये मेरे अतिरिक्त कौन पुरुष धन्य हो सकता है। इस विषय में तो मैं एक ही धन्य हूँ, दूसरे किसी की क्या मजाल है कि वह इस पद को प्राप्त कर सके।

देखिए तो आचार्यजी महाराज कितने अभिमत्त हो गए हैं। आपने किसी दूसरे के धन्यवाद की भी तो अपेक्षा नहीं रखी, उस रस्म को भी अपने आप ही पूरा कर लिया; क्योंकि शायद किसी अन्य को यह धन्यवाद देने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता तो आचार्यजी को कृतज्ञता दिखाने के लिये उसके सामने थोड़ी देर तो आँखें नीची करनी पड़ती ही।

अच्छा, अब दोषोद्घाटन की तरफ भी दृष्टि दीजिए। अप्पय दीक्षितादि को तो छोड़िए, क्योंकि उनके दोषोद्धाटन में तो आपने हद ही की है। पर आप ध्वनिकार श्रीआनंदवर्धनाचार्य के परम भक्त हैं, समय समय पर आपने उनका बड़े आदर से स्मरण किया है; किंतु उस दोषदर्शिनी दृष्टि के पंजे से वे भी कैसे बच सकते थे? एक जगह (रूपकध्वनि के उदाहरण में) चक्कर में आ ही गए। फिर क्या था, झट से लिख दिया 'आनंदवर्धनाचार्यास्तु...' और 'तच्चिंत्यम्'।

आपके उदाहरणों में शाही जमाने की झलक भी आ ही जाती है। उस समय कबूतरों के जोड़े पालने का बहुत प्रचार था, और अब भी यवनों में इस बात का प्रचार है। सो आपने लज्जा-भाव की ध्वनि के उदाहरण मे लिख ही दिया—

निरुद्ध्य यान्ती तरसा कपोतीं कूजत्कपोतस्य पुरो ददाने।
मयि स्मितार्द्रे, वदनारविन्दं सा मन्दमन्दं नमयाम्बभूव॥[२३]

उत्तर भारत में रहने पर भी आप पर दाक्षिणात्यता का प्रभाव ज्यों का त्यों था। देखिए तो भावशबलता का दृष्टांत किस तरह का दिया गया है—

नारिकेलजलक्षीरसिताकदलमिश्रणे।
विलक्षणो यथा स्वादो भावानां सहतौ तथा॥

अर्थात् जिस तरह नारियल के जल, दूध, मिश्री और केलों के मिश्रण में विलक्षण स्वाद उत्पन्न हो जाता है, उसी तरह भावों के मिश्रण में भी होता है। क्या इस विलक्षण मिक्स्चर को दाक्षिणात्यों के सिवा कोई पहचान सकता है?  

इसी तरह अन्यान्य बातें भी इस पुस्तक के पाठ से आपके हृदय में अवतरित हो सकेंगी, हम अधिक उदाहरण देकर इस प्रकरण को विस्तृत नहीं करना चाहते।

धर्म और अंतिम वय

आप वैष्णवधर्म के अनुयायी और भगवान् श्रीकृष्णचंद्र तथा भगवती भागीरथी के परम भक्त थे; यह मंगलाचरण मे लिखित और स्थान स्थान पर उदाहृत श्लोकों से सिद्ध है। पर शिव तथा देवी आदि की स्तुति करने में भी हिचकते नहीं थे। श्रीमद्भागवत[२४] और वेदव्यास[२५] पर आपको अत्यंत श्रद्धा थी। भगवन्नामोच्चारण में आपको बड़ा आनंद प्राप्त होता था। देखिए, आपने लिखा है—

मृद्वीका रसिता सिता समशिता स्फीतं निपीतं पयः
स्वर्यातेन सुधाऽप्यधायि कतिधा रम्भाधरः खण्डितः।
तत्त्व ब्रूहि मदीय जीव भवता भूयो भवे भ्राम्यता
कृष्णेत्यक्षरयोरयं मधुरिमोद्गारः क्वचिल्लक्षितः॥

हे मेरे जीवात्मन्! तूने अंगूर चाखे हैं, मिश्री अच्छी तरह खाई है और दूध तो खूब ही पिया है। इसके अतिरिक्त (पहले जन्मों मे कभी) स्वर्ग में जाने पर अमृत भी पिया है और स्वर्गीय अप्सरा रंभा के अधर को भी खंडित किया है। सो तू बता कि संसार में बार बार घूमते हुए तूने, 'कृष्ण' इन दो अक्षरों में जो मधुरता का उभार है, उसे भी कहीं देखा है? ओह! यह अपूर्व माधुरी और कहीं कैसे प्राप्त हो सकती है! देखा भावोद्रेक!

वास्तव में सरसहृदयों के लिये, भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई, भगवत्प्राप्ति का सर्वोत्तम और सुंदर साधन है भी नहीं।

अंतिम वय में पंडितराज काशी अथवा मथुरा में जा बसे थे और भगवत्सेवा करते रहते थे।[२६]

निर्मित ग्रंथ

१—अमृतलहरी—इसमें यमुनाजी की स्तुति है। यह काव्यमाला में मुद्रित हो चुकी है।

२—आसफविलास—इसमें नवाब आसफखाँ का वर्णन है। काव्यमाला-संपादक ने लिखा है कि यह ग्रंथ हमें नहीं मिल सका, कुछ पंक्तियाँ ही मिली हैं।

३—करुणालहरी—इसमें विष्णु की स्तुति है। यह काव्यमाला में मुद्रित हो चुकी है।

४—चित्रमीमांसाखंडन—इसमें रसगंगाधर में स्थान स्थान पर जो चित्रमीमांसा के अंशो का खंडन किया गया है, उसका संग्रह है और काव्यमाला में छप चुका है।  

५—जगदाभरण—इसमें शाहजहाँ के पुत्र दाराशिकोह की प्रशंसा है। काव्यमाला के संपादक का कथन है कि प्राणाभरण में और इसमें इतना ही भेद है कि इसमें प्राणनारायण के नाम के स्थान पर दाराशिकोह का नाम है।

६—पीयूषलहरी—इसका सुप्रसिद्ध नाम गंगालहरी है और यह अनेक जगह अनेक बार छप चुकी है।

७—प्राणाभरण—इसमें नैपालनरेश प्राणनारायण का वर्णन है और यह काव्य-माला में छप चुका है।

८—भामिनीविलास—यह पण्डितराज के पद्यों का संग्रह है और अनेक बार छप चुका है।

९—मनोरमाकुचमर्दन—यह सिद्धान्तकौमुदी की मनोरमा व्याख्या का खंडन है, पर इसका प्रचार नहीं है।

१०—यमुनावर्णन—यह ग्रंथ गद्य में लिखा गया है; क्योंकि रसगंगाधर के उदाहरणों में इसके दो तीन गद्यांश उद्धृत किए गए हैं; पर मिलता नहीं।

११—लक्ष्मीलहरी—इसमें लक्ष्मीजी की स्तुति है और यह काव्यमाला आदि में छप चुकी है।

१२—रसगंगाधर—यह आपके सामने प्रस्तुत है। पंडितराज का सबसे प्रौढ़ और मुख्य ग्रंथ यही है; परंतु आज दिन तक न यह पूरा मिल सका और न पूरा मिलने की अब आशा है।

कुछ लोगों का कथन है कि इनके अतिरिक्त 'शशिसेना', 'पंडितराजशतक' नामक दो और ग्रंथ भी पंडितराज के बनाए हुए हैं; पर वे देखने मे नहीं आते।

अंतिम ग्रंथ

काव्यमाला-संपादक का कथन है कि—रसगंगाधर पंडितराज का अंतिम ग्रंथ नहीं है, इसके बनाने के अनंतर भी वे जीवित रहे। इसका कारण वे यह बताते हैं कि पंडितराज ने इसके अनंतर 'चित्रमीमांसाखंडन' लिखा है। पर, हमारी समझ में, यह हेतु यथेष्ट नहीं। इसका कारण यह है कि 'चित्रमीमांसाखंडन' कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है, उसमें रसगंगाधर के वे अंश, जिनमें उस पुस्तक का खंडन आया है, ज्यों के त्यों संगृहीत कर लिए गए हैं। संग्रह का कारण यह प्रतीत होता है कि उस समय आज-कल की तरह मुद्रण-कला का प्रचार नहीं था, इस कारण किसी भी ग्रंथ का दूर देशों तक प्रचार बहुत विलंब से होता था और पंडितराज को अप्पय दीक्षित के हिमायतियों को उनकी भूलें दिखा देने की बहुत आतुरता थी, वे चाहते थे कि लोगों पर जो अप्पय दीक्षित का प्रभाव पड़ा हुआ है, वह मेरे सामने ही कम हो जाय। सो पूर्वोक्त संग्रह की अनेक प्रतियों, जो समग्र रसगंगाधर की अपेक्षा थोड़े समय और व्यय में हो सकती थीं और रसगंगाधर की समाप्ति के पूर्व ही उन लोगों के हाथों में पहुँचाई जा सकती थीं, लिखवाकर उन्होंने उन सब लोगों के पास भिजवा दी और आगे का ग्रंथ लिखते रहे। अन्यथा जो सब बातें रसगंगाधर में आ गई थीं उनके पृथक् संग्रह की—और वह भी ऐसे संग्रह की कि जिसमें कुछ भी नवीनता नहीं है—क्या आवश्यकता थी। "चित्रमीमांसा खंडन" के आरंभ मे यह श्लोक लिखा है—

सूक्ष्मं विभाव्य भयका समुदीरितानामप्पय्यदीक्षितकृताविह दूषणानाम्।
निर्मत्सरो यदि समुद्धरणं विदद्ध्यात्तस्याहमुज्ज्वलमतेश्चरणौ वहामि॥

अर्थात् इस अप्पय दीक्षित की कृति (चित्रमीमांसा) में मैंने, सूक्ष्म विचार करके, जो कुछ दूषण दिखाए हैं, उनका यदि कोई निर्मत्सर पुरुष उद्धार कर दे तो उस निर्मलबुद्धि पुरुष के दोनों पैरों को मैं अपने सिर पर रखूँगा। इससे भी इस संग्रह का कारण यही प्रतीत होता है।

काव्यमाला-संपादक ने यह भी लिखा है कि इतना अनुमान किया जा सकता है कि पंडितराज ने अप्पय दीक्षित के द्वेष से रसगंगाधर के द्वारा 'चित्रमीमांसा' का अनुकरण करना प्रारंभ किया था, सो उन्होंने भी अपने ग्रंथ को असमाप्त ही छोड़ दिया। पर यह बात बनती नहीं। कारण, यदि यह ग्रंथ चित्रमीमांसा के अनुकरण पर ही लिखा गया होता तो मीमांसा में तो काव्यलक्षण, रस, भाव, गुण आदि का कहीं निशान भी नहीं। फिर भला इस पुस्तक में इन सब विषयों के विवेचन की क्या आवश्यकता थी? और यदि वैसा ही करना था—अर्थात् अधूरा ही छोड़ना था—तो क्या पंडितराज भी चित्रमीमांसा की तरह ही, कोई श्लोक बनाकर अंत में नहीं रख सकते थे, क्यों उत्तरालंकार के उदाहरण के तीन पादों पर ही ग्रंथ लटकता रह गया?

दूसरे, इस बात को तो काव्यमाला-संपादक भी मानते हैं कि पंडितराज रसगंगाधर के पाँच आनन बनाना चाहते थे, अतएव उन्होंने इस पुस्तक के प्रकरणों का नाम 'आनन' रखा था, क्योंकि गंगाधर (शिव) के पाँच आनन (मुख) होते हैं। फिर, चित्रमीमांसा का अनुकरण तो अधिक से अधिक अलंकारसमाप्ति तक हो सकता था, जो दूसरे आनन में समाप्त हो जाता। यदि उसका अनुकरण ही करना था, तो वे क्यों आगे लिखना चाहते थे। तीसरे, रसगंगाधर के उद्देश्यों में भी यह बात नहीं है कि जिससे यह अनुमान किया जाय।

अतः हमारी तुच्छ बुद्धि के अनुसार तो यह मानना उचित है कि पंडितराज का अंतिम ग्रंथ रसगंगाधर ही है और इसकी समाप्ति के पूर्व ही उनका देहावसान हो गया था।

अन्य जगन्नाथ

इसके अतिरिक्त एक और बात समझ लेने की है। वह यह कि अब तक संस्कृत भाषा में ग्रंथ निर्माण करनेवाले अनेक जगन्नाथ पंडित हो गए हैं, सो उनके नाम हम यहाँ काव्यमाला की भूमिका से इसलिये उद्धृत कर रहे हैं कि कोई उनकी पुस्तकों को भी पंडितराज की पुस्तकें न समझ ले।

१—तंजौरवासी जगन्नाथ—इनके ग्रंथ अश्वधारी, रतिमन्मथ और वसुमतीपरिणय हैं।  

२—जयपुरनिवासी सम्राट् जगन्नाथ—इनके ग्रंथ रेखागणित, सिद्धांतसम्राट् और सिद्धांतकौस्तुभ हैं।

३—जगन्नाथ तर्कपंचानन—इनका ग्रंथ विवादभंगार्णव है।

४-जगन्नाथ मैथिल—इनका ग्रंथ अतंद्रचंद्रिक नाटक है।

५—श्रीनिवास के पुत्र जगन्नाथ पंडित—इनका ग्रंथ अनंगविजय भाण है।

६—जगन्नाथ मिश्र—इनका ग्रंथ सभातरंग है।

७—जगन्नाथ सरस्वती—इनका ग्रंथ अद्वैतामृत है।

८—जगन्नाथ सूरि—इनका ग्रंथ समुदाय प्रकरण है।

९—जगन्नाथ—इनका ग्रंथ शरभगजविलास है।

१०—नारायण दैवज्ञ के पुत्र जगन्नाथ—इनका ग्रंथ ज्ञानविलास है।

११—जगन्नाथ—इनका ग्रंथ अनुभोगकल्पतरु है।[२७]

वैशाखवदि द्वितीया शनिवार पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी।
जयपुर
संवत् १९८५
७ एप्रिल सन् १९२८

  1. '...तैलंग कुलावतंसेन पंडितजागन्नथेन...' ('आसफविलास' का आरंभ)।
  2. कुलपति मिश्र जी ने (आगे उद्धृत) अपने पद्य में 'बेलनाटीय' शब्द ही लिखा हैं।
  3. मिश्र जी ने भी यह उपनाम लिखा है। अतः यह संदेह अनुचित है कि त्रिशूली जगन्नाथ कोई अन्य था।
  4. रसगंगाधर में।
  5. प्राणाभरण में।
  6. रसगंगाधर में।
  7. रसगंगाधर के आरंभ का द्वितिय पद्य।
  8. यह उनका उपनाम था।
  9. 'एतेन तदितरशास्त्रवेदाविज्ञातृत्वं सूचितम्' (गुरुमर्मप्रकाशः)।
  10. '...सार्वभौमश्रीशाहजहाँप्रसादादधिगतपंडितराजपदवीकेन...' ('आसफविलास' का आरंभ)।
  11. 'दिल्लीवल्लभपाणिपल्लवतले नीतं नवीनं वय.'(भामिनीविलास)।
  12. 'जगदाभरण' नामक ग्रंथ में दाराशिकोह का ही वर्णन है।
  13. 'संग्राम-सार' वि॰ सं॰ १७३३ में बना था, यह म॰ म॰ श्रीगिरिधरशर्मा चतुर्वेदीजी के पिता कविवर श्री गोकुलचंद्रजी का कथन है।
  14. 'रस-रहस्य' का समय तो कवि ने स्वयं ही लिखा है—'संवत् सत्रह सौ वरष (अरु) बीते सत्ताईस। कातिक बदी एकादशी बार बरनि वानीश । (रसरहस्य, अष्टम-वृत्तांत, पद्य २११)
  15. नारायण भट्ट और हरिहर भट्ट के वंश में इस समय शुद्धाद्वैतभूषण भट्ट श्रीरमानाथ शास्त्रीजी (बंबई) तथा साहित्याचार्य भट्ट श्रीमथुरानाथ शास्त्रीजी (जयपुर) आदि अनेक 'भट्ट' विद्यमान हैं और उनकी प्राप्त की हुई जीविका को भोगते हैं।
  16. ये दोनों किंवदंतियाँ काव्यमाला में प्रकाशित रसगंगाधर की भूमिका से ली गई हैं। वहाँ यवनी की आसक्ति के अनुमापक श्लोक भी लिखे हैं, पर उन्हें अश्लील समझकर हमने छोड़ दिया है और वे सर्वत्र प्रसिद्ध भी हैं।
  17. यह किंवदंती कुवलयानंद (निर्णय सागर) की भूमिका में है।
  18. यह किंवदंती महामहोपाध्याय श्रीगिरिधर शर्माजी चतुर्वेदी के मुख से सुनी गई है, और अन्य किंवदंतियों की अपेक्षा कुछ प्रामाणिक प्रतीत होती है।
  19. ...शेषवंशावतंसानां श्रीकृष्णपंडितानां चिरायाचिंतयोः पादुकयोः प्रसादादासादितशब्दानुशासनाः...' ('मनोरमाकुचमर्दन' में भट्टोजि दीक्षित का विशेषण)।
  20. 'मनोरमाकुचमर्दन' का वही आरंभ का भाग।
  21. "ब्रह्मविद्यापत्रिकाकारास्तु—'नीलकंठविजयश्च कविना त्रिंशे वर्षे प्राणायि। कविश्च द्वादशवर्ष एव सप्ततिवयसा दीक्षितेनानुगृहीतः। अतस्तेपामवतारकालः कल्पाब्दः ४६५०, शकाब्दः १४७१, सन् १५५०' इत्युजादहुः"। (सिद्धांतलेशभूमिका)।
  22. 'श्रीमानप्पयदीक्षित स जयति श्रीकंठविद्यागुरुः' (नीलकंठविजय)।
  23. इसका अर्थ अनुवाद में देख लीजिए।
  24. देखिए, 'रस नव ही क्यों हैं' आदि प्रकरण।
  25. 'ऋतुराजं भ्रमरहितं यदाहमाकर्णयामि, नियमेन। आरोहति स्मृतिपथं तदैव भगवान् मुनिर्व्यासः' (स्मरणालंकार) आदि।
  26. 'भामिनीविलास' के अंत मे 'सम्प्रत्यन्धकशासनस्य नगरे तत्त्वं परं चिन्त्यते' और कुछ पुस्तकों में 'संप्रत्युज्झितवासनं मधुपुरीमध्ये हरि सेव्यते' लिखा हुआ है।
  27. इस प्रकरण में जिन विद्वानों से साक्षात् अथवा उनके पुस्तकादि के द्वारा सहायता प्राप्त हुई है, उनका, और विशेषतः काव्यमाला-संपादक का, लेखक हृदय से कृतज्ञ है।