सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:अनासक्तियोग.djvu/२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दूसरा अध्याय : सांस्मयोग अर्जुन बोले- हे मधुसूदन ! भीष्मको और द्रोणको रणभूमि- में बागोंसे मैं कैसे मारूं ? हे अरिसूदन ! ये तो पूजनीय हैं। गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तु भैक्ष्यमयीह लोके । हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिदेव भुजीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान् ।। ५॥ महानुभाव गुरुजनोंको मारने के बदले इस लोकमें भिक्षान्न खाना भी अच्छा है; क्योंकि गुरुजनोंको मारकर तो मुझे रक्तसे सने हुए अर्थ और कामरूप भोग ही भोगने ठहरे। न चैतद्विपः कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः । यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥ मैं नहीं जानता कि दोनोंमें क्या अच्छा है, हम जीतें यह, या वे हमें जीतें यह ? जिन्हें मारकर मैं जीना नहीं चाहता वे धृतराष्ट्र के पुत्र यह सामने खड़े हैं। ६ कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः त्बा धर्मसंमूढचेताः । वृच्छामि