मूल—पिंगल जटा कलाप माथे पै पुनीत आप,
पावक नैना प्रताप भ्रू पर बरत है।
लोचन बिसाल लाल, सोहै बाल चंद्र भाल,
कंठ कालकूट, व्याल भूषण धरत है।
सुंदर दिगंबर बिभूति गात, भाँग खात,
रूरे सृङ्गी पूरे काल-कंटक हरत है।
देत न अघात, रीझि जात पात आक ही के,
भोलानाथ जोगी जब औढर ढरत है॥१५६॥
शब्दार्थ—पिंगल= भूरी। कलाप= समूह। पुनीत आप= पवित्र जल अर्थात् गंगाजी। पावक-नैना= जिसके नेत्रो में अग्नि है। भ्रू= भौंह। बरत है= बलता है, जलता है। दिगवर= नग्न। रूरे= सुन्दर। सृङ्गी= शिवजी का बाजा। पूरे= बजाकर। काल-कटक= मूत्यु और बाधा। अघात न= तृस नहीं होते। आक ही के पात= आक के पत्तें को चढ़ाने से। औढर ढरत है= बेतरह प्रसन्न होते हैं।
भावार्थ—शिवजी की भूरी जटाओ के ऊपर गंगाजी विराजमान हैं, ऑखों में अग्नि है जिसका प्रताप भौंहो पर दमकता है, बड़ी बडी लाल आँखें हैं, ललाट पर द्वितीया का चद्रमा सुराभित है, कठ में कालकूट का चिह्न वर्तमान है, सॉपों के गइने पहनते हैं, सुन्दर और नग्न शरीर में विभूति लगाए हुए हैं, भाँग खाते हैं। अच्छी तरह सिंगी बाजा बजाकर मृत्यु और बाधाओं को हरते हैं। केवल आक की पन्तियो के चढ़ाने से ही प्रसन्न हो जाते हैं, और जब योगी भोलानाथ बेतरह प्रसन्न होते हैं तब देते देते इनको तृप्ति ही नहीं होती।
मूल—देत संपदा समेत श्रीनिकेत जाचकनि,
भवन बिभूति, भाँग, वृषभ बहनु है।
नाम बामदेव, दाहिनो सदा, असंग रंग,
अर्द्ध अंग अंगना अनग को महनु है।
‘तुलसी’ महेस को प्रभाव भाव ही सुगम,
निगम अगम हूँ को जानिबो गहनु है।
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