सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

शव को देखकर ठिठक गई, नतजानु होकर उस पुरुष का, जो कि महाराज थे और जिसे इस समय तक राजकुमारी पहचान न सकी थी—चरण धरकर बोली—महात्मन्! क्या व्यक्ति ने; जो यहाँ पड़ा है, मुझे कुछ देने के लिए आपको दिया है? या कुछ कहा है?

महाराज ने चुपचाप अपने वस्त्र में से एक वस्त्र का टुकड़ा निकालकर दे दिया। उस पर लाल अक्षरों में कुछ लिखा था। उस सुन्दरी ने उसे देखा और देखकर कहा—कृपया आप ही पढ़ दीजिए।

महाराज ने उसे पढ़ा। उसमें लिखा था—"मैं नहीं जानता था कि तुम इतनी निठुर हो। अस्तु; अब मैं नहीं रहूंगा; पर याद रखना; मैं तुमसे अवश्य मिलूँगा, क्योंकि मैं तुम्हें नित्य देखना चाहता हूँ, और ऐसे स्थान से देखुंगा, जहाँ कभी पलक गिरती ही नहीं।

—तुम्हारा दर्शनाभिलाषी
रसिया"

 

इसी समय महाराज को सुन्दरी पहचान गई, और फिर चरण धरकर बोली-पिताजी, क्षमा करना और शीघ्रतापूर्वक रसिया के कर-स्थित पात्र को लेकर अवशेष पी गई और गिर पड़ी। केवल उसके मुख से इतना निकला—"पिताजी, क्षमा करना।" महाराज देख रहे थे!