पृष्ठ:जयशंकर प्रसाद की श्रेष्ठ कहानियाँ.pdf/२८

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दौड़ा और एक विशाल शिलाखण्ड पर जाकर बैठ गया और उसे तोड़ने का उद्योग करने लगा; क्योंकि इसी के नीचे एक गुप्त पहाड़ी पथ था।

 

निशा का अँधकार कानन प्रदेश में अपना पूरा अधिकार जमाए हुए है। प्राय: आधी रात बीत चुकी है, पर केवल उन अग्नि-स्फुर्लिंगों से कभी-कभी थोड़ा-सा जुगनू का प्रकाश हो जाता है, जो कि रसिया के शस्त्र-प्रहार से पत्थर में से निकल पड़ते हैं। दनादन चोट चली जा रही है -विराम नहीं है क्षण भर भी न तो उस शैल को और न उस शस्त्र को। अलौकिक शक्ति से वह युवक अविराम चोट लगाए ही जा रहा है। एक क्षण के लिए भी इधर-उधर नहीं देखता। देखता है, तो केवल अपना हाथ और पत्थर; उँगली एक तो पहले ही कुचली जा चुकी थी, दूसरे अविराम परिश्रम! इससे रक्त बहने लगा था, पर विश्राम कहाँ? उस वज्रसार शैल पर वज्र के समान कर से वह युवक चोट लगाए ही जाता है। केवल परिश्रम ही नहीं, युवक सफल भी हो रहा है। उसकी एक-एक चोट में दस-दस सेर के ढोके कट-कटकर पहाड़ पर से लुढ़कते हैं, जो सोए हुए जंगली पशुओं को घबड़ा देते हैं। यह क्या है? केवल उसकी तन्मयता, केवल प्रेम ही उस पाषाण को भी तोड़े डालता है।

फिर वही दनादन-बराबर लगातार परिश्रम, विराम नहीं है! इधर उस खिड़की में से आलोक भी निकल रहा है और कभी-कभी एक मुखड़ा उस खिड़की से झाँककर देख रहा है, पर युवक को कुछ ध्यान नहीं, वह अपना कार्य करता जा रहा है।

अभी रात्रि के जाने के लिए पहर-भर है। शीतल वायु उस कानन को शीतल कर रही है। अकस्मात् 'तरुण-कुक्कुट-कंठनाद' सुनाई पड़ा, फिर कुछ नहीं। वह कानन एकाएक शून्य हो गया। न तो वह शब्द ही है और न तो पत्थरों से अग्नि-स्फुर्लिंग निकलते हैं।

अकस्मात् उस खिड़की में से एक सुन्दर मुख निकला। उसने आलोक डालकर देखा कि रसिया एक पात्र हाथ में लिए है और कुछ कह रहा है। इसके उपरान्त वह उस पात्र को पी गया और थोड़ी देर में वह उसी शिलाखण्ड पर गिर पड़ा। यह देख उस मुख से भी एक हल्का चीत्कार निकल गया। खिड़की बन्द हो गई। फिर केवल अंधकार रह गया।

 

प्रभात का मलय-मारुत उस अर्बुदगिरि के कानन में वैसी क्रीड़ा नहीं कर रहा है, जैसी पहले करता था। दिवाकर की किरण भी कुछ प्रभात के मिस से मंद और मलिन हो रही है। एक शव के समीप एक पुरुष खड़ा है और उसकी आँखों से अश्रुधारा बह रही है और वह कह रहा है-बलवन्त! ऐसी शीघ्रता क्या थी, जो तुमने ऐसा किया? यह अर्बुदगिरि का प्रदेश तो कुछ समय में यह वृद्ध तुम्हीं को देता और तुम उसमें चाहे जिस स्थान पर अच्छे पर्यंक पर सोते। फिर, ऐसे क्यों पड़े हो? वत्स! यह तो केवल तुम्हारी परीक्षा- यह तुमने क्या किया? । इतने में एक सुन्दरी विमुक्त-कुन्तला, जो कि स्वयं राजकुमारी थी, दौड़ी हुई आई और