पूस जाड थर थर तन काँपा। सुरुज जाइ लंका दिसि चाँपा।।
बिरह बाढ़, दारुन भा सीऊ । कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ॥
कंत कहाँ लागौं प्रोहि हियरे । पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे॥
सौंर सपेती आवै जूड़ी। जानहु सेज हिवंचल बूड़ी॥
चकई निसि बिछुरै दिन मिला। हौं दिन राति बिरह कोकिला॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसे जियै बिछोही पखी।
बिरह सचान भएउ तन जाड़ा। जियत खाइ औ मरे न छाँड़ा।
रकत ढरा मॉसू गरा, हाड भएउ सब संख ।
धनि सारस होइ ररि मई, पीउ समेटहि पंख ॥ १०
॥ लागेउ माघ, परे अब पाला। बिरहा काल भएउ जड़काला॥
पहल पहल तन रूई काँपै । हहरि हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
प्राइ सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिन जाड़ न छ्टै माहा॥
एहि माह उपजै रसमूलू। तु सो भौर, मोर जोबन फूलू॥
नैन चुवहि जस महवट नीरू । तोहि बिन अंग लाग सर चीरू॥
टप टप बूंद परहिं जस अोला। बिरह पवन होइ मारै भोला।
केहि क सिंगार, को पहिरु पटोरा । गीउ न हार, रही होइ डोरा॥
कि तुम बिनु काँपै धनि हिया, तन तिनउर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै, चहै उडाया झोल ॥ ११॥
फागुन पवन भकोरा बहा । चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा॥
तन जस पियर पात भा मोरा । तेहि पर बिरह देइ झकझोरा॥
तरिवर झरहि, झरहिं बन ढाखा । भइ अोनंत फलि फरि साखा॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू । मो कहँ भा जग दून उदासू॥
फाग करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहिं तन लाइ दीन्ह जस होरी॥
जो पै पीउ जरत अस पावा। जरत मरत मोहिं रोष न आवा॥
राति दिवस सब यह जिउ मोरे। लगौं निहोर कंत अब तोरे॥
यह तन जारों छार कै, कहौं कि 'पवन ! उड़ाव'।
मकु तेहि मारग उड़ि परै, कंत धरै जहँ पाव॥ १२॥
(१०) लंका दिसि = दक्षिण दिशा को। चाँपा जाइ = दबा जाता है। कोकिला=जलकर कोयल (काली) हो गई। सचान - बाज । जाड़ा= जाड़ में। ररि मुई = रटकर मर गई । पीउ,..पंख =प्रिय पाकर अब पर समेटे । (११) जड़काला = जाड़े के मौसिम में। माहा=माघ में। महवट = मघवट, माघ की झड़ी । चीरू- चीर, घाव । सर-बारण। झोला मारना = बात के प्रकोप से अंग का सन्न हो जाना । केहि क सिंगार ? = किसका शृगार ! कहाँ का शृंगार करना ? पटोरा = एक प्रकार का रेशमी कपड़ा । डोरा% क्षीण होकर डोरे के समान पतली । तिनउर= तिनके का समूह । झोल = राख, भस्म; जैसे--'पागि जो लागी समुद्र में टुटि टुटि खस जो झोल'--कबीर। (१२) योनंत = झुकी हुई। निहोर लगौं = यह शरीर तुम्हारे निहोर लग जाय, तुम्हारे काम आ जाय ।।