सत्यार्थ प्रकाश/भूमिका

विकिस्रोत से
[  ]
ओ३म्
सच्चिदानन्देश्वराय नमो नमः
भूमिका ॥

जिस समय मैंने यह ग्रन्थ "सत्यार्थप्रकाश" बनाया था उस समय और उससे पूर्व संस्कृत भाषण करने, पठनपाठन में संस्कृत ही बोलने और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने के कारण से मुझको आर्य भाषा का विशेष परिज्ञान न था इसम भाषा अशुद्ध बन गई थी । अब भाषा बोलने और लिखने का अभ्यास होगया है इसलिए इस ग्रन्थ को भाषा व्याकरणानुसार शुद्ध करके दूसरी बार छपवाया है । कहीं-कहीं शब्द, वाक्य रचना का भेद हुआ है सो करना उचित था, क्योंकि इसके भेद किए विना भाषा की परिपाटी सुधरनी कठिन थी, परन्तु अर्थ का भेद नहीं किया गया है, प्रत्युत विशेष तो लिखा गया है। हाँ, जो प्रथम छपने में कहीं-कहीं भूल रही थी, वह निकाल शोधकर ठीक २ कर दी गर्ह है।

यह ग्रन्थ १४ चौदह समुल्लास अर्थात् चौदह विभागों में रचा गया है ।

इस में १० दश समुल्लास पूर्व और ४ चार उत्तरार्द्ध में बने हैं परन्तु अन्त्य के दो समुल्लास और पश्चात् स्वसिद्धान्त किसी कारण से प्रथम नहीं छप सके थे अब वे भी छपवा दिये हैं ॥

प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ओंकारादि नामों की व्याख्या ।

द्वितीय समुल्लास में सन्तानों की शिक्षा ।

तृतीय समुल्लास में ब्रह्मचर्य्य, पठनपाठन व्यवस्था, सत्यासत्य ग्रन्थों के नाम और पढ़ने पढ़ाने की रीति ।

चतुर्थ समुल्लास में विवाह और गृहाश्रम का व्यवहार ।

पञ्चम समुल्लास में वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम की विधि ।

छठे समुल्लास में राजधर्म ।

सप्तम समुल्लास में वेदेश्वरविषय।

अष्टम ससुचास से जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय ।

नवम समुल्लास में विद्या, अविद्या, बन्ध और मोक्ष की व्याख्या ।

दशवें समुल्लास में आचार, अनाचार और भक्ष्याभक्ष्य विषय ।

एकादश समुल्लास से आर्य्यावर्त्तीय मतमतान्तर का खण्डन मण्डन विषय ।

द्वादश समुल्लास में चार्वाक, बौद्ध और जैनमत का विषय ।

त्रयोदश समुल्लास में ईसाईमत का विषय ।

चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मत का विषय ।

और चौदह समुल्लासों के अन्त में आर्य्यों के सनातन विहित मत की विशेषतः व्याख्या लिखी है जिसको मैं भी यथावत् मानता हूं ॥[  ]

मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का मुख्य प्रायोजन सत्य २ अर्थ का प्रकाश करना है अर्थात् जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या ही प्रतिपादन करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय किन्तु जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना लिखना और मानना सत्य कहाता है। जो मनुष्य पक्षपाती होता है वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मतवाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त होता है इसलिये वह सत्य मत को प्राप्त नहीं हो सकता इसीलिये विद्वान आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेखद्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित करदें, पश्चात् वे स्वयं अपना हिताहित समझ कर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परि त्याग करके सदा आनन्द मे रहैं । मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जाननेवाला है तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और आविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़ असत्य में झुक जाता है परन्तु इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है और न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि पर तात्पर्य है । किन्तु जिससे मनुष्यजाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्यजाति की उन्नति का कारण नहीं है ॥

इस ग्रन्थ में जो कहीं २ भूल चूक से अथवा शोधने तथा छापने में भूल चूक रह जाय उसको जानने जनाने पर जैसा वह सत्य होगा वैसा ही कर दिया जायगा और जो कोई पक्षपात से अन्यथा शंका वा खण्डन मण्डन करेगा उस पर ध्यान न दिया जायगा । हां जो वह मनुष्यमात्र का हितैषी होकर कुछ जनावेगा उसको सत्य २ समझने पर उसका मत संगृहीत होगा। यद्यपि आजकल बहुत से विद्वान् प्रत्येक मतों में हैं वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र सिद्धान्त अर्थात् जो वातें सब के अनुकूल सम में सत्य हैं उनका ग्रहण और जो एक दूसरे से विरुद्ध वातें हैं उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्त्तें वर्त्तावें तो जगत् का पूर्ण हित होवे । क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़कर अनेकविध दुःख की वृद्धि और सुख की हानि होती है । इस हानि ने जोकि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है सब मनुष्यों को दुःखसागर में डुबो दिया है । इनमें से जो कोई सार्वजनिक हित लक्ष्य में धर प्रवृत्त [  ]होता है उससे स्वार्थी लोग विरोध करने मे तत्पर होकर अनेक प्रकार विघ्न करते हैं । परन्तु “सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था वितत देवयानः” अर्थात् सर्वदा सत्या का विजय और असत्य का पराजय और सत्य ही से विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है, इस दृढ़ निश्चय के आलम्बन से आाप्त लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी सत्यार्थप्रकाश करने से नहीं हटते । यह बड़ा दृढ़ निश्चय है कि “यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्” यह गीता का वचन है इसका अभिप्राय यह है कि जो २ विद्या और धर्मप्राप्ति के कर्म हैं वे प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात् अमृत के सदृश होते हैं ऐसी बातों को चित्त में धर के मैने इस ग्रन्थ को रचा है । श्रोता वा पाठकगण भी प्रथम प्रेम से देख के इस ग्रन्थ का सत्य २ तात्पर्य जानकर यथेष्ट करें। इसमें यह अभिप्राय रखा गया है कि जो जो सब मतों में सत्य २ बातें हैं वे २ सव में अविरुद्ध होने से उनका स्वीकार करके जो २ मतमतान्तरों से मिथ्या बातें हैं उन २ का खण्डन किया है। इसमें यह भी आभिप्राय रखा है कि जब मतमतान्तरों की गुप्त या प्रकट बुरी बातों का प्रकाश कर विद्वान् आविद्वान् सब साधारण मनुष्यों के सामने रक्खा है, जिससे सब से सब का विचार होकर परस्पर प्रेमी हो के एक सत्य मतस्ध होवे। यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और वसता हूं तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न कर याथातथ्य प्रकाश करता हूँ, वैसे ही दूसरे देशस्थ वा मत वालों के साथ भी वर्त्तता हूँ। जैसा स्वदेश वालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में वर्त्तता हूँ, वैसा विदेशियों के साथ भी तथा सब सज्जनों को भी वर्त्तना योग्य है क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता तो जैसे आजकल के स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते और दूसरे मत की निन्दा, हानि और बन्द करने में तत्पर होते हैं, वैसे मैं भी होता, परन्तु ऐसी बातें मनुष्यपन से बाहर हैं। क्योंकि जैसे पशु बलवान् हो कर निर्बलों को दुःख देते और मार भी डालते हैं। जब मनुष्य शरीर पाके वैसा ही कर्म करते हैं तो वे मनुष्य स्वभावयुक्त नहीं किन्तु पशुवत् हैं। और जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है वही मनुष्य कहाता है और जो स्वार्थवश होकर परहानिमात्र करता रहता है, वह जानो पशुओं का भी बड़ा भाई है। अब आर्य्यावर्त्तीयों के विषय में विशेष कर ११ ग्यारहवें समुल्लास तक लिखा है। [ १० ]इन समुल्लासों में जो कि सत्यमत प्रकाशित किया है वह वेदोक्त होने से मुझको सर्वथा मन्तव्य हैं और जो नवीन पुराण तन्त्रादि ग्रन्थोक्त बातों का खण्डन किया है वे त्यक्तव्य हैं । जो १२ बारहवें समुल्लास में दर्शाया चार्वाक का मत यद्यपि इस समय क्षीणास्तसा है और यह चार्वाक बौद्ध जैन से बहुत सम्बन्ध अनीश्वरवादादि में रखता है यह चार्वाक सब से बड़ा नास्तिक है उसकी चेष्टा का रोकना अवश्य है, क्योंकि जो मिथ्या बात न रोकी जाय तो संसार में बहुत से अनर्थ प्रवृत्त हो जायें चार्वाक का जो मत है वह तथा बौद्ध और जैन का जो मत है वह भी १२ वें समुल्लास में संक्षेप से लिखा गया है और बौद्धों तथा जैनियों का भी चार्वाक के मत के साथ मेल है और कुछ थोड़ासा विरोध भी है और जैन भी बहुत से अंशों में चार्वाक और बौद्धों के साथ मेल रखता है और थोड़ीसी बातों में भेद है । इसलिये जैनों की भिन्न शाखा गिनी जाती है वह भेद १२ बारहवें सगुल्लास में लिख दिया है यथायोग्य वहीं समझ लेना जो इसका भेद है सो २ बारहवें समुल्लास में दिखलाया है बौद्ध और जैन मत का विषय भी लिखा है । इनमें से बौद्धों के दीपवंशादि प्राचीन ग्रन्थों में बौद्धमतसंग्रह सर्वदर्शनसंग्रह मे दिखलाया है उसमें से यहां लिखा है और जैनियों के निम्नलिखित सिद्धान्तों के पुस्तक है । उनमें से ४ चार मूल सूत्र, जैसे--१ आवश्यकसूत्र, २ विशेष आवश्यकसूत्र, ३ दशवैकालिकसूत्र और ४ पाक्षिकसूत्र । ११ ग्यारह अङ्ग, जैसे -१ आचारांगसूत्र, २ सुगडांगसूत्र ३ थाणांगसूत्र, ४ समवायांगसूत्र, ५ भगवतीसूत्र, ६ ज्ञाताधर्मकथासूत्र, ७ उपासकदशासूत्र, ८ अन्तगदृदशासूत्र, ९ अनुत्तरोववाईसूत्र, १० विपाकसूत्र, ११ प्रश्नव्याकरण सूत्र । १२ बारह उपांग, जैसे - १ उपवाईसूत्र, २ रायपसेनीसूत्र, ३ जीवाभिगमसूत्र, ४ पन्नवणासूत्र, ५ जंबूद्वीपपन्नतीसूत्र, ६ चन्दपन्नतीसूत्र, ७ स्नूरपन्नतीसूत्र, ८ निरियाक्लीसूत्र, ९ कप्पियासूत्र, १० कपवड़ीसयासूत्र, ११ पूप्पियासूत्र और १२ पुण्यचूलियासूत्र । ५ कल्पसूत्र, जैसे-१ उत्तराध्ययनसूत्र, २ निशीथसूत्र, ३ कल्पसूत्र, ४ व्यवहारसूत्र और ५ जीतकल्पसूत्र । ६ छः छेद, जैसे - १ मानिशीथबृहद्वाचनासूत्र, २ महानिशीथलघुराचनासूत्र, ३ मध्यमवाचनासूत्र, ४ पिण्डनिरुक्निसूत्र, ५ ओघनिरुक्तिसूत्र, ६ पर्यूषणासूत्र । १० दश पयन्नासूत्र, जैसे - १ चतुस्सरणसूत्र, २ पच्चरवाणसूत्र, ३ तदुलवैयालिकसूत्र, ४ भक्तिपरिज्ञानसूत्र, [ ११ ]५ महामयाख्यानसूत्र, ६ चंदाविजय, ७ गणीविजयसूत्र, ८ मरणासमाधि सूत्र, ९ देवेन्द्रस्तमनसूत्र और १० संसारसूत्र तथा नन्दीपुत्र योगोद्धारसूत्र भी प्रामाणिक मानते हैं । ५ पञ्चाङ्ग, जैसे-१ पूर्व सब ग्रन्थों की टीका, २ निरुक्ति, ३ चरणी, ४ भाष्य, ये चार अवयव और सव मूल मिल के पंचांग कहाते हैं, इनमें ढूंढिया अवयवों को नहीं मानते और इनसे भिन्न भी अनेक ग्रन्थ हैं कि जिनको जैनी लोग मानते है । इनके मत पर विशेष विचार १२ वारहवें समुल्लास में देख लीजिये । जैनियों के ग्रन्थों में लाखों पुनरुक्त दोष हैं और उनका यह भी स्वभाव है कि जो अपना ग्रन्थ दूसरे मत वाले के हाथ में हो वा छपा हो तो कोई २ उस ग्रन्थ को अप्रमाण कहते हैं यह बात उन की मिथ्या है क्योंकि जिसको कोई माने कोई नहीं इससे वह ग्रन्थ जैनमत से बाहर नहीं हो सकता । हां ! जिसको कोई न माने और न कभी किसी जैनी ने माना हो तब तो अग्राह्य हो सकता है परन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं है कि जिसको कोई भी जैनी न मानता हो इसलिये जो जिस ग्रन्थ को मानता होगा उस ग्रन्थस्थविषयक खण्डन मण्डन भी उसी के लिये समझा जाता है। परन्तु कितने ही ऐसे भी है कि उस ग्रन्थ को मानते जानते हों तो भी सभा वा संवाद में बदल जाते है इसी हेतु से जैन लोग अपने ग्रन्थों को छिपा रखते है और दूसरे मतस्थ को न देते न सुनाते और न पढ़ाते इसलिये कि उनमें ऐसी २ असम्भव बातें भरी हैं जिनका कोई भी उत्तर जैनियों में से नहीं दे सकता । झूठ को छोड़ देना ही उत्तर है ॥

१२ वें समुल्लास में ईसाइयों का मत लिखा है ये लोग बायबिल को अपना धर्मपुस्तक मानते हैं उनका विशेष समाचार उसी १३ तेरहवें समुल्लास में देखिये और १४ चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मतविषय में लिखा है ये लोग कुरान को अपने मत का मूल पुस्तक मानते हैं इन का भी विशेष व्यवहार १४ वें समुल्लास में देखिये । और इसके आगे वैदिक मत के विषय में लिखा है जो कोई इस ग्रन्थकर्ता के तात्पर्य से विरुद्ध मनसा से देखेगा उसको कुछ भी अभिप्राय विदित न होगा क्योंकि वाक्यार्थबोध में चार कारण होते हैं - आकाङ्क्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य । जब इन चारों बातों पर ध्यान देकर जो पुरुष ग्रन्थ को देखता है, तब उस को ग्रन्थ का अभिप्राय यथायोग्य विदित होता है । "आकाङ्क्षा" किसी विषय पर वक्ता की और [ १२ ]वाक्यस्थपदों की आकांक्षा परस्पर होती है । "योग्यता" वह कहाती है कि जिससे जो होसके जैसे जल से सींचना । "आसत्ति" जिस पद के साथ जिसका सम्बन्ध हो उसी के समीप उस पद को वोलना वा लिखना। "तात्पर्य" जिसके लिये वक्ता ने शब्दोच्चारण या लेख किया हो उसी के साथ उस वचन या लेख को युक्त करना । बहुत से हठी दुराग्रही मनुष्य होते हैं कि जो वक्ता के अभिमाय से विरुद्ध कल्पना किया करते हैं । विशेष कर मतवाले लोग क्योंकि मत के आग्रह से उनकी बुद्धि अन्धकार में फंस के नष्ट हो जाती है इसलिये जैसा मैं पुराण, जैनियों के ग्रन्थ, बायबिल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर उनमें से गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग तथा अन्य मनुष्प्यजाति की उन्नति के लिये प्रयत्न करता हूँ, वैसे सब को करना योग्य है। इन मतों के थोड़े २ ही दोष प्रकाशित किये हैं जिनको देखकर मनुष्य लोग सत्यासत्य मत का निर्णय कर सकें और सत्य का ग्रहण तथा असत्य का त्याग करने कराने में समर्थ हों । क्योंकि एक मनुष्य जाति में बहका कर विरुद्ध बुद्धि कराके एक दूसरे को शत्रु बना लड़ा मारना विद्वानों के स्वभाव से बहिः है । यद्यपि इस ग्रन्थ को देख कर अविद्वान लोग अन्यथा ही विचारेंगे तथापि बुद्धिमान लोग यथायोग्य इसका अभिप्राय समझेंगे इसलिये मैं अपने परिश्रम को सफल समझता और अपना अभिप्राय सब सज्जनों के सामने धरता हूं । इसको देख दिखला के मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करना मेरा वा सब महाशयों का मुख्य कर्तव्य काम है । सर्वात्मा सर्वान्तर्यामी सच्चिदानन्द परमात्मा अपनी कृपा से इस आशय को विस्तृत और चिरस्थायी करे ॥

॥ अलमातिविस्तण बुद्धिमलरशिरोमणिषु ॥
॥ इति भूमिका ॥

स्थान महाराणजी का उदयपुर

(स्वामी) दयानन्दसरस्वती.

भाद्रपद शुक्लपक्ष संवत् १९३९.

This work is in the public domain in the United States because it was first published outside the United States (and not published in the U.S. within 30 days), and it was first published before 1989 without complying with U.S. copyright formalities (renewal and/or copyright notice) and it was in the public domain in its home country on the URAA date (January 1, 1996 for most countries).