अंतर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश/क

विकिस्रोत से
अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश  (1943) 
द्वारा रामनारायण यादवेंदु

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कनाडा——यह ब्रिटिश कॉमनवैल्थ का एक अङ्ग है। उत्तरी अमरीका मे, सयुक्त-राज्य अमरीका के उत्तर मे, यह देश स्थित है। क्षेत्रफल ३६,९५,००० वर्गमील तथा जन्संख्या १,१२,००,००० है। कनाडा का शासन-विधान सन् १८६७ के ब्रिटिश उत्तरी अमरीका ऐक्ट के आधार पर है। यहाँ संघ-शासन है। यहाँ की पार्लमेंट में दो परिषद्(Chambers) हैं—एक कॉमन-सभा तथा दूसरी सीनेट। कॉमन सभा के प्रतिनिधि पाँच वर्ष के लिये चुने जाते हैं। सीनेट के सदस्य सपरिषद्-गवर्नर-जनरल द्वारा आजीवन सदस्य चुने जाते हैं। गवर्नर-जनरल ब्रिटेन के बादशाह का प्रतिनिधि है और बादशाह के नाम पर मसविदे आदि स्वीकार करता है।

कनाडा नौ प्रान्तों से मिलकर बना है। प्रत्येक प्रान्तीय सरकार को स्वतंत्रता है तथा प्रान्तीय धारासभाएँ कानून बनाती हैं। परन्तु संघीय सरकार को उन्हे रद करने का अधिकार है। प्रत्येक प्रान्त मे लेफ्टिनेंट गवर्नर होता है, जिसकी नियुक्ति गवर्नर-जनरल द्वारा की जाती है।

कनाडा की कुल जनसंख्या मे से ८० लाख कनाडा-अधिवासी कनाडा में पैदा हुए है, १२ लाख इँगलैण्ड के हैं, ३॥ लाख संयुक्त-राज्य अमरीका के लोग है, और शेष विदेशों मे पैदा हुए है। २७ लाख अँगरेज, १३ लाख स्काटलैंड के (Scotch), १२ लाख आयरिश, ३० लाख फ्रांसीसी, ५ लाख जर्मन, शेष दूसरे राष्ट्रों और जातियो के है। कनाडा की फ्रेंच तथा अँगरेजी दो राष्ट्रभाषाएँ है। कनाडा मे प्रवास-संबंधी बड़ी बाधाएँ है। [ ७३ ]कनाडा में दो राजनीतिक दल हैं, उदार दल तथा राष्ट्रीय अनुदार दल। उदार दल वाले कम समुद्र-तट-कर चाहते हैं, ओटावा-समझौते के बजाय विशेष व्यापारिक सधियॉ चाहते हैं, डोमीनियन की स्वतत्र सत्ता पर ज़ोर देते हैं; आर्थिक मामलो में राज्य का हस्तक्षेप नही चाहते। सन् १९३५ में इस दल की विजय हुई। राष्ट्रीय अनुदार दल समुद्र-तट-कर अधिक चाहता है, ओटावा-समझौता का समर्थन करता है। आर्थिक मामलो में कुछ हस्तक्षेप चाहता है। पैदावार की सहकारी-विक्री की व्यवस्था चाहता है। सामाजिक बीमा, कम-से-कम वेतन, कम-से-कम काम के घटे, आदि चाहता है।

कनाडा की मज़दूर-संस्था का नाम है सहकारी काॅमनवैल्थ सघ। इसकी स्थापना सन् १९३२ मे हुई। इसका एक विशेष कार्यक्रम है, जो कुछ समाजवादी ढंग का है। यह दल (सस्था) इस युद्ध में तटस्थता के पक्ष में है। इसके नेता जे० एस० वुड्सवर्थ हैं।

९ सितम्बर १९३९ को कनाडा की पार्लमेट ने यह निर्णय किया कि कनाडा को ब्रिटेन के पक्ष में युद्ध में भाग लेना चाहिए। कनाडा में लड़ाकू हवाई जहाजो के बनाने के लिए बड़े-बड़े कारखाने खोले गये हैं। कनाडा ने अपनी सेना भी ब्रिटेन की सहायतार्थ भेजी है।

कनाडा की अपनी जल-सेना, स्थल-सेना तथा हवाई-सेना है। कनाडा में गेहूँ की पैदावार सबसे

अधिक हैं। सोना, ऊन, निकिल आदिभी पैदा होती है। कनाडा का सिक्का ‘डॉलर' है जो सयुक्त-राज्य अमरीका के डॉलर के बराबर है। प्रायःएक शताब्दी से संयुक्त राज्य अमरीका और कनाडा के पारस्परिक संबध मित्रतापूर्ण रहे हैं। [ ७४ ]कमाल अता तुर्क--आधुनिक तुर्किस्तान के निर्माता, तुर्क जनरल तथा राजनीतिज्ञ और तुर्की प्रजातत्र के प्रथम राष्ट्रपति। सन् १९८१ में जन्म हुआ। तरुण तुर्क क्रान्तिकारी दल में शामिल होगये। सन् १९१५ में दरेदानियाल (Dardanelles) की रक्षा की और जनरल कमाल पाशा बन गये। मई १९१९ में कमाल पाशा अनातूलिया भेजे गये जिसमें वहाँ नि.शस्त्रीकरण किया जा सके। उन्होने कुस्तुन्तुनिया-सरकार की अवज्ञा करके राष्ट्रीय आन्दोलन और सेना का संगठन किया। राष्ट्रीय-परिषद् आमंत्रित की तथा उन यूनानियो के विरुद्ध युद्ध किया जो एशिया माइनर में प्रवेश कर रहे थे। कुस्तुन्तुनिया-सरकार ने मुस्तफा कमाल पाशा को विद्रोही घोषित कर दिया। अगोरा में राष्ट्रवादी पार्लमेट के सदस्य, राष्ट्रीय परिषद् के रूप में, सम्मिलित हुए और कमाल पाशा को अपना राष्ट्रपति चुन लिया तथा कुस्तुन्तुनिया से सम्बन्ध-विच्छेद कर दिया। १९२१ में मुस्तफा कमाल पाशा तुर्क के प्रधान सेनापति बनाये गये। उन्होंने सकारिया के २२ दिन के युद्ध को जीता। राष्ट्रीय परिषद् ने इस पर आपको गाजी (विजयी) की उपाधि से विभूषित किया। कमाल पाशा ने २९ अक्टूबर १९२३ को सुलतान और ख़िलाफत का खात्मा कर दिया और तुर्किस्तान को प्रजातंत्र घोषित कर दिया। प्रथम प्रजातंत्र के प्रथम राष्ट्रपति बनाये गये और अधिनायक (Dictator) के सम्पूर्ण अधिकार उन्हें दे दिये गये। १९३१ और १९३५ में भी वही राष्ट्रपति चुने

गये। कमाल पाशा ने जो सुधार तुर्किस्तान में किये, उनमें से निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं--राज्य-शासन और धर्म का पृथक्करण, बहुविवाह-निषेध, पर्दा तथा बुर्का-निवारण, फैज कैप (लाल तुर्की टोपी) का परित्याग, यूरोपीय पोशाक का प्रसार, यूरोपियन रीति-रिवाजो और आधुनिक खेलों का प्रचार, अरबी की जगह लेटिन लिपि का प्रचार। धार्मिक-क्षति की दुहाई देनेवाले मौलवी-मुल्लाओ, उनके अविनायक-तंत्र के विरुद्ध षड्यंत्र रचनेवालो और साम्यवादियो का उन्होने दृढता से दमन किया। राष्ट्र-निर्माण में रोडा अटकानेवालो को बड़ी तादाद में मौत के घाट उतार दिया

जनतंत्रवाद के प्रतिकूल होने से अपने नाम के साथ की पाशा उपाधि छोड़ दी। १९३४ मे अरबी शब्द मुस्तफा-भी अपने नाम में से निकाल
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दिया। कुलीनता-हीनता-सूचक उपाधियो और

उपनामो को छोड़कर, १९३४ मे, तुकों में सादा उपनाम लिखने की प्रथा प्रचलित थी। अपने नाम कमाल के साथ अता तुर्क जोडा और ग़ाज़ी मुस्तफा कमाल पाशा के बजाय कमाल अता-तुर्क नाम ग्रहण किया। अता-तुर्क का अर्थ है तुर्कों का पिता। सन् १९२३ में लतीफी हानुम नामक एक सुशिक्षिता आधुनिक सुन्दरी से निकाह किया, और ज्योही कमाल को विश्वास हुआ कि लतीफी उनकी राष्ट्रोद्धार की नीति पर अपना प्रभाव डालती है, त्योही १९२७ में उसे तलाक़ दे दी। १० नवम्बर १९३८ को तुर्की के त्राता कमाल अतातुर्क का, यकृत्-रोग के कारण, देहान्त हो गया।


कराची-प्रस्ताव--राष्ट्रीय महासभा (कांग्रेस) के कराची-अधिवेशन (मार्च १९३१) में एक प्रस्ताव इस आशय का स्वीकार किया गया जिसके द्वारा जनता को स्वराज्य की रूपरेखा समझाने तथा उसको आर्थिक स्वाधीनता देने के लिये भारत के स्वराज्यकालीन शासन-विधान में जन-समुदाय के मौलिक अधिकारो और कर्तव्यो, मज़दूरो की स्थिति, कर तथा सरकारी व्यय और सामाजिक तथा आर्थिक कार्यक्रम का विस्तृत उल्लेख किया गया था। चूॅकि यह प्रस्ताव, इस सम्बन्ध के सार्वजनिक विचार-विनियम के बिना ही, स्वीकृत हुआ था, अतएव अगस्त सन् १९३१ की भारतीय कांग्रेस कमिटी ने इसमे कई संशोधन किए। संशोधित प्रस्ताव को मौलिक अधिकारो की घोषणा में १४ धाराएँ हैं और मजदूरो तथा आर्थिक कार्यक्रम में १७ इसकी धाराओं में निश्चित कर दिया गया है कि स्वराज्य-प्राप्त भारत में किसी भी सरकारी-कर्मचारी का वेतन ५००) मासिक से अधिक न होगा। अल्प सख्यक जातियो--मुसलमानो, हरिजन आदि--तथा भिन्न-भाषा-भाषियों और विदेशियों के अधिकारो और स्थिति की व्याख्या भी कर दी गई है। [ ७६ ]कृपालानी, आचार्य जे० वी०--गान्धीवादी काग्रेसी नेता। अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के प्रधान मत्री। जब गान्धीजी ने चम्पारन (बिहार) में नील की बड़ी-बडी खेतियॉ करनेवाले यूरोपियन (‘निलहे गोरो') द्वारा मज़दूरो पर किये जानेवाले अत्याचारो के विरोध में, सन् १९१७ मे, आन्दोलन किया, तब कृपालानीजी बिहार के एक कालिज में अध्यापक थे। वह तभी गान्धीजी के सम्पर्क में आये और उन्होने सत्याग्रह सिद्धान्त का अध्ययन किया। उन्होने भारतीय जनता की मनोवृत्ति का भी अध्ययन किया। चम्पारन के मजदूरो की स्थिति की जॉच करनेवाली कमिटी में भी उन्होने भाग लिया। इसके बाद प० मदनमोहन मालवीय से इनकी भेट हुई और एक वर्ष तक उनके प्राइवेट सैक्रेटरी रहे। सन् १९१८ मे देहली में जब कांग्रेस का अधिवेशन हुया तब यह माननीय मालवीयजी के मत्री थे। इस कारण देहली में इन्हे देश के नेताओं से परिचय प्राप्त करने का अच्छा अवसर प्राप्त हुआ।

सन् १९१९ में इन्हे काशी हिन्दू-विश्वविद्यालय में राजनीति का प्रोफेसर नियुक्त किया गया। जब सन् १९२२ मे अहमदाबाद में गान्धीजी के आदेश से राष्ट्रीय शिक्षा-सस्था, गुजरात विद्यापीठ, की स्थापना की गई तब श्री कृपालानी प्रोफेसरी छोड़कर विद्यापीठ में चले गये। वहाँ पाँच वर्ष तक रहे। पीछे आप अखिल-भारतीय चरखा संघ में सम्मिलित होगये और संयुक्त-प्रान्तीय-शाखा-चरखा-सघ के केन्द्र, गान्धी आश्रम, मेरठ मे, आ गये और तब से बराबर वहाँ के प्रधान कार्यकर्ता हैं। इसके साथ ही, पीछे आप काँग्रेस के सैक्रेटरियट-स्वराज्य -भवन,

प्रयाग--में आगये और प्रधान मंत्री (जनरल सैक्रेटरी) के पद पर काम करने लगे। बीच के कुछ वर्षों को छोडकर, वे कांग्रेस के बराबर प्रधान मंत्री है। आचार्य कृपालानी स्पष्ट-वक्ता तथा
[ ७७ ]कुशल लेखक है। वह अपने भाषण मे हास्य-रस का सुन्दर पुट देते हैं और कभी-कभी अपने श्रोताओं को मुग्ध कर देते है। आप वर्षो गान्धीजी के निकट सम्पर्क मे रहे है और उनके सिद्धान्तो और विचारो का गम्भीर अध्ययन किया है। अपने जीवन के दीर्घकाल तक अविवाहित रहने के उपरान्त, काफ़ी बड़ी उम्र मे, अभी कुछ वर्ष पूर्व, आपने विवाहित-जीवन मे प्रवेश किया है। कालिज और राष्ट्रीय विद्यापीठ मे अध्यापन-कार्य किया, इसलिये आप आचार्य कहलाये। आपने गान्धीवाद पर कई पुस्तके लिखी है।


कृषि-सामंजस्य-क़ानून—संयुक्त-राज्य अमरीका की कांग्रेस ने, अपने देश के किसानों के हित के लिए, १२ मई सन् १९३३ को, यह क़ानून बनाया। कृषी-सामंजस्य प्रबंध-संस्था भी स्थापित की गई जिसका उद्देश किसानों को आर्थिक सहायता देना है। यह संस्था कृषि की पैदावार का मूल्य निर्धारित करती है, किसानों के जोतने-बोने के लिए भूमि का वितरण करती है, उन्हें आर्थिक मदद देती है, किसानों की जो पैदावार नही बिकती उसे स्वयं खरीद लेती है तथा उसको सुरक्षित रखने की व्यवस्था करती है। यह संस्था हर वर्ष ५० करोड़ डॉलर इस कार्य में ख़र्च करती है।


कागनोविच—कागनोविच रूस के प्रसिद्ध समाजवादी नेता हैं। उनका जन्म सन १८९३ मे यहूदी परिवार मे हुआ। यह परिवार युक्रेन मे रहता था तथा अपने विद्यार्थि-काल मे वह ग़रीबी के कारण दो वर्ष ही शिक्षा प्राप्त कर सके। बाद मे अपनी जीविका-उपार्जन के लिए उन्हे मज़दूरी करनी पड़ी। सन १९११ में उन्होने कम्यूनिस्ट पार्टी मे प्रवेश किया और उसके बाद क्रान्ति तथा गृह-युद्ध मे उन्होने जो कार्य किया उससे उनकी संगठन-शक्ति का पता लगता है। कागनोविच रेल-विभाग के मंत्री बनाये गए। उन्होने इस विभाग मे आशातीत उन्नति की।


कांग्रेस-कार्य-समिति—यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सर्व्वोच्च नियन्त्रण-कारिणी समिति है। इसकी नियुक्ति कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष द्वारा की जाती है। नियुक्ति करते समय महात्मा गान्धी से परामर्श लेना आवश्यक है। उन्ही के परामर्श से इसकी नियुक्ति होती है। इसकी विशेषता यह है कि इसमे, त्रिपुरा कांग्रेस के बाद से, गान्धीवादी नेता ही नियुक्त किये जाते
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हैं। हरीपुरा तथा फैजपुर अधिवेशनों के समय बनाई गई समितियो में समाजवादी नेता श्री जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्रदेव तथा श्री अच्युत पटवर्धन भी संयुक्त किये गये थे। परन्तु त्रिपुरी के संधर्ष के बाद कार्य समिति में सब गान्धीवादी या गान्धीजी के भक्तों को ही लिया जाता है। रामगढ-कांग्रेस(१९४०) के समय की बनी कार्य-समिति में, जो अब तक है, निम्नलिखित सदस्य हैं--

(१)मौलाना अबुल कलाम आज़द, (अध्यक्ष), (२)सरदार वल्लभभाई पटेल, (३)प० जवाहरलाल नेहरू, (४)डा० राजेन्द्रप्रसाद, (५)आचार्य कृपालानी, (६)श्रीमती सरोजिनी नायडु, (७)सेठ जमनालाल बजाज, (जनवरी १९४२ में जिनके स्वर्गवासी होजाने से, उनके स्थान पर, श्री जयरामदास दौलतराम को नियुक्त किया गया है), (८)श्री राजगोपालाचर्य ('पाकिस्तान'-प्रश्न पर कांग्रेस से मतभेद होजाने के कारण आपने, जुलाई १९४२ में, अपने स्थान से त्यागपत्र दे दिया।), (९)श्री भूलाभाई देसाई, (१०)ख़ान अब्दुल गफ़्फारखॉ, (जिनहोने रचनात्मक कार्य करने के लिये त्यागपत्र दे दिया है।) (११)श्री शंकरराव देव, (१२)डा० प्रफुल्लचन्द्र घोप, (१३)श्री आसफअली, (१४)डा० सैयद महमूद। (१५)प० गोविन्दवल्लभ पन्त। (१६)डा० पट्टाभि सीतारामय्या।


कांग्रेस-मंत्रि-मण्डल--जुलाई सन् १९३७ से नवम्बर १९३९ तक भारत के ८ प्रान्तो--बम्बई, मदरास, संयुक्त-प्रान्त, मध्यप्रान्त, बिहार, उड़ीसा, सीमाप्रान्त तथा आसाम---में कांग्रेस-दल की सरकारो ने प्रान्तो का शासन-प्रबंध किया।


कांग्रेस-समाजवादी-दल---मई १९३३ में पटना में हुई अखिल-भारतीय कांग्रेस कमिटी के अधिवेशन मे सत्याग्रह आन्दोलन के स्थगित करने का प्रस्ताव स्वीकार किया गया। इसी अवसर पर सर्वप्रथम कांग्रेस समाजवादी सम्मेलन भी, काशी विद्यापीठ के आचार्य श्री नरेन्द्रदेव की अध्यक्षता मे, हुआ। श्री जयप्रकाश नारायण संगठन-मंत्री नियुक्त किये गये। ७-८ वर्षों मे इस आन्दोलन ने राष्ट्रीय आन्दोलन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला है। आज यह दल कांग्रेस के अन्तर्गत अन्य दलो से अधिक सुसंगठित है। कांग्रेस
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कार्य के अतिरिक्त यह दल किसानो-मज़दूरों के संगठन का कार्य स्वतंत्र रूप से भी करता रहा है और किसान सभा तथा मज़दूर सभा मे, दूसरे दलो की अपेक्षा, इसके सदस्य सबसे अधिक संख्या में है। इसका अखिल-भारतीय संगठन है जो अखिल-भारतीय कांग्रेस-समाजवादी दल के नाम से प्रसिद्ध है। प्रत्येक प्रान्त मे इसकी शाखाएँ है। ज़िलो और नगरो में भी इसका संगठन है। इसका लक्ष्य भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त करना और भारत मे समाजवादी शासन-प्रणाली की स्थापना करना है। इसके मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित है--

(१) समस्त सत्ता जनता के हाथ मे रहे।

(२) देश के आर्थिक-जीवन का नियत्रण एव विकास राज्य द्वारा हो।

(३) सबसे पहले बड़े उद्योगो का समाजीकरण किया जाय, जिससे उत्पत्ति, वितरण तथा विनिमय के समस्त साधनो पर समाज का स्वाम्य स्थापित होसके।

(४) विदेशी व्यापार पर राज्य का एकाधिकार हो।

(५) राजाओं, नवाबो तथा ज़मीदारो को, बिना किसी प्रकार की क्षति-पूर्ति दिये, ज़मीदारी प्रथा का अन्त।

(६) किसानो तथा मज़दूरो के क़र्जे़ की माफ़ी।

(७ ) व्यावसायिक आधार पर वयस्क मताधिकार।

जब सन् १९३६ मे कांग्रेस ने यह निश्चय किया कि कांग्रेस को प्रान्तीय चुनाव में भाग लेना चाहिए, तब पहले तो समाजवादियो ने कौसिल-प्रवेश का विरोध किया, परन्तु बाद मे, साम्राज्यवाद के विरोध के लिए, उन्होने भी कौसिल-प्रवेश का निश्चय किया। काफी संख्या में समाजवादी प्रान्तीय धारासभाओ मे चुने गये। जब सन् १९३७ मे, देहली मे, मार्च मे, काग्रेस की अखिल-भारतीय कमिटी का अधिवेशन हुआ तो इन्होने मंत्रि-पद-ग्रहण का विरोध किया। परन्तु पद-ग्रहण का प्रस्ताव गान्धीजी के प्रभाव से पास हो गया। जब कांग्रेस मंत्रि-मण्डल बनाये गये, तब समाजवादी सदस्यों ने मंत्रि-पद ग्रहण करना अस्वीकार कर दिया। कांग्रेस-शासन-नीति की समाजवादियो ने कड़ी आलोचना की। कांग्रेस-सरकारों ने किसान और मज़दूरो के आन्दो-
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लन को बिलकुल प्रोत्साहन नही दिया अपितु उसे दबाने का प्रयत्न किया, और इन कार्यों मे पुलिस की भी सहायता ली। समाजवादी नेताओं ने इन कार्यों की निन्दा की। काग्रेस-शासन-काल में समाजवादी-आन्दोलन बहुत व्यापक और प्रभावशाली होगया। काग्रेस समाजवादी वर्तमान युद्ध को साम्राज्यवादी समझते हैं और उसमे सहायता देने के कट्टर विरोधी हैं। वे चाहते है कि युद्ध के विरोध में भारतव्यापी जनान्दोलन छेड़ा जाय। महात्मा गान्धी के व्यक्तिगत युद्ध-विरोधी सत्याग्रह से वे सहमत नहीं रहे। काग्रेस समाजवादी-दल के प्रमुख नेता हे--सर्वश्री

आचार्य नरेन्द्रदेव, जयप्रकाश नारायण, यूसुफ मेहरअली, अच्युत पटवर्धन, श्रीमती कमलादेवी।


कार्डेनाज, जनरल लेजरो--मेक्सिको के राष्ट्रपति, ३० नवम्बर १९३४ को चुने गये। १ दिसम्बर १९४० को आपका कार्य-काल समाप्त होगया। यह अपने ढग के स्वतंत्र समाजवादी विचारक है। आपने मेक्सिको मे रूसी क्रान्ति के नेता ट्राटस्की को आश्रय दिया था।

कार्डेल हल-संयुक्त राज्य अमरीका के वैदेशिक मत्री, जन्म १८७१ ई०। राष्ट्रपति रूजवेल्ट की नीति के समर्थक तथा एकान्तता (Isolationism) नीति के विरोधी है। वकील और जज रहे। १८९८ के क्यूबा-युद्ध मे कप्तान की हैसियत से लड़े। सन् १९०७ से १९२१ तक और फिर '२३ से ‘३१ ई० तक काग्रेस (अमरीकी पार्लमेन्ट) के सदस्य रहे। सन् ‘३१ से '३७ तक सीनेट के सदस्य रहे, और जब रूजवेल्ट मन्त्रिमण्डल बनने लगा तब, उसमे सम्मिलित होने के लिये, सीनेट की सदस्यता से स्तीफा दे दिया।

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काबालैरो--स्पेन का मजदूर नेता, सन १८९९ में जन्म हुआ। यह

मकान बनाने का काम करता था। बाद मे स्पेनिश समाजवादी-दल का अध्यक्ष होगया।

सात बार क़ैद की सज़ा दी गई। सन १९१७ में फाँसी की सजा मिली, परन्तु रिहा कर दिया गया। सन १९३१-३३ की प्रजातंत्रवादी सरकार मे वह मज़दूर-मंत्री था। स्पेन के गृह-युद्ध में सन १९३६ मे वह प्रजातंत्रवादी सरकार का प्रधान-मंत्री होगया। सन् १९३७ मे उसे प्रजातंत्रवादी दल ने बहिष्कृत कर दिया। जब प्रजातंत्र का पतन हो गया तब वह स्पेन से फ्रांस को भाग गया।


कामन सभा (पार्लमेट)--ब्रिटिश पार्लमेट की प्रथम सभा (House of Commons)। सन् १९११ से इस सभा का अधिक प्रभाव है, क्योकि लार्ड सभा (House of Lords--द्वितीय सभा) इसके द्वारा स्वीकृत किसी प्रस्ताव अथवा बिल को रद नही कर सकती। इस सभा मे ६१५ निर्वाचित प्रतिनिधि है--इँगलैड के ४५२ सदस्य, वेल्स के ३६, स्काटलैड के ७४ तथा उत्तरी आयरलैड के १३ सदस्य हैं। इँगलैड के धार्मिक-तत्र(Church) के पादरी सदस्य नही चुने जाते। कामन-सभा के सदस्यो का चुनाव पाँच साल के लिए होता है। इसके सदस्यो को अपने नाम के आगे एम० पी० (मेम्बर पार्लिमेट) पदवी जोडने का अधिकार है। सदस्यो को ६०० पौंड सालाना भत्ता तथा रेलवे की यात्रा-संबंधी सुविधाएँ दी जाती है। सभा का अध्यक्ष स्पीकर (Speaker) कहलाता है।


कामिर्ण्टन-विरोधी-समझौता--२५ नवम्बर सन १९३६ को जर्मनी और जापान के बीच यह समझौता हुआ था। इसका उद्देश कामिण्टर्न अर्था्त साम्यवादी अन्तर्राष्ट्रीय संघ की काररवाइयो तथा आन्दोलन का दमन
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करना है। एक साल बाद, ६ नवम्बर १९३७ को, इटली भी इसमें शामिल होगया। इस समझौते मे यह स्वीकार किया गया है कि—

"हस्ताक्षरकर्त्ता यह उत्तरदायित्व स्वीकार करते हैं कि वे एक दूसरे को साम्यवादी अन्तर्राष्ट्रीय काररवाइयो से सूचित करते रहेंगे, रक्षात्मक कारवाई के संबंध में वे एक दूसरे से परामर्श लेंगे और परस्पर सहयोग से काम करेंगे। दूसरे देशो को भी इस समझौते में शामिल होजाना चाहिये। यह समझौता नवम्बर १९४१ को समाप्त हो जायगा। परन्तु हस्ताक्षर करनेवाले, इस अवधि की समाप्ति से पूर्व, भविष्य में सहयोग से काम करने के लिए, समझौता कर सकेंगे।" दिसम्बर १९३८ मे मञ्चूको ने इस समझौते को स्वीकार कर लिया। फर्वरी १९३९ में हंगरी इसमें शामिल होगया और अप्रैल १९३९ में स्पेन भी इस समझौते मे आ मिला।


कामेसंस—इस देश का क्षेत्रफल १,६६,००० वर्गमील तथा जन-मख्या ३०,००,००० है। पश्चिमी अफ्रीका में यह पहले जर्मन उपनिवेश था। आजकल राष्ट्र-संघ के शासनादेश के अधीन, ब्रिटेन और फ्रांस के नियंत्रण मे, है। एक-पाँचवे भाग पर ब्रिटेन का नियंत्रण है और शेष पर फ्रांस का।


कार्ल हाउशोफर—कार्ल हाउशोफर

तथा उसका पुत्र एलब्रेट हाउशोफर हिटलर के परामर्शदाता हैं। इनका मुख्य कार्य हिटलर के लिए मानचित्र तैयार करना है। आज हम चारो ओर 'और जगह लो' की गूंजे सुन रहे है, वह इन्हीके मस्तिष्क की उपज है। वास्तव में यह नीति जापान का आविष्कार है। सन् १९०२ मे कार्ल हाउशोफर ने जापान की यात्रा की और वहाँ के फौजी ढंग का अच्छा अध्ययन किया। यहीं से उसने 'और जगह लो' का सिद्धान्त सीखा। सन् १९२३ मे, जब हिटलर म्युनिक के बन्दीगृह मे था, तब कार्ल हाउशोफर की
[ ८३ ]यहूदी स्त्री उसे पुस्तके तथा फल भेट करने जाती थी। उसने सदैव हिटलर की सहायता की। हिटलर के आत्मचरित 'मेरा संघर्ष' के लिखने मे भी उसने सहायता दी।


क्रान्तिकारी कांग्रेस-संघ--इस नाम की एक संस्था सन् १९३५-३९ में भारत-प्रसिद्ध श्री एम० एन० राय (मानवेन्द्र नाथ राय) ने स्थापित की। इसका अँगरेजी नाम है--League of Radical Congressmen. इस दल का जनता पर कोई प्रभाव नही है, और न इसका कार्यक्रम ही क्रांतिकारी है। ऐसा प्रतीत होता है कि एक नया दल खड़ा करने के लिए ही संघ बनाया गया है। इस संघ में श्री राय के अनुयायी शामिल है।


किसान-कार्यक्रम--फैज़पुर कांग्रस-अघिवेशन, दिसम्बर १९३६ मे, किसान के हित के लिए जो कार्यक्रम निश्चय किया गया, वह किसान-कार्य-क्रम के नाम से प्रसिद्ध है। लगान मे काफ़ी कमी, बिना मुनाफे की जोत से लगान न लेना, कृषि पैदावार पर कृशि पैदावार-कर, नहरो की आबपाशी की दर में कमी, नज़राने तथा वेगार आदि बन्द करना, काश्तकारो को ज़मीन पर मौरूसी अधिकार दिलाना, अपनी काश्त पर मकान तथा पेड़ लगाने का अधिकार, सहकारी ढंग पर खेती की व्यवस्था, किसान-कर्जे़ में कमी और माफी, गोचर-भूमि की व्यवस्था, पिछले सालो का वक़ाया लगान माफ, दीवानी क़र्जे की वसूली की भाँति बक़ाया लगान की वसूली की जाय, जमींदार को किसान को काश्त से वेदख़ल करने का अधिकार न रहे, खेतिहार-मज़दूरों के लिए उचित मज़दूरी की व्यवस्था, किसान सभाओ को मज़ूर किया जाय।

काग्रेस-मंत्रि मण्डलो ने, अपने शासन-कल मे, इनमे से कुछ सुधार किये, परन्तु मौलिक तथा सब किसानो को लाभ पहुँचानेवाले सुधार नहीं किये गये।


किसानवादी--यह शब्द किसानो और विशेषतः भूमिहीन कृपिकारो के हितो के राजनीतिक प्रतिनिधियो के लिए प्रयोग किया जाता है। भारत मे समाजवादी प्रचार के कारण किसानवादियो का अच्छा संगठन होगया है। देश भर में किसान-सभाये हैं और किसानों का केवल प्रान्तीय ही नही अखिल
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भारतीय संगठन भी है। किसानवादियो के प्रसिद्ध नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती, प्रो० एन० जी० रग, एम० एल० ए०, महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन, श्री विश्वम्भरदयाल त्रिपाठी तथा श्री मोहनलाल गौतम आदि है।


किसान सभा--यहाँ सबसे पहले स्पष्ट कर देना उचित होगा कि किसान-आन्दोलन और किसान-सभा आन्दोलन--यह दो पृथक् आन्दोलन हैं। किसान-आन्दोलन का सूत्रपात तो सन् १९१५-१६ में हो चुका था, जब 'प्रताप' के यशस्वी सम्पादक अमर शहीद श्रीगणेशशङ्कर विद्यार्थी ने अवध के किसानो के कष्टो को सबसे प्रथम देश के समक्ष रखा और फैज़ाबाद, रायबरेली आदि जिलो में हुए किसान-आन्दोलन मे पूर्ण सहयोग दिया। उन्हीके सहयोग-साहाय्य और आदेश से श्रीविजयसिंह 'पयिक' ने उदयपुर, बूँदी, कोटा आदि तेरह देशी रियासतो की किसान-प्रजा में आर्दश सत्याग्रह आन्दोलन का सङ्गठन-संचालन किया। किसानो के प्रति देश का ध्यान आकर्षित करने का प्रथम श्रेय इन्ही दो को है। इसीका प्रतिफल था कि महामना मालवीयजी का ध्यान देश के इस दुःखी अङ्ग की ओर गया और १९१८ की कांग्रेस मे, जो दिल्ली मे मालवीयजी की अध्यक्षता में हुई थी, सबसे पहले किसानो को कांग्रेस अधिवेशन मे निःशुल्क प्रवेश मिला। इसके बाद सन् १९२० से इस आन्दोलन की एक रूपरेखा बन गई जब महात्मा गान्धी तथा सरदार वल्लभभाई पटेल ने असहयोग-आन्दोलन में गुजरात के बारदोली में सत्याग्रह छेड़ने के अभिप्राय से किसानो का संगठन करने का प्रयत्न किया। पीछे सन् १९२७-२८ में वारदोली में सरदार वल्लभभाई ने किसानो का ज़ोरदार संगठन किया, आन्दोलन चलाया और उसमे विजय प्राप्त की। इसके बाद बिहार प्रान्त में स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने किसानो का ज़बरदस्त संगठन किया। इतने व्यापक क्षेत्र मे किसान-सङ्गठन अब तक किसी ने नही किया। इन संगठनो से कांग्रेस ने लाभ उठाया और इससे कांग्रेस की शक्ति बढ़ी। परन्तु अभी तक किसानो का कोई निजी संगठन नही था।

किसानो को व्यावसायिक-वर्ग के आधार पर संगठित किये जाने की आवश्यकता थी। सन् १९३८ में प्रो० एन० जी० रग, एम० एल० ए० (केन्द्रीय), तथा स्वामी सहजानन्द सरस्वती और अन्य समाजवादी कार्यकर्ताओ के प्रयत्न से
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लखनऊ काग्रेस के समय, प्रथम अखिल-भारतीय किसान सम्मेलन हुआ। दूसरा अधिवेशन, दिसम्बर १९३९ मे, फैज़पुर काग्रेस आधिवेशन के साथ, हुआ। इस प्रकार ३-४ वर्षों मे सारे देश में किसान सभाएँ स्थापित हो गई। वह वास्तव मे किसानो का अपना विशुद्ध संगठन है। इसके मूल उद्देश्य निम्न प्रकार हैं--

(१) आर्थिक शोषण से पूर्ण मुक्ति प्राप्त करना और किसान, मज़दूर तथा अन्य शोषित वर्गों को राजनीतिक एवं आर्थिक मुक्ति दिलाना।

(२) किसानो को सगठित करना और तत्कालीन आर्थिक तथा राजनीतिक माँगों के लिये लड़ना, जिससे अन्त में वे सब प्रकार के शोषण से वरी हो जायँ।

(३) स्वाधीनता के राष्ट्रीय-युद्ध में भाग लेकर अन्त में उत्पादन करनेवालें वर्गों को आर्थिक और राजनीतिक मुक्ति दिलाना।

काग्रेस के प्रमुख गान्धिवादी नेता

ओर स्वय गान्धीजी किसान सभाओं के इस कार्यक्रम के विरुद्ध हैं।


किङ्ग, राइट आनरेव्लू (right Honourable) डव्ल्यू० एल० मैकेन्ज़ी--कनाडा के प्रधान मंत्री। सन १८७४ में जन्म। शिकागो और हारवर्ड विश्वविध्यालय में शिक्षा प्राप्त की। १९००-१९०८ तक डिपुटी मिनिस्टर, मज़्दूरा-विभाग। १९०९-११ नक मज़दूर-विभाग के मंत्री। १९११-३० तक कनाडा-सरकार के प्रधान मंत्री। फिर सन् १९३५ से अब तक कनाडा के प्रधान मंत्री।


कियानो, काउण्ट गेलियाज़ो--इट्ली के वैदेशिक-विभाग के मंत्री हैं; सन् १९०३ में इनका जन्म हुआ। दक्षिणी अमरीका तथा चीन में राजदूत रहे। सन् १९३४ में काउण्ट कियानो ने मुसोलिनी की पुत्री इडा के साथ विवाह
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किया। तब से उन्होंने बडी पदोन्नति की हैं।

इसी वर्ष वह प्रचार-विभाग के मंत्री हो गये। अबीसीनिया के युद्ध में उन्होंने स्वयं हवाई वेडे का सचालन किया। सन् १९३६ में उन्हें वैदेशिक मंत्री बना दिया गया। सन् १९३७ में उन्होंने कोमिणटर्न-विरोधी सधि-पत्र पर हस्ताक्षर किये।


क्रप--जर्मन उद्योगवादी तथा अस्त्र-शस्त्र निर्माता। पश्चिमी जर्मनी में इसेन नामक स्थान पर क्रप का कारखाना है। संसार में यह सबसे महान अस्त्र बनानेवाला कारखाना है। क्रप हिटलर का गहरा मित्र हैं। हिटलर के शास्त्रिकरण-कार्य-क्रम का उसने व्यावहारिक रूप से समर्थन किया। सन् १९३९ की ग्रीष्म ऋतु में इसके कारखाने में १,००,००० मजदूर काम करते थे। अब तो और भी बहुत अधिक कर रहे होंगे।


क्रिप्स, आनरेव्लू सर स्टैंफर्ड, एम०, पी०--इनका जन्म सन १८८६ में हुआ। यह लार्ड पारमूर के सबसे छोटे बेटे हैं। विन्चेस्टर तथा यूनीवर्सिटी कालेज लन्दन में इन्होंने शिक्षा प्राप्त की। सन् १९१३ में बेरिस्टर बन गये। सन् १९३१ में वह सबसे पहले पार्लमेंट में प्रविष्ट हुए। मैकडानल्ड-मंत्रि-मएडल में यह सालिस्टर-जनरल थे। क्रिप्स मजदूर-दल के नेता थे, परन्तु सन् १९३७ में उन्होंने सयुक्त-मोर्चा स्थापित करने के लिए एक आन्दोलन खड़ा किया। इसलिये मज़दुर-दल ने इन्हे तथा
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इनके कुछ अनुयायियो को दल से, अलग कर दिया। इस संयुक्त मोर्चे का प्रयोजन यह था कि मज़दूर, लिबरल, कंज़रवेटिव तथा कम्युनिस्ट आदि संगठित होकर काम करे। मज़दूर-दल इसके विरूद्ध था। इससे पूर्व केवल कम्युनिस्टों के साथ संयुक्त मोर्चा बनाने की कोशिश आपने की थी, जिसे मज़दूर दल ने नहीं स्वीकार किया। क्रिप्स समाजवादी विचार रखते हैं, इसलिए युद्ध-काल में ब्रिटिश मंत्रि-मराडल ने उन्हें राजदूत बनाकर रूस भेजा। उन्होंने अपने इस पद से सन् १९४१ के दिसम्बर मास में त्यागपत्र दे दिया। इस समय वह ब्रिटिश युद्ध-मंत्रि-मण्डल के सदस्य हैं। आप ता० २२ मार्च १९४२ को अपने प्रस्ताव लेकर भारत आये, किन्तु आपके प्रस्तावो को सभी दलो ने अस्वीकार कर दिया।


क्रिप्स के प्रस्ताव--ब्रिटीश पार्लमेंट में, ११ मार्च १९४२ को, प्रधान मंत्री मि० चर्चिल ने, भारत की समस्या के विषय में, यह घोषणा की कि, युद्ध-मंत्रि-मंडल ने भारत की वैधानिक-समस्या के हल करने के लिए एक योजना तैयार की है, जो अन्तिम और पूर्ण हैं। परन्तु अभी उसे प्रकाशित नहीं किया जायगा। हाउस आफ् कामन्स के नेता तथा युद्ध-मंत्रि-मण्डल के नवीन सदस्य सर स्टैफर्ड क्रिप्स शीघ्र ही भारत जायॅगे और, भारतीय नेतोओं के समक्ष योजना को प्रस्तुत कर, उनकी सम्मति प्राप्त करेंगे। जब भारतीय लोकमत के नेता उसे स्वीकार कर लेंगे, तब पार्लमेंट उस योजना को अपनी ओर से, घोषण के रूप में, प्रकाशित करेगी।

इस निशचय के अनुसार सर स्टैफर्ड क्रिप्स, अपने स्टाफ के साथ, हवाई जहाज द्वारा, ता० २२ मार्च १९४२ को, भारत में आ गये। ता० २३ मार्च १९४२ से उन्होंने वायसराय, उनकी कौंसिल के सदस्यों, भारतीय राजनीतिक दलो के नेताओं तथा राजनीतिज्ञों से मिलना--भेंट करना आरम्भ कर दिया। कांग्रेस की ओर से राष्ट्रपति मौलाना आज़ाद, हिन्दु-महासभा की ओर से वीर सावरकर, मुस्लिम लीग की ओर से श्री मुहम्मदअली जिन्ना तथा अन्य अनेक पक्षों के नेता क्रिप्स महोदय से मिले।

३० मार्च १९४२ को सर स्टैफर्ड क्रिप्स ने युद्ध-मंत्रि-मणडल के प्रस्ताव प्रकाशित कर दिये। प्रस्ताव इस प्रकार हैं :[ ८८ ]( १ ) युद्ध की समाप्ति पर भारत मे अग्र-लिखित ढग से एक निर्वाचित संस्था स्थापित की जायगी, जिसका कार्य भारत के लिए नये शासन-विधान का निर्माण करना होगा।

( २ ) विधान निर्माण करनेवाली परिषद् मे देशी रियासतों के प्रतिनिधित्व की भी निम्नलिखित ढंग से व्यवस्था की जायगी।

( ३ ) सम्राट् की सरकार यह स्वीकार करती है कि वह इस प्रकार बनाए गए विधान को स्वीकार कर लेगी तथा उसे लागू करने का प्रबंध करेगी। परन्तु नीचे लिखी शर्तों की पूर्ति आवश्यक होगीः---

( क ) ब्रिटिश भारत के किसी भी प्रान्त को, जो नये विधान को स्वीकार करने के लिए तैयार न होगा, अपनी वर्तमान वैधानिक स्थिति को क़ायम रखने का अधिकार होगा। यदि भविष्य में वह शामिल होना चाहेगा तो इसके लिए भी विधान में उल्लेख किया जायगा।

यदि भारतीय संघ (इडियन यूनियन) में शामिल न होनेवाले प्रान्त यह चाहेगे, तो ब्रिटिश सरकार उन्हें नया शासन-विधान बनाने की सुविधा देगी और उनकी स्थिति भी वैसी ही होगी जैसी कि भारतीय सघ की।

( ख ) जो संधि ब्रिटिश सरकार तथा विधान निर्माण करनेवाली परिषद् के बीच होगी, उस पर हस्ताक्षर किये जायॅगे। इस संधि-पत्र में वे सब बाते रहेगी जो ब्रिटिश सरकार से भारतीयो को पूर्ण उत्तरदायित्व हस्तान्तरित करने पर पैदा होगी। इसमे जातीय (racial) तथा धार्मिक (religious) अल्पमतो की रक्षा के लिए विधान होगा। परन्तु इस संधि द्वारा भारतीय संघ की उस सत्ता पर कोई प्रतिबन्ध न लगाया जायगा जिससे वह भविष्य में ब्रिटिश राज्य-समूह (ब्रिटिश कामनवैल्थ) के दूसरे राज्यों के साथ, संबंधों के विषय मे, निर्णय करेगी।

चाहे देशी राज्य विधान को स्वीकार करना पसन्द करे अथवा न करे, नई परिस्थिति में सधियो की व्यवस्था में परिवर्तन करने पड़ेंगे।

( ४ ) विधान निर्माण करनेवाली परिषद् का संगठन इस प्रकार होगा, जबतक कि भारतीय लोकमत के नेता मिलकर, युद्ध समाप्ति से पूर्व, कोई दूसरा उपाय निश्चित न करले। [ ९० ]
रक्षा करने के लिए साथ-साथ चलता है। यह दो प्रकार के होते हैं। एक बड़े और विशाल तथा दूसरे हलके और छोटे।


केन्द्रियतावाद--इस राजनीतिक प्रणाली के अनुसार देश के समस्त प्रान्तो का शासन एक केन्द्रीय सरकार द्वारा होता है। इसके विपरीत संध-शासन में प्रत्येक प्रान्त तथा राज्य स्वतन्त्रता से अपना शासन-प्रबन्ध करता है।


केन्द्रीय असेम्बली कांग्रेस-दल--केन्द्रीय असेम्बली (घारा-सभा) में कांग्रेस दल के प्रायः ४० सदस्य हैं। श्री भूलाभाई देसाई इस दल के नेता हैं तथा श्री सत्यमूर्ति इस दल के उपनेता। यह केन्द्रीय धारा-सभा का विरोधी-दल है। सन् १९४० में, युद्ध-अर्थ-मसविदे (विल) का विरोध करने के लिए, इस दल के सब सदस्य, प्रायः एक साल की अनुपस्थिति के बाद, पुनः उपस्थित हुए। कांग्रेस-दल ने इस बजट-मसविदे का प्रबल विरोध किया और वह असेम्बली द्वारा अस्वीकार कर दिया गया।


केन्द्रीय धारा-सभा(Central Assembly)--यह ब्रिटिश भारत की भारतीय धारा-सभा के बड़े संगठन का नाम है। इसकी स्थापना, मान्टेग्यू-चेम्सफर्ड सुधार-योजना के अनुसार, सन् १९२० में, हुई थी। तब से यद्यपि सन् १९३५ का नया शासन-विधान प्रान्तो में लागू हो चुका है, तथापि भारतीय व्यवस्थापिका सभा में कोई परिवर्तन नहीं हुआ।


कैटालोनिया--यह प्रदेश स्पेन के उत्तर-पूर्वी कोण मे स्थित है। इसमें कैटालान लोग रहते हैं। यह स्पेन का सबसे महत्वपूर्ण औद्योगिक प्रदेश है। इसकी जन-सख्या ६०,००,००० है। सन् १९३३ में उन्हे प्रजातंत्रवादी स्पेनिश सरकार ने स्वराज्य दे दिया। स्पेन के गृह-युद्ध मे फ्राको की विजय होजाने से फिर यह प्रदेश स्पेन के अधीन होगया।


कैलॉग-ब्रियान्द-समझौता--यह समझौता पेरिस-पैक्ट के नाम से भी प्रसिद्ध है। २७ अगस्त सन् १९२८ को पन्द्रह राज्यो की सरकारों ने मिलकर यह समझौता किया था। यह समझौता तत्कालीन संयुक्त राज्य अमरीका के वैदेशिक-मंत्री फ्रांक वी० केलॉग तथा मोशिये ब्रियाद, फ्रांसीसी वैदेशिक-मंत्री, के सहयोग से हुआ था। इस समझौते के द्वारा, १५ राष्ट्रो ने युद्ध को, राष्ट्रीय
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नीति के साधन के रूप मे, अस्वीकार किया, और यह भी निश्चय किया कि राष्ट्रो के बीच किसी भी प्रकार का विवाद पैदा हुआ हो तो शान्तिमय साधनों के सिवा और किसी प्रकार से उसका निर्णय नही किया जाना चाहिये।


क्रैमलिन--मास्को (रूस) का एक राजमहल, जिसमे पहले ज़ार रहाकरते थे, परन्तु आज जिसमे रूस की सोवियट सरकार का प्रधान मन्त्रि-कार्यालय (सेक्रेटरिय्ट) है।


कैरोल द्वितीय--रूमानिय के राजा हैं। जन्म १६ अक्टूबर १८९३ को हुआ। सन् १९२५ मे, युवराज की स्थिति मे ही, राजनीतिक कारणो से उन्हें पद्च्युत होना पड़ा। वह फ्रांस मे एक यहूदी महिला के साथ रहने लगे। युवरानी हैलेन ने उन्हे तलाक़ दे दी। १९२७ मे राजा फ़र्डिनेन्ड की मृत्यु के बाद उनका राजकुमार माइकेल गद्दी पर बैठा। प्रधान-मंत्री मैन्यू के निमंत्रण पर वह सन् १९३० मे रूमानिया वापस लौटे। रूमानिया के राजा घोषित कर दिये गये। सन् १९३८ में उन्होने लौह-रक्षको (Iron Guards) का दमन किया। रक्षक नाज़ी पक्ष के थे। परन्तु मार्च १९४० मे लौह-रक्षको को पूनः राज्याश्रय दिया ग्या। रूमानिय तटस्थ रहना चाहता था, परन्तु हिटलर के सामने वह विवश रहा।


कोमागाता मारू--यह एक जापानी जहाज़ का नाम है। इसके साथ एक बड़ा मनोरंजक, किन्तु वीरतापूर्ण, इतिहास जुडा हुआ है। गत विश्व-युद्ध (१९१४) से पूर्व कनाडा की प्रिवी कौसिल ने अपने एक आज्ञा-पत्र में यह घोषणा की कि भारतीयो को कनाडा में प्रवास के लिए प्रविष्ट न होने दिया जायगा। जो कनाडा मे बस गये है, वे ही प्रवेश पा सकेंगे। उन दिनो कनाडा के लिए भारत से सीधा कोई जहाज़ नही जाता था। जो भारतीय कनाडा मे अधिवासी बन गये थे उन्हे भी क़ानूनी बाधायें लगाकर तथा अन्य बुरी तरह परेशान किया जाता था। वे भारत से अपने स्त्री-बच्चो को कनाडा मे नही लेजा सकते थे।

उक्त आज्ञा-पत्र के विरोध मे सन् १९१४ मे बाबा गुरूदत्तसिंह नामक एक साहसी सिख ने कोमागातामारू नामक एक जहाज़ कनाडा के लिए किराये पर लिया। यह माल ले जानेवाला जहाज़ था। इसमे ६०० सिख
[ ९२ ]सवार हुए। यह जहाज़ हाग्काग् या तोकियो पर ठहरे बिना सीधा कनाडा चला गया। यह जहाज़ तीन-चार मास तक कनाडा के बन्दरगाह पर खड़ा रहा, परन्तु सिखो को कनाडा में प्रविष्ट न होने दिया गया। कनाडा की सेना के सैनिकों तथा इस जहाज़ के यात्रियों में खूब संघर्ष रहा। यात्रियों को अनेक यातनाएँ भोगनी पडीं। खाने की सामग्री भी समाप्त होगई। अन्त में भारत मंत्री के हस्तक्षेप से जहाज को वापस भारत लौटना पड़ा।

भारत लौटकर बजबज में जहाज ने लगर डाला। सिखो को यह आज्ञा दी गई कि वे रेलगाड़ी में बैठकर सीधे पंजाब चले जायें। परन्तु सिख रेल में सवार होने से पहले सरकार के पास एक दख़ास्त भेजना चाहते थे। सरकार ने ज़बरदस्ती उन्हे पंजाब भिजवाया। गोली भी चली। बाबा गुरुदत्तसिंह जहाज़ में से गायब होगये। क़रीब ७ बर्ष तक वेष बदलकर वह छिपे रहे। इस समय में ख़ुफिया पुलिस बराबर उनकी तलाश में रही। नवम्बर १९२१ में बाबा गुरुदत्तसिंह महात्मा गान्धी से मिले। गान्धीजी ने उन्हे यह सलाह दी कि वह गिरफ़्तार होजायॅ। बाबाजी गिरफ़्तार होगये और उन्हे क़ैद की सज़ा दी गई। २८ फरवरी १९२२ को वह लाहोर जेल से मुक्त कर दिये गये। कलकत्ता में उन्होने भारत मन्त्री के विरुद्व कई लाख रुपये हर्जाने का दावा किया, परन्तु वह ख़ारिज होगया।


कोमिण्टर्न--यह 'कम्युनिस्ट इण्टरनैशनल' शब्द का संक्षिप्त रूप है।


को मिन तांग (Kuo Min Tang)--यह चीन देश की राष्ट्रीय संस्था है। सन् १९०५ में डा० सन यात-सेन ने इस संस्था की स्थापना की। इस दल का उद्देश्य चीन की स्वाधीनता की रक्षा तथा प्रजातंत्र-राज्य की स्थापना है। राष्ट्रीय-संगठन, राष्ट्रीय एकता इसका मूल मंत्र है। वर्तमान समय में चियाङ्ग काई शेक इस दल के प्रमुख नेता हैं।


क्रोट्स--उत्तर-पश्चिमी यूगोस्लाविया में रहनेवाली स्लैव प्रजा। इनकी संख्या ४०,००,००० है। क्रोट्स कैथलिक मत के माननेवाले हैं।


क्रोपाटकिन--इनका पूरा नाम प्रिस पीटर क्रोपाटकिन है। जन्म सन् १८४२ मे हुआ। यह रूस के प्रसिद्ध भूगोल-विज्ञान-वेत्ता थे। इन्होने साम्यवादी अराजकतावाद’ सिद्धान्त का विकास किया। जब इन्होने यह अनुभव
[ ९३ ]किया कि अराजकतावादी व्यवस्था की स्थापना में बड़े-बड़े उद्योग-धन्धों से बाधा पडती है, तब इन्होने बड़े-बड़े उद्योगो को मिटाकर उनकी जगह हाथ की दस्तकारी के प्रचार की सिफारिश की। इनके अनुसार छोटे-छोटे मानव-समूहो के हाथ में सामान्य सम्पत्ति दे दी जाय और वे अपने सदस्यों के जीवन-यापन के लिये आवश्यक वस्तुओं का निर्माण करे, और इस प्रकार स्वाश्रयी बन जाएं। श्रम-विभाजन को वह सबसे बड़ी बुराई मानते थे। इनके मतानुसार काम के घण्टे एक दिन मे चार-पाँच से ज़्यादा न होने चाहिये। कोई नियत वेतन भी न होना चाहिये, प्रत्युत् प्रत्येक व्यक्ति को, उसकी आवश्यकतानुसार, वेतन दिया जाय। प्रारम्भिक काल में यह बड़े क्रान्तिकारी थे, परन्तु बाद में सन् १८८६ से लन्दन में रहे और इनके विचारो मे नरमी आगई। विश्व-युद्ध (१९१४-१८) में इन्होने मित्र-राष्ट्रो का समर्थन किया। मार्च १९१७ की रूसी राज्य-क्रान्ति के बाद रूस में वापस आगये। जब साम्यवादियो की विजय हो गई तब प्रिंस क्रोपाटकिन ने मज़दूरो के अधिनायक-तन्त्र (डिक्टेटरशिप) का विरोध किया। सन् १९२१ में रूस में इनका देहान्त होगया।