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अंतर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश/गान्धी, महात्मा मोहनदास कर्मचन्द

विकिस्रोत से
अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश
रामनारायण यादवेंदु

पृष्ठ ९७ से – १०१ तक

 






गान्धी, महात्मा मोहनदास कर्मचन्द--२ अक्टूबर सन् १८६९ को पोरबन्दर मे जन्म हुआ। पिता पोरबन्दर-नरेश के २५ वर्षे तक दीवान रहे। भावनगर तथा राजकोट मे मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद लन्दन बैरिस्टरी पास करने गये। बैरिस्टरी पास करके बम्बई तथा दक्षिण-अफ्रीका में वकालत की। जब वह १८९३ ई० मे दक्षिण-अफ्रीका एक मुकद्दमे के सिलसिले मे गये, तो उन्होंने वहाँ के प्रवासी भारतीयों की बहुत बुरी स्थिति देखी। भारतीय होने के कारण उन पर अनेक प्रकार के अत्याचार किये जाते थे। २५ पौण्ड वार्षिक का कर उन पर लगा दिया गया था, जिसे भारत सरकार ने पीछे ३ पौण्ड सालाना कर दिया। भारतीय विवाहों को जायज़ नहीं माना जाता था। कुछ शहरों की ख़ात बस्तियों में वह

आबाद नहीं हो सकते थे, आदि। इन सबके विरोध मे, भारतीयो की स्थिति में सुधार करने के लिए, आपने आन्दोलन शुरू किया, जो निष्क्रिय प्रतिरोध (Passive Resistence) के नाम से प्रसिद्ध है। यह भी एक प्रकार का अहिंसात्मक सत्याग्रह था। गान्धीजी के सत्याग्रह प्रयोग का यह प्रथम प्रयास था। इसमें उन्हें सफलता मिली, और अपने ‘सत्य के प्रयोग के प्रति गांधीजी की धारणा और भी दृढ होगई। इस आन्दोलन में भारत से भी स्वर्गीय गोखले आदि ने काफी सहायता भेजी। गोखलेजी स्वय दक्षिण अफरीका गये। स्वर्गीय दीनबन्धु ऐड्रज से भी गान्धीजी की भेट इसी आन्दोलन-काल में हुई और ऐन्ड्रज साहब ने ही, दक्षिण-अफ्रीकी-सत्याग्रह के बाद गान्धीजी और दक्षिण-अफ्रीका-सरकार के प्रधान मन्त्री जनरल स्मट्स मे समझौता कराया। नेटाल के बोअर-युद्ध तथा जूलू-विद्रोह में गान्धीजी ने भारतीय एम्बुलेस दल का नेतृत्व किया और आहतो की सेवा की। सन् १९१४ मे भारत आगये।

सन् १९१४-१८ के युद्ध में उन्होंने, गुजरात की खेड़ा तहसील मे, सरकार की सहायता के लिए, रॅगरूट स्वय-सेवक-दल (Volunteers) का संगठन किया। दक्षिण-अफ्रीका के प्रवास-काल में ही उन्होंने अहिंसात्मक सत्याग्रह का प्रयोग और विकास किया और उसके सिद्धान्तो को स्थिर किया। सन् १९०८ में उन्होने “हिन्द स्वराज्य” नामक एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक मे अहिंसा तथा सत्याग्रह के सिद्धान्तो के आधार पर उनके अपने विचार हैं। आज भी गान्धीजी इस पुस्तक में प्रतिपादित सिद्धान्तो को मानते हैं। जब विश्व-युद्ध की समाप्ति के बाद भारत में नई शासन-सुधार-योजना प्रकाशित की गई और दूसरी ओर रौलट मसविदो (Bills) को स्थायी क़ानून का रूप देने का प्रयत्न किया गया, तो गान्धीजी ने सत्याग्रह आन्दोलन छेड़ने की घोषणा की।

सन् १९२० में, पंजाब के अत्याचारो के विरोध में तथा ख़िलाफत के संबंध मे असहयोग-आन्दोलन शुरू किया। सन् १९२२ मे गान्धीजी को राजद्रोह के अपराध में ६ साल की सज़ा दी गई, परन्तु सन् १९२४ में बीमारी के कारण उन्हे मुक्त कर दिया गया। असहयोग-आन्दोलन का अवसान होते-न-होते देश में साम्प्रदायिक दंगों ने ज़ोर पकड़ लिया था, अतएव आपने

प्रायश्चित्तस्वरूप इक्कीस दिन का व्रत किया। देश दहल उठा और स्वर्गीय पं० मोतीलाल नेहरू के सभापतित्व मे एकता-सम्मेलन हुआ। ३१ दिसम्बर १९२९ की आधी रात को लाहौर में पूर्ण स्वाधीनता के ध्येय की घोषणा की गई। इसी वर्ष गान्धीजी के प्रभाव से लार्ड इरविन के प्रति, उनकी स्पेशल को उडाये जाने की घटना से उनके बच जाने के लिये, सहानुभूति का प्रस्ताव स्वीकार किया गया।

साइमन कमीशन की विफलता के बाद सन् १९३० में गांधीजी ने नमक सत्याग्रह आरम्भ किया। इस आन्दोलन में उन्हे राजबन्दी बनाकर यरवदा जेल में रखा गया। जनवरी १९३१ मे उन्हे मुक्त कर दिया गया। ३१ मार्च १९३१ को गांधीजी तथा भारत के वाइसराय लार्ड इरविन (अब लार्ड हैलीफैक्स) में समझौता हुआ। इस समझौते के अनुसार गांधीजी ने लन्दन की गोल-मेज़ परिषद् में कांग्रेस की ओर से शामिल होना स्वीकार किया तथा समस्त राजनीतिक बन्दी रिहा कर दिये गये और व्यक्तिगत रूप से नमक बनाने का सबको अधिकार मिल गया।

सन् १९३१ मे वह लन्दन गये और गोल-मेज़ परिषद् में भाग लिया। जब सन् १९३२ के जनवरी मास मे भारत वापस आये तो उन्हें फिर गिरफ़्तार किया गया। सितम्बर १९३२ में उन्होने यरवदा जेल में, साम्प्रदायिक निर्णय के विरुद्ध, आमरण उपवास रखा और पूना-पैक्ट के स्वीकार होजाने पर अपना व्रत भंग किया। सन् १९३३ में उन्होने सत्याग्रह आश्रम अहमदाबाद को भंग कर दिया। वर्धा (मध्यप्रदेश) मे सेठ जमनालाल की बजाजवाडी मे अपना निवास-स्थान बनाया। इसके बाद वर्धा से पॉच मील दूर सेवाग्राम में अपना आश्रम स्थापित किया।

देश-नेताओं की प्रवृत्ति फिर धारा-सभाओ मे जाने की हुई और चुनाव लड़ना तय हुआ, फलतः सत्याग्रह-आन्दोलन समाप्त कर दिया गया, और बम्बई की विशेष कांग्रेस (अक्टूबर १९३५) के बाद गांधीजी ने कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र देदिया। इसके बाद वे अछूतोद्धार, ग्राम-सुधार तथा ग्रामोद्योग संघ के कार्य में पूर्णतया लग गये। सन् १९३७ में जब प्रान्तीय चुनावों में ११ में से ७ प्रान्तो में कांग्रेस की विजय हुई तब, मार्च १९३७ में, देहली

में पद-ग्रहण का प्रस्ताव काग्रेस ने स्वीकार किया। सन् १९३७ से १९३९ तक कांग्रेसी सरकारों को आदेश देते रहे और यह बतलाते रहे कि कौन-कौन से राष्ट्रनिर्माणकारी कार्य मत्रियो को करने चाहिये। महात्मा गांधी के आदेशानुसार ही काग्रेसी मत्रियो ने अपने-अपने प्रान्तों में हरिजन को सुविधाये--नौकरियॉ आदि--दी, खादी को प्रोत्साहन दिया, ग्राम-सुधार पर अधिक ज़ोर दिया, मादक-द्रव्यों का निषेध करने के लिये प्रयत्न किया तथा बुनियादी (Basic) शिक्षा-पद्धति को पाठ्यक्रम में स्थान दिया।

१ सितम्बर १९३९ को यूरोप में जर्मनी ने वर्तमान महायुद्ध छेड़ दिया, तब वाइसराय ने गांधीजी को ५ सितम्बर १९३९ को परामर्श के लिये शिमला आमत्रित किया। इस भेट के बाद ही गांधीजी ने एक वक्तव्य में यह कहा कि मेरी सहानुभूति ब्रिटेन तथा फ्रान्स के साथ है।

वाइसराय से समझौते की बातचीत करने के लिए वह दो-तीन बार शिमला तथा नयी दिल्ली गये। परन्तु मुलाक़ातों का कोई परिणाम नहीं निकला। अन्त में अपनी अन्तिम मुलाकात में गान्धीजी ने वाइसराय से यह मॉग पेश की कि काग्रेस को, जो अपने अहिंसा के सिद्धान्त के कारण युद्ध में योग नही दे सकती, भाषण-स्वातन्त्र्य का अधिकार दिया जाय, जिससे काग्रेसजन युद्ध के संबंध मे अपने विचार प्रकट कर सके। वाइसराय ने यह माँग स्वीकार नहीं की। फलतः अक्तूबर १९४० में उन्होने युद्ध-विरोधी वैयक्तिक सत्याग्रह आरम्भ कर दिया। दिसम्बर १९४१ में काग्रेस कार्य-समिति ने गान्धीजी को सत्याग्रह के संचालक-पद से मुक्त कर दिया और इस प्रकार सत्याग्रह स्थगित होगया।

महात्मा गान्धी काग्रेस को एक विचारधारा की अनुयायी संस्था बना देना चाहते हैं। इसलिए वह, जब यह देखते हैं कि दूसरी संस्थाएँ या दल कांग्रेस में शामिल होकर गान्धीवाद-विरोधिनी विचारधारा का प्रचार करते हैं, तो वह इसे सहन नही कर सकते। गान्धीजी प्रजातत्र के समर्थक हैं; परन्तु कांग्रेस मे आन्दोलन के संचालन के लिये अधिनायक-तंत्र को ही ठीक मानते हैं।

महात्मा गान्धी काग्रेस के सबसे प्रभावशाली नेता हैं और संसार के एक अद्वितीय महापुरुष। वह अपने अहिंसा-प्रेम के लिये विश्व-विख्यात

है। वह न केवल नेता ही हैं प्रत्युत् एक उच्चकोटि के विचारक, साधक, अँगरेज़ी
और गुजराती के उत्कृष्ट लेखक-सम्पादक तथा प्रकृति-चिकित्सक भी हैं। उनकी 'आत्म-कथा' बहुत ही सुन्दर तथा उच्चकोटि की रचना है। उन्होने 'यंग इंडिया', 'हरिजन' तथा 'हरिजन-बन्धु' नामक पत्रो का संपादन भी किया है। दक्षिण अफ़्रीका में 'इंडियन ओपीनियन' पत्र निकला था। ८ अगस्त १९४२ को अ० भा० कांग्रेस कमिटी ने बम्बई में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के भारतीय स्वतन्त्रता-सम्बन्धी 'भारत छोडो'

(Quit India) प्रस्ताव को स्वीकृत किया और ९ अगस्त के प्रातःकाल कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्यों सहित गांधीजी बम्बई में पकडे जाकर नज़रबन्द कर दिये गये। प्रस्ताव स्वीकृत होने के बाद गान्धीजी ने घोषणा की थी कि वह अगला क़दम उठाने से पूर्व वाइसराय से भेट करके उनसे समस्त स्थिति पर बातचीत करेंगे, किन्तु ९ अगस्त के प्रातः ५ बजे ही उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।