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अंतर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश/ज

विकिस्रोत से
अन्तर्राष्ट्रीय ज्ञानकोश
रामनारायण यादवेंदु

पृष्ठ १२२ से – १३६ तक

 





जनतंत्रवाद--जनतत्र से प्रयोजन ऐसी प्रणाली से है जिसका संचालन जनता के हाथ मे हो। जनतंत्र प्रत्यक्ष होता है और अप्रत्यक्ष भी। प्रत्यक्ष जनतत्र मे सब जनता भाग लेती है और प्रत्यक्षतः शासन-प्रबध में हाथ बटाती है। अप्रत्यक्ष जनतंत्र में जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियो की परिषद् द्वारा शासन-सचालन में भाग लेती है। भारत में जनतत्र अत्यन्त प्राचीन सस्था रहा है। वैदिक युग मे यहॉ जनतत्र शासन-प्रणाली स्थापित थी। प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वान् डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल, बैरिस्टर, ने अन्वेषण के बाद यह सिद्ध किया है कि प्राचीन वैदिक युग में भारत मे जनतत्र-प्रणाली प्रचलित थी। उन्होने इस विषय पर "हिन्दू राजतत्र" नामक एक महत्त्वपूर्ण ग्रथ भी लिखा है।

आइसलैण्ड मे प्रायः १००० वर्ष से जनतत्र शासन-पद्धति स्थापित है। इंगलैण्ड में १४वी शताब्दी में जनतत्रात्मक सस्थाओ का विकास हुआ। जब १८वी शताब्दी में फ्रान्स तथा अमरीका में राज्य-क्रान्तियॉ हुई तब, आधुनिक अर्थ मे, जनतत्र-शासन की वहॉ स्थापना की गई। जनतंत्र इस अँगरेज़ी सिद्धान्त पर आश्रित है कि सत्ता को तीन विभागों मे विभाजित किया जाय:(१)व्यवस्था, (२)शासन-प्रबन्ध और (३)न्याय। आज संसार मे दो प्रकार के जनतंत्र मौजूद हैं। एक वह जिनमे सरकार व्यवस्थापिका-सभा(क़ानून बनानेवाली धारा सभा) के प्रति उत्तरदायी होती है। इसे हम ब्रिटेन मे पूर्णरूपेण विकसित पाते हैं। दूसरी वह है जिसमे सरकार व्यवस्थापिका-सभा के प्रति उत्तरदायी नही होता। वह केवल जनता या मतदाताओ के प्रति उत्तरदायी होती है। सयुक्त-राज्य अमरीका मे यही प्रणाली प्रचलित है। सफल जनतंत्र के लिये दो या अधिक राजनीतिक

दलों की विद्यमानता ज़रूरी है। जिस देश में केवल एक ही राजनीतिक दल हो उसमे जनतंत्र का विकास नही हो सकता। जनतंत्र में व्यक्तियो की नागरिक स्वाधीनता, नागरिक समता, सामूहिक रूप से उन्नति तथा सबका सुख निहित है। यही कारण है कि प्रजातंत्र में व्यक्तिगत स्वाधीनता, जीवन-रक्षा की स्वाधीनता, विचार-स्वाधीनता, मत-प्रकाशन की स्वाधीनता, समाचार-पत्रो की स्वाधीनता, सभा-सम्मेलन करने की स्वाधीनता, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक तथा सामाजिक और व्यावसायिक स्वाधीनता शामिल हैं। इस समय संयुक्त राज्य अमरीका, ब्रिटेन और ब्रिटिश उपनिवेशो तथा स्विट्जरलैन्ड मे यह प्रणाली प्रचलित है।


जन-सेवक-समिति (सवेट्स आफ दि पीपुल्स सोसाइटी)--सन् १९२० में पंजाब-केसरी स्वर्गीय लाला लाजपतराय ने लाहौर में तिलक राजनीति विद्यालय (तिलक स्कूल आफ् पालिटिक्स) की स्थापना की थी। उसके बाद ही लालाजी ने जन-सेवक-समिति की वहाँ स्थापना की। समिति का मुख्य उद्देश्य है राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और शिक्षा-सबधी क्षेत्रो मे, मातृभूमि की सेवा के लिए, लगनशील और शिक्षित देश-सेवी प्रस्तुत करना। इसके प्रत्येक सदस्य को यह प्रतिज्ञा करनी पड़ती है कि वह कम-से-कम २० वर्ष तक संस्था की सेवा करेगा और उसके उद्देश्यों को सफल बनाने का पूर्ण प्रयत्न करेगा। वह कोई ऐसा कार्य नहीं करेगा जो संस्था के उद्देश्यों के प्रतिकूल हो। इस संस्था के सदस्य वही युवक बन सकते हैं जो किसी विश्वविद्यालय अथवा राष्ट्रीय शिक्षा-संस्था के ग्रेजुएट, स्नातक या उतनी योग्यता रखते हो। लाला लाजपतराय इस संस्था के प्रथम संस्थापक-प्रधान थे। प्रति तीसरे वर्ष प्रधान का चुनाव होता है। समिति का संचालन एक कार्यकारिणी समिति के हाथ में है, जिसमें सिर्फ संस्था के सदस्य ही होते हैं, जिनका प्रतिवर्ष चुनाव किया जाता है। संस्था के सदस्यो को ५०) से १००) मासिक तक वृत्ति दी जाती है। बच्चों के लिए तथा घरभाडा अलग मिलता है। समिति के इस समय १४ सदस्य हैं। माननीय बाबू पुरुषोत्तमदास टंडन समिति के प्रधान है।


जमनालाल बजाज, सेठ--गान्धीवादी कांग्रेसी नेता। जन्म सन्

१८८६, जयपुर राज। सेठ जमनालाल बजाज भारत के प्रसिद्ध मारवाडी व्यव-

सायियो मे थे। सन् १९२० से काग्रेस-आन्दोलन मे भाग लेते रहे। गान्धीजी के परम स्नेहभाजन थे। बराबर अनेक वर्षो तक काग्रेस के कोषाध्यक्ष और कार्यकारिणी के सदस्य रहे। सन् १९२३ के नागपुर-सत्याग्रह का संचालन किया। असहयोग-आन्दोलन में तथा सन् १९३०-३२ के आन्दोलनो मे जेल-यात्रा की। तिलक स्वराज्य फड

मे सेठजी ने एक लाख रुपया दान दिया था। सन् १९३८-३९ मे जयपुर मे आपने सत्याग्रह किया और दो बार क़ैद की सजा मिली। सेवाग्राम मे आपकी ही ज़मीदारी पर गान्धीजी का आश्रम है। गान्धीजी और काग्रेस की आपने अनेक बार यथेष्ट सहायता की। राष्ट्रीय दृष्टि से आपकी ऐसी साख थी कि काग्रेस का लाखो रुपया आपके यहॉ, कोषाध्यक्ष की हैसियत से, जमा रहता था। फर्वरी १९४२ मे आपकी हृद्-गति रुक जाने से सहसा मृत्यु हो गई।


जयप्रकाश नारायण--भारत के सुप्रसिद्ध काग्रेस-समाजवादी राजनीतिज्ञ और अग्रणी। आपका जन्म, अब से प्रायः ४१ वर्ष पूर्व, सारन(बिहार) जिले के सिताबदियारा ग्राम मे एक किसान-परिवार मे हुआ। आरमभिक शिक्षा बिहार मे प्राप्त की और उसके बाद, सन् १९२२ मे, कैलिफोर्निया (अमरीका) गये। वहॉ फलो के बगीचो मे काम करते थे, जिससे उन्हे १४) रोज मजदूरी मिल जाती थी। इस प्रकार स्वाश्रयी और स्वावलम्बी बन कर शिक्षा ग्रहण की। सन् १९३० तक वहॉ रहे, और पॉच विश्वविद्यालयो मे शिक्षा प्राप्त की।

गणित, भौतिक-शास्त्र, रसायन-विज्ञान से शुरू किया और वर्षों तक जीव-विज्ञान, मनोविज्ञान, समाज-विज्ञान तथा अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। सन् १९३१ मे, जब भारत मे सत्याग्रह-आन्दोलन चल रहा था, वापस आये। कांग्रेस के मजदूर-अन्वेषण-विभाग के अध्यक्ष बनाये

गये। कई मास तक कांग्रेस के स्थानापत्र प्रधान मन्त्री का काम किया। नासिक जेल में श्री मसानी, श्री अच्युत पटवर्द्धन तथा श्री जयप्रकाश नारायण ने भारतीय कांग्रेस-समाजवादी-दल के उद्देश्य तथा नियम बनाये। सन् १९३४ मे, पटना में, उन्होने अखिल-भारतीय कांग्रेस-समाजवादी सम्मेलन का आयोजन किया। इस प्रकार समाजवादी-दल की स्थापना हुई। आप इसके प्रधान मन्त्री बनाये गये। सन् १९३६ मे प० जवाहरलाल

नेहरू ने कांग्रेस-कार्य-समिति मे उन्हे सदस्य नियुक्त किया। उन्होने 'समाजवाद ही क्यो?' नामक एक पुस्तक अँगरेज़ी मे लिखी है। विगत रामगढ-काग्रेस, मार्च १९४०, से पहले सरकार ने उन्हे गिरफ़्तार कर लिया। वह छूटे ही थे कि सन् '४१ मे सरकार ने वामपक्षी दल के भारतव्यापी दमन के समय पकडकर उन्हे देवली मे नज़रबन्द कर दिया। सन् '४२ के जुलाई-अगस्त महीनो मे सरकार ने साम्यवादियो(कम्युनिस्टो)को देवली आदि जेलो से छोड दिया, किन्तु जयप्रकाशजी तथा दूसरे समाजवादी नही

छोडे गये है और उनका दमन जारी है।


जयरामदास दौलतराम--कांग्रेस-कार्य-समिति के सदस्य रहे हैं। सिन्ध के कांग्रेसी नेता हैं। जन्म सन् १८७२ में हैदरबाद(सिघ)मे हुआ। शिक्षा बी०ए०, एलएल०बी०तक। कराची मे वकालत की। सन् १९१७ मे होमरूल लीग मे काम किया। सन् १९२७ से अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी के सदस्य रहे। 'भारतवासी'(१९१९), 'हिन्दु' और 'वन्देमातरम्'(१९२१), 'हिन्दुस्तान टाइम्स'(१९२५-२६)मे संपादन विभाग मे काम किया।
सन् १९२५ से २७ तक हिन्दू महासभा के प्रधान मन्त्री रहे। १९२६ में बम्बई-कौंसिल के सदस्य चुने गये। सत्याग्रह-आन्दोलन १९३०-३२ और १९४० मे भाग लिया तथा जेल गये। '४२ ई० के देशव्यापी दमन में जेल में हैं।


जर्मनी--यूरोप का एक शक्तिशाली राज्य, क्षेत्रफल २,१०,००० वर्ग-मील, जन-सख्या ७,८०,००,००० है। इसमें आस्ट्रिया और सूडेटनलैण्ड की जन-संख्या शामिल है, परन्तु बोहेमिया, मोराविया तथा अधिकृत पोलैण्ड की जन-सख्या शामिल नहीं है। सन् १९१८ की पराजय के बाद जर्मनी में प्रजातत्र की स्थापना हुई। इससे पूर्व एकच्छत्र शासन-प्रणाली प्रचलित थी। सन् १९३० मे जर्मनी में प्रजातत्र का हास आरम्भ हुआ और नात्सी दल का बल बढने लगा। १९३३ के जुलाई मास में हिटलर का दौर-दौरा हो गया। इस समय जर्मनी में कोई लिखित शासन-विधान नहीं है। यद्यपि प्रजातंत्रवादी शासन-विधान का विधिवत् अन्त नहीं किया गया है, परन्तु जर्मनी में हिटलर ने एक अलिखित विधान की निम्न प्रकार से रचना की है।

शासन की समस्त सत्ता नात्सी-दल के नेता (Fuhrer) हिटलर में केन्द्रित है। उसकी इच्छा ही कानून है। वह समस्त मत्रियों तथा उपनेताओं की नियुक्ति करता है। यह मत्री तथा उपनेता सार्वजनिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा समाज के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिए नेताओं की नियुक्ति करते हैं। यह नेतृत्व का सिद्वान्त कहलाता है। चुनाव तथा प्रजातत्र से नात्सी और हिटलर घृणा करते हैं। हिटलर को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करने का अधिकार है। जर्मन पार्लमेट (राइखताग-Reichstag) मे ८५५ सदस्य हैं। सब नात्सी है। यह राइखताग अपना अधिवेशन सिर्फ हिटलर का भाषण सुनने के लिये बुलाती है। किसी भी सदस्य को भाषण करने का अधिकार नही है। राइख को कानून बनाने का भी अधिकार नही है। क़ानून सरकार द्वारा बनाये जाते है जो अपने नेता हिटलर के प्रति जिम्मेदार है। कोई बजट न-पार्लमेट के सामने प्रस्तुत किया जाता, न जनता की सूचना के लिये प्रकाशित ही किया जाता है। सरकार मनमाने ढंग से कर लगाती तथा उन्हे वसूल करती है। नागरिको को सरकारी किसी भी कार्य में कोई हस्तक्षेप करने का अधिकार नही है। राष्ट्रीय समाजवादी अर्थात् नात्सी दल ही

अकेली संस्था है जो सरकार द्वारा स्वीकृत तथा क़ानूनी है। नात्सी दल का संगठन भी सरकार की तरह है। एक प्रकार से यह दल भी स्थानान्तर सरकार ही है। नात्सी विचारधारा के विरुद्ध कोई बात कहना अपराध है। जर्मनी मे कोई भी नागरिक-स्वाधीनता नागरिको को प्राप्त नहीं है। न अपने विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता है, न भाषण करने या सभा में जाने की। व्यक्तिगत स्वाधीनता तो और भी ख़तरे में है। आतकवाद के कारण नागरिको को हर समय भय का शिकार बने रहना पड़ता है। यहूदियों के ख़िलाफ क़ानून प्रचलित हैं। ईसाई-धर्म (चर्च) की वर्तमान संस्था के अधीन और उसके अन्धानुयायी नात्सी नहीं रहना चाहते। प्रोटेस्टेन्टवाद को वह अपने राष्ट्रीय-समाजवादी संगठन के अधीन रखना चाहते है। इसी कारण उन्हे गिरजाघरो के प्रति श्रद्धा नहीं है। मज़दूर सघो की मनाई है तथा सब मज़दूरो को 'नात्सी मज़दूर मोर्चे' में शामिल होना ज़रूरी है।

सामान्यतया एक-चौथाई औद्योगिक पैदावार जर्मनी बाहर दूसरे देशो को भेजता था। सन् १९२९ में १३ अरब मार्क (जर्मन सिक्का) का माल विदेशो को गया। सन् १९३३ में केवल ४ अरब मार्क का माल बाहर गया और सन् १९३८ में ५ अरब २ करोड़ मार्क का माल जर्मनी ने विदेशो को भेजा तथा ५ अरब ५ करोड़ मार्क का माल विदेशो से मॅगाया। जर्मनी सिर्फ कच्चा माल तथा खाद्य पदार्थ बाहर-से मॅगाता था। कई साल से जर्मनी में अन्न और कच्चे माल का टोटा रहा है। कोयला जर्मनी मे पर्याप्त है। कुछ लोहा उसे बाहर से मॅगाना पड़ता है। युद्ध छेड़ देने से जर्मनी के वैदेशिक-व्यापार में लगभग ७० फीसदी की कमी होगई है। जर्मनी का राष्ट्रीय ऋण सन् १९३३ में १२ अरब मार्क और युद्ध शुरू होने के पहले ६० अरब मार्क था। जर्मनी में कच्चे माल का अभाव है। केवल कोयला ही वहाँ पैदा होता है। अन्न भी कम पैदा होता है। नात्सी-जर्मनी का उद्देश, यूरोपियन लेखको के अनुसार, साम्राज्यवाद और यूरोप तथा संसार पर आधिपत्य स्थापित करना प्रतीत होता है। विगत विश्वयुद्ध की पराजय से जर्मन-जाति की मनोवस्था पर बहुत प्रतिक्रिया हुई है। उनका कहना है कि पिछले महायुद्ध में केवल समाजवादी क्रियाकलाप और नेतृत्व

के अभाव के कारण जर्मनी की पराजय हुई। इसकी पुनरावृत्ति न हो, इसलिए समस्त सबल विरोधियो को हटाकर नात्सी जर्मन अपनी जाति को लौह अनुशासन मे सङ्गठित करके वर्तमान युद्ध द्वारा संसार मे 'नवविधान' (World New Order) की रचना करना चाहते हैं।

१९३५ में जर्मनी में सार्वजनिक सैनिक-शिक्षा पुनः जारी की गई। इन दिनो अनुमानतः पचास लाख सेना वहाँ है। यह सेना मुकम्मल तौर पर यान्त्रिक शस्त्रास्त्र से ल्हैस है, जिसमे कितने ही वख्तरपोश डिवीजन हैं। १५ से ३० हजार तक वायुयान नात्सी-सेना में अनुमान किये जाते हैं। नात्सी युद्ध-कला यन्त्रोपयोग की महत्ता और पंचम पक्ति के प्रयोग पर आधारित है।

जर्मन नौ-सेना मे २ युद्ध-पोत, ३ छोटे युद्ध-पोत, ६ क्रूज़र, ३१ ध्वसक, ६५ यू-बोट युद्धारम्भ के समय थे। इनके अतिरिक्त कई युद्ध-पोत आदि बन रहे थे। जून १९४१ तक उसकी जलीय हानि की गणना की जाय तो वह इससे बहुत अधिक होती है। लेकिन शायद जर्मनी अपनी इस कमी की पूर्ति जहाँ-की-तहाँ करता जा रहा है। जर्मनी ने ता० १ सितम्बर १९३९ को पोलैण्ड पर आक्रमण कर महायुद्ध छेड़ दिया। उसने पोलैण्ड, नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क, बेलजियम, हालैण्ड, फ्रान्स, चैकोस्लोवाकिया, रूमानिया, यूनान, कीट आदि देशो को अधिकृत कर लिया है।


जर्मन-सोवियत-समझौता--२४ अगस्त १९३९ को सोवियट रूस और जर्मनी में अनाक्रमण-समझौता हुआ था, जिसके अनुसार निश्चय हुआ कि जर्मनी और रूस एक दूसरे के देश पर आक्रमण नही करेंगे। यह समझौता १० वषों के लिये हुआ था। किन्तु २० जून १९४१ को हिटलर ने इस समझौते की अवहेलना करके रूस पर आक्रमण कर दिया। आज सवा साल से इन दोनो राष्ट्रो में भीषण युद्ध होरहा है।


ज़मीदारी-प्रथा--भारत के सयुक्त-प्रान्त, बिहार, उड़ीसा, बंगाल, मदरास तथा देशी राज्यो मे जमीदारी प्रथा प्रचलित है। इसके अनुसार जो लोग ज़मीन के स्वामी होते हैं वे किसानो को ज़मीन, पैदावार के लिये, मनमाने लगान पर उठा देते हैं, और किसान से वसूल हुए लगान मे से एक निश्चित मालगुज़ारी की शकल मे, सरकार को देते है। ज़मीदार लोग ख़ुद काश्त-

कारी नहीं करते। किसानो की कड़ी मिहनत पर पलते और मौज करते हैं। भारत मे ज़मीदारी प्रथा का प्रचलन मुग़ल-काल में हुआ और अँगरेज़ी साम्राज्यवाद ने इस प्रथा को यहॉ और भी दृढ़ कर दिया। समाज के सामूहिक हित के मौलिक सिद्धान्तो पर आघात करनेवाली इस प्रथा के विरुद्ध अब भारत मे असन्तोष बढ़ रहा है।


जलियाँवाला बाग-–यह अमृतसर (पंजाब) नगर में एक सुविशाल मैदान है जो चारो ओर से मकानो से घिरा हुआ है। इस स्थान में सार्वजनिक सभाएँ होती हैं। सत्याग्रह की प्रतिज्ञा के सम्बन्ध मे, समस्त देश के साथ, यहाँ भी ६ अप्रैल १९१९ को एक सभा हुई थी। इस स्थान में प्रवेश करने के लिए एक छोटा-सा द्वार है जिसमे होकर एक गाड़ी भी नहीं निकल सकती। सभा मे २०,००० नर-नारी तथा बालक उपस्थित थे। जनरल डायर १०० भारतीय तथा ५० गोरे सैनिको के साथ वहाँ पहुँचा। मशीनगने भी साथ मे थी। जनरल डायर का वक्तव्य है कि उसने सभा भंग करने के लिए आज्ञा दी और उसके दो तीन मिनट बाद ही गोली चलाने की आज्ञा दे दी। १,६०० गोलियाॅ चलाई गई, और जब गोलियाँ ख़त्म होगई तब गोली चलाना बन्द हुआ। ४०० व्यक्ति गोलियो के शिकार होकर वहीं बलिदान होगये तथा एक और दो हज़ार के बीच घायल हुए। इस घटना के बाद पंजाब के कई नगरो और ज़िलो में फ़ौजी शासन (मार्शल-ला) जारी होगया। पंजाब में इन दिनो अन्धाधुन्ध दमन-चक्र चला। इस अमानुषिक हत्याकाण्ड की स्मृति में प्रति वर्ष देश मे अप्रैल मास के आरम्भ में राष्ट्रीय सप्ताह मनाया जाता है। सन् '२०-२१ ई० के असहयोग आन्दोलन का एक प्रवल कारण यह हत्याकाण्ड और इसके साथ फौजी शासन-काल में पंजाब में हुए अनेक अत्याचार हैं।


जाकिरहुसैन, डाक्टर--जामिया मिल्लिया इस्लामिया, देहली, के प्रिंसिपल। सन् १८९९ मे जन्म हुआ। शिक्षा एम० ए०, पीएच० टी० (जर्मनी)। अर्थशास्त्र के प्रोफेसर अलीगढ मुसलिम विश्वविद्यालय में रहे। सन् १९२१ मे अपने असहयोग आन्दोलन में भाग लिया और राष्ट्रीय मुसलिम विश्वविद्यालय की स्थापना में सहयोग दिया। सन् १९२३ में जर्मनी

की यात्रा की। सन् १९३७ के अक्टूबर मास में महात्मा गान्धी ने वर्धा में भारत के शिक्षा-सिद्धान्त-विशारदों को आमत्रित कर एक सम्मेलन किया। इसमे उन्होने अपनी नवीन शिक्षा की योजना पेश की। इस पर विचार करके बुनियादी (बेसिक) शिक्षा के लिए कार्य-क्रम तैयार करने के निमित्त, डा० जाकिरहुसैन की अध्यक्षता में, एक समिति नियुक्त की गई। अपने जर्मन भाषा मे कई ग्रन्थ लिखे हैं। आपकी वर्धा-शिक्षा-योजना-संबंधी रिपोर्ट के आधार पर ही, काग्रेस-सरकारों के युग मे, वर्धा-योजना या बुनियादी शिक्षा का प्रचार बम्बई, मध्यप्रान्त, बिहार तथा सयुक्त-प्रदेश आदि प्रान्तो में हुआ है।



जार्ज लैन्सवरी--ब्रिटिश मजदूर नेता। २१ फर्वरी सन् १८५९ को जन्म हुआ। ग्रेट ईस्टर्न रेलवे में टिकिट चैकर का काम किया। सन् १८८४ में क्वीन्सलैण्ड चले गये। सन् १८८५ मे ब्रिटेन लौटे। लन्दन मे लक्डी का व्यवसाय किया। सन् १८९२ तक वह लिवरल रहे। फिर समाजवादी प्रजातन्त्र दल में शामिल होगये। सन् १९१० मे कॉमन-सभा के सदस्य चुने गये। वहाँ महिला-मताधिकार के प्रवल समर्थक थे। १९१२ मे उन्होने सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। १९१२ मे ‘डेली हेराल्ड' के सपादक बने। सन् १९२० मे उन्होने सोवियट रूस की यात्रा की।

१९२२ मे वह फिर कॉमन-सभा के सदस्य चुने गये। सन् १९२४ मे उन्हे मज़दूर-सरकार मे मन्त्री का पद देने के लिये आग्रह किया, परन्तु उन्होने मन्जूर नहीं किया। सन् १९२५-२७ मे ‘लेन्सबरीज लेवर वीकली' नामक निजी साप्ताहिक पत्र निकाला। सन् १९२७-२८ मे वह मजदूर दल के अध्यक्ष बनाये गये। ७ मई १९४० को, उनका देहान्त होगया।



जार्ज षष्ठम्--जार्ज पंचम् के द्वितीय राजकुमार ग्रेटब्रिटेन के राजा। १४ दिसम्बर, १८९५ ई०। नौ-सेना में भर्ती होकर जटलैण्ड के युद्ध में
भाग लिया। २६ अप्रैल १९२३ को

ऐलिज़ाबैथ के साथ विवाह किया। ज्येष्ठ भ्राता राजा एडवर्ड अष्टम् के राज-सिहासन-त्याग पर, १० दिसम्बर १९३६ को, राज-सिहासन पर बैठे। १२ मई १९३७ को वैस्टमिन्स्टर ऐबी मे राज्याभिषेक समारोह मनाया गया। युद्धकाल मे लन्दन पर बराबर होनेवाले हवाई हमलो मे, सन् १९४० मे, राजभवन बकिङ्घम पैलेस पर जर्मनी के यानो ने बम-वर्षा की। एक बार तो राजा-रानी एक घातक बम से बाल-बाल बचे। राजा और रानी के दो पुत्रियाँ हैं।



जाति या नस्ल-–जर्मन नात्सीवाद का आधार जाति-सिद्धान्त है। हिटलर जर्मन-जाति की, जो उसके दावे के अनुसार आर्य जाति है, विशुद्धता की रक्षा पर सबसे अधिक ज़ोर देता है। उसका यह विश्वास है कि रक्त- सम्मिश्रण से जाति या राष्ट्र का पतन हो जाता है। संसार में आर्य जाति ही सर्वश्रेष्ठ जाति रही है और, हिटलर के अनुसार, श्रेष्ठ जाति का यह कर्तव्य है कि वह संसार की हीन जातियो पर शासन करे। परन्तु सत्य तो यह है। कि संसार के इतिहास में ऐसी कोई भी जाति नही है जिसने दूसरी जातियो के साथ सम्मिश्रण न किया हो। इसलिये जाति की शुद्धता का दावा एक मिथ्या कल्पना ही नही पाखण्ड भी है। वस्तुतः सच तो यह है कि आज संसार में राष्ट्रो का निर्माण जातियो की रक्त-शुद्धता के आधार पर नहीं हो सकता। अमरीकी, बरतानवी, क्या कोई भी राष्ट्र विशुद्ध जातियाँ हैं ?



जापान-–जापान-साम्राज्य, मुख्य जापान देश का क्षेत्रफल १,४८,८०० वर्गमील। समुद्र पार के अधीनस्थ देश कोरिया, फारमोसा, दक्षिणी साखालिन का क्षेत्रफल १,१४,६०० वर्गमील। जापान देश की जनसंख्या ७,३०,००,००० तथा इन देशो की ३,००,००,००० है। सन् १९०० से १९२२ तक जापान की ब्रिटेन से मित्रता रही और वह भी इसलिये कि सोवियट रूस के विरुद्ध गुटबन्दी

स्थापित होजाय। अमरीका ब्रिटिश-जापान-मैत्री को पसंद नहीं करता था। इसलिये सन् १९२२ मे यह मित्रता भंग होगई। जापान ने, सैनिक नेतृत्व में, चीन की विजय की योजना बनाई। सबसे पहले उसने मन्चूरिया पर १९३१ ई० में अधिकार जमाया, जो अब मचूको कहलाता है। मन्चूरिया में भूमि तो बहुत है, किन्तु जापानियो के लिये वहाँ की जल-वायु अनुकूल नहीं। इसलिये वे वहाँ उपनिवेश नहीं बसा सकते। सिर्फ २,००,००० जापानी मञ्चूको में रहते हैं। दक्षिणी चीन, जहाँ आजकल युद्ध हो रहा है, जापानियो के लिये अधिक अनुकूल है, परन्तु उसमे चीनियों की ही अपनी घनी आबादी है।

अतः जापान चीन को अपना उपनिवेश बनाने के लिए नहीं प्रत्युत् कच्चे माल तथा तय्यार माल की मडी के लिये चाहता है। १ करोड़ २१ लाख जापानी उद्योग-धंधा करते हैं, और आबादी का ५० प्रतिशत कृषि। जापान में जमीदारी प्रथा का जोर है। ज़मीन की कमी की वजह से किसान बहुत गरीब हैं। मजदूरो की आर्थिक दशा भी बहुत हीन हैं, मज़दूरी बहुत सस्ती है, इसी कारण पिछले वर्षो जापान ने प्रतियोगिता में अन्य देशो को हराकर संसार के, विशेषकर भारत के, बाजार को सस्ते माल से भर दिया था। तीकोकू-गिकाई (जापानी पार्लमेण्ट) में दो सभाएँ हैं : छोटी सभा (शूगिन) में ४६३ सदस्य हैं जो ४ वर्ष के लिये चुने जाते हैं। बड़ी (किज़ोक्किन) में ४११ सदस्य हैं जिनमे १९२ आजीवन सदस्य और शेष ७ वर्ष के लिये चुने जाते हैं। यह सम्पत्ति और सत्ताशालियों की सस्था है। प्रत्येक क़ानून का दोनों सभाओं द्वारा स्वीकृत होना ज़रूरी है। परन्तु सरकार सम्राट् के प्रति उत्तरदायी होती हैं। सरकारी नीति सरकार निर्धारित करती है। तीकोकू-गिकाई की छोटी सभा मे दो मुख्य दल थे : देहाती और श्रमजीवी समुदाय का प्रतिनिधि मिन्सीतो, जिसकी सख्या १७९ है। सीयूकाई नामक खेतिहर-दल भी था जिसके प्रतिनिधि १७६ हैं। शकाई तैशूतो नामक समाजवादी (सख्या ३५) दल भी था। कोकुमिन डोमी नामक ११ फासिस्ट और तोहोकाई नामक दल के १२ क्रान्तिकारी सदस्य हैं।

जापान में सार्वजनिक चुनाव ३० अप्रैल १९३७ को हुआ था और १९४० के अगस्त और सितम्बर में सब दलो ने, गवर्नमेन्ट के दबाव से,

अपने अस्तित्त्व को एकसत्तावादी सरकार में मिला दिया। एशिया में साम्राज्य-विस्तार के सम्बन्ध में सब दल एकमत हैं। जापान का चीन से युद्ध छिडे, जुलाई १९४२ मे पॉच वर्ष हो चुके। इस युद्ध में जापान अबतक, चीनी युद्ध-प्रवक्ताओं के अनुसार, २५ लाख जाने होम चुका है।

जापानी सेना मे ५०,००,००० सीखे हुए सैनिक हैं। संसार की सर्वश्रेष्ठ सेनाओं में इसकी गणना की जाती है। चीन-संघर्ष मे २०,००,००० सेना संलग्न है। जापानी नौ-सेना का संसार में तीसरा स्थान है। उसके पास युद्धायुध मे ९ युद्ध-पोत, १४ भारी युद्ध-पोत, २४ हलके क्रूज़र, ११२ ध्वंसक, ६० पनडुब्बियॉ, ६ बम-वर्षको को ले जानेवाले जहाज़ सन् १९३९ में बताये गये थे। । किन्तु तब से तो जापान अपने युद्ध-प्रयत्नो को चुपचाप आशातीत रूप मे बढा चुका प्रतीत होता है। अपने युद्ध-प्रयत्नो को गुप्त रूप से बढ़ाने के लिये ही वह लन्दन की नौ सेना-सन्धि में सम्मिलित नही हुआ। जापान अब तक बरतानवी साम्राज्य के मलय, हांग्कांग्, ब्रह्मा, अन्दमनद्वीप-समूह प्रदेश तथा सिगापुर के विख्यात समुद्री अड्डे को जीत चुका है। अमरीकी प्रदेशों में फिलिपाइन्स द्वीप, हवाई तथा हालैन्ड के डच पूर्वी द्वीपसमूह और जावा, सुमात्रा को भी वह हथिया चुका है। प्रशान्त महासागर मे, इस प्रकार, जापान बहुत भूमि प्राप्त कर चुका है। आस्ट्रेलिया पर उसने मार्च '४२ मे हमले किये थे। सितम्बर १९४२ के दूसरे सप्ताह से प्रशान्त महासागर में, सोलोमन्स आदि द्वीपसमूह पर, अमरीका और ब्रिटेन ने जापान के मुकाबले मोर्चा अडा रखा है, वहाँ ज़ोरो की लड़ाई जारी है और मित्र-राष्ट्र जीत रहे हैं। फ्रान्सीसी हिन्द-चीन को भी जापान हडप चुका और स्याम (थाईलैण्ड) को उसने अपने प्रभाव में ले लिया है। भारत को भी उसकी साम्राज्यवादी लिप्सा का प्रतिक्षण ख़तरा है।

१८९४-९५ ई० मे जापान चीन से लड़ चुका है। १९०५ मे रूस को हरा चुका है। पिछले महायुद्ध मे मित्रराष्ट्रो की ओर से लड़ चुका है। सन् १९१८ मे सोवियट रूस में हस्तक्षेप कर चुका है। १९३१ में मंचूरिया को ले लेने के बाद, १९३७ के जुलाई मास से चीन

के साथ उसने फिर युद्ध छेड़ रखा है। यही कारण हैं जिनसे उसके
हौसले बहूत बढ गये प्रतीत होते हैं;

और चूॅकि जापानी एक सामरिक जाती हैं, जापान आज एशिया का सिरमौर बनने सूखस्वप्न देख रहा है। (विशेष जानकारी के लिये देखिये--चीन, तोजो, थाईलेंड, प्रशान्त महासागर का युद्ध)।



जिन्ना की १४ माँगें--सन् १९३८-३९ के बीच, साम्प्रदायिक समस्या को हल करने के सम्बन्ध मे ,गांधीजी, सुभास बाबू, पं० जवाहरलाल नेहरू तथा श्री मुहम्मद अली जिन्ना के बीच, समय-समय पर जो पत्र-व्यवहार हुआ था, उससे यह ज्ञात होता हैं कि साम्प्रदायिक समझौता होने से पूर्व मुसलिम लीग नीचे लिखी शर्तो की पूर्ती आवश्यक समझती थी:-

(१)मुसलिम-लीग की उन माॅगों की स्वीकृति जो सन् १९२६९ मे निर्धारित की गई थी।

(२)काग्रेस न तो साम्प्रादायिक निर्णय (कम्युनल ऐवार्ड) का विरोध करे और न उसे राष्ट्रीयता-विरोधी बतलावे।

(३)सरकारी नौकरियो मे मुसलमानों का प्रतिनिधित्व शासन-विधान द्वारा निर्धिरित कर दिया जाय।

(४)कानून द्वारा मुसलमानों के ज़ाती क़ानून (Personal Law) और संस्कृति की रक्षा की जाय।

(५)शहीदगज की मसजिद वाले आंदोलन मे कांग्रेस भाग न ले और अपने नौतिक प्रभाव से उसके मिलने मे मुसलमानो की सहायता करे।

(६)अज़ाॅ, नमाज़ और मुसलमानो की धार्मिक स्वाधीनता के अधिकार मे किसी प्रकार की बाधा न डाली ज़ाय। (७)मुसलमानो को गो-वध की स्वाधीनता रहे।

(८)प्रान्तो के पुनर्निर्माण में उन प्रदेशो में कोई परिवर्तन न किया जाय जहाॅ पर मुसलनमान बहुसंख्या में हैं।

(६)'वन्देमातरम्' राष्ट्रीय गायन का परित्याग किया जाय।

(१०)मुसलमान लोग उर्दू को भारत की राष्ट्रभाषा बनाना चाहते है, अतः उर्दू का न तो प्रयोग कम किया जाय और न उसे किसी प्रकार की क्षति ही पहुँचायी जाय।

(११)स्थानीय संस्थाओ मे मुसलमानो का प्रतिनिधित्व ,साम्प्रदायिक निर्णय के आधार पर, हो।

(१२)तिरंगा झणडा या तो बदल दिया जाय या मुसलिम लीग के झणडे को बराबरी का स्थान दिया जाय।

(१३)मुसलिम लीग को मुसलमानो की एकमात्र प्रतिनिधि संस्था स्वीकार किया जाय ।

(१४)प्रान्तो मे संयुक्त मंत्रिमण्डल बनाये जाएँ।

'पाकिस्तान' की माँग के आगे ,कदाचित्, ये माँगें अब व्यर्थ हो गई हैं।


जिन्ना--देखो 'मुहम्मद अली जिन्ना।'


जिबूटी--लाल-सागर के पश्चिमी समुद्र-तट पर फ्रान्सीसी शुमालीलैण्ड का एक प्रधान नगर है । यह उपनिवेश उत्तर मे इरीट्रिया, दक्षिण मे ब्रिटीश शुमालीलैण्ड और पूर्व मे अबीसीनिया से घिरा हुआ है । जिबूटी से अबीसिनिया की राजधानी अछीस अबाबा तक रेलवे है, जिसकी मालिक एक फ्रान्सीसी कम्पनी है । जिबुटी अबीसीनिया का समुद्री निकास भी है । इसलिए इटली फ्रान्सीसी अधिकार को इस देश से निकाल देना चाहता है ।



जी० पी० यू०--यह सोवियट रूस की गुप्त राजनीतिक पुलिस का संक्षिप्त नाम है । सन् १९१७ के बाद ही इसका संगठन, साम्यवाद-विरोधियो के दमन के लिए, किया गया है ।



जो़रा, प्रथम--मार्च १९३९ तक अलबानिया का राजा, असली नाम अहमद ज़ोरा । ८ अक्टूबर १८९५ को ज़ोग़ोली के सम्पत्र मुसलिम वंश मे जन्म हुआ । विश्व-युद्ध मे आस्ट्रिया की ओर से लडा़ई मे भाग लिया । सन् १९२० में अलवानिया के स्वराष्ट्र-विभाग का मत्री बना और '२२ में प्रधान मंत्री। त्यागपत्र देना पड़ा तथा सन् १९२४ में यूगोस्लाविया भाग जाना पड़ा। सन् १९२५ में अलबानिया वापस आया। अपने प्रतिद्वन्दी विशप फाननोली को हटाकर स्वयं राष्ट्रपति और सन् १९२८ में बादशाह बन गया। नरमी के साथ देश में सुधार करने शुरू किये। जोग के मुसोलिनी का पक्षपाती होने और इटली के उक्त तानाशाह का कुछ ही दिन पहले जोग के नवजात पुत्र का धर्मपिता बनने के बावजूद मार्च १९३९ में इटली की सेना ने यकायक अलबानिया पर आक्रमण करके देश पर जब कब्ज़ाकर लिया तो जोग सपरिवार विदेश को भाग गया और इस समय वह इॅगलैण्ड मे शरण लिये हुए है।

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