मैं अकेला; देखता हूँ, आ रही मेरे दिवस की सान्ध्य वेला। पके आधे बाल मेरे, हुए निष्प्रभ गाल मेरे, चाल मेरी मन्द होती आ रही,
हट रहा मेला।
जानता हूँ, नदी-झरने, जो मुझे थे पार करने, कर चुका हूँ, हँस रहा यह देख,
कोई नहीं मेला*।