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अणिमा/१३. तुम और मैं

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अणिमा
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'
तुम और मैं

लखनऊ: चौधरी राजेन्द्रशंकर, युग-मन्दिर, उन्नाव, पृष्ठ २२ से – २४ तक

 

तुम और मैं

 

भुकता है सर,
दुनिया से मैं घोखा खाकर
गिरता हूँ जब,
मुझे उठा लेते हो तुम तब
ज्यों पानी को किरन, तपाकर ।
फिर दुनिया की आँखों से मुझको ओझल कर
रखते आसमान पर,
बादल मुझे बनाते
रंग किरनों से भरते हो सुन्दर;
मुझे उड़ाते रहते हो फिर हवा-दवा पर;
तर सागर--वन
नदी आद्र घन

मैं देखता देश-देशान्तर;
तब यह जग आहें भर-भर
कहता है, 'आओ, जलधघर!'
गरज-गरज बिजली कड़काकर
(जब कहते हो, जाओ, प्यारे,)
लाख-लाख बूँदों से मैं टूटता गगन से
जैसे तारे।
मिट जाती है जलन
मगर मैं आ जाता हूँ फिर मिट्टी पर,
पर तुम मुझे! उठाते हो फिर
छिपे कलो के दिल के अन्दर।
जड़ से चढ़कर,
तने-शाख-डणठल से होकर,
रहता हूँ अविकच कलिका के
जीवन में मैं जीवन खोकर।
जब वह खिलती,
आँखे लड़ा-लड़ाकर मिलती,

 

उसे तोड़कर,
मालिन सुई चलाती है मुँह मोड़ मोड़कर,
मै खुशबू में उड़ता हूँ तब,
उसी गगन पर,मुक्त-पङ्खभर,
धरा छोड़कर।