अणिमा/१८. सहस्राब्दि

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सहस्राब्दि

(विक्रमीय प्रथम १००० सम्वत्)

विक्रम की सहस्राब्दि का स्वर
कर चुका मुखर
विभिन्न रागिनियों से अम्बर।

आ रही याद
वह उज्जयिनी, वह निरवसाद
प्रतिमा, वह इतिवृत्तात्मकथा,
वह आर्यधर्म, वह शिरोधार्य वैदिक समता,
पाटलीपुत्र की बौद्ध श्री का अस्त रूप,
वह हुई और भू-हुए जनों के और भूप,
वह नवरत्नों की प्रभा-सभा के सुदृढ़ स्तम्भ,
वह प्रतिभा से दिङ्गनाग-दलन,
लेखन में कालिदास के अमला-कला-कलन,
वह महाकाल के मन्दिर में पूजोपचार,
वह शिप्रावात, प्रिया से प्रिय ज्यों चाटुकार।

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आ रही याद
वह विजय शकों से अप्रमाद,
वह महावीर विक्रमादित्य का अभिनन्दन,
वह प्रजाजनों का आवर्तित स्यन्दन-बन्दन,
वे सजी हुई कलशों से अकलुष कामिनियाँ,
करती वर्षित लाजों की अञ्जलि भामिनियाँ,
तोरण-तोरण पर
जीवन को यौवन से भर
उठता सस्वर
मालकौश हर
नश्वरता को नवस्वरता दे करता भास्वर
ताल-ताल पर
नागों का वृहण, अश्वों की ह्रेषा
भर भर
रथ का घर्घर,
घण्टों की घन-घन
पदातिकों का उन्मद-पद पृथ्वी-मर्दन।

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आ रही याद
तूलिका नारियों के चित्रण की निरपवाद,
ब्राह्मण-प्रतिभा का अप्रतिहत गौरव-विकास,
वर्णाश्रम की नव स्फुरित ज्योति, नूतन विलास,
कामिनी-वेश नव, नवल केश, नव-नव कवरी,
नव-नव वन्धन, नव-नव तरंग, नव-नवल तरी,
नव-नव वाहन-विधि, वाहित वनिता-जन नव-नव,
नव-नव चिन्तन, रचना नव-नव, नव-नव उत्सव,
नूतन कटाक्ष सम्बोधन नूतन उच्चारण,
नूतन प्रियता की प्रियतमता, समता नूतन,
संस्कृति नूतन, वस्तु-वास्तु-कौशल-कला नवल,
विज्ञान-शिल्प-साहित्य सकल नूतन-सम्वल,
पाली के प्रवल पराक्रम को संस्कृत प्रहार,
कालिदास-वररुचि के समलंकृत रुचिर तार॥

कर रहा मनन
मैं शंकर का उत्थान, बौद्ध-धर्म का पतन—
जन-बल-वर्धन के हेतु वाम-पथ का चालन,—

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लोगों में भय का कारण, मारण सम्मोहन,
उच्चाटन, वशीकरण, संकर्षण, संत्रासन,
दिव्य भाव के बदले अदिव्य भाव का ग्रहण,—
फिर बदला ज्यों यह रूप शक्ति के साधन से,
बौद्ध से आर्यरूपता हुई आराधन से,
उस अदिव्यता के अर्थ विरोध कुमारिल का
बौद्धों से हुआ, ताल जो बना एक तिल का,
वे शिष्य हुए शंकर के, शुद्ध भाव भरते,
दिग्विजय-अर्थ भारत में साथ भ्रमण करते।
सुविदित प्रयाग के वे प्रचण्ड पण्डित मण्डन,
वामा थीं जिनकी उभय भारती, आलोवन
शंकर से जिनका कामशास्त्र में हुआ, विजित
शंकर हो शिक्षा लेने को लौटे विचलित,
कर पूर्ण अध्ययन राजदेह में कर प्रवेश
त्यागी शरीर को रख निर्मल, आये अशेष,
व्याध को पिता कह द्रम-पातन की शिक्षा ली,
चढ़ गये पेड़ पर, बैठे, पढ़ा मन्त्र, डाली
झुककर आई आँगन पर, उतरे, फिर बोले—

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"जो हारा पहले से क्यों दरवाज़ा खोले?"
मध्यस्थ उभयभारती हुई, शास्त्रालोचन
शंकर से हुआ प्रखर जिसमें, हारे मण्डन।
फिर चले छोड़कर गृह त्याग के विजयध्वज से,
मिल गये ज्ञान की आँखों से नभ से-रज से।

आ रहा याद वह वेदों का उद्धार, ख्यात
वह श्रुतिधरता, ज्ञान की शिखा वह अनिर्वात
निष्कम्प, भाष्य प्रस्थानत्रयी पर, संस्थापन
भारत के चारों ओर मठों का, संज्ञापन,
बौद्धों के दल का जीते ही वह दाहकरण,
जलकर तुषाग्नि में अपना प्रायश्चित्त-धरण
शंकर के शिष्यों का। मुझको आ रही याद
वह अस्थिरता जनता के जीवन की, विषाद
वह बढ़ा पण्डितों में जैसे शंकर मत से—
अद्वैत-दार्शानकता से हुए यथा हत से—
प्रच्छन्न बौद्ध ज्यों कहने लगे, वेदविधि के
कर्मकाण्ड के लोप से दुखा जन वे निधि के

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प्रत्याशी, फल के कामी, दुरित-दैन्य दल-मल
चाहते दैव से श्री शोभा, विभूति, सम्वल।
ऐसे सांसारिक जनों के लिये ज्यों जीवन
आये रामानुज; गृही चरित का आवर्तन
श्री-सुख से भरकर किया भिन्न दर्शन देकर
रक्खा संश्लेष विशिष्ट नाम रखकर सुन्दर।

वैदक ज्ञान, तथागत का निर्वाण वही,
जो धरा वही विचार धारा की रही मही,
देश काल औ' पात्र के भेद से भिन्न वेद
प्रेम जो, हुआ ज्यों वही बदलकर प्रियच्छेद।
बौद्धों के ही प्रचार का फल मिस्र में फलित—
मूसा की प्रतिभा में बदला वह धर्म कलित,
फिर ईसा में पाया कुछ परिवर्तन लेकर,
फिर हुआ महम्मद में अवतरित ताल देकर
एक ही भिन्न राग का प्रवल,
फैला कलकल
ज्यो जलोच्छवास प्लावन का दसों दिशाएँ भर

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भ्रातृभाव का उल्लास प्रखर।
टूटा भारत का वर्ण-धर्म का बाँध प्रथम
इससे, जो सम थे हुए, हुए वे आज विषम
हारे दाहिर, हर गईं कुमारी कन्याएँ।
सूरज-परिमल, कुल की बे उत्कल धन्याएँ।
ले साथ महम्मद-बिन-क्रासिम अरब को चला,
है विदित चुकाया कन्याओं ने ज्यों बदला।

जब टूटा कान्यकुब्ज़ का वह साप्राज्य विपुल,
छोटे-छोटे राज्यों से हुआ विपत्संकुल
यह देश। उचर अदम्य होकर
बढ़ता ही चला राष्ट्र इस्लामी; वेग प्रखर
पृथ्वी सँभालने में असमर्थ हुई; निश्चय
दुर्दान्त क्षत्रियों से जो था प्राणों में भय
उन इतर प्रजाओं में, छाया उसका तुषार
जो फुल्ल-कमल-कुल पर आ पड़ा, सहस्त्रवार
नैसर्गिक अम्बर से ज्यों; ज्यों अधिकारि-भेद
चाहती बदलना प्रकृति यहाँ की, समुच्छेद

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कर सकल प्राथमिक नियम, निपुण
चाहती सृष्टि नूतन ज्यों, औरों के गिन गुण
अधिकार चाहती हो देना, सुनकर पुकार
प्राणों की, पावन गूँथ हार
अपना पहनाने को अदृश्य प्रिय को सुन्दर,
ऊँचा करने को अपर राग से गाया स्वर।

१९४२ ई०