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अणिमा/१९. उद्‍बोधन

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लखनऊ: चौधरी राजेन्द्रशंकर, युग-मन्दिर, उन्नाव, पृष्ठ ४३ से – ४९ तक

 
 

उद्बोधन

दूर करो भ्रम-भास,
खोलो ये पलकें,
खुला सूर्य, खुला दिगाकाश।
खुले हुए राजपथ
स्थल-जल-व्योम के,
चलते हैं अविरत
यात्री भी सोम के,
जान ले हथेली में,
धात्री तुम्हारी किन्तु
गाँव की वसुन्धरा
आज भी पहेली में
खड्ढों से भरी हुई
हो रही है प्राणहरा
यदि यान-वाहनों की
मन्द हो रही है चाल,
प्रगति में तुम्हारे यदि

 

बिछा काँटों का जाल,
उड़ती है सदा धूल,
हिम्मत न हारो तुम,
सुधरेगी यह भूल,
सुथरा होगा यह पथ,
उठेंगे शीघ्रगति
लक्ष्य को पद श्लथ।
नहीं वह तुम्हारी गति
लोभ-लुण्ठन हो जहाँ
नाश जिसकी परिणति,
औद्धत्य यौवन
हो युद्ध की विघोषणा,
हार और मृत्यु के ही
उदर की पोषणा।
कहता है इतिहास,
सत्य-ज्ञान-प्रेम का
तुम्हारा दिया है प्रकाश।

 

उठी नहीं तलवार
देश की पराजय को,
बहो है सहस्रधार
मुक्ति यहाँ से, क्षय को
मृत्यु के जड़त्व के;
नहीं यहाँ थे गुलाम,
देश यह वहीं जहाँ
जीते गये क्रोध-काम;
भाव उठा लो वही,
जीवन का वार एक
और सहो तो सही।
सवल यो नीति से,
पढ़ो दान विश्व के
दिये जो ज्ञान-रीति के,
खुले हुए विश्व को
समझो तुम देखकर,
प्रतिमा विशेषकर

 

ध्यान में समाई हुई—
जैसे आकाश में
सूर्य-चन्द्र-तारा-ग्रह
पृथ्वी और जड़-चेतन
बहुरूप रेखाएँ
दिखती हैं, वैसे ही
ज्ञान में
दिखेंगे बीज विश्व के विकास के
ज्ञान-विज्ञान के,
दर्शनेतिहास गत
भिन्न-भिन्न भावों के।
सम्बद्ध क्रियाशील
देखोगे, सलील ही
बदल गये हैं रूप—
भ व, जो तुम्हारे थे,
साथ ही साथ ये
बदले हैं घर-द्वार,

 

जीवन के अनिवार
नियम से हैं उठे
आलोक छाया-प्रद,
जीवनद व्यवहार,
बहता चलता हुआ
कलकल ध्वनि कर,
अर्थ परमार्थ से
मिलते खिलते हुए
प्रतिवर्ष के-से फूल,
भिन्न-भिन्न रूप के
कृषि-शिल्प-व्यापार
रक्षण के स्तम्भ-से
खड़े, समारम्भ के
नगर-समाज,शास्त्र,
आज दिव्यास्त्र ज्यों
विश्वमानवता के,
राजनीति-धर्मनीति

 

वर्जित पाशवता से,
सभी बदले हुए—
सभी भिन्न रूप के,
जर्जरता-स्तूप से
मन्त्र निकले हुए,
साम्य रखते हुए
विश्व के जीवन से;
बदले हुए कुम्हार,
नाई-धोबी-कहार,
ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य,
पासी-भङ्गी-चमार,
परिया और कोल-भील;
नहीं आज का यह हिन्दू,
आज का यह मुसलमान,
आज का ईसाई, सिक्ख,
आज का यह मनोभाव,
आज की यह रूपरेखा।

 

नहीं यह कल्पना,
सत्य है मनुष्य का
मनुष्यत्व के लिये,
वंद हैं जो दल अभी
किरण-सम्पात से
खुल गये वे सभी।

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