अणिमा/३९. नाम था प्रभात ज्ञान का साथी

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नाम था प्रभात ज्ञान का साथी,
एक पाठशाले में पढ़ा हुआ,
बातचीत करता था हँस हँस कर,
बढ़ा मेलजोल में कढ़ा हुआ,
गोरा छरहरा बदन, बड़ी फाँकें
आँखें, पलकों से उभारती चितवन;
राह बचाता चला, गठी फिर भी
चड्ढी, हो गई उछाह से अनवन;
खेलता खाता हुआ वह पल रहा था,
कभी दिल को नहीं लगी चोट साख़्त,
कहा, "ज्ञान, तेरा साथ मिलने पर,
नहीं चाहिए कुछ भी, किसी वस्त।"
कहा ज्ञान ने, "फिर तू कैसा प्रभात,
अगर हटाई न हटी वैसी रात?"

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