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अणिमा/३८. स्वामी प्रेमानन्दजी महाराज

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लखनऊ: चौधरी राजेन्द्रशंकर, युग-मन्दिर, उन्नाव, पृष्ठ ६८ से – ९७ तक

 
 

स्वामी प्रेमानन्दजी महाराज

आमों की मञ्जरी पर
उतर चुका है वसन्त,
मञ्जु-गुञ्ज भौंरों की
बौरों से आती हुई,
शीत-वायु ढो रही है
मन्द-गन्ध रह-रहकर।
नारियल फले हुए,
पुष्करिणी के किनारे
दोहरी कतारों में
श्रेणीबद्ध लगे हुए।
भरा हुआ है तालाव,
खेलती हैं मछलियाँ,
पानी की सितह पर
पूँछ पलटती हुई।
वहीं गन्धराज, बकुल,
बेला, जुही, हरसिंगार,

 

केतकी, कनेर, कुन्द,
चम्पा लगे हुए हैं—
पूजा के उपचार,
ऋतु-ऋतु में खिलते हुए।
अमरूद, जामुन, अनार, लीची, फालसे,
कटहल लगे हुए।
कोनों में बाँसों के झाड़, कहीं कहीं इमली,
इङ्गु दी, कपास, नीम,
मध्यवित्त गृहियों के वासगृहों के पीछे।
सामने है पूजागृह—
भिन्न वासगृह से,
स्वच्छ स्निग्ध गन्ध से मोदित करता हुआ।
ब्राह्मण का शोभन गृह।
अन्य ओर धान का गोला, पुष्करिणी कल
एक और, बीचों बीच, और स्वच्छ जलवाली,
हल्की-सजी हुई ; बँधा हुआ घाट सुघर।
यहाँ लगे हैं गुलाब, नारियल वैसे ही,
नहीं बाँस या इमली।

 

सुन्दर-सी बैठक में
गृहस्वामी बैठे हुए।
बालकों का कलरव
गूँजता हुआ अबाध।
बेर के, खजूर के,
आम और जामुन के नीचे, पकते समय,
महाभारत मचा हुआ।
दूर-दूर पास-पास गाँव के आवास हैं
ऊँचे भूखण्डों पर।
नीची-नीची ज़मीं में,
जमता है जहाँ पानी,
धान कट चुके हैं अगहन के, देर हुई,
किन्तु वैसी ज़मीं में अभी तक कुछ नमी है।
गृहस्वामी परमहंस-देव जी के भक्त हैं।
युवक-समाज बड़े चाव से पढ़ता है
स्वामी विवेकानन्द जी के लिखे हुए ग्रन्थ।
शोधन भी चाहता है करना चरित्र का
उनके प्रभाव से,

 

जैसे मधु-ऋतु से तरु।
ग्रामीण जनों में निश्चय बँध चुका है।
स्वामी प्रेमानन्दजी, शिष्य रामकृष्ण के,
उत्सव में आयेंगे। मेजा गया भक्त एक
स्वामी जी को लेने को, युवक एक पश्चिम के
प्रान्त का, जिसके पिता
वङ्गदेश गये थे,
फिर वहीं
बसे थे। तरुण वह
ले आया स्वामी को
जैसे भास को प्रभात।
साथ ब्रह्मचारी थे,
आत्मा की खोज और
लोगों की सेवा के लिए
गये थे जो वहाँ।
पूर्णिमा के चन्द्र को
देखकर चढ़ा हुआ
सागर समुदाय था

 

स्वामी जी के दशेनों से।
पीटकर बराबर एक खेत कर दिया गया,
बड़ा शामियाना तना।
तोरण बनाये गये।
द्वारों पर दोनों ओर
कलस रखे गये
जलपूर्ण, संदुर से
स्वस्तिका खींच कर,
आम्र-पल्लव, धान-भरी
परई, कच्चा छोटा
नारियल रखकर।
मञ्च सजा पुष्प और पल्लवों का शोभापूर्ण।
चित्र रामरुष्ण का
रक्‍खा गया तख़्त पर
फूलों से आच्छादित।
रँगे हुए कागज़ों की ज़ञ्जीरें डाली गई।
'स्वागत' प्रवेश-द्वार पर लगा हुआ विशाल।
बाल-वृद्ध-युवा-नर-नारी आते जाते हुए।

 

कीर्त्तन होता रहा
खोल-करताल पर।
खिचड़ी, भाजियाँ कई,
मिष्टान्न, परिवेश
किया गया दीन नारायणों के अभ्यर्थन में ।
अन्य जन बैठते थे
प्रत्याशी प्रसाद के,
साथ, एक पंक्ति में।
कितनी पंक्तियाँ हुई।
आमन्त्रित थे सभी
धनी मानी, नगर के
राजकर्मचारि वर्ग,
जीवन की पुष्टि और
आध्यात्मिक धारणा के लिए आये हुए थे,
भक्ति के प्रतिरूप,
पवन ज्यों मुक्त हों
भली-बुरी गन्ध से।
घेरकर आत्मा को

 

खड़े थे देह जैसे।
मञ्च के सामने।
कीर्तन होता रहा
गायकों का, भक्तों का।
बजते हए मृदङ्ग,
करताल, चक्राकार
भक्तजन परिक्रमा करते हुए बार बार।
उत्सव समाप्त हुआ।
स्वामी को बुलाकर
श्रेष्ट राजकर्मचारी
ले आये उपवन के अपने भवन में।
रक्खा समादर से।
पूजानुष्ठान हुआ।
पश्चिमीय तरुण ने
श्रीसुतीक्ष्ण की कथा
रामचरितमानस से
पढ़ी मधुर कण्ठ से
वन्दन रघुनन्दन का

 

भक्ति से ओतप्रोत।
सभ्य जन आँसू बहाते हुए सुनते रहे।
स्वामीजी ध्यानमग्न,
स्वर के स्तर से चढ़कर
सहस्रार में गये।
लोकोत्तरानन्द तभी सबकी समझ में आया।
कथा परि समाप्त हुई।
गृहस्वामी भोजन का
आयोजन करने लगे।
पत्तलें पड़ीं नई।
आसन बिछाये गये,
जल-पात्र रक्खे गये।
घृतपक्व गन्ध से
महकने लगा गृह।
दूर आवास तक
हवा खबर भेजती है।
आमन्त्रित हैं सभी
राजकर्मचारिवर्ग।

 

आवाहन होने पर
स्वामी उठकर चले।
क्षालित हुए उनके पद,
हाथ-मुँह धुलाकर
आसन दिखाया गया,
सब से अधिक मर्यादित।
उनके बैठने ही पर
बैठे आमन्त्रित जन,
एक ही पंक्ति में
ब्राह्मण-कायस्थ सब।
श्रेष्ठ राजकर्मचारी
जाति के कायस्थ थे।
स्वामी जी का पूर्वाश्रम कायस्थ कुल में था
जैसे विवेकानन्द जी का।
राजकर्मचारी को गर्व इससे हुआ।
खुलकर वह बोले भी—
"एक दिन ब्राह्मणों ने
हमें पतित किया था—

शूद्र कहलाये हम,
किन्तु श्रीविवेक और
आप-ऐसे कृतियों ने
धन्य हमें कर दिया।
ब्राह्मणों की ही तरह
हम भी सिर उठाकर
रहते हैं समाज में,
एक ही फल के भागी—
भोगी स्वाच्छन्द्य के।"
स्वामीजी मौन थे
स्तुति को दबाते हुए
जो थी एकाङ्गिणी।
सजग हुये ब्रह्मवर्ग,
स्पर्धा से उद्धत-सिर,
देखते ही स्वामीजी
समझे वह मनोभाव
क्षोभ भरनेवाला,
बोले स्नेह-कण्ठ से—

 

"संन्यासी होने पर
देश-काल-पात्रता से
दूर हम हुए हैं,
रामकृष्णमय जीवन,
सर्व जनों के लिए।
ब्राह्मण के गृह जिनका
शुभ जन्म हुआ था,
उनके दर्शनों को
हम या विवेकानन्द
नहीं गये थे वहाँ;
जो थे परमात्मलीन
त्यागी-योगी सिद्धेश्वर,
उन्हीं प्रवर से सीखें
ली हैं हम लोगों ने
विगत जाति-कुल से।"
यद्यपि उन मधुपुष्प शब्दों पर बैठकर
शान्त हुए द्विज-भ्रमर,
फिर भी बर्र जैसे एक गूँजते ही रह गये—

 

राजा हैं ब्राह्मण, मैं
ब्राह्मण-विद्वेष की कथा उनसे कहूँगा,
उन्हीं के साथ यह श्रेष्ठ राजकर्मचारी
बैठकर जेयेंगे—
देखेंगे हमलोग।"
कहकर वह उठने लगे।
एक दूसरे ने कहा,
"रसगुल्ले आ रहे हैं,
अभी कहाँ जाते हैं?
कटु हुई है जिह्वा, मीठी कर लीजिए।"
वह पश्चिमीय भी बैठा था चुपचाप।
उठने को काँप कर बैठे रहे द्विजदेव।
भोजन अधूरा ही छोड़कर स्वामी जी
उठ कर खड़े हुए।
बढ़ते हुए कहा यह, “होगा हमारा भी कोई
अपना समझदार, समझायेगा वही
ऐसे विद्वानों को।"
द्विज भी खड़े हुए,

 

पश्चिमीय की तरफ उँगली उठाई, कहा,
"ऐसा भी आदमी पंक्ति में बैठाला गया
जिसके माँ-बाप का पता आज तक न लगा,
घोर कलिकाल है!"
स्वामी जी ने कहा,
"ऐसे कलिकाल में
रामकृष्ण आये हैं, स्वामी श्री विवेकानन्द
ऐसे ही जनों के परमबन्धु हो गये।
पता उन्हीं का रहा, कुछ पता नहीं था जिनका,
म्लेच्छ और दुराचारी जो लोग कहलाते रहे।"
राजकर्मचारी ने
हाथ जोड़कर कहा,
"आपके बैठे बिना
लोग उठ जायँगे,
यज्ञ अधूरा होगा।"
स्वामी जी ने कहा, "इसी युवक को पहले
लाकर परोसो अन्न-मिष्टान्न जो कुछ हो
भोजन-समाप्ति का,

 

यहीं से प्रारम्भ इस भोजन का होता है,
पायेंगे प्रसाद सभी।"
मेघमन्द्र कण्ठ से स्तम्भित सब हो गये।
बैठ गये स्वामी जी।
मिष्टान्न लाया गया,
पहले परोसा गया युवक को विनय से।
दबे हुए चुपचाप
समय के प्रभाव से
आमन्त्रित बैठे रहे,
मिष्टान्न खाया स्वाद साधुता का लेते हुए।
खुल गये प्राण सब,
गगन में जैसे तारे
चमके आमन्त्रित जन।
साधुभोज पूर्ण हुआ।
प्रातःकाल सभा हुई।
स्थानीय जन समवेत हुए प्रेम से
रामकृष्ण और श्रीविवेकानन्द की बातें
स्वामी प्रेमानन्दजी के मुख से सुनने के लिए।

 

राजकर्मचारीजी सबसे विद्वान थे—
आदरणीय, राज्य के प्रधानामात्य-पद पर;
उन्हीं ने सभापति का आसन सुशोभित किया।
बग़ल में श्रीस्वामीजी की कुरसी रक्खी गई।
समागत सभ्य विद्वानों के व्याख्यान हुए
श्रीमद्रामकृष्ण परमहंस देव पर, कोई
स्वामी श्रीविवेकानन्द जी के विषय पर बोले,
आधुनिक धर्म, त्याग,
जाति का उत्थान, प्रेम,
सेवा, देश-नायकता,
भारत और विश्व जैसी गहन समस्या लेकर।
एक ब्रह्मचारी ने
स्वामी श्रीविवेकानन्दजी की 'वीरवाणी' से
'सखा के प्रति' विशिष्ट पद्य की आवृत्ति की।
स्वामीजी से बोलने के लिए प्रार्थना हुई।
जनता उदग्रीव देखती थी वह पवित्र मुख।
स्वामीजी खड़े हुए,
कहा, "हम सेवक हैं,

 

आप लोग आमुख हैं सब विद्या के,
बोलेंगे; हममें जो श्रेष्ठ श्रुतिधर थे—विवेकानन्द
जानता है विश्व उन्हें—
जनता के अर्थ वे
सब कुछ कह गये हैं,
सिर्फ़ काम करना है;
फिर भी हम बोलते हैं लोगों के आग्रह से
सांसारिक धर्म पर
सर्वश्रेष्ट जो है जैसा ऋषिमुनियों ने कहा है।
एक दिन विष्णुजी के पास गये नारद जी,
पूछा, मर्त्यलोक में वह कौन है पुण्यश्लोक
भक्त तुम्हारा प्रधान?
विष्णुजी ने कहा, 'एक सज्जन किसान है,
प्राणों से प्रियतम।'
नारद ने कहा, 'मैं
उसकी परीक्षा लूँगा।' हँसे विष्णु—सुनकर यह,
कहा कि ले सकते हो।
नारद जी चल दिये,

 

पहुँचे भक्त़ के यहाँ,
देखा हल जोत कर आया वह दुपहर को;
दरवाज़े पहुँचकर रामजी का नाम लिया;
स्नान-भोजन करके
फिर चला गया काम पर।
शाम को आया दरवाज़े, फिर नाम लिया
प्रातःकाल चलते समय
एक बार फिर उसने
मधुर नाम स्मरण किया।
बस केवल तीन बार;
नारद चकरा गये।—
दिवारात्र जपते हैं नाम ऋषि-मुनिलोग
किन्तु भगवान को किसान ही यह याद आया।
गये वह विष्णुलोक,
बोले भगवान से,
देखा किसान को,
दिन भर में तीन बार
नाम उसने लिया है।'

 

बोले विष्णु, 'नारद जी,
आवश्यक दूसरा
काम एक आया है,
तुम्हें छोड़कर कोई
और नहीं कर सकता।
साधारण विषय यह।
बाद को विवाद होगा;
तब तक यह आवश्यक कार्य पूरा कीजिए।
तैल-पूर्ण पात्र यह,
लेकर प्रदक्षिण कर आइए भूमण्डल को;
ध्यान रहे सविशेष,
एक बूँद भी इससे
तेल न गिरने पाये।'
लेकर चले नारदजी,
आज्ञा पर धृतलक्ष्य—
एक बूँद तेल उस पात्र से गिरे नहीं।
योगिराज जल्द ही
विश्व-पर्यटन करके

 

लौटे वैकुण्ठ को,
तेल एक बूँद भी उस पात्र से गिरा नहीं।
उल्लास मन में भरा था
यह सोच कर, तैल का रहस्य एक
अवगत होगा नया।'
नारद को देखकर
विष्णु भगवान ने
बैठाला स्नेह से,
कहा, 'यह उत्तर तुम्हारा यहाँ आ गया।
बतलाओ, पात्र लेकर जाते समय कितने बार
नाम इष्ट का लिया?'
'एक बार भी नहीं',
शङ्कित हृदय से कहा नारद ने विष्णु से,
'काम तुम्हारा ही था,
ध्यान उसी से लगा,
नाम फिर क्या लेता और?'
विष्णु ने कहा, 'नारद',
'उस किसान का भी काम

 

मेरा दिया हुआ है,
उत्तरदायित्व कई लादे हैं एक साथ,
सबको निभाता और
काम करता हुआ
नाम भी वह लेता है,
इसी से है प्रियतम।'
नारद लज्जित हुए,
कहा, यह सत्य है।"
व्याख्यान पूरा हुआ,
स्वामीजी बैठे, स्तब्ध
सभा रञ्जित हुई,
धार्मिक आभास मिला।
स्वामीजी ने कहा चीफ़ मैनेजर साहब से,
'कोई दर्शनीय स्थान हो तो हमें दिखा दो।'
'राजा के गढ़ के मध्य
मन्दिर है कृष्णजी का,
बहुत ही सुन्दर स्थल,
सन्ध्या की आरती के समय साथ चलेंगे,'

 

मैनेजर ने कहा,
'यों तो प्रासाद तथा और और दृश्य हैं,
किन्तु व्यर्थ आपके लिए है यह देखना।
स्नान, ध्यान, भोजन, आराम के अनन्तर
सब लोग तैयार हुए
कृष्णजी के दर्शन को,
राजगढ़ के अभ्यन्तर।
स्वामीजी, तीन ब्रह्मचारी, मैनेजर साहब
चले, पश्चिमीय वह युवक भी साथ हुआ।
तीन मील घेर कर गहरी एक नहर सी
परिखा है चारों ओर से गढ़ को डालकर
अपने में वेष्टनी-सी।
पश्चिम में सिंहद्वार,
परिखा के पुल के बाद।
सीधा रास्ता गया। दोनों ओर बड़े बड़े
स्वच्छ जलाशय हैं।
समतल किये हुए
सरोवर-तटोद्यान के। दूब जमाई हुई।

थालियाँ ऋतुपुष्पों की, लाल पीले नीले ज़र्द
मिश्र रंगों की बहार तृप्त करती हुई नयन,
बेंचें पड़ी हुई,
सरोवर-जल-स्पृष्ट हवा स्निग्ध आती हुई,
रास्ते के दोनों ओर बटम-पाम की क़तारें,
दोनों ओर सरोवर, काफ़ी भूमि छोड़कर,
दो-दो, चार; दांई ओर मध्य से गई है राह
कृष्णजी के मन्दिर को, बीच से दो सरों के।
हरियाली दूब की, जल की लघु नीलिमा,
बटम-पामों की छाया छत्राकृति दूर तक,
ऋतुपुष्पों की शोभा, देवदार, हींग और
इलायची-अशोक जैसे
क़ीमती वृक्षों की छटा
मुग्ध कर लेती है मन को क्षण मात्र में
जल की लहरियों से खेलता है समीरण।
एक राह और राज-भवन से गई हुई।
बीच में, तालाबों के खत्म होते एक और
ड्योढ़ी पड़ती है बड़ी,

बाद को प्रासाद है,—
ड्योढ़ी से दिखता हुआ,
शोभन विशालकाय,
उद्यानों में बना,
चीफ़ मैनेजर साहब उसीसे लेकर चले।
ड्योढ़ी पर सन्तरी खड़ा हुआ,
सिंहद्वार पर जैसा,
जिसको ये पारकर यहाँ आकर पहुँचे हैं,
राजप्रासाद का सन्तरी दिख रहा है
दीर्घ इस ड्योढ़ी के बहुत ऊँचे फाटक से;
सङ्गमारवर के सोपान उसके प्रायः बीस,
बहुत लम्बे-लम्बे, एक-मंज़िले तक ऊँचा-चढ़े;
दोनों ओर तोपें लगीं, बैठे, सिंह भीमकाय
सोने के पानी के चढ़े, दोनों ओर पत्थरों पर;
दोनों ओर बटम पाम, एक एक, बड़े बड़े;
खुला बड़ा बरामदा, संग-मारवर और
संग मूसे का बना, पत्थर चौकोर क्रम
क्रम से लगे हुए,

ऊँची ऊँची रेलिङ्ग और बड़े बड़े दरवाज़े
दुहरे; एक, शीशे का; भवन विशालकाय;
मन्द पवन बहता हुआ;
रातरानी की सुगन्ध पाती हुई भीनी भीनी ।
सन्तरी ने चीफ़ मैनेजर को सलाम किया
और विनय से कहा,
"महाराज का है हुक्म,
आप ही अकेले इस मार्ग से जा सकते हैं;
दूसरों के लिए जब तक
कोई हुक्म नहीं होगा,
छोड़ नहीं सकता मैं।
दृसरों के लिए मार्ग उधर से है जाने का।"
अब तक वह ब्राह्मण
जो भोज में गरमाये थे,
वाहर आये, कहा,
"महाराज उतर आये हैं,
इतना सम्मान परमहंस देवजी के लिए
उनके हृदय में है,

लेकिन अपमानकारी इन स्वामीजी के लिए
जो कि उस आश्रम के
एक कायस्थ हैं,
उचित व्यवस्था वह मन्दिर में करेंगे
दर्शन दिलाते समय।"
एक साधारण कर्मचारी की बात सुनकर
मैनेजर साहव सन्नाटे में आ गये,
कहा, "यह आये हैं
इतना ही बहुत है,
और तुम्हें कौन समझायेगा यह कौन हैं,
कौन हैं विवेकानन्द।"
सम्वाददाता ने कहा,
"महाराज का कहना जैसा था, मैंने किया,
आप जैसा कहेंगे,
चल कर उनसे कहूँगा;
फिर उत्तर ला दूँगा।
खड़े रहिए ज़रा देर,
क्योंकि वह खड़े हैं।"

कहकर चले गये,
कुछ देर बाद आये,
कहा, "महाराज की
आशा नहीं ली गई;
आपको मालूम है,
सिंहद्वार से इधर
कोई अजनबी कभी
पैर नहीं रख सकता;
आप यहाँ आ गये,
फिर भी खामोश हैं,
राजा के सिपाही लोग।"
इससे बड़ा अपमान
दूसरा नहीं होता।
जैसे शिव गरल को
पीकर, स्वामीजी बोले
"देव-दर्शन के लिए
हुक्म लिया जाता है;
हमें नहीं ज्ञात था।"

ब्रह्मदेव ने कहा,
"देवता राजा के हैं, नहीं किसी प्रजा के।"
तमतमा उठे स्वामी,
किन्तु धैर्य से रहे, पूरी बात सुनने को।
ब्राह्मणजी कहते गये,
"चीफ़ मैनेजर साहब,
राजा यहाँ वही हैं
जिनके दर्शन के लिए जा रहे हैं आप लोग;
यह तो बतलाएँ, अपमान किसका किया था?"
मैनेजर स्वामीजी को बात समझाने लगे—
"कृष्णजी ही राज्य के राजा कहे जाते हैं
मुहर में उन्हीं की छाप चलती है यहाँ,
उत्तराधिकारी ये लोग कहे जाते हैं।"
स्वामीजी मुस्कराये,
सीधे स्वर से कहा,
"क्या वह भी ब्राह्मण थे,
जिसका इन्हें गर्व था।"
झेंप गये ब्रह्मदेव,

कहा, "महाराज ने आर यह कहा है—
नंगेपन के उत्तर में अपने गुरुदेव को
नंगे वावाजी को हम पेश यहाँ करते हैं।
स्वामीजी ने कहा,
"परमहंसदेव भी नंगे हो जाते थे।
गुरु सब एक हैं,
साधु अपमान नहीं करता, सह लेता है।"
चीफ़ मैनेजर को गहरा धक्का लगा।
ब्रह्मदेव कहने लगे—
"आप हैं सर्वश्रेष्ट राजकर्मचारी, तभी
हल्की-हल्की सज़ा का विधान किया गया है
आप हों या स्वामीजी, एक ही महज्जन
इस मार्ग से जायँगे, अन्य जन घूमकर।
पश्चिमीय के लिए सदा का निषेध रहा
मन्दिर-प्रवेश में।"
काँप उठे स्वामीजी,
"इसलिए नहीं आये"
कहा, "कभी दर्शन भी

किये नहीं जैसे, हम
साधु हैं।" शरीर से
ज्वाला सी निकली, ज्यों
ग्रास ही कर जाने को,
ब्रह्मदेव तड़ित से स्तम्भित से हो गये
देखा, श्रीकृष्णजी स्वामीजी में आ गये
ब्राह्मण को अपने नेत्रों पर हुआ अविश्वास।
रगड़कर फिर से देखा, कृष्णजी की नीलकान्ति
ज्योतिर्मयी घनीभूत स्वामीजी की देह में।
आनन्द के परमाणुओं का फ़व्वारा छुटा।
जितने जन थे जैसे उमड़े आनन्द हों।
देखा ब्रह्मदेव ने, ज्योति की सी रेखा से
स्वामीजी के साथ पश्चिमीय का शरीर बँधा
पागलसा हुआ वह भागा यह कहता हुआ।
"वाह वाह, ऐसा अच्छा आजतक नहीं देखा।"
कहता दौड़ता हुआ राजा के समीप गया
सुनते ही महाराज अभिभूत हो गये।
फिर भेजा ब्राह्मण को

सादर ले चलने के लिए कृष्ण-मन्दिर में
उसी राह स्वामी को।
स्वामीजी ने कहा,
"साधारण के ही हैं हम
घूमकर जायँगे,
हमें यही खुशी है।"
अस्तु घूमकर गये।
दोनों और नौवतखाने।
चत्वर संगमारवर का।
दोनों ओर दिव्य मन्दिर।
सामने विशालकाय मन्दिर में कृष्णजी
स्वर्ण-भूषणों से सजे।
देखकर द्वारकाधोश कृष्ण याद आ गये।
पश्चिमीय जन वह मन्दिर के बाहर रहा।
स्वामीजी ने चलते समय कहा कि मैं वही हूँ
बाहर खड़ा है जो।"
लोटे जब स्वामीजी
साथ युवक हो गया मन्त्र-मुग्ध प्रेम से।
वासना से मुह फेरा, सदा को चला गया।

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