अतीत-स्मृति/८ विक्रम-संवत्

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८-विक्रम-संवत्

हमारे समान इतर साधारण जनों का विश्वास है कि प्रसिद्ध राजा विक्रमादित्य मालवा देश के अधीश्वर थे। धारा नगरी उनकी राजधानी थी। विद्वानों और कवियो के वे बड़े भारी आश्रयदाता थे। स्वयं भी कवि थे। शकों, अर्थात् सीदियन ग्रीक लोगों, को उन्होने बहुत बड़ी हार दी थी। इसीसे वे शकारि कहलाते है। इसी जोति के उपलक्ष्य में उन्होंने अपना संवत् चलाया, जिसे १९६७ वर्ष हुए। इस हिसाब से विक्रमादित्य का समय ईसा के ५७ वर्ष पहले सिद्ध होता है।

परन्तु इस परम्परा-प्राप्त जनश्रुति या विश्वास को कितने ही प्रन्त्र-विद्या-विशारद विश्वसनीय नहीं समझते। डाक्टर फ्लोट, हानर्ली, कोलहार्न, बूलर और फ़र्गुसन आदि विदेशी और डाक्टर भाण्डारकर, भाऊ दाजी आदि स्वदेशी विद्वान ऐसे ही विद्या-विशारदो की कक्षा के अन्तर्गत हैं। इस अविश्वसनीयता का कारण सुनिए-

डाक्टर कोलहान के मन मे, नाना कारणों से, विक्रम-संवत् के विषय में एक कल्पना उत्पन्न हुई। इस बात को हुए कई वर्ष हुए। उन्होंने एक लम्बा लेख लिखा। वह "इंडियन एंटिक्वेरी" के कई अंकों में लगातार प्रकाशित हुआ। उसमें उन्होंने यह सिद्ध [ ७५ ] करने की चेष्टा को कि इस संवत् का जो नाम इस समय है वह आरम्भ मे न था पहले वह मालव-संवत् के नाम से उल्लिखित होता था। अनेक शिलालेखो और ताम्र-पत्रो के आधार पर उन्होने यह दिखाया कि ईसा के सातवें शतक के पहले लेखो और पत्रो मे इस संवत् का नाम मालवसंवत् पाया जाता है। उनमे अंकित 'मालवानां गणस्थित्या' पद का अर्थ उन्होने लगाया-मालव-देश की गणना का क्रम। और यह अर्थ ठीक भी है। कोलहान की इस गवेषणा का निष्कर्ष निकला कि सातवे शतक के बाद विक्रम-संवत् का नाम मिलता है, उसके पहले नहीं। पहले वो "मालवानां गणस्थित्या" की सब कही दुहाई है। अच्छा तो इस मालव-संवत् का नाम विक्रम संवत् किसने कर दिया, कब किया और किस कारण किया। डाक्टर कोलहान का कथन है कि ईसा के छठे शतक मे यशोधम्मेन नाम का एक प्रतापी राजा मालवा में राज्य करता था। उसका दूसरा नाम हर्षवर्धन था। उसने ५४४ ईसवी मे हूणों के राजा मिहिरकुल को मुलतान के पास, करूर मे, परास्त करके हूणो को बिलकुल ही तहस-नहस कर डाला। उनके प्रभुत्व और बल का उसने प्रायः समूल उन्मूलन कर दिया। इस जीत के कारण उसने विक्रमादित्य-उपाधि ग्रहण की। तब से उसका नाम हर्षवर्धन विक्रमादित्य पड़ा। इसी जीत की खुशी मे उसने पुराने प्रचलित मालव-संवत् का नाम बदल कर अपनी उपाधि के अनुसार उसे विक्रम संवत् कहे जाने की घोषणा की। साथ ही उसने एक बात और भी [ ७६ ]
की। उसने कहा, इस संवत को ६०० वर्ष का पुराना मान लेना चाहिए, क्योंकि नये किंवा दो तीन वर्ष के पुराने संवत् का उतना आदर न होगा। इसलिए उसने ५४४ में ५६ जोड़कर ६०० किये। . इस तरह उसने इस विक्रम-संवत् की उत्पत्ति ईसा के ५६ या ५७ वर्ष पहले मान लेने की आज्ञा लोगों को दी।

इस कल्पना के आधार पर विक्रमादित्य ईसा की छठी शताब्दी में हुए माने जाने लगे और उसके साथ महाकवि कालिदास भी खिंचकर ६०० वर्ष इधर आ पड़े। इस कल्पना के सम्बन्ध में आज तक सैकड़ों लेख लिखे गये हैं। कोई इसे ठीक मानता है, कोई नहीं मानता। कोई इसके कुछ अशों को ठीक समझता है, कोई कुछ को।

डाक्टर कीलहार्न तो इस कल्पना के जनक ही ठहरे। डाक्टर हानेली भी इसे मानते हैं। विन्सेंट स्मिथ साहब और डाक्टर भाण्डारकर कहते हैं कि मालव-संवत् का नाम विक्रम-संवत् में बदल जरूर गया, पर बदलने वाला गुप्तवंशी राजा चन्द्रगुप्त प्रथम था। डाक्टर फ्लीट का मत है कि विक्रम-संवत् का चलाने वाला राजा कनिष्क था। इसी तरह ये विद्वान् अपनी अपनी हॉकते है। एक मत होकर सब ने किसी एक कल्पना को निर्भ्रान्त नहीं माना और न इस बात के माने जाने के अब तक कोई लक्षण ही देख पड़ते हैं।

राय बहादुर सी० पी० वैद्य, एम० ए०, एल०-एल० बी० ने इस विषय में एक बहुत ही युक्तिपूर्ण लेख लिखा है। उनका लेख [ ७७ ]प्रकाशित हुए कुछ समय हुआ। उन्होंने पूर्वोक्त कल्पनाओं को निःसार सिद्ध करके यह दिखलाया है कि विक्रमादित्य नाम का एक राजा ईसा के ५७ वर्ष पहले जरूर था। उसने अपने नाम से यह संवत् चलाया। हमने इस विषय के जितने लेख पढ़े है सब मे वैद्य महाशय का लेख हमें अधिक मनोनीति हुआ और अधिक प्रमाण तथा युक्तिपूर्ण भी मालूम हुआ। अतएव उनके कथन का सारांश हम नीचे देते है।

इस संवत् के सम्बन्ध में जितने वाद-विवाद और प्रतिवाद हुए है, सब का कारण डाक्टर कीलहार्न का पूर्वोक्त लेख है। यदि वे यह साबित करने की चेष्टा न करते कि मालव-संवत् का नाम पीछे से विक्रम संवत् हो गया तो पुरातत्ववेत्ता इस बात की खोज के लिए आकाश-पाताल एक न कर देते कि इस संवत्सर का नाम किसने बदला, क्यों बदला और कब बदला। जिन लेखों और ताम्र-पत्रों के आधार पर डाक्टर साहब ने पूर्वोक्त कल्पना की है उनके अस्तित्व और प्रमाणिकत्व के विषय में किसी को कुछ संदेह नही। सन्देह इस बात पर है कि पुराने जमाने के शिलालेखों और ताम्र-पत्रो मे "मालवानां गणस्थित्या" होने ही से क्या यह सिद्ध माना जा सकता है कि इस संवत् का कोई दूसरा नाम न था? इसका कोई प्रमाण नहीं कि जिस समय के ये लेख और पत्र हैं उस समय के कोई और लेख या पत्र कहीं छिपे हुए नहीं पड़े जिनमें यही संवत् विक्रमसंवत् के नाम से उल्लिखित हो? इस देश की सारी पृथ्वी तो छान डाली गई [ ७८ ] नहीं और न सारे पुराने मकान, मन्दिर, खंडहर आदि ही ढूँढ़ डाले गये। इस संवत् के प्रचारक मालवा देशवासी हो, सकते हैं। पर इससे क्या यह अर्थ निकाला जा सकता है कि मालवा के किसी एक मनुष्य ने किसी घटना विशेष के उपलक्ष्य में यह संवत् नही चलाया? यह कोई असंभव बात तो मालूम होती नहीं। देश वासियों के नाम से प्रसिद्ध हुआ संवत् भी किसी विशेष पुरुष के द्वारा, किसी बहुत बड़े काम की यादगार में चलाया जा सकता है। रोमन संवत् रोम-निवासियों के नाम से प्रसिद्ध है। परन्तु वह रोम-नगर की नींव डालने की घटना-विशेष की यादगार में चलाया गया था। इसी तरह मालव-संवत् का भी किसी एक मनुष्य के द्वारा, किसी विशेष घटना के कारण, चलाया जाना सर्वथा संभव है। मालवा में मालव लोग बहुत पुराने जमाने से रहते थे। गौतम बुद्ध के समय से तो उनका नाम-निर्देश साफ तौर पर किया जाता ह पर उस जमाने में मालव-संवत् का प्रचार न था । उसका अस्तित्व ही न था। इस संवत् की उत्पत्ति ईसा के ५७ वर्ष पहले हुई मानी जाती है। इससे यह देखना चाहिये कि उस समय मालवा में कोई बहुत बड़ी घटना हुई थी या नहीं और विक्रमादित्य नाम का कोई राजा वहाँ था या नहीं।

जिन ताम्र-पत्रों के आधार पर डाक्टर कोलहार्न ने अपने कल्पना का मन्दिर खड़ा किया है उनमे से एक बहुत पुराने पत्र में 'मालवेश' शब्द आया है। यह शब्द इसी मालव-संवत् के सम्बन्ध में है। इससे यह सूचित है कि इसमें संवत्सर के प्रवर्तक [ ७९ ] राजा का नाम नहीं है। तथापि वह संवत् किसी राजा का चलाया हुआ ज़रूर है। यह नहीं कह जा सकता कि इस ताम्र-पत्र के खोदने या खुदवाने वालों को इस राजा का नाम न मालूम था। जैसे शक-संवत् का प्रयोग करने वाले उसके प्रवर्तक का नाम सदा नहीं देते वैसे ही, जान पड़ता है, इस संवत् के प्रवर्तक का नाम उन पुराने शिलालेखो और ताम्रपत्रो मे नही दिया गया, केवल मालव-संवत् या मालवेश-संवत् दिया गया है। पर इससे यह कहां सिद्ध होता है कि इसका प्रवर्तक काई राजा या पुरुष-विशेष न था। मालव-निवासियों के एक देश या स्थान छोड़ कर अन्य देश या स्थान में जा बसने की किसी घटना का कुछ पता नहीं। न उनके किसी प्रसिद्ध नगर या इमारत बनाने की किसी घटना का कहीं कोई उल्लेख है। न उनके द्वारा की गई किसी और ही बड़ी बात का कोई प्रमाण है। फिर मालव निवासियों के द्वारा इस संवत् का चलाया जाना क्यो माना जाय? 'मालवेश' का अर्थ क्या मालव-देश के राजा के सिवा और कुछ हो सकता है?

जरा देर के लिए मान लीजिये कि उसका आदिम नाम मालव संवत् ही था। अच्छा तो इस नाम को बदल कर कोई विक्रम संवत् करेगा क्यो? कोई भी समझदार आदमी दूसरे की चीज का उल्लेख अपने नाम से नहीं करता। किसी विजेता राजा के दूसरे के चलाये संवत् को अपना कहने मे क्या कुछ भी लज्जा न मालूम होगी? वह अपना एक नया संवत् सहज ही मे चला सकता है। किसी के संवत् का नाम बदल कर उसे अपने नाम से [ ८० ] चलाना और फिर उसे ६०० वर्ष पीछे फेंक देना बड़ी ही अस्वाभाविक बात है। भारतवर्ष का इतिहास देखने से मालूम होता है कि जितने विजेता राजों ने संवत् चलाया, सब ने नया संवत्, अपने ही नाम से, चलाया है। पुराणों और भारतवर्ष की राज नीति-सम्बन्धिनी प्राचीन पुस्तकों में इस बात की साफ आज्ञा है कि बड़े बड़े नामी और विजयी नरेशों को अपना नया संवत् चलाना चाहिए। युधिष्ठिर, कनिष्क, शालिवाहन और श्रीहर्ष आदि ने इस आज्ञा का पालन किया है। शिवाजी तक ने अपना संवत् अलग चलाने की चेष्टा की है। अतएव दूसरे के संवत् को अपना बनाने की कल्पना हास्यास्पद और सर्वथा अस्वाभाविक है। अपना संवत् चलाने की अपेक्षा दूसरे के संवत् को अपना बनाना बहुत कठिन है। संवत् चलाने वाले का एक मात्र उद्देश यह रहता है कि उसके द्वारा उसका नाम चले और जिस उपलक्ष्य में संवत् चलाया गया हो उसकी याद लोगों को बनी रहे। साथ ही उस स्मरणीय घटना का काल भी लोगों को न भूले। इन सब बातों पर ध्यान देने से यही कहना पड़ता है कि जो विद्वान यशोधर्मन् को मालव-संवत् का नाम बदलने वाला समझते हैं, उन्होंने बिना पूर्वापर विचार किये ही ऐसा समझ रखा है।

डाक्टर भाण्डारकार कहते हैं कि गुप्तवंशी राजा प्रथम चन्द्रगुप्त ने पहले पहल अपना नाम विक्रमादित्य रक्खा और उसी ने मालव-संवत् का नाम, अपने नामानुसार, बदल कर विक्रम-संवत् कर दिया। परन्तु इस बात पर विश्वास नहीं होता, इसलिए कि [ ८१ ] गुप्तवंशी राजो ने अपना संवत् प्रथम चन्द्रगुप्त के बहुत पहले ही चला दिया था। अतएव अपने पूर्वजो के चलाये हुए संवत् का तिरस्कार करके मालव-देश के संवत् को चन्द्रगुप्त क्यो अपने नाम से चलाने लगा। फिर एक बात और भी है। चन्द्रगुप्त के सौ वर्ष पीछे के ताम्रपत्रो में भी मालव-संवत् का उल्लेख मिलता है। यदि चन्द्रगुप्त उसका नाम बदल देता तो फिर क्यो कोई मालव-सवत् का उल्लेख करता। अतएव इस तरह की कल्पना विश्वास योग्य नहीं।

यशोधर्म्मन् का जो एक शासनपत्र मिला है उसमें उस बेचारे ने न तो कोई संवत् चलाने की बात कही है, न विक्रमादित्य-उपाधि ग्रहण करने ही की बात कही है, और न मालव-संवत् का नाम बदलने ही की चर्चा की है। उसने सिर्फ इतनी बात कही है कि मेरे राज्य का विस्तार गुप्त-नरेशो के राज्य-विस्तार से अधिक है। वह गुप्त-नरेशो के प्रभुत्व को अपने प्रभुत्व से बहुत अधिक समझता था। इसीलिए उसने इस शासनपत्र द्वारा यह सूचित किया कि अब मेरा राज्य गुप्तों के राज्य से कम नही, किन्तु अधिक है। अर्थात् अब मै उनसे भी बड़ा राजा हूं। यदि उसने मालव- संवत् का नाम विक्रम-संवत् मे बदला होता तो वह इस बात को ज़रूर कहता कि गुप्तो की तरह मैने भी संवत् चलाया है। परन्तु उसने यह कुछ भी नहीं किया। अतएव यह युक्ति, यह तर्कना, यह कल्पना भी सब तरह निःसार जान पड़ती है।

यहाँ तक जिन बातो का विचार हुआ उससे यही मालूम

[ ८२ ] होता है कि ईसा के ५७ वर्ष पहले विक्रमादित्य नाम का कोई राजा ज़रूर था। उसीने विक्रम संवत चलाया। वह मालव-देश का राजा था इसीलिए शुरू शुरू के शिलालेखों और ताम्रपत्रों में यह संवत् मालव-संवत् के नाम से भी अभिहित हुआ है। अब यदि उस समय विक्रमादित्य के अस्तित्व का कोई प्रमाण मिल जाय तो उसके विषय में की गई बहुत सी शंकाओं के लिए जगह ही न रहे।

पुरातत्ववेत्ता ईसा के पूर्व पहले शतक में किसी विक्रमादित्य का होना मानने में बेतरह संकोच करते है। इसलिए कि उस समय का न तो कोई ऐसा सिक्का ही मिला है जिसमे उस राजा का नाम हो, न कोई शिलालेख ही मिला है, न कोई ताम्रपत्र ही मिला है। परन्तु उनकी यह युक्ति बड़ी ही निर्बल है। तत्कालीन प्राचीन इतिहास में उस राजा के नाम का न मिलना उसके अनस्तित्व का बोधक नहीं माना जा सकता। पुराने जमाने के सारे ऐतिहासिक लेख प्राप्त हैं कहाँ? यदि वे सब प्राप्त हो जाते और उनमे विक्रमादित्य का नाम न मिलता तो ऐसी शङ्का हो सकती थी। पर बात ऐसी नहीं है। विक्रमादित्य का नाम ज़रूर मिलता है। दक्षिण में शालवाहन-वंशीय हाल नामक एक राजा हो गया है। विन्सेंट स्मिथ साहब ने उसका समय ६८ ईसवी निश्चित किया है। इस हाल ने गाथा-शप्तशती नाम की एक पुस्तक प्राचीन महाराष्ट्र भाषा में लिखी है। उसके पैसठवें पद्य का संस्कृत-रूपान्तर इस प्रकार है[ ८३ ]

सवाहनसुखरसतोषितेन ददता तव करे लक्षम्।
चरणेन विक्रमादित्यचरितमनुशिक्षितं तस्याः॥

इस पद्य में विक्रमादित्य की उदारता का वर्णन है। उसके द्वारा एक लाख रुपये दिये जाने का उल्लेख है। इससे इस बात का पूरा प्रमाण मिलता है कि हाल-नरेश के पहले विक्रमादित्य नाम का दानशील राजा कोई ज़रूर था। अब इस बात का विचार करना है कि इस राजा ने शकों का पराभव किया था या नहीं? इसका शकारि होना यथार्थ है या अयथार्थ?

डाक्टर हार्नली और कीलहार्न आदि का ख्याल है कि मुल्तान के पास करूर में यशोधर्म्मन् ही ने मिहिरकुल को, ५४४ ईसवी मे, परास्त किया था। पर इसका कोई प्रमाण नहीं। यह सिर्फ इन विद्वानों का ख़याली पुलाव है, और कुछ नहीं। उन्होंने अल्वेरूनी के लेखो का जो प्रमाण दिया है उनसे यह बात कदापि सिद्ध नहीं होती। अल्वेरुनी के लेख का पूर्वापर-विचार करने से यह मालूम होता है कि उसके मत से पूर्वोक्त करूर का युद्ध ५४४ ईसवी के बहुत पहिले हुआ था। अतएव इस बात को मान लेने में कोई बाधा नहीं कि विक्रमादित्य ही ने इस युद्ध मे शको को परास्त किया था। इस विजय के कारण वह शकारि नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसी समय से और इसी उपलक्ष्य में उसने अपने नाम से विक्रम-संवत् चलाया। यह जीत बहुत बड़ी थी। इसी कारण इसके अनन्तर शको और अन्यान्य म्लेच्छो का पराभव करने वाले राजों ने विक्रमादित्य उपाधि [ ८४ ] धारण करना अपने लिए गर्व की बात समझा। तब से विक्रमादित्य एक प्रकार की उपाधि या पदवी हो गई।

कल्हण ने राजतरंगिणी में विक्रमादित्य-विषयक भूलें की हैं। हर्ष-विक्रमादित्य और शकारि-विक्रमादित्य, दोनों को गड्डमड्ड कर दिया है। डाक्टर स्टीन आदि विद्वानों ने इस बात को अच्छी तरह सिद्ध करके दिखा दिया है। पुरातत्व पंडित कल्हण की इन भूलों को बिना किसी सोच विचार के भूलें कहते हैं। कल्हण के वर्णन से स्पष्ट है कि काश्मीर के इतिहास का सम्बन्ध दो विक्रमादित्यों से रहा है। एक मातृगुप्त को भेजने वाले हर्ष विक्रमादित्य से, दूसरे प्रतापादित्य के सम्बन्धी शकारि विक्रमादित्य से। इनमे से हर्ष-विक्रमादित्य ईसा की छठी शताब्दी के प्रथमार्द्ध में विद्यमान था। रहा शकारि विक्रमादित्य। सो वह हाल की सप्तशती में वर्णन किये गये विक्रमादित्य के सिवा और कोई नहीं हो सकता। ईसा के पूर्व, प्रथम शतक में, शको का पराभव करने वाला वही था। इसका एक और प्रमाण लीजिए:-

विन्सेट स्मिथ साहब ने अपने प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास मे लिखा है कि शक जाति के म्लेच्छों ने ईसा के कोई १५० वर्ष पहले उत्तर-पश्चिमाञ्चल से इस देश मे प्रवेश किया। उनकी दो शाखायें हो गई। एक शाखा के शको ने तक्षशिला और मथुरा में अपना अधिकार जमाया और क्षत्रप नाम से प्रसिद्ध हुए। उनके सिक्कों से उनका पता ईसा के १०० वर्ष पहले तक चलता है। उसके पीछे उनके अस्तित्व का कहीं पता नहीं लगता। दूसरी [ ८५ ] शाखा वालो ने ईसा की पहली शताब्दी में काठियावाड़ को अपने अधिकार में किया। धीरे धीरे इन लोगो ने उज्जैन को भी अपने अधीन कर लिया। इन्हे गुप्तवंशी राजो ने हरा कर उत्तर की ओर भगा दिया। अच्छा, तो इनके पराभवकर्ता तो गुप्त हुए। पहली शाखा के शकों का विनाश किसने साधन किया। क्या बिना किसी के निकाले ही वे इस देश से चले गये? अपना राज अपना अधिकार-क्या कोई यों ही छोड़ देता है? उनका पता पीछे से ऐतिहासिक लेखो से चलता क्यों नहीं? इसका क्या इसके सिवा और कोई उत्तर हो सकता है कि ईसा के ५७ वर्ष पहले विक्रमादित्य हो ने उन्हें नष्ट-विनष्ट करके इस देश से निकाल दिया? इसी विजय के कारण उसको शकारि-उपाधि मिली और संवत् भी इसी घटना की याद में उसने चलाया। मुल्तान के पास करूर वाला युद्ध इन्ही तक्षशिला और मथुरा के शको और विक्रमादित्य के मध्य हुआ था। इसके सिवा इसका अब और क्या प्रमाण चाहिए?

इस पर भी शायद कोई यह कहे कि यह सब सही है। पर कोई पुराना शिलालेख लाओ, कोई पुराना सिक्का लाओ, कोई पुराना ताम्रपत्र लाओ जिसमे विक्रम-संवत् का उल्लेख हो। तब हम आप की बात मानेंगे, अन्यथा नहीं। खुशी की बात है कि इस तरह का एक प्राचीन लेख भी मिला है। वह पेशावर के पास तख्तेवाही नामक स्थान में प्राप्त हुआ है। इसलिए उसी के नाम से वह प्रसिद्ध है। यह उत्कीर्ण लेख पार्थियन राना गुडूफर्स [ ८६ ] के समय का है। यह राजा भारत के उत्तर-पश्चिमाञ्चल का स्वामी था। इस लेख मे १०३ का अङ्क है, पर संवत् का नाम नहीं। गुडूफर्स के सिंहासन पर बैठने के छब्बीसवें वर्ष का यह लेख है। डाक्टर फ्लीट और मिस्टर विन्सेंट स्मिथ ने अनेक तर्कनाओं और प्रमाणो से यह सिद्ध किया है कि यह १०३ विक्रम-संवत् का सूचक है। राजा गुडूफर्स का नाम यहूदियों की एक पुस्तक में आया है। यह पुस्तक ईसा के तीसरे शतक की लिखी हुई है। इससे, और इस सम्बन्ध के और प्रमाणो से, यह निःसंशय प्रतीत होता है कि विक्रम-संवत् का प्रचार ईसा के तीसरे शतक के पहले भी था और मालवा ही में नहीं, किन्तु पेशावर और काश्मीर तक में इसका व्यवहार होता था। इस पर भी यदि कोई इस संवत् का प्रवर्तक मालवाधिपति शकारि विकमादित्य को न माने और उसकी उत्पत्ति ईसा के छठे शतक में हुई बतलाने की चेष्टा करे तो उसका ऐसा करना हठ और दुराग्रह के सिवा और क्या कहा जा सकता है।

[सितम्बर १९११