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अतीत-स्मृति/७ राजा युधिष्ठिर का समय

विकिस्रोत से
अतीत-स्मृति
महावीरप्रसाद द्विवेदी

प्रयाग: लीडर प्रेस, पृष्ठ ६१ से – ७३ तक

 
७-राजा युधिष्ठिर का समय

संसार में विचार और विवेचना की बड़ी जरूरत है। बिना विवेचना के, बिना विचार के, सत्य का ठीक ठीक अनुसन्धान नहीं हो सकता। यदि किसी ने सत्य को पाया है तो विचार और विवेचना ही की बदौलत पाया है। जब किसी बात की विवेचना की जाती है तब बहुधा विवाद उपस्थित होता है। क्योंकि विवेचक जिसकी बात या जिसके मत का खण्डन करता है वह, उसे विपक्षी की विवेचना ठीक न मालूम हुई तो, उसका उत्तर देता है। इस तरह वाद-विवाद बढ़ता और किसी मत या विषय-विशेष की सत्यता की जाँच करने ही की इच्छा से यदि दोनो पक्ष विवाद पर कमर कसते हैं तो उनका मनोरथ सफल भी हो जाता है। इसलिए विवेचना की इतनी महिमा है। जान स्टुअर्ट मिल ने तो अपनी "स्वाधीनता" नाम की पुस्तक में विचार और विवेचना का बहुत ही अधिक माहात्म्य गाया है। उसकी राय है कि किसी मत-प्रवर्तक की यदि सचमुच ही यह इच्छा हो कि उसे अपने मत की योग्यता का यथार्थ ज्ञान हो जाय, और उसे विपक्षी भी मान ले, तो वह अपने ही मतवालो में से किसी को कल्पित विपक्षी बना कर उसके साथ वाद-प्रतिवाद करे। बिना इसके उसे अपने मत की सत्यता पर निश्चय पूर्वक विश्वास नहीं हो सकता। पर वाद-विवाद करने के नियम हैं। मनमानी बात कह देने का नाम विवाद या विवेचना नहीं है। इस बात को भारत के दार्शनिक महात्माओ ने भी स्वीकार किया है। यदि कोई कहै कि १० और १० इक्कीस होते हैं तो उसका यह उत्तर ठीक अवश्य होगा कि १० और १० इक्कीस नहीं बीस होते हैं। परन्तु विवेचना का यह तरीका ठीक नहीं है। विवेचक को चाहिए कि वह अपने उत्तर को, अपने मत को, मजबूत दलीलों से साबित करे और उसके साथ ही प्रतिपक्षी के मत का सप्रमाण खण्डन भी करे। जो यह कहता है कि १० और १० बीस होते हैं, उसे चाहिए कि एक जगह १० और दूसरी जगह ११ लकीरें खींच कर वह अपने प्रतिपक्षी से उन्हें गिनावे और इस बात को साबित करे कि इक्कीस होने के लिए १० और ११ की ज़रूरत होती है। ऐसा करने से उसके प्रतिपक्षी का मत खण्डित हो जाएगा। तब वह १० और १० लकीरों को गिन कर सिद्ध करे कि उनका जोड़ बीस होता है। इस तरह उसके मत का मण्डन होगा। यह उदाहरण कल्पित है। और भी कई तरह से नियमानुसार खण्डन-मण्डन हो सकता है। १० और १० मिल कर बीस होते है। यह निर्भ्रान्त है। परन्तु इस प्रकार निर्भ्रांत उत्तर देने वाले की तर्कपद्धति भी जब सदोष मानी जाती है तब भला बिना प्रमाण के यदि कोई १० और १० के जोड़ को २१ या १९ बताने लगे तो उसकी तर्कना-प्रणाली का क्या कहना है। जिसे विवेचना में इस प्रकार की पद्धति का अवलम्बन होता है वह हेय और उपेक्ष्य समझी जाती है। उस पर ध्यान न देना ही अच्छा होता है। यह हम किसी को लक्ष्य करके नहीं लिखते। तर्कना का साधारण नियम समझ कर हमने यहाँ पर उसे लिख दिया है।

सरस्वती में गत वर्ष वराह-मिहिर पर एक लेख निकला। उस में लेखक ने एक प्रमाण देकर यह साबित किया कि महाभारत हुए ११,००० वर्ष हुए। इसके बाद मदरास की तरफ के एक वकील साहिब का एक लेख हमने पढ़ा। उसमे लेखक ने यह सिद्धान्त निकाला था कि युधिष्ठिर को हुए सिर्फ ३००० वर्ष हुए। उन्ही के नाम का उल्लेख करके यह भी हमने लिख दिया। अपनी तरफ से हमने कुछ भी नहीं लिखा। यह पिछला मत पं॰ गणपति जानकी राम दुबे को गलत मालूम हुआ। इस पर उन्होंने एक और सज्जन के मत के आधार पर एक छोटा सा लेख सरस्वती मे छपने के लिए भेजा। उसे भी हमने छाप दिया। उसके अनुसार वर्तमान समय से ७१३१ वर्ष पहले युधिष्ठिर विद्यमान थे। यह मत खुद दुबे जी का नही। किन्तु एक दूसरे पंडित का है। इस पर हमने कहा कि दुबे जी यदि वकील साहब के मत का सप्रमाण खण्डन करके इस नये मत के सच होने पर जोर देते तो उसका अधिक गौरव होता। साथ ही हम ने यह भी दिखलाया कि उनके लिखे‌ हुए मत की पुष्टि के लिए भी बहुत सी बातो का उत्तर देना बाकी है। यह हमने इसलिए लिखा कि दुबे जी विद्वान हैं और वाद-विवाद करने के नियमों को जानते है। इसलिए वे हमारे कहने को बुरा न समझेंगे। जिस समय दुबे जी का लेख हमारे पास आया, हम कर्निहाम साहब की पुरातत्व सम्बन्धी रिपोर्ट पढ़ रहे थे। उनमें एक अध्याय देहली के ऊपर था। उसमें युधिष्ठिर के सम्बन्ध में गंभीर गवेषणा से भरा हुआ एक लेख था। उसे हम दो ही चार दिन पहले पढ़ चुके थे। इसलिए दुबे जी के लेख पर नोट देते समय हमने कर्निहाम साहब का मत भी लिख दिया। उनके मन में महाभारत हुए कोई सवा तीन हजार वर्ष हुए। हमने अपने मन में कहा कि जब सब अपने अपने मत लिख रहे हैं तब उनका भी सही। जो अपने मत को सबल और विश्वसनीय प्रमाणों से सच्चा साबित कर देगा उसी का मत मान्य हो जायगा। किसी अँगरेज या मुसलमान को राय लिख देना क्या कोई अनुचित बात है?

इस पर हमारे सुविज्ञ प्रयाग-समाचार ने हमारे नोट पर एक लेख-मालिका निकालनी शुरू की है। इस मालिका का पहला नम्बर ५ मार्च के प्रयाग समाचार में निकला है। आप की राय है कि विलायती पंडितों के पुरातत्व-विषयक सिद्धान्त भ्रान्तिमूलक और अविश्वसनीय होते हैं। सब नहीं, उतने ही जितने "हम लोगों" के सिद्धान्तों के विरुद्ध हैं। पर हमारी मन्दबुद्धि में यह आता है कि एक आदमी का सिद्धान्त दूसरे, आदमी के सिद्धान्त के विरुद्ध होने ही से वह भ्रान्तिमान् या विश्वासहीन नहीं हो सकता। विरोध होना अविश्वसनीयता का चिन्ह नहीं। देशियों के भी सिद्धान्त भ्रान्तिमूलक हो सकते है और विदेशियों के भी। पर प्रमाण की अपेक्षा होती है। क्या स्वदेशियों के सभी सिद्धान्त विश्वसनीय होते हैं? क्या कृष्ण-चरित के कर्ता के सब सिद्धान्त भ्रान्तिहीन हैं? क्या पुराणो के प्रक्षिप्त, श्रीकृष्ण की अलौकिक लीलाओं को कपोल-कल्पना और वृन्दाबन-विहार-सम्बन्धी पौराणिक कथा को "अतिप्रकृत उपन्यास" मानने के लिए सब लोग तैयार है? ये सब सिद्धान्त बङ्किम बाबू ही के तो हैं। ये उन्हीं के कृष्ण-चरित मे है।

हमारी प्रार्थना है कि युधिष्ठिर के समय का हमने जरा भी अनुमान नहीं किया। यदि किसी ने किया है तो बङ्किम बाबू और जनरल कर्निहाम ही ने किया है। हमारा अपराध सिर्फ इतना ही है कि हमने कर्निहाम के अनुमान को लिख भर दिया है। इसके लिए हम प्रयाग-समाचार से क्षमा मांगते है। हमने कर्निहाम साहब के अनुमान को दस पांच सतरो मे लिख दिया,मआपने बङ्किम बाबू के अनुमान को कई कालमो मे। हमारे और आपके लेख में फरक इतना ही है।

हमने कर्निहाम साहब के मत की जाँच करने की ज़रा भी कोशिश नहीं की। क्योकि युधिष्ठिर का समय निर्णय करने के अभिप्राय से हमने अपना नोट लिखा ही नही। अतएव उनके उल्लिखित प्रमाणो को पुराणों मे ढूंढने की हमने कोई ज़रूरत नहीं समझी। जिसे युधिष्ठिर के समय का निर्णय करना हो वह उन्हें देखे और यदि कर्निहाम ने अपने अनुमान मे गलतियों की हो तो उनको सुधार दे। यदि प्रयाग-समाचार की यह राय हो कि दूसरे के अनुमान को कोई तब तक नही लिख सकता जब तक उस अनुमान की साधनीभूत सामग्री को वह खुद न देख ले और उसकी सत्यता पर उसका विश्वास न हो जाय, तो मानों यह कबूल कर लेना होगा कि बङ्किम बाबू के निर्णय में संस्कृत और अंग्रेजी के जितने ग्रन्थों का नाम आया है उन सब को आपने देख लिया है और उल्लिखित वाक्यों की यथार्थता की परीक्षा भी कर ली है।

बँगला के प्रसिद्ध उपन्यासकार बङ्किम बाबू ने कृष्णचरित्र नाम की एक पुस्तक लिखी है। उसमें उन्होंने महाभारत के काल का निर्णय भी किया है। इसी निर्णय का भावार्थ प्रयाग समाचार ने देना शुरू किया है।

बङ्किम बाबू कहते है कि योरप के किसी किसी पंडित का मत है कि महाभारत ईसा के पहले चार पांच सौ वर्ष से अधिक पुराना ग्रंथ नहीं है। पर स्वदेशी पंडितों की सम्मति है कि महाभारत वर्तमान समय से कोई पांच हज़ार वर्ष पहले का है। इन दोनों मतों को बाबू साहब "घोरतर भ्रम परिपूर्ण" बतलाते हैं। महाभारत कब हुआ इस सम्बन्ध में आपने अपनी मीमांसा में जिन ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का मत दिया है उनकी तालिका इस प्रकार है।

विष्णुपुराण ईसा के पहले १४३० वर्ष
मत्स्य और वायुपुराण {{{1}}} {{{1}}} १४६५ वर्ष
कोलब्रुक, विलसन और
एत्लफिंस्टन
{{{1}}} {{{1}}} चौदहवीं शताब्दी
विलफर्ड {{{1}}} {{{1}}} १३७० वर्ष
बुकानन ईसा के पहले तेरहवीं शताब्दी
प्राट {{{1}}} {{{1}}} बारहवीं शताब्दी

इन सब मतों में बङ्किम बाबू विष्णुपुराण ही के मत को सब से अधिक ठीक समझते हैं। आप अपनी पुस्तक में लिखते हैं—"विष्णुपुराण से ईसा के १४३० वर्ष पहले की प्राप्त होती है, वही ठीक है। मुझे भरोसा है कि इन सब प्रमाणों को सुन कर अब कोई यह न कहेगा कि महाभारत का युद्ध द्वापर के शेष में, पांच हज़ार वर्ष पहले, हुआ था।" अच्छा तो विष्णुपुराण ही का मत बङ्किम बाबू का हुआ। तद्‌नुसार महाभारत का युद्ध ईसा के १४३० वर्ष पहले हुआ; द्वापर के अन्त में नहीं। प्रयाग-समाचार को भी शायद यही मत ठीक जँचा है। अच्छा १४३० में १९०४ जोड़ दीजिए। फल ३३३४ वर्ष हुए। अब गत फरवरी की सरस्वती का बयालीसवाँ पृष्ठ देखिए। वहाँ लिखा है कि—"इस हिसाब से महाभारत को कोई सवा तीन हज़ार वर्ष हुए"। कनिंहाम साहब और बङ्किम बाबू का मत एक हो गया। क्योंकि ८४ वर्ष का अन्तर कोई अन्तर नहीं। फिर हमारे 'कोई' शब्द पर भी तो ध्यान देना चाहिए। परीक्षित का जन्म साहब ने ईसा के १४३० वर्ष पहले अनुमान किया है। ठीक वही समय विष्णुपुराण और बङ्किम बाबू के मत में महाभारत का है। अब बङ्किम बाबू के निर्णय और कनिंहाम के अनुमान में भेद कहाँ है, यह समझ में नहीं आता। किस निमित्त यह परिश्रम हो रहा है, क्यों यह लेखमाला निकाली जा रही है, अभी तक यह हमारे ध्यान ही में नहीं आया। शायद अन्त की माला में इसका रहस्य खुले। बङ्किम बाबू ने अपनी पुस्तक में विलायती पण्डितों को दो चार उल्टी सीधी सुनाई हैं। उनका अनुवाद करके पाठकों का मनोरञ्जन करने के लिए यदि यह परिश्रम हो तो हो सकता है।

गीता हिन्दुओं की सब से पूज्य पुस्तक है। उसमें लिखा है—

"शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।"

तब यदि हैट-कोट-धारी कोई मनुष्य कुछ कह दे तो क्या उसके हैट कोट के कारण ही उसकी बात अविश्वसनीय हो जाय? ऐसा तो नहीं हो सकता। यदि उसके कथन में कुछ सार है तो उसे ले लीजिए और यदि नहीं है तो जाने दीजिए। यह कोई न्याय नहीं कि बिना प्रतिकूल प्रमाण के ही हैट-कोट और बूट वालों का पुरातत्त्व-सम्बन्ध में कुछ कहना सर्वथा अश्रद्धेय है और तिलक, माला और पगड़ी वालों का कहना सर्वथा श्रद्धेय है। बङ्किम बाबू के चित्र में भी हम पगड़ी देखते हैं; परन्तु कृष्ण-चरित्र में उन्होंने बहुत सी ऐसी बातें कही हैं जिनको सुन कर धार्म्मिक हिन्दू शायद काँप उठें।

बङ्किम बाबू के लेख का जो भाव प्रयाग-समाचार के मान्यवर सम्पादक ने हिन्दी में दिया है उसमें कई जगह दृष्टि-दोष हो गया है। उसके दो एक उदाहरण हम देते है।

मूल-कृष्ण-चरित-१म खण्ड, ४र्थ परिच्छेद

(१) महाभारत प्राचीन ग्रन्थ बटे, किन्तु खि॰ पू॰ चतुर्थ कि

हिन्दी भावार्थ

महाभारत प्राचीन ग्रन्थ तो है; परन्तु अब से चार अथवा पांच शताब्दी पूर्व रचा गया।



पञ्चम शताब्दी ते प्रणीत हइयाछिल।

(२) पूर्वोक्त ग्रन्थ, पञ्चम परिच्छेद।

प्रथमे देशी मतेरई समालोचना आवश्यक। ४९४२ वत्सर पूर्वे कुरुक्षेत्रे युद्ध हइयाछिल, ए कथा सत्य नहे। इहा आमि देशी ग्रन्थ अवलम्बन करियाई प्रमाण करिब।

हिन्दी भावार्थ

जो लोग यह कहते हैं कि कुरुक्षेत्र में महायुद्ध के अधिवेशन हुये केवल ४९९२ वर्ष व्यतीत हुए हैं, यह उनका कहना सत्य नहीं है। इस बात को अवलम्ब न कर हम आगे सिद्ध करेंगे।

पहले अवतरण के हिन्दी-भावार्थ में "खि॰ पू॰" के छूट जाने से हज़ार वर्ष का अन्तर हो गया। दूसरे अवतरण में और बातों को जाने दीजिए, सिर्फ़ "केवल" शब्द को देखिए। अकेले इस शब्द के आ जाने से अर्थ का अनर्थ हो गया। यह शब्द मूल में नहीं है। ये त्रुटियाँ जान बूझ कर नहीं की गईं। सिर्फ असावधानता से हुई हैं। परन्तु हमारे माननीय सहयोगी का मतलब यदि सत्य के ढूँढ़ने का है तो उसे अधिक सावधान रहना चाहिए।

सुविज्ञ प्रयाग-समाचार से हमारी यही प्रार्थना है कि जो कुछ हमने लिखा है सिर्फ सत्य के अनुरोध से लिखा है। यदि हमसे कोई शब्द अनुचित निकल गया हो तो उसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। जिस लेख का यह उत्तर है उसके आरम्भ में कई बातें ऐसी हैं जिनके उत्तर देना या जिन पर कुछ कहना हमने मुनासिब नहीं समझा। युधिष्ठिर के समय का निर्णय होना महत्व की बात है। इसी ख्याल से, प्रार्थना के रूप में, जो कुछ कहना था हमने कह दिया है। यदि और कोई ऐसी वैसी बात होती तो हम चुप रहने के सिवा और कुछ न कहते-

सत्यव्रत युधिष्ठिर के काल का निर्णय हो चुका। तीन खण्डों में उसकी समाप्ति हुई। अन्तिम, अर्थात् तीसरा खण्ड, २ एप्रिल के प्रयाग-समाचार मे निकला। २ मई तक हमने और राह देखी कि शायद इसके भी आगे कोई टीका-टिप्पणी निकले; परन्तु और कुछ नहीं निकला। बङ्किम बाबू के कृष्णचरित्र के प्रथम खण्ड के सातवें परिच्छेद का नाम है "पाण्डवों की ऐतिहासिकता।" उसी का अनुवाद देकर यह लेख-मालिका पूरी कर दी गई। लेख का अन्तिम फलांश यह है।

पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में, उपासना अर्थ के बोधक बासुदेवक और अर्जुनक शब्द की व्युत्पत्ति दी है। गोल्डस्टुकर साहब का मत है कि जब पाणिनि सूत्र बने थे तब गौतम बुध नहीं पैदा हुए थे। अर्थात् पाणिनि का काल ईसा के पहले छठी शताब्दी कहा जा सकता है। उन के मत में उस समय ब्राह्मण, आरण्यकोपनिषद् इत्यादि कुछ न थे और न आश्वलायन, सांख्यायन आदि का ही अभ्युदय हुआ था।

मोक्षमूलर के मत में ब्राह्मणों का समय ईसा के पहले १००० वर्ष है। अतएव बङ्किम बाबू ने पाणिनि का समय ईसा के पहले अधिक से अधिक दशम या एकादश शताब्दी अनुमान किया। आप ने वेबर साहब को "भारत द्वेषी" की और उन्हीं के देशवासी गोल्डस्टुकर को "आचार्य" की पदवी दी है। अस्तु। इससे यह सूचित हुआ कि ईसा के हजार वर्ष पहले ही महाभारत प्रचलित था और वासुदेव तथा अर्जुन आदि की गिनती देवताओ में होने लगी थी। यदि ऐसा न होता तो पाणिनि को वासुदेवक और अर्जुनक के शब्दों की साधना न बतलानी पड़ती। अच्छा, महाभारत तो ईसा के हजार वर्ष पहले प्रचलित था, पर युधिष्ठिर किस समय विद्यमान थे? अथवा महाभारत का युद्ध कब हुआ था? वही ईसा के पहले १४३० वर्ष। वही विष्णुपुराण का मत जिसे बङ्किम बाबू ने पसन्द किया है। क्योंकि उन्हाने उसका कहीं खण्डन नहीं किया। युद्ध होने के बाद तीन चार सौ वर्ष मे वासुदेव और अर्जुन इत्यादि की गिनती देवताओं में होने लगी होगी। यही बङ्किम बाबू का मत है।

सुविज्ञ सम्पादक जी ने किस लिए इतना परिश्रम किया, किस लिए यह लेख मालिका निकाली, सो बात हमारी समझ मे फिर नही आई। खैर, कुछ तो आप ने समझा हो होगा। सम्भव है, हम आपके मतलब को न समझे हो। पर एक प्रार्थना आप से हमारी है। वह यह कि यदि आप किसी का मत लिखा करें तो जरा सावधानी से लिखा करें। कुछ का कुछ न लिख दिया करें। आप को असावधानता के दो एक उदाहरण हम और दिखलाये देते हैं। वे भी अनुवाद सम्बन्धी हैं

कृष्ण-चरित, सप्तम-परिच्छेद

(१) आर इहाओ सम्भव, ये तांहार (पाणिनिर) अनेक पूर्वइ महाभारत प्रचलित हइयाछिल।

(२) अतएव महाभारतेर युद्धेर अनल्प परेइ आदिम महाभारत प्रणीत हइयाछिल बलियाये प्रसिद्धि आछे। ताहार उच्छेद करिबार कोन कारण देखाय न।

(३) अतएव महाभारतेर प्राचीनता सम्बन्धे बड़ गोलयोग करार कहारओ अधिकार नाइ।

प्रयाग समाचार का भावार्थ और यह भी सिद्ध हो गया कि उनके (पाणिनि के) बहुत पूर्व से महाभारत प्रचलित था।

इससे अब सिद्ध हो गया कि महाभारत युद्ध के थोड़े ही पीछे जो आदि महाभारत बना कर शामिल करने का दोष दिया जाता है इसके खण्डन की अब कोई आवश्यकता नहीं।

अतएव महाभारत की प्राचीनता में हस्तक्षेप करने का किसी को अधिकार नहीं है।

यहाँ पर पहले अवतरण में जल्दी या असावधानता के कारण "सम्भव" शब्द का अर्थ "सिद्ध हो गया" कर दिया गया। सम्भव और सिद्ध होने में कितना अन्तर है, इसके बतलाने की जरूरत नहीं। दूसरे अवतरण का हिन्दी भावार्थ हमारी समझ में बिल्कुल ही नहीं आया। बँगला वाक्य का मतलब है—"अतएव जो यह प्रसिद्धि है कि महाभारत—युद्ध के कुछ ही पीछे आदिम महाभारत की रचना हुई थी उसके उच्छेद, अर्थात् खण्डन, का कोई कारण नहीं देख पड़ता।" अनुवाद में "महाभारत बना कर शामिल करने का दोष" कहाँ से आया, नहीं मालूम! और वाक्य सार्थक भी तो होना चाहिये। तीसरे अवतरण में "गोलयोग।" का अर्थ हस्तक्षेप भी जल्दी में लिख दिया गया है। हस्तक्षेप की जगह "गोलमाल" शब्द आता तो वह मूलार्थ का अधिक बोधक होता। हस्तक्षेप और गोलमाल में फर्क है।

[जून १९०५