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अद्भुत आलाप/क्या जानवर भी सोचते हैं?

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लखनऊ: गंगा ग्रंथागार, पृष्ठ ९१ से – ९७ तक

 

९---क्या जानवर भी सोचते हैं?

जानवरों से हमारा मतलब पशुओं से है। क्या पशु भी विचार करते हैं, सोचते हैं, समझ रखते हैं या चिंतना करते हैं? हार्पस मैगेज़ीन-नामक एक अँगरेजी सामयिक पुस्तक में, एक साहब ने, इस विषय पर, एक लेख लिखा है। उसमें लेखक ने यह सिद्ध किया है कि जानवरों में समझ नहीं होती; वे किसी तरह का सोच-विचार नहीं कर सकते, क्योंकि वे बोल नहीं सकते। जिस प्राणी में बोलने की शक्ति नहीं, उसमें विचार करने की भी शक्ति नहीं हो सकती। इस विज्ञानी के सिद्धांतों का सारांश हम नीचे देते हैं---
आत्मतत्त्व-विद्या के जाननेवालों का यह मत है कि जानवरों में किसी प्रकार की मानसिक शक्ति नहीं है। विशेष प्रकार की स्थिति आने से वे विशेष प्रकार के काम करते हैं। अर्थात् जैसी स्थिति होती है--जैसा मौक़ा होता है--उसी के अनुसार जानवर काम करते हैं। यह नहीं कि जैसे आदमी सब काम समझ बूझकर करते हैं, वैसे वे भी करते हों। जब कोई विशेष स्थिति प्राप्त होती है, तब उसके अनुसार पशुओं की ज्ञानेंद्रियों पर कुछ चिह्न-से प्रकट हो जाते हैं। उन चिह्नों के पैदा होते ही उनकी इच्छा काम करने को चाहती है, और जैसे चिह्न होते हैं, वैसे ही काम वे करने लगते हैं। पशुओं को मानसिक भावना या चिंतना नहीं करनी पड़ती; वे इस तरह की भावनाएँ कर ही नहीं सकते। जब कोई आदमी किसी पर आघात करना चाहता है, किसी को मारना चाहता है, तब वह उससे फौरन ही अपना बचाव करता है अर्थात्ज्यों ही वह आघात होने के लक्षण देखता है, त्यों ही, उसी क्षण, वह पीछे हट जाता है, या और किसी तरह से अपना बचाव करता है। उस समय उसे किसी तरह का सोच-विचार नहीं करना पड़ता। जानवर इसी तरह बिना किसी चिंतना, भावना या विचार के काम करते हैं। उनके सारे काम प्रवृत्ति या अभ्यास की प्रेरणा से होते हैं। हम लोग अपने उदाहरण से जानवरों की शक्तियों का अंदाजा करते हैं। पर यह बात ठीक नहीं। जानवरों में मानसिक व्यापार के कोई चिह्न नहीं

देख पड़ते। किसी आंतरिक प्रवृत्ति, उत्तेजना या शक्ति की प्रेरणा से ही वे सब शारीरिक व्यापार करते हैं। किसी मतलब से कोई काम करना बिना ज्ञान के---बिना बुद्धि के---नहीं हो सकता। ज्ञान दो तरह का है-स्वाभाविक और उपार्जित। स्वाभाविक पशुओं में और उपार्जित मनुष्यों में होता है। हम सब काम सोच-समझकर जैसा करते हैं, जानवर वैसा नहीं करते। उनमें विचार-शक्ति ही नहीं; उनके मन में विचारों के रहने की जगह ही नहीं; क्योंकि वे वोल नहीं सकते। ठीक-ठीक विचारणा या भावना बिना भाषा के नहीं हो सकती। भाषा ही विचार की जननी है। भाषा ही से विचार पैदा होते हैं। वाणी और अर्थ का योग सिद्ध ही है। शब्दों से अर्थ या विचार उसी तरह अलग नहीं हो सकते, जैसे पदार्थों के आकार उनसे अलग नहीं हो सकते। जहाँ आकार देख पड़ता है, वहाँ पदार्थ ज़रूर होता है। जहाँ विचार होता है, वहाँ भापा ज़रूर होती है। बिना भाषा के विषय-ज्ञान और विषय-प्रवृत्ति इत्यादि-इत्यादि बातें हो सकती हैं, परंतु विचार नहीं हो सकता। पशु अपनी इंद्रियों की सहायता से ही पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। जो पदार्थ समय और आकाश में विद्यमान रहते हैं, सिर्फ़ उन्हीं का ज्ञान पशुओं को इंद्रियों से होता है, और पदार्थों का नहीं। पशुओं में स्मरण शक्ति नहीं होती। पुरानी बाते उन्हें याद नहीं रहतीं। यही पूर्वोक्त साहब का मत है।

इनमें से बहुत-सी बातों का खंडन हो सकता है। कुछ का

खंडन लोगों ने किया भी है। विचार क्या चीज़ है? सोचना किसे कहते हैं? सिर में एक प्रकार के ज्ञान-तंतु हैं। बाहरी जगत् की किसी चीज़ या शक्ति का प्रतिबिब-रूपी ठप्पा जो उन तंतुओं पर उठ आता है, उसी का नाम विचार है। जितने प्रकार के शब्द सुन पड़ते हैं, उनकी तसवीर सिर के भीतर तंतुओं पर खिंच-सी जाती है। यह तसवीर मिटाए नहीं मिटती। कारण उपस्थित होते ही वह नई होकर ज्ञान-ग्राहिका शक्ति के सामने आ जाती है। यह कहना ग़लत है कि बिना भाषा के विचार नहीं हो सकता। जो लोग ऐसा कहते हैं, वे शायद उन शब्द-समूहों को भाषा कहते हैं, जो वर्ण रूपी चिह्नों से बने हैं। पर क्या कोई इंजीनियर या मिस्त्री एक बड़े-से-बड़े मकान या मीनार की कल्पना, बिना ईंट, पत्थर और चूने इत्यादि का नाम लिए भी, नहीं कर सकता? क्या ज्यामिति-शास्त्र के पंडित को अपना मतलब सिद्ध करने के लिये वर्ण-रूपिणी भाषा की कुछ भी ज़रूरत पड़ती है? अथवा क्या बहरे और गूँगे आदमी ज्ञान-तंतुओं पर चित्रित चित्रों की सहायता से भावना, कल्पना, विचार या स्मरण नहीं करते?

फिर विचार की बड़ी ज़रूरत भी नहीं देख पड़ती। क्या बिना विचारणा के काम नहीं चल सकता? सच पूछिए, तो जगत में बहुत कम विचारणा होती है। हरबर्ट स्पेंसर तक के बड़े-बड़े ग्रंथ विचारणा के बल पर नहीं लिखे गए। स्पेंसर ने अपने आत्मचरित में ऐसा ही लिखा है। उसका कथन है कि मैंने उन्हें अपनी

ताजमहल की कल्पना करनेवाले में भी ज्ञान था, और घोंसला या गार बनानेवाले जीवों में भी वह है। किसी में कम, किसी में ज्यादा। मकड़ी, चिड़ियाँ, लोमड़ी और चींटी इत्यादि छोटे-छोटे जीव तक अपने-अपने काम से ज्ञान रखने का प्रमाण देते हैं, और ज्ञान मन का व्यापार है। मन से ज्ञान का बहुत बड़ा संबंध है। तो फिर यह कैसे कह सकते हैं कि जानवरों में मान सिक विचार को शक्ति नहीं है?

जो कुछ हम सोचते या करते हैं, वह इंद्रियों पर उठे हुए चित्र का कारण नहीं है। उसका कारण ज्ञान है। एक किताब या कुर्सी की तसवीर मक्खी की इंद्रियों पर भी वैसी ही खिंचेगी, जैसी पालने पर पड़े हुए एक छोटे बालक की इंद्रियों पर। पर जिसमें जितना ज्ञान होता है, जिसमें जितनी बुद्धि होती है, उसी के अनुसार सांसारिक पदार्थों या शक्तियों को ज्ञानगत मूर्तियों का महत्त्व, न्यूनाधिक भाव में, सब कहीं देख पड़ता है। जिस भाव से हम एक किताब को देखेंगे, भैंस उस भाव से उसे न देखेगी। पर देखेगी ज़रूर, और उसका चित्र भी उसकी ज्ञानेंद्रियों पर ठीक वैसा ही उतरेगा, जैसा आदमियों की इंद्रियों पर उतरता है।

इसमें संदेह नहीं कि सोचना या विचार करना---चाहे वह ज्ञानात्मक हो, चाहे न हो---मस्तिष्क की क्रिया है। अतएव उसका संबंध मन से है। और, आदमी से लेकर चींटी तक, सब जीवधारियों में, अपनी-अपनी स्थिति और आवश्यकता के अनुसार, मन होता है। यह नहीं कि किसी में वह बिलकुल ही न