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अद्भुत आलाप/२०—अद्भुत इंद्रजाल

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अद्भुत आलाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

लखनऊ: गंगा ग्रंथागार, पृष्ठ १५५ से – १६५ तक

 

"छुट्टी पूरी होने पर गोरिंग साहब फिर हिंदोस्तान में तशरीफ़ लाए, और दो-चार दिन बाद मुझसे भेंट करने आए। मैं उनसे बड़े प्रेम से मिला और घटों बातें करता रहा। हम दोनो बँगले के बरामदे में बैठे हुए प्रेमालाप कर रहे थे कि वहाँ अचानक एक प्रसिद्ध ऐंद्रजालिक--एक मशहूर मदारी--आ पहुँचा। उस आदमी का बंगाले में बड़ा नाम था, मंत्र-विद्या में वह अद्वितीय था। लोग कहते तो ऐसा ही थे। मैं भी उसे एक अलौकिक ऐंद्रजालिक समझता था। उसके अनेक अद्भुत-अद्भुत खेल मैंने देखे थे। उसे देख कर मैं बहुत ख़ुश हुआ। मैंने कहा कि अब गोरिंग के अविश्वास को दूर करने का मौक़ा आ गया। मैं हिंदोस्तानी बोलने लगा, जिसमें वह मांत्रिक भी मेरी बातचीत समझ सके। मैं उसकी विद्या की प्रशंसा करने लगा और गोरिंग निंदा। गोरिंग ने उसे सुनाकर बार-बार इस बात पर जोर दिया कि मंत्र-विद्या बिलकुल झूठ है; इंद्रजाल कोई चीज़ नहीं। अति प्रकृत बातों का होना असंभव है। इस मधुर टीका को वह ऐंद्रजालिक चुपचाप सुनता रहा। उसने अपने मुँह से एक शब्द भी नहीं निकाला।

"उस समय मेरे पास ओर भी दो-एक आदमी बैठे थे। उनमें से एक और आदमी ने भी इस मशहूर मदारी केखेल देखे थे। वह मेरी तरफ़ हो गया। उसने मेरा पक्ष लिया। उसने कहा, मैंने इस मनुष्य के किए हुए अद्भुत तमाशे अपनी आँखों देखे हैं। उनमें से एक का वृत्तांत मैं आपको सुनाना भी चाहता हूँ। सुनिए---
"एक दिन इस ऐद्रजालिक ने खेल शुरू किया। इसके साथ एक लड़का था। उसे बुलाकर इसने पास बिठलाया। फिर इसने सुतली का एक बंडल निकाला। उसका एक सिरा इसने ज़मीन में भीतर गाड़ दिया। फिर उस बंडल को इसने आकाश की तरफ़ फेक दिया। सुतली सीधी आकाश में चली गई, और जाते-जाते लोप हो गई। तब इसने उस लड़के को हुक्म दिया कि वह सुतली पर चढ़कर आकाश की सैर कर आवे। लड़का उस पर चढ़ा। जैसे लोग ताड़ के पेड़ पर चढ़ते हैं, वैसे ही वह उस पर झट-झट चढ़ता गया। धीरे-धीरे उसका आकार छोटा मालूम होने लगा। यहाँ तक कि दूरी के कारण वह कुछ देर में अदृश्य हो गया। तब तक यह मदारी महाशय और खेल खेलने लगे। कोई आध घंटे बाद इसे उस लड़के की याद आई। गोया अभी तक उसकी याद ही न थी। इसने उसे आवाज देना शुरू किया। उसे आकाश से नीचे उतारने की इसने बहुत कोशिश की, पर सब व्यर्थ हुई। उस लड़के ने ऊपर ही से जवाब दिया कि अब मैं नीचे नहीं उतरता। यह सुनकर इसे बहुत क्रोध आया। इसने एक छुरा निकाला और उसे अपने दाँतों में दबाया। तब यह भी उस लड़के ही की तरह उस सुतली पर चढ़ने लगा। कुछ देर में छोटा होते-होते यह भी अदृश्य हो गया। दो-चार मिनट बाद आकाश से पड़ी ही करूणा-जनक चिल्लाहट सुनाई पड़ी। ऐसा मालूम होता था, जैसे कोई किसी को मारे डालता है, और वह अपनी जान बचाने की कोशिश

कर रहा है। इतने में आकाश से ख़ून की वर्षा शुरू हुई। इससे हम लोगों को निश्चय हो गया कि इसने उस लड़के का खून कर डाला। इसके बाद उस लड़के के हाथ-पैर कट-कटकर, खून से भरे हुए, गिरने लगे। कुछ देर में उसका कटा हुआ सिर भी ज़मीन पर आ गिरा। उसके साथ ही उसका धड़ भी धड़ाम से नीचे आया। कुछ मिनट बाद यह मांत्रिक भी आकाश से उतरता हुआ देख पड़ा। खून से भरा हुआ छुरा उसके मुँह में था। इस तमाशे को देखकर देखनेवालों के रोंगटे खड़े हो गए, पर इसके लिये गोया यह कोई बात ही न थी। यह धीरे-धीरे नीचे उतरा, और सुतली को ऊपर से खींचकर इसने उसका पूर्ववत् बंडल बनाया। तब इसने उस लड़के के हाथ, पैर, सिर वग़ैरह को इकट्ठा करके एक चादर के नीचे ढक दिया। जब तक इसने खेलने की चीज़ें वग़ैरह अपने पिटारे में रक्खीं, तब तक वह चादर वैसी ही ढकी रही। जब इसे और कामों से फ़रसत मिली, तब इसने उस चादर को एक झटके से ऊपर खींच लिया। चादर खींचते ही वह लड़का हँसता हुआ उसके भीतर से निकल आया। उसके बदन पर ख़ून का जरा भी निशान न था। यह तमाशा देखकर सब लोग दंग हो गए।"

यहाँ पर हम यह कह देना चाहते हैं कि इस तरह के खेल का हाल लोगों ने अक्सर सुना होगा; क्योंकि अब तक, सुनते हैं, इस तरह के खेल होते हैं । पर स्माइल्स साहब कहते हैं कि उनके मित्र गोरिंग को इस पर विश्वास नहीं आया।
उसने यह बात हँसी में उड़ा दी। अब स्माइल्स की कहानी सुनिए---

"अब यह ठहरी कि गोरिंग का अविश्वास दूर करने के लिये उसे कोई अद्भुत खेल दिखाया जाय। उस एद्रजालिक ने हमारी बात क़बूल करली। हमने उससे कहा कि कल तुम मेजर साहब के बँगले पर तीसरे पहर आओ, और गोरिंग को अपनी विद्या दिखलाओ। उसने कहा---हुज़ूर के सामने जो कुछ सेवा बन पड़ेगी, करूँगा। बस, इतना ही कहकर उसने हम सबको बड़े अदब से सलाम किया, और वहाँ से वह चलता हुआ।

"दूसरे दिन यथासमय हम लोग मेजर साहब के बँगले पर इकट्ठे हुए। गोरिंग के सिवा और भी कई आदमी वहाँ थे। एक इंजीनियर भी तमाशा देखने के लिये आया था । वह भी मेरा मित्र था। उसका नाम था जर्मिन। वह अपने साथ तसवीर उतारने का एक छोटा-सा केमरा भी ले आया था। केमरा इतना छोटा था कि उसके पाकेट में आ जाता था। कुछ देर में हम लोगों ने दो आदमियों को, मैले-कुचैले कपड़े पहने हुए, कुछ दूर पर, एक पेड़ के नीचे देखा। यह वही कल का ऐंद्रजालिक और उसका एक साथी था। हम लोगों ने उनको अपने पास बुलाया। वे आए। उनके पास था क्या? सिर्फ़ एक पिटारी, दो-एक छोटे-छोटे डिब्बे और फटे-पुराने कपड़ों और चीथड़ों की एक गठरी! बस।
"मेजर साहब की आज्ञा मिलते ही खेल शुरू हुआ। मदारी मियाँ बंगाली थे। उम्र उसकी कोई ६० वर्ष के करीब होगी। उसने अपनी पिटारी में हाथ डाला और उसके भीतर से एक काला नाग बाहर निकाला। निकलते ही उसने अपना फन उठाया और फुफकार मारते हुए उसे इधर-उधर हिलाना शुरू किया। दूसरा आदमी उसके सामने मोहर (तूँबी) बजाने लगा। तब वह सर्प अपना फन और भी अधिक लहराने लगा। जैसे-जैसे मदारी महाशय के मनोहर वाद्य का सुर चढ़ने लगा, वैसे-ही-वैसे सर्प की फणा भी ऊँची होने लगी। यहाँ तक कि कुछ देर में यह मालूम होने लगा कि वह हवा में निराधार हिल रही है। उसका रंग अत्यंत काला था। फणा बहुत ही तेजस्क थी। जान पड़ता था कि फन पर देदीप्यमान रत्न जड़े हुए हैं। जब खेल इस अवस्था को पहुँचा, तब जर्मिन ने उस दृश्य का एक फ़ोटो लिया। केमरा के बटन की आवाज आई, और प्लेट ने छाया ग्रहण कर ली। यद्यपि मैं तमाशे में तन्मनस्क था, तथापि मैंने प्लेट का गिरना सुन लिया।

"अब एक विलक्षण---महा विलक्षण---बात हुई। तमाशे में एक अद्भुत परिवर्तन हुआ। परंतु कब हुआ, यह हम लोगों ने नहीं देख पाया। स्वच्छ आकाश सहसा काला हो गया। प्रकाशवती दिशाओं ने श्यामलता धारण की। सब तरफ़ बादल-से घिर आए। इतने में उस सर्फ की फणा ने स्त्री का रूप धारण किया, और उस रूप में वह पूर्ववत् आकाश में नृत्य करने लगी।
मदारी अपनी मौहर को बजा रहा था। पर जान पड़ता था कि वह हम लोगों से कुछ दूर पर बजा रहा है। था वह पास ही; पर सुर में अंतर हो गया था।

"कुछ देर में वाद्य बंद हुआ। परंतु वह सर्पिणी नारी अपने कृष्ण-मणिमय रत्नों के प्रकाश में नाचती ही रही। इतने में उसने अपना रूप बदल डाला। वह दिव्य-रूप हो गई। उसके मुख- मंडल पर अप्रतिम प्रभा छा गई। उसने अपने विशाल नेत्रों से हम लोगों की तरफ निनिमेष-भाव से देखना शुरू किया। हम लोग उसके अद्भुत रूप को देखकर दंग हो गए। वैसा रूप हमने कभी पहले नहीं देखा था। और न अब आगे कभी देखने की संभावना ही है। उसके निरुपम रूप, उसके त्रिभुवन-जयी नेत्र और उसके मोहक लावण्य ने हम लोगों को बेहोश-सा कर दिया। हमारी चित्तवृत्ति उसी के मुख-मंडल में जाकर प्रविष्ट हो गई; शरीर-मात्र से हम लोग अपनी-अपनी जगह पर बैठे रह गए। गोरिंग की दशा भयंकर हो गई; क्योंकि उस दिव्य नारी की नज़र सबसे अधिक उसी की तरफ़ थी।

"हम सब बँगले के बरामदे में थे। खेल कुछ दूर नोचे हो रहा था। वह स्त्री नाचते-नाचते क्रमशः आगे बढ़ी, और थोड़ी देर में बरामदे की सीढ़ियों के पास आ गई। जब वह इतना पास आ गई, तब गोरिंग की अजीब हालत हो गई। वह बेतरह भयभीत हुआ-सा जान पड़ने लगा। मालूम होता था कि उसे आनंद भी हो रहा है और भय भी हो रहा है। कुछ मिनट बाद

उसने बहुत धीरे से दो-चार शब्द कहे। पर उसने क्या कहा, हम लोगों ने नहीं समझा। इतने में उसने अपने दोनो हाथ फैलाए, ओर उठकर उस नाग-बाला को वह आलिंगन करने चला। उसका मुँह पीला पड़ गया था, और आँखें लाल हो गई थीं। उसे इस प्रकार अपनी तरफ़ आते देख नाग-कन्या ने भी अपने बाहुपाश को आगे बढ़ाकर गोरिंग को उससे बाँधना चाहा। परंतु हुआ क्या? इस तरह दोनो तरफ से आलिंगन और प्रत्यालिंगन का उपक्रम होते ही वह कन्या वहाँ की वहीं अंतर्हित हो गई!

"हम लोग होश में आए। ऐसा जान पड़ा, मानो हम सब कोई भयंकर स्वप्न देख रहे थे। जब तक खेल होता रहा, जर्मिन को छोड़कर किसी के होश-हवास ठिकाने नहीं रहे। जर्मिन ने दो- एक फ़ोटो उस खेल के लिए। खेल समाप्त होते ही उसने अपना केमरा नीचे रक्खा, और सोडावाटर वग़ैरह माँगा। उस समय उसके हाथ काँप रहे थे। गोरिग कुछ नहीं बोला। आलिंगन के नैराश्य ने उसे पागल-सा कर दिया। वह अपनी कुर्सी पर बैठ गया, और जिस जगह वह स्त्री आदृश्य हुई थी, उसी तरफ़ टकटकी लगाकर देखने लगा। इतने में वह ऐंद्रजालिक अपना सब सामान इकट्ठा कर के जाने को तैयार हुआ। उसे मेजर साहब ने कुछ रुपए देकर विदा किया। जब वह चलने लगा, तब उसने गोरिंग की तरफ़ देखकर कहा---'साहब, अब भी होश में आइए।'

"पर गोरिंग ने कुछ जवाब नहीं दिया। काठ का-सा पुतला

वह पूर्ववत् उस जगह की तरफ़ टकटकी लगाए देखता रहा। जर्मिन ने पकड़कर उसे हिलाया; पर वह अचल रहा। यह हालत देखकर हम लोग घबरा गए। हम सबने वल-पूर्वक उसे उठाने की कोशिश की, पर हमारी कोशिश व्यर्थ हुई। वह वहाँ से नहीं हिला। तब हम लोगों ने उसकी छाती पर ब्रांडी के छींटे मारे। इस पर वह होश में आया, और सन्निपात-ग्रस्त आदमी की तरह, न-जाने क्या, बर्राने लगा। हम लोगों ने उसे उठाकर बँगले के भीतर लिटाया। हमने उसके कपड़े ढीले कर दिए और सिर के ऊपर पानी की धारा छोड़ी। तब वह बेतरह घबरा उठा, और आश्चर्य-चकित-सा होकर उठ बैठा। चारो तरफ़ देखकर उसने एक अजब सर में कहा---वह कहाँ है? हम सबने उसे बहुत समझाया। हमने कहा, तुम क्या पागल हो गए हो? वह सब इंद्रजाल था; वह सब भ्रम था। परंतु उसने हमारी एक भी बात न सुनी। मैं उसके पास जाना चाहता हूँ; मै वहाँ ज़रूर जाऊँगा; वह गई कहाँ? इस तरह गोरिंग बकने लगा। यह दशा देखकर मेजर ने डॉक्टर को बुलाया। जर्मिन तो फ़ोटो की प्लेटें तैयार करने में लगा, और हम लोग गोरिंग को समझाने में! वह बार-बार उठकर भागने की कोशिश करता और हम लोग बार-बार पकड़कर उसे रोक रखते। इतने में डॉक्टर आया। उसे देख गोरिंग बहुत बिगड़ा। उसने मुझे एक लात मारी। डॉक्टर ने कहा, इसे उन्माद हुआ है। उसने गोरिंग का दस्ताना फाड़कर पिचकारी से एक औषध उसके हाथ में प्रविष्ट कर दी।
लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। यदि वह सारा तमाशा भ्रम था, तो उसके चित्र कसे?

"रात होते ही और लोग तो अपने-अपने घर गए; मैं और मेजर साहब बंगले में गोरिंग की देख-भाल के लिये जागते रहे। मैंने कहा, मैं कुछ देर सो लूँ। तब तक मेजर साहब गोरिंग के पास बैठे। फिर मैं पहरे पर रहूँगा, और मेजर साहब को सोने के लिये छुट्टी दूँगा। मैं बाहर आकर सो गया। कोई १ बजने का वक्त था कि मेजर साहब घबराए हुए मेरे पास आए। उन्होंने कहा कि मैं ज़रा सो गया और उतने में गोरिंग कहीं चला गया!

"हम लोग गोरिंग को हूँढ़ने निकले। मेजर साहब एक तरफ़ गए और मैं दूसरी तरफ़। बँगले के पास ही एक बाग़ था। थोड़ी देर में उसी तरफ़ से बंदूक़ की आवाज आई। मैं वहाँ दोड़ा गया। मैंने देखा कि मेजर साहब की गाद में गतप्राण गोरिंग पड़ा हुआ है। उसकी गर्दन में सर्प-दंश के कई घाव हैं। पास ही मेजर की गोली से मरा हुआ एक भयंकर साँप भी पड़ा है। यह हृदय-द्रावक दृश्य देखकर मैं काँप उठा। अपने मित्र गोरिंग की ऐसी शोचनीय मृत्यु पर मुके बेहद रंज हुआ। पर लाचारी थी । भवितव्यता बड़ी प्रबल होती है!"

जनवरी, १९०६