अप्सरा/अगला भाग ५

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[ ७९ ]"अभी देख रही है। तुमको पहचान लिया शायद ।" राजकुमार कुछ न बोला। जब तक मोटर अदृश्य नहीं हो गई, कनक खड़ी हुई ताकती रही। (१२) दर्द पर एक चोट और लगी। कनक कलेजा थामकर रह गई। “वज की तरह ऐसे ही लोग कठोर हुश्रा करते हैं।" पहले जीवन में एकांत की कल्पना ने जिन शब्दों का हार गूंथा था, उसकी लड़ी में यति-भंग हो गया। तमाम रात प्रणय के देवता के चरणों में पड़ी रोकर भोर कर दिया। प्रातःकाल ही उनके सत्य-आसीस का कितना बड़ा प्रमाण! अब वह समय की सरिता सागर की ओर नहीं, सूखने की ओर बढ़ रही थी। जितना ही आँसुओं का प्रवाह बढ़ रहा था, हृदय उतना ही सूख रहा था। बरामदे से चलकर वह फिर पलँग पर पड़ रही। कलेजे पर सॉप लोट रहा था। ____कितना अपमान ! यह वही राजकुमार था, जिसने एक सच्चे वीर की तरह उसे बचाया था। छि:-छिः ! इसी शुढ़-प्रतिज्ञ मनुष्य की जबान थी-तुम मेरे शरीर की आत्मा हो! "तुम मेरी कल्पना की तसवीर हो, रूप की रेखा, डाल की कली, गले की माला, स्नेह की परी, जल की तरंग, रात की चाँदनी, दिन की छाँह हो!" यह उसी राजकुमार की प्रतिज्ञा है ! कनक ने उठकर बिजली का पंखा खोल दिया। पसीना सूख गया, हृदय की आँच और तेज हो गई । इच्छा हुई, राजकुमार को खूब भली-धुरी सुनावे-"तुम श्रादमी हो ?--एक बात कहकर फिर भूल जानेवाले तुम-तुम आदमी हो ? तुम होटलों में खानेवाले मेरे हाथ का पकाया भोजन नहीं खा सकते ?" ___ "यह कौन थी ? होगी कोई !-मुझसें जरूरत ? नः, इंधर गई है, पता लेना ही चाहिए, यह थी कौन १ मयना!". . [ ८० ]अप्सरा मयना सामने खड़ी हो गई। "गाड़ी जल्द तैयार करना । रात ही को, राजकुमार के चले जाने के बाद, कनक ने गहने उतार डाले थे। जिस वन में थी, उसी में, जूते पहन, खटाखट नीचे उतर गई। इतना जोश था, जैसे तबियत खराब हुई ही नहीं। 'खोजने जाऊँ ? नः।" नीचे मोटर तैयार थी, बैठ गई। "किस तरफ चलें ?" ड्राइवर ने पूछा। राजकुमार की मोटर सियालदह की ओर गई थी। उसी तरफ देखती रही। "इस तरफ। दूसरी तरफ, वेलेस्ली स्कायर की तरफ चलने के लिये कहा। ___ मोटर चल दी। धर्मतल्ला मोटर पहुँची, तो बाएँ हाथ चलने के लिये कहा । वह राह भी सियालदह के करीब समाप्त हुई है। नुकड़ पर पहुँची, तो स्टेशन की तरफ चलने के लिये कहा। ___ कनक ने राजकुमार की मोटर का नंबर पीछे से देख लिया था। सियालदह स्टेशन पर कई मोटरें खड़ी थीं। उतरकर देखा, उस मोटर का नंबर नहीं मिला। कलेजे में फिर नई लपटें उठने लगीं। स्टेशन पर पूला, क्या अभी.कोई गाड़ी गई है.१ "सिक्स अप एक्सप्रेस गया।" "कितनी देर हुई ?" "सात-पाँच पर छूटता है।" खड़ी रह गई। "कैसी आदमियत ! देखा, पर मिलना उचित नहीं समा । और मैं, मैं पीछे लगी फिरती हूँ। बस । अब, अब मेरे पैरों भी पड़े, तो मै उधर देखू नहीं। कनक चिंता में डूब रही थी। भीतर-बाहर, पृथ्वी-अंतरिक्ष सब जगह जैसे आग लग गई है। संसार आँखों के सामने रेगिस्तान की तरह तप रहा है। शक्ति का. सौंदर्य का एव [ ८१ ]अप्सरा भी चित्र नहीं देख पड़ता। पहले की जितनी सुकुमार मूर्तियाँ कल्पना के जाल में आप ही फंस जाया करती थीं, अब वे सब जैसे पकड़ ली गई हैं। किसी ने उन्हें इस प्रलय के समय अन्यत्र कहीं विचार करने के लिये छोड़ दिया है। कनक मोटर पर आकर बैठ गई। "पर चलो।" ड्राइवर मोटर ले चला। कनक उतरी कि एक दरवान ने कहा, मेम साहब बैठी हैं। कनक सीधे अपने पदनेवाले कमरे में चली गई। मेम साहब सर्वेश्वरी के पास बैठी हुई बातचीत कर रही थीं। राजकुमार के जाने के बाद से सर्वेश्वरी के मन में आकस्मिक एक परिवर्तन हो गया। अब वह कनक पर नियंत्रण करना चाहती थी। पर उसे मनुष्य के स्वभाव की बड़ी गहरी पहचान थी। कुछ दिन अभी कुछ न बोलना ही वह उचित समझती थी। कैथरिन की इस संबंध में उसने सलाह ली। बहुत कुछ वार्तालाप हो चुकने के बाद उसने कैथरिल को कनक के गार्जन के तौर पर कुछ दिनों के लिये नियुक्त कर लेना उचित समझा। कैथरिल ने भी 9 महीने तक के लिये आपत्ति नहीं की। फिर उसे योरप जाना था। उसने कहा था कि अच्छा हो, अगर उस समय वे कनक को पश्चिमी आर्ट, नृत्य, गीत और अभिनय की शिक्षा के लिये योरप मेज दें। कनक में जैसा एकाएक परिवर्तन हो गया था, उसका खयाल कर सर्वेश्वरी इस शिक्षा पर उसके प्रवृत्त होने की शंका कर रही थी। अतएव कैथरिन को मोड़ फेर देने के लिये नियुक्त कर लिया था। कनक के आने की खबर मिलते ही सर्वेश्वरी ने बुलाया। "माजो बुलाती हैं। मयना ने कहा । कनक माता के पास गई। 'मेम साहब से तुम्हारी ही बातें हो रही थीं।" कनक की मौहों में बल पड़ गए। कैथरिन ताई गई। कहा- यही कि अगर कुछ और बाकायदा पढ़ लेती, तो और अच्छा होता। कनक खड़ी रही। [ ८२ ]अप्सरा "तुम्हारी तबियत कैसी है ?" "अच्छी है।" कनक ने तीव्र दृष्टि से कैथरिन को देखा। "योरप चलने का विचार है ?" "हाँ, सेप्टेंबर में तै रहा।" "अच्छी बात है।" सर्वेश्वरी कनक की बेफाँस आवाज से प्रसन्न हो गई। माता की बगल में कनक भी बैठ गई। "विजयपुर के राजकुमार का राजतिलक है।" कनक काँप उठी, जैसे जल की तरंग, अपने मन में बहती हुई सोचने लगी-"राजकुमार का राजतिलक !” स्पष्ट कहा, "हमने बयाना ले लिया, दो सौ रोज, खर्च अलग।" . "हमें परसों पहुँच जाना चाहिए।" . "मैं भी चलूगी। “तुम्हें बुलाया है, पर हमने इनकार कर दिया।" . . कनक माता को देखने लगी। "क्या करते १ हमने सोचा, शायद तुम्हारा जाना न हो।" "नहीं, मैं चलूगी।" ... "तुम्हारे लिये तो और आग्रह करते थे। मेम साहब, क्या उस वक्त, साथ चलने के लिये आपको कुसंत होगी ?" "फुसंत कर लिया जायगा। मेम साहब की आँखें रुपयों की चर्चा से चमक रही थीं। "तुमको ५०० रोज देंगे, अगर तुम महफिल में जाओ। यो १००) रोज सिर्फ उनसे मुलाकात कर लेने के।" कनक के हृदय में एक साथ किसी ने हजार सुइयाँ चुमो दी। दर्द को दबाकर बोली-“उतरूंगी।" सर्वेश्वरी की मुर्भाई हुई लता पर आपाट की शील वर्षा हो गई। [ ८३ ]७६ अप्सरा "यह बात है, अपने को सँभाल लो, तमाम उन खराब कर देने से फायदा क्या ?" हृदय की खान में बारूद का धड़ाका हुआ। करुण अधखुली चितवन से कनक राजकुमार का चित्र देख रही थी, जो किसी तरह भी हृदय के पट से नहीं मिट रहा था। कह रही थी-सुनते हो?-पुरुष, यह सब मुझे किसकी गलती से सुनना पड़ रहा है, चुपचाप, दर्द को थामकर ?" "तो तै रहा" "तार कर दिया जाय ?" . "कर दीजिए। "तुम खुद लिखो, अपने नाम से। कनक झपटकर उठी। अपने पढ़नेवाले कमरे से एक तार लिख लाई-"राजा साहब, आपका तार मिला | मैं अपनी माता के साथ आपकी महफिल करने आ रही हूँ।" . सर्वेश्वरी तार सुनकर बहुत प्रसन्न हुई। ___ "सुनो।" कैथरिन कनक को साथ अलग बुला ले गई। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। कनक के स्वभाव का ऐसा चित्र उसने आज ही देखा था। वह उसे ऊपर उसके कमरे में बुला ले गई। (वहाँ अँगरेजी में कहा) "तुम्हारा जाना अच्छा नहीं।" “धुरा क्या है ? मैं इसीलिये पैदा हुई हूँ।" ... "राजा लोग, मैंने सुना है, बहुत बुरी तरह पेश आते हैं।" "हम लोग रुपए पाने पर सब तरह का अपमान सह लेती हैं।" "तुम्हारा स्वभाव पहले ऐसा नहीं था। "पहले बयाना भी नहीं आता था।" "तुम योरप चलो, यहाँ के आदमी क्या तुम्हारी कद्र करेंगे ? मैं वहाँ तुम्हें किसी लॉड से मिला दूंगी. [ ८४ ]७७ अप्सरा कनक की नसों में किसी ने तेज झटका दिया। वह कैथरिन को देखकर रह गई। ___"तुम क्रिश्चियन हो जाओ, राजकुमार तुम्हारे लायक नहीं। वह क्या तुम्हारी कद्र करेगा ? वह तुमसे दबता है, रखी आदमी।"

  • "मैडम !" कड़ी निगाह से कचक ने कैथरिन को देखा । आँखों की

बिजली से कैथरिन काँप उठी । कुछ समझ न सकी। ____"मैं तुम्हारे भले के लिये कहती हूँ. तुम्हें ठीक राह पर ले चलने का मुझे अधिकार है।" कनक सँमल गई। मेरी तबियत अच्छी नहीं, माफ कीजिएगा, इस वक.मुझे छुट्टी दीजिए।" _____ कतक को देखती हुई कैथरिन खड़ी हो गई । कनक बैठी रही। कैथरिन नीचे उतर गई। "इसका दिमाग इस वक्त कुछ खराब हो रहा है। आप डॉक्टर की सलाह लें।" कहकर कैथरिन चली गई। कनक की आँखों के झरोखे से प्रथम योवन के प्रभात-काल में तमाम स्वप्नों की सफलता के रूप से राजकुमार ने ही झाँका था और सदा के लिये उसमें एक शूम्य रखकर तिरोहित हो गया। आज कनक के लिये संसार में ऐसा कोई नहीं, जितने लोग हैं, टूटे हुए उस यंत्र को बार-बार छेड़कर उसके बेसुरेपन का मजाक उड़ानेवाले । इसीलिये अपने आपमें चुपचाप पड़े रहने के सिवा उसके लिये दूसरा उपाय नहीं रह गया। जो प्रेम कभी थोड़े समय के लिये उसके अंधकार हृदय को मणि की तरह प्रकाशित कर रहा था, अब दूसरी की परिचित आँखों के प्रकाश में वह जीवन के कलंक की तरह स्याह पड़ गया है। अंधकार पथ पर जिस एक ही प्रदीप को हृदय में अंचल से छिपा वह अपने जीवन के तमाम मार्ग को आलोक्मय कर लेना चाहती थी, हवा के एक अ-कारण झोंके से वह दीप ही गुल हो गया। उस हवा के आने की पहले ही उसने कल्पना [ ८५ ]अप्सरा क्यों नहीं की अब ? अभी तो तमाम पथ ही पड़ा हुआ है। अब उसका कोई लक्ष्य नहीं, वह दिग्यंत्र ही अचल हो गया है ; अब वह केवल प्रवाह की अनुगामिनी है। ___ और राजकुमार १ प्रतिश्रुत युवक के हृदय की आग रह-रहकर ऑखों से निकल पड़ती है। उसने जाति, देश, साहित्य और आत्मा के कल्याण के लिये अपने तमाम सुखों का बलिदान कर देने की प्रतिज्ञा की थी। पर प्रथम ही पदक्षेप में इस तरह आँखों में ऑखें बिंध गई कि पथ का ज्ञान ही जाता रहा। अब वह बार-बार अपनी भूल के लिये पश्चात्ताप करता है, पर अभी उसकी दृष्टि पूर्ववत् साफ नहीं हुई । कनक की कल्पना-भूर्ति उसकी तमाम प्रगतियों को रोककर खड़ी हो जाती और प्रत्येक समर में राजकुमार की वास्तव शक्ति उस छाया-शक्ति से परास्त हो जाती है। तमाम बाहरी कार्यों के भीतर राजकुमार का यह मानसिक द्वंद्व चलता जा रहा है। ___ आज दो दिन से वह युवती के साथ उसके मायके में है। वहीं से उसको वहाँ ले जाने की खबर तार द्वारा लखनऊ भेज दी। चंदन के बड़े भाई, नंदनसिंह ने तार से सूचित किया कि कोई चिंता न करें, मुमकिन है, चंदन को मुक्ति मिल जाय । इस खबर से मकान के लोग प्रसन्न हैं। राजकुमार भी कुछ निश्चित हो गया । गर्मियों की छुट्टी थी, कलकत्ते के लिये विशेष चिंता न थी। युवती को उसके पिता-माता, बड़े भाई और भावजे तारा कहकर पुकारती थीं। तभी राजकुमार को भी उसका नाम मालूम हुआ। राजकुमार के नाम जान लेने पर युवती कुछ लजित हुई थी। राजकुमार का अस्त-व्यस्त सामान युवती के सुपुर्द था। पहले दो-एक रोज तक सँभालकर रखने की उसे फुर्सत नहीं मिली। अब एक दिन अवकाश पा राजकुमार के कपड़े झाड़-भाड़ तहकर रखने लगी। कनक के मकानवाले कपड़े एक में लपेटे अछूत की तरह एक बाल्टी की डंडी में बँधे हुए थे। युवती ने पहले वही गठरी खोली देखा- भीतर एक जोड़ी जूते भी थे। सभी कपड़े कीमती थे। [ ८६ ]७९ युवती उनकी दशा देख राजकुमार के गार्हस्थ्य-शान पर खूब हँसी। जूते, धोती, कमीज़, कोट अलग कर लिए। कमीज और कोट से एसेंस की महक आ रही थी। भाड़-भाड़कर कपड़ों की चमक देखने लगी। दाहनी बाँह पर एक लाल धब्बा था। देखा, गौर से फिर देखा, संदेह जाता रहा । वह सिंदूरही का धब्बा था। अब राजकुमार पर उसका संदेह हुआ । रज्जू बावू को वह महावीर तथा भीष्म ही की तरह चरित्रवान् समझती थी। उसके पति भी रज्जू बाबू की इज्जत करते थे। उसकी सास उन्हें चंदन से बढ़कर समझती थी। पर यह क्या ? यह सिंदूर ? सूघा, ठीक, सिंदूर ही था। . युवती ने संदेह को संप्रमाण सत्य कर लेने के निश्चय से राजकुमार को बुलाया । एकांत था । युवती के हाथ में कोट देखते ही राजकुमार की दृष्टि में अपराध की छाप पड़ गई। युवती हँसने लगी-मैं समझ गई। राजकुमार ने सर झुका लिया। “यह क्या है ?” युवती ने पूछा। "कोट ।" "अजी, यह देखो, यह । धब्बा दिखाती हुई। "मैं नहीं जानता।" "नहीं जानते ?" "यह किसी की माँग का सेंदुर है जनाब।" सेंदुर सुनते ही राजकुमार चौंक पड़ा। -"सेंदुर ?” "हाँ-हो- सेदुर-सेंदुर-देखो। राजकुमार की नजरों से वास्तव जगत् गायब हो रहा था । "क्या यह कनक की माँग का सेंदुर है ? तो क्या कनक ब्याही हुई है ?" हृदय को बड़ी लज्जा हुई कहा, “बहूजी, इसका इतिहास बहुर बड़ा है। अभी तक मैं चंदन की चिंता में था, इसलिये नहीं बतल सका।" "अब बतलायो। [ ८७ ]अप्सरा "हाँ, मुझे कुछ छिपाना थोड़े ही है ? बड़ी देर होगी।" "अच्छा, ऊपर चलो।" युवती राजकुमार को ऊपर एक कमरे में ले गई। युवती चित्त को एकाग्र कर कुल कहानी सुनती रही। “कहीं-कहीं छूट रही है, जान पड़ता है, सब घटनाएँ तुम्हें नहीं मालूम । जैसे उसे तुम्हारी पेशी की बात कैसे मालूम हुई, उसने कौन- कौन-सी तदबीर की ?" युवती ने कहा। ___"हाँ मुमकिन है। जब मैं चलने लगा, तब उसने कहा भी था कि बस आज के लिये रहो, तुमसे बहुत कुछ कहना है। ___ “आह ! सब तुम्हारा कुसूर है, तुम इतने पर भी उस पर कलंक की कल्पना करते हो?" ___राजकुमार को एक हूक लगी। घबराया हुआ युवती की ओर देखने लगा। ___ "जिसने तुम्हारी सबसे नजदीक की बनने के लिये इतना किया, तुम्हें उसे इसी तरह का पुरस्कार देना था ? प्रतिज्ञा तो तुमने पहले की थी, कनक क्या तुम्हें पीछे नहीं मिली ?" राजकुमार की छाती धड़क रही थी। “लोग पहले किसी भी सुंदर वस्तु को उत्सुक आँखों से देखते है, पर जब किसी दूसरे स्वार्थ की याद आती है, आँखें फेरकर चल देते हैं, क्या तुमने भी उसके साथ ऐसा ही नहीं किया ?” युवती ने राजकुमार के हृदय ने कहा, हाँ, ऐसा ही किया है। जबान से उसने कहा, नीचे कुछ लोगों को उसके चरित्र की अश्राव्य आलोचना करते हुए मैंने सुना है। "भूठ बात । मुझे विश्वास नहीं । तुम्हारे कानों ने तुम्हें धोखा दिया होगा। और किसी के कहने ही पर तुम क्यों गए ? इसलिये कि तुम खुद उस तरह का कुछ उसके संबंध में सुनना चाहते थे।" राजकुमार का मन युवती की तरफ हो गया । [ ८८ ]अप्सरा __ युवती मुसकिराई-"तो चलते समय की धर-पकड़ का दान है- क्यों ?" राजकुमार ने गर्दन झुका ली। ___"इतने पर भी नहीं समझे रज्जू बाबू ? यह आप ही के नाम का सिंदूर है।" राजकुमार को असंकुचित देखती हुई युवती हँस रही थी-'आपसे प्रेम की भी कुछ बातें हुई ?" ___ "मैंने कहा था, तुम मेरी कविता हो।" युवती खिलखिलाकर हँसी-कैसा चोर पकड़ा? फिर आपकी कविता ने क्या जवाब दिया ?" "कवि लोग अपनी ही लिखी पंक्तियाँ मूल जाते हैं। "कैसा ठीक कहा | क्या अब भी आपको संदेह है ?" राजकुमार के मस्तक पर एक भास्सा आ पड़ा। "रज्जू बाबू, तुम गलत राह पर हो।" राजकुमार की आँखें छलछला आई। "मैं बहुत शीघ्र उससे मिलना चाहती हूँ। छिः, रज्जू बाबू, किसी की जिंदगी बरबाद कर दोगे? और उसकी, जवान से जिसके हो चुके। हम भी जायँगे दीदी" एक आठ साल का बालक दौड़ता हुआ ऊपर चढ़ गया और दोनो हाथों में अपनी बैठी हुई बहन का गला भर लिया-दीदी-आज राजा साहब के यहाँ गाना होगा। हम मी जायँगे। बड़े दादा जायँगे, मुन्नो जायगा । हम भी जायेंगे। बालक उसी तरह पकड़े हुए थिरक रहा था। "किसका गाना है ?” युवती ने बच्चे से पूछा। __“कनक, कनक, कनक का" बालक आनंद से थिरक रहा था। युवती और राजकुमार गंभीर हो गए। बच्चे ने गला छोड़ दिया। बहन की मुद्रा देखी, फिर फुर्ती से जीने के नीचे उतर, दौड़ता हुआ ही मकान से बाहर निकल गया। युवराज का अभिषेक है, यह दोनो जानते थे। विजयपुर वहाँ से [ ८९ ]अप्सरा मील-भर है। युवती के पिता स्टेट के कर्मचारी थे। बालक की बात पर अविश्वास करने का कोई कारण न था। ___ "देखा बहूजी," राजकुमार ने अपने अनुभव-सत्य की दृढ़ता से कहा। ___ "अभी कुछ कहा नहीं जा सकता ; रज्जू बाबू, किसके मन में कौन- सी भावना है, इसका दूसरा अनुमान लगाए, तो गलती का होना ही अधिक संभव है।" "अनुमान कमी-कभी सत्य ही होता है।" "पर तुम्हारी तरह का अनुमान नहीं।" अब तक कई लड़के आँगन में खड़े हुए तालियाँ पीटते थिरकते हुए, हम भी जायेंगे, हम भी जायँगे, सम स्वर में घोर संगीत छेड़े हुए थे। ___ युवती ने झरोखे से लड़कों को एक बार देखा । फिर राजकुमार की तरफ मुंह करके कहा कि बहुत अच्छा हो, अगर आज ही स्टेशन पर कनक से मिला जाय । गाड़ी, एक ही, पूरब की, चार बजे आती है। ___"नहीं, यह किसी तरह भी ठीक नहीं। आपको तो मैं मकान से बाहर निकलने की राय दे ही नहीं सकता, और इस तरह के मामले में !" "किसी बहाने मिल लेंगे", युवती उत्सुक हो रही थी। "किसी बहाने भी नहीं, बहूजी, स्टेट की बातें आपको नहीं मालूम।" ___ राजकुमार गंभीर हो गया। युवती त्रस्त हो संकुचित हो गई- "पर मुझे एक दफा जरूर दिखा दो", करुणानित सहानुभूति की दृष्टि से देखती हुई युवती ने राजकुमार का हाथ पकड़ लिया। "अच्छा (१४) दो रोज और बीत गए । अंगों के ताप से कनक का स्वर्ण-रंग और चमक उठा । आँखों में भावना मूर्तिमती हो गई। उसके जीवन के प्रखर स्रोत पर मध्याह्न का तपन तप रहा था, जिससे वाष्प के बाह्या- वरण के भीतर प्रवाह पर भावनाओं के सूर्य के सहस्रों ज्योतिर्मय पुष्प खुले हुए थे। पर उसे इसका ज्ञान न था। वह केवल अपने बाहरी आवरण को देखकर दैन्य में मुरझा रही थी। जिस लेह की डोर से [ ९० ]प्सरा ८२ उसके प्रणय के हाथों ने राजकुमार को बाँधा था, केवल वही अब रिक्त उसके हाथों में रह गई है। ___ अब उसकी दृष्टि में कर्तव्य का ज्ञान नहीं रहा, स्वयं ही संचालित की तरह बाह्य वस्तुओं पर वैठती और फिर वहाँ से उसी की तरह हताश हो उठ आती है। उससे उसकी आत्मा का संयोग नहीं रहता, जैसे वह स्वयं, अब अकेली रह गई । इस आकांक्षा और अप्राप्ति के अपयजित समर में उन्हीं की तरह वह भी उच्छ खल हो गई है। माता के साथ अलक्ष्य गति पर चलती हुई तभी वह गाने के लिये राजी हो गई। जिस जीवन का राजकुमार की दृष्टि में भी आदर नहीं हुधा । उसका अब उसकी दृष्टि में भी कोई महत्व नहीं। सर्वेश्वरी कनक को प्रसन्न रखने के हर तरह के उपाय करती, पर कन्या को हर जगह वह वीतराग देखती। जिससे भविष्य के सुख पर संदेह बढ़ रहा था। वह देखती, चिंता से उसके अचंचल कपोलों पर आत्मसम्मान की एक दिव्य ज्योति खल पड़ती थी, जिससे उसे कुछ त्रस्त हो जाना पड़ता, और कनक की देह की हरियाली के ऊपर से जेठ की लू बह जाती थी। जल की मराल-बालिका को स्थल से फिर जल मे ले जाने की सर्वेश्वरी कोशिश किया करती थी। पर उसका इच्छित तड़ाग दूर था। जिस सरोवर में वह उसे छोड़ना चाहती, वह उसे पंकिल देख पड़ता। स्वयंनिर्मित रूप का जब अस्तित्व ही नहीं रहा, तब कला की निर्जीव मूर्तियों पर कब तक उसकी दृष्टि रम सकती थी? सर्वेश्वरी के चलने का समय आया । तैयारियाँ होने लगी। कपड़े, अलंकार, पेशवाज, साज-सामान श्रादि बँधने लगे। आकाश की उड़ती हुई.परी, पर काटकर, कमरे में कैद की जाने लगी-सुख के सागर की बालिका जी बहलाने के लिये कृत्रिम सरोवर में छोड़ दी गई जीवन के दिन सुख से काटने के विचार से कनक को अपना पेश इख्तियार करने की पुनश्च सलाह दी जाने लगी। सर्वेश्वरी के सार वाधकार लोग भी जमा हो गए। और अनेक तरह की स्तुतियों से कनक को प्रसन्न करने लगे [ ९१ ]अप्सरा ___ कनक रात्रि के सौंदर्य की तरह इन सबकी आँखों से छिप गई। रही केवल गायिका-नायिका कनक ! अपनी तमाम चंद्रिकाओं के साथ बादलों की आड़ से अब ज्योत्स्ना एक दूसरे ही लोक में थी, यहाँ उसकी छाया-मात्र रह गई थी। कनक तार कर चुकी थी।चलते समय इनकार नहीं किया। सर्वेश्वरी कुछ देर तक कैथरिन की प्रतीक्षा करती रही । पर जब गाड़ी के लिये सिर्फ श्राधा घंटा समय रह गया, तब परमात्मा को मन-ही-मन स्मरण कर मोटर पर बैठ गई । कनक भी बैठ गई । कनक समझ गई, कैथरिन केन आने का कारण उस रोज का जवाब होगा । कनक और सर्वेश्वरी को फर्स्ट क्लास का किराया मिला था। कनक का नहीं मालूम था कि कमी कुँवर साहब को वह इतनी तेज निगाह से देख चुकी है कि देखते ही पहचान लेगी। सर्वेश्वरी भी नहीं जानती थी कि कुँवर साहब के आदमी कभी उसके मकान आकर लोट गए हैं, वही कुँवर साहब बालिग होकर अब राजा साहब के आसन पर लाखों प्रजाओं का शासन करेंगे। . . रेल समय पर, ठीक चार बजे शाम को, विजयपुर स्टेशन पहुंची। विजयपुर वहाँ से तीन कोस था। पर राजधानी होने के कारण स्टेशन का नाम विजयपुर ही रखखा गया था। राजा साहब, इनके पिता, ने इसी नाम से स्टेशन करने के लिये बड़ी लिखा-पढ़ी की थी, कुछ रुपए भी दिए थे। कंपनी उन्हीं के नाम से स्टेशन कर देना चाहती थी, पर राजा साहब पुराने विचायें के मनुष्य थे। रुपए को नाम से अधिक महत्व देते थे। कंपनी की माँगी हुई रकम देना उन्हे मंजूर न था। कहते हैं, एक बार स्वाद की बातचीत हो रही थी, तो उन्होंने कहा था कि बासी दाल में सरसों का तेल डालकर, खाय, तो ऐसा स्वाद और किसी सालन में नहीं मिलता। वे नहीं थे, पर गरीबों में उनकी यह कीर्वि-कथां रह गई थी। स्टेशन पर कनक के लिये कुंवर साहब ने अपनी मोटर भेज दी थी। सर्वेश्वरी के लिये विजिटर्स मोटर और उसके भादमियों के लिये एक लारी [ ९२ ]८५ अप्सरा तार पाने के पश्चात् अपने कर्मचारियों में कॅवर साहब ने कनक की बड़ी तारीफ की थी, जिससे ६-७ कोस के इर्द-गिर्द एक ही दिन मे खबर फैल गई कि कलकत्ते की एक तवायक श्रा रही है, जिसका मुकाबला हिंदोस्तान की कोई भी गानेवाली नहीं कर सकती । आज दाही बजे से तमाम गाँवों के लोग एकत्र होने लगे थे। आज ही से महफिल शुरू थी। ___ कनक माता के साथ ही विजिटर्स कार पर बैठने लगी, तो एक सिपाही ने कहा-"कनक साहब के लिये महाराज ने अपनी मोटर भेजी है।" "तुम उस पर बैठो। सर्वेश्वरी ने कहा । ___नहीं, इसो पर चलेंगी।" "यह क्या ? हम जैसा कहें, वैसा करो।" कनक उठकर राजा साहब की मोटर पर चली गई। ड्राइवर कनक को ले चला । सर्वेश्वरी की मोटर खड़ी रही। कहने पर भी ड्राइवर 'चलते हैं, चलते हैं।" इधर-उधर करता रहा। कभी पानी पीता, कभी पान खाता, कमी सिगरेट सुलगाता। सर्वेश्वरी का कलेजा काँपने लगा।शंका की अनिमेष दृष्टि से कनक की मोटर की तरफ ताकती रही। मोटर अदृश्य हो गई। कनक भी पहले घबराई । पर दूसरे ही क्षण सँभल गई । एक अमोघ मंत्र जो उसके पास था, वह अब भी है। उसने सोचा, रही शरीर की बात, इसका सदुपयोग, दुरुपयोग भी उसके हाथ में है। फिर शंका किस बात की ? जिसका कोई लक्ष्य ही न है, उसकी किसी भी प्रगति का विचार ही क्या? ____ कनक निस्वस्त एक बगल पीछे की सीट में बैठी थी। मोटर उड़ी जा रही थी। ड्राइवर को निश्चित समय पर कुँवर साहब के पास पहुंचना था । भावी के दृश्य कनक के मन को सजग कर रहे थे। पर उसका हृदय बैठ गया था। अब उसमें उत्साह नहीं रह गया था। रास्ते के पेड़ों, किनारे खड़े हुए आदमियों को देखती, सब कुछ अपरि- चित था । हृदय की शून्यता बाहर के अज्ञात शून्य से मिल जाती। [ ९३ ]अप्सरा इसी तरह माग पार हा रहा था। आगे क्या होगा, उसकी मा उसके साथ क्यों नहीं आने पाई, इस तरह के प्रश्न उठकर भी मर जाते थे। जो एक निरंतर मरोर उसके हृदय में थी, उससे बड़ा कोई असर वे वहाँ डाल नहीं सकते थे। इसो समय उसकी तमाम शून्यता एक बार भर गई । हृदय से ऑखों तक पिचकारी की तरह स्लेह का रंग भर गया-उसने देखा, रास्ते के किनारे राजकुमार खड़ा है। हृदय उमड़कर फिर बैठ गया- अब ये मेरे नहीं हैं। _दर्शन के बाद ही मोटर एक भाग बढ़ गई। दूसरे, प्रेम के दबाव से वह कुछ कह भी नहीं सकी। राजकुमार खड़ा हुआ देखता रहा । कनक ने दो बार फिर-फिरकर देखा, राजकुमार को बड़ी लज्जा लगी, जैसे उसी के कलंक की मूर्ति सहस्रों इंगितों से कनक के द्वारा उसके अपयश की घोषणा कर रही हो। ___ राजकुमार बिलकुल सादी पोशाक में था। गाना सुनने के लिये जा रहा था, दूसरों के मत से; अपने मत से कनक को तारा से मिलाने। तारा ने जब से कहा कि गलती पर है, तब से कनक को पाने के लिये उसके दिल में फिर लालसा का अंकुर निकलने लगा है। पर फिर अपनी प्रतिज्ञा की तरफ देखकर वह हताश हो जाता है । "कनक से मुलाकात तो हुई, दो बार उसने फिर-फिरकर देखा भी। क्या वह अब भी मुझे चाहती है ? वह राजा साहब के यहाँ जा रही है, मुमकिन है, मुझे रोब दिखलाया हो, मैं क्या कहूँगा ? नः लौट जाऊँ, कह दूं कि मुझसे नहीं होगा। लौटकर कलकत्ते जायगी, तब जो बातचीत करना चाहें कर लीजिए." अनेक हर्ष और विषाद की तस्वीरों को देखता हुआ आशा और नैराश्य के भीतर से राजकुमार विजयपुर की ही तरफ जा रहा था। घर लौटने की इच्छा प्रबल बाधा की तरह मार्ग रोककर खड़ी हो जाती, पर भीतर न-जाने एक और कौन थी, जिसकी दृष्टि में उसके सब अपराधों के लिये क्षमा थी, और उस दृष्टि से उसे हिम्मत होती। [ ९४ ]बाधा के रहने पर भी अज्ञात पदक्षप उधर ही को हो रहे थे । ज्यादा होश में आने पर राजकुमार भूल जाता था, कुछ समझ नहीं सकता था कि कनक से आखिर वह क्या कहेगा । बेहोशी के वक्त. कल्पना के लोक में तमाम सृष्टि उसके अनुकूल हो जाती, कनक उसकी, छाया- लोक उसके, बाग-इमारत, आकाश-पृथ्वी सब उसके। उसके एक-एक इंगित पर कनक उठती-बैठती, जैसे कभी तकरार हुई ही नहीं, कमी हुई थी, इसकी भी याद नहीं । राजकुमार इसी द्विधा में धीरे-धीरे चला जा रहा था। पीछे से एक मोटर और आ रही थी, यह सर्वेश्वरी की मोटर थी। कनक जब चली गई, तब सर्वेश्वरी को मालूम हुआ कि उसने गलती की । वहाँ सहायक'कोई न था। दूसरा उपाय भी न था। कनक की रक्षा के लिये वह उतावली हो रही थी। इसी समय उसकी दृष्टि राज- कुमार पर पड़ी। उसने हाथ जोड़ लिए, फिर बुलाया। राजकुमार समझ गया कि डेरे पर मिलने के लिये इशारा किया। उसके हृदय में आशा की समीर फूट पड़ी। पैर कुछ तेजी से उठने लगे। कनक की मोटर एक एकांत बँगले के द्वार पर ठहर गई । यहाँ कुँवर साहब अपने कुछ घनिष्ठ मित्रों के साथ कनक की प्रतीक्षा कर रहे थे। एक अर्दली कनक को उतारकर कुँवर साहब के बँगले में ले गया। ___कुँवर साहब का नाम प्रतापसिंह था, पर थे बिलकुल दुबले-पतले। इकीस वर्ष की उम्र में ही सूखी डाल की तरह हाथ-पैर, मुँह सीप की तरह पतला हो गया था। आँखों के लाल डोरे अत्यधिक अत्याचार का परिचय दे रहे थे। राजा साहब ने उठकर हाथ मिलाया । एक की की तरफ बैठने के लिये इशारा किया। कनक बैठ गई। देखा. वहाँ जितने आदमी थे, सब आँखों में वतला रहे थे। उन्हें देखकर वह डरी । उधर अनर्गल शब्दों के अव्यर्थ वाण एक ही लक्ष्य पर सातो महारथियों ने निश्शंक होकर छोड़ना प्रारंभ कर दिया-"उस रोज जब हम आपके यहाँ गए थे, पता नहीं, आपकी बाँह किसके गले में थी। इसी तरह के और इससे भी चुमीले वाक्य । [ ९५ ]अप्सरा ___ कनक को आज तक व्यंग्य सुनने का मौका नहीं लगा था। यहाँ सुनकर चुपचाप सह लेने के सिवा दूसरा उपाय भी न था, और इतनी सहनशीलता भी उसमें न थी। कुँवर साहब जिस तीखी कामुक दृष्टि से एकटक देखते हुए इस मधुर आलाप का आनंद ले रहे थे, कनक के रो-रोएँ से घृणा का जहर निकल रहा था। मेरी मा अभी नहीं आई ?” कुचर साहब की तरफ मुखातिब होकर कनक ने पूछा। कुँवर साहब के कुछ कहने से पहले ही पारिषद-वर्ग बोल उठे- "अच्छा, अब मा की याद की जायगी।" सब अट्टहास हँसने लगे। कनक सहम गई, उसने निश्चय कर लिया कि अब यहाँ से निस्तार पाना मुश्किल है। याद आई, एक बार राजकुमार ने उसे बचाया था; वह राजकुमार आज भी है, पर उसने उस उपकार का उसे जो पुरस्कार दिया, उससे उसे नफरत है, इसलिये आज वह उसकी विपत्ति का सहायक नहीं, केवल दर्शक होगा। वह पहुँच से दूर, अकेला है । यहाँ वह पहले की तरह होता भी, तो उसकी रक्षा न कर सकता। कनक इसी तरह सोच रही थी कि कुवर साहब ने कहा, आपकी मा के लिये दूसरी जगह ठीक की गई है, यहाँ आप ही रहेंगी। ____ कनक के होश उड़ गए। रास्ता भूली हुई दृष्टि से चारो तरफ देख रही थी कि कुँवर साहब ने कहा-"यह मोटर है, आपको महफ़िल लगने पर ले जाने के लिये । आप किसी तरह घबराइए मत । यहाँ एकांत है। आपको श्राराम होगा। इसी ख्याल से आपको यहाँ लाया गया है। चारो तरफ से जल की हवा आ रही है। छोटी-छोटी नावें भी हैं। आप जब चाहें, जल-विहार कर सकती हैं। भोजन भी आपके लिये यहीं आ जायगा।". ____ "आपको कोई तकलीफ न होगी खुक-छुक-छुक-छुक- खो-ओ-ओ खो-ओं-"मुसाहबों का अट्टहास । ___मुझे महफिल जाने से पहले अपनी मा के पास जाना होगा। क्योंकि पेशवाज वगैरह उन्हीं के पास है।" [ ९६ ]अप्सरा ह "अच्छा, तो घंटे-भर पहले चली जाइएगा।". कुवर साहब ने मुसाहबों की तरफ देखकर कहा। "रास्ते की थकी हुई हूँ, माफ फर्माएँ, मैं कुछ देर आराम करना चाहती हूँ। आपके दर्शनों से कृतार्थ हो गई।" ___ "कमरे में पलँग विछा है, आराम कीजिए।" कुँवर साहब की इस अति-मधुर स्तुति में जो लालसा छिपी हुई थी, कनक उसे ताड़ नही सकी, शायद अनभ्यास के कारण, पर उसका जी उतनी ही देर में हद से ज्यादा ऊब गया था। उसने स्वाभाविक ढंग से, कहा-"यहाँ मैं आराम नहीं कर सकूँगी, नई जगह है. मुझे मेरी मा के पास भेज दीजिए, फिर जब आपकी आज्ञा होगी, मैं चली आऊँगी।" कुँवर साहब ने कनक को भेज दिया। सर्वेश्वरी वहाँ ठहराई गई थी, जहाँ बनारस, लखनऊ, आगरे की और-और तवायफें थीं। सर्वेश्वरी का स्थान सबसे ऊँचा, सजा हुआ तथा सुखद था। और और तवायफों पर पहले ही से उसका रोष गालिब था । वहाँ कनक को न देख सर्वेश्वरी जाल में पड़ी हुई साचकर बहुत व्याकुल हुई। और मी जितनी तवायफ्रें थीं, सबसे समाचार कहा । सब त्रस्त हो रही थीं । उसी समय उदास कनक को लेकर मोटर पहुँची। सर्वेश्वरी की जान-में-जान आई। और और तवाय आँखें फाड़कर उसके अपार रूप पर विस्मय प्रकट कर रही थी, और इस तरह का खतरा साथ ही में रखकर खतरे से बची रहने के ख्याल पर "बिस्मिल्लाह-तौबा, अल्लाह मियाँ ने आपको कैसी अक्ल दी है कि इतना जमाना देखकर भी आपको पहले नहीं सूमा" श्रादि-आदि से सहानुभूति के शब्दों से अभिनंदित कर रही थी। सर्वेश्वरी आशा कर रही थी कि कनक अपने दुःख की कथा कहेगी। पर वह उस प्रसंग पर कुछ बोली ही नहीं। माता के विस्तरे पर बैठ गई। और भी कई अपरिचित तवाय परिचय के लिये पास आ घेरकर बैठ गई। मामूली कुशल प्रश्न होते रहे । सबने अनेक उपायें से कनक के एकत्र वास का हाल जानना चाहा, पर वह टाल है. [ ९७ ]अप्सरा गई-"कुछ नहीं, सिर्फ मिलने के लिये कुँवर साहब ने बुलाया था।" ____ यह भी एकांत स्थान था। गढ़ के बाहर एक बड़ा-सा बँगला बाग के बीच में था। इनके रहने के लिये खाली कर दिया गया था। चारा तरफ हजारों किस्म के सुगंधित फूल लगे हुए थे। बीच-बीच से पक्की टेढ़ी, सर्प की गति की नकल पर राहें कटी हुई थीं। राजकुमार भटकता फिरता पूछता हुआ बारा के फाटक पर आया। एक दफा जी में पाया कि भीतर जाय, पर लज्जा से उधर ताकने की भी हिम्मत नहीं होती थी। सूर्यास्त हो गया था। गोधूलि का समय था। गढ़ पर खड़ा रहना भी उसे अपमान-जनक जान पड़ा । वह बारा मे धुसकर एक बेंच पर बैठ गया, और जेब से एक बीड़ी निकालकर पीने लगा। वह जिस जगह बैठा था, वहीं से कनक के सामने ही एक मरोखा था और उससे वहाँ तक नजर साफ चली जाती थी। पर अंधेरे के कारण बाहर का आदमी नहीं देख सकता था । कनक वर्तमान समय की उलझी हुई ग्रंथि को खोलने के लिये मन-ही-मन सहस्रों बार राजकुमार को बुला चुकी थी और हर दुका प्रत्युत्तर मे उसे निराशा मिलती थी- राजकुमार यहाँ क्यों आएगा ?" कनक की माता भी उसकी फिक में थी। कारण, वह जानती थी कि किसी भी अनिश्चित कार्य का दबाव पड़ने पर उसकी कन्या जान पर खेल जायगी । वह कनक के लिये दीन-दुनिया सब कुछ छोड़ सकती थी। राजकुमार के हृदय में लज्जा, अनिच्छा, धृणा, प्रेम, उत्सुकता, कई विरोधी गुण थे, जिनका कारण बहुत कुछ उसकी प्रकृति थी और थोड़ा-सा उसका पूर्व-संस्कार और भ्रम । संध्या हो गई। नौकर लोग भोजन पकाने लगे। कमरों की बत्तियाँ जल गई। बाहर के लाइट- पोस्ट भी जला दिए गए । राजकुमार की बेंच एक लाइट-पोस्ट के नीचे थी। बची जलानेवाला राज्य का मशालची था। पर उसने राजकुमार को तबलची श्रादि में शुमार कर लिया था। इसलिये पूछ-ताछ नहीं की । कंधे की सीढ़ी पोस्ट से लगाकर बत्ती जला राजकुमार की तरफ से घृणा से मुँह फेरकर, उस तबलची से वह मशालची होने पर भी [ ९८ ]अप्सरा अपने धर्म में रहने के कारण कितना बड़ा है, सर झुकाए हुए इसका निर्णय करता हुआ चला गया। फिर राजकुमार को दिखलाने पर वह शायद ही पहचानता, घृणा के कारण उसकी नजर राजकुमार पर इतना कम ठहरी थी। प्रकाश के कारण अब बाहर से राजकुमार भी भीतर देख रहा था। कनक को उसने एक बार, दो बार, कई बार देखा । वह पीली पड़ गई थी, पहले से कुछ कमजोर भी देख पड़ती थी। राजकुमार के हृदय के भाव उसके आँसुओं में मलक रहे थे। मन उसके विशेष प्राचरणो की आलोचना कर रहा था। इसी समय कनक की अचानक उस पर निगाह पड़ी। सवौंग काँप उठा। इतना सुख उसे कभी नहीं मिला था। राजकुमार से मिलने के समय भी नहीं। फिर देखा, आँखों की प्यास बढ़ती ही गई । उत्कंठा की तरंग उठी, वह भी उठकर खड़ी हो गई और राजकुमार की तरफ चली। कनक को राजकुमार ने देखा। समझ गया कि वह उसी से मिलने आ रही है। राजकुमार को बड़ी लजा लगी, कनक के वर्तमान व्यवसाय पर और उससे अपनी घनिष्ठता के कारण वह हिम्मत करके भी उस जगह, उजाले मे, नहीं रह सका । तारा से कनक को यदि न मिलाना होता, तो शायद कनक को इस परिस्थिति में देखकर वह एक क्षण भी वहाँ न ठहरता। कनक ने देखा, राजकुमार एक अंधेरे कुंज की तरफ धीरे-धीरे बढ़ रहा है। कनक भी उधर ही चली। इतने समय की तमाम बातें एक ही साथ निकलकर हृदय और मस्तिष्क को मथ रही थीं। राजकुमार के पास पहुँचते ही कनक को चक्कर आ गया। उसे जान पड़ा कि वह गिर जायगी। बचाव के लिये स्वभावतः एक हाथ उठकर राजकुमार के कंधे पर पड़ा । अज्ञात-चालित राजकुमार ने भी उसे आपृष्ठ कमर एक हाथ से लपेटकर थाम लिया । कनक अपनी देह का तमाम भार राजकुमार पर रख आराम करने लगी, जैसे अब तक की की हुई सपस्या का फल भोग कर रही हो । राजकुमार थामे खड़ा रहा। "तुमने मुझे भुला दिया. मैं अपना अपराध भी न समझ सकी।" [ ९९ ]अप्सरा तकिए के तौर से राजकुमार के कंधे पर कपोल रक्खे हुए अधखुली सरल सप्रम दृष्टि से कनक उसे देख रही थी। इतनी मधुर आवाज कानों के इतने नजदीक से राजकुमार ने कभी नहीं सुनी । उसके तमाम विरोधी गुण उस ध्वनि के तत्व में डूब गए। उसे बहूजी की याद आई । वह बहूजी की तमाम बातों का संबंध जोड़ने लगा । यह वही कनक है, जिस पर उसे संदेह था। कुंज में बाहर की बत्तियों का प्रकाश क्षीण होता हुआ भी पहुँच रहा था। उसने एक बिंदी उसके मस्तक पर लाल-लाल चमकती हुई देख लो, संदेह हुआ कि उसके साथ कनक का विवाह कब हुआ। द्विधा ने मन के विस्तार को संकु चित कर एक छोटी-सी सीमा में बाँध दिया। प्रतिज्ञा जाग उठी। कई कोड़े कस दिए। कलेजा काँप गया धीमी-धीमी हवा बह रही थी। कनक ने सुख से पलकें मूंद लीं । निर्वाक सचित्र राजकुमार को अपनी रक्षा का मार सौंपकर विश्राम करने लगी। राजकुमार ने कई बार पूछने का इरादा किया, पर हिम्मत नहीं हुई। कितनी अशिष्ट अमा- संगिक बात! राजकुमार कनक को प्यार करता था। परं उस प्यार का रंग बाहरी आवरणों से दवा हुश्रा था। वह समझकर भी नहीं समझ पाता था। इसका बहुत कुछ कारण कनक के इतिहास के संबंध में उसका अज्ञान था। बहुत कुछ उसके पूर्व-संचित संस्कार थे। उसके भीतर एक इतनी बड़ी प्रतिज्ञा थी, जिसके बड़े-बड़े शब्द दूसरों के दिल में प्रास पैदा करनेवाले थे, जिनका उद्वेश्य जीवन की महत्ता थी, प्रेम नहीं। प्रेम का छोटा-सा चित्र वहाँ टिक ही नहीं पाता था। इसलिये प्रेम की छाया में पैर रखते ही वह चौंक पड़ता था। अपने सुख की कल्पना कर दूसरों की निगाह में अपने को बहुत छोटा देखने लगता था। इसी- लिये उसका प्यार कनक के प्यार के सामने हल्का पड़ जाया करता था, पानी के तेल की तरह, उसमें रहकर भी उससे जुदा रहता था, उपर तैरता फिरता था। अनेक प्रकार की शंकाएँ जग पड़तीं, दोनो की आत्मा की प्रथि को एक से खुलाकर दोनो को जुदा कर देती थीं। [ १०० ]अप्सरा इसी अवस्था में कुछ देर बोत गई। थकी हुई कनक प्रिय की बाहो मे विश्राम कर रही थी। पर हृदय में जागती थी। अपने सुख को आप ही अकेली तोल रही थी। उसी समय राजकुमार ने कहा- "मेरी बहूजी ने तुम्हें बुलाया है, इसीलिये आया था।" कनक की आत्मा में अव्यक्त प्रतिध्वनि हुई-नहीं तो न आते " फिर एक जलन पैदा हुई । शिराओं में तडित् का तेज प्रवाह बहने लगा। कितनी असहृदय बात ! कितनी नफरत ! कनक राजकुमार को छोड़ अपने ही पैरों सँभलकर खड़ी हो गई। चमकीली निगाह से एक बार देखा, पूछा-'नहीं तो न आते ?" अपने जवाब में राजकुमार को यह आशा न थी, वह विस्मय-पूर्वक खड़ा कनक को एक विस्मय की ही प्रतिमा के रूप से देख रहा था। अपने वाक्य के प्रथम अंश पर ही उसका ध्यान था । पर कनक को राजकुमार की बहूजी की अपेक्षा राजकुमार की ही ज्यादा जरूरत थी। इसलिये उसने दूसरे वाक्य को प्रधान माना । राजकुमार के भीतर जितना दुराव कुछ विरोधी गुणों के कारण कभी-कभी आ जाया करता था, वह उसके दूसरे वाक्य में अच्छी तरह खुल रहा था। पर उसकी प्रकृति के अनुकूल होने के कारण उसकी तरह का विद्वान मनुष्य भी उस वाक्य की फाँस नहीं समझ सका । कनक उसकी दृष्टि मे प्रिय अभिनेत्री; केवल संगिनी थी। ____ "तुम्हीं ने कहा था, याद तो होगा-तुम मेरी कविता हो; इसका जवाब भी जो मैंने दिया था, याद होगा।' लौटकर कनक डेरे की तरफ चली। उसके शब्द राजकुमार को पार कर गए । वह खड़ा देखता और सोचता रहा, “कब कहाँ गलती से एक बात निकल गई, उसके लिये कितना बड़ा ताना! मैं साहित्य की वृद्धि के विचार से अभिनय किया करता हूँ। स्टेज की मित्रता मानकर इनका यह बाँकपन (अहह, कैसा बल खाती हुई जा रही है ), नाजोमदा, नजाकत बरदाश्त कर लेता हूँ। आई हैं रुपए कमाने, ऊपर से मुझ पर गुस्सा झाड़वी हैं न जाने किसके कपड़ों का बोझ गधे की [ १०१ ]अप्सरा तरह तीन घंटे तक लादे खड़ा रहा। काम की बात कही नहीं कि आँखें फेर ली, मचलकर चल दी। आखिर जात कौन है । अब मैं पैरों पड़ता फिरू। नः बाबा, इतनी कड़ी मिहनत मुझसे न होगी। बहूजी से कह दूं कि यह काम मेरे मान का नहीं, उसे भेजो, जिसे मनाने का अभ्यास हो। राजकुमार धीरे-धीरे बगीचे के फाटफ की तरफ चला । निश्चय कर लिया कि सीधे बहूजी के पास ही जायगा। सर्वेश्वरी भी बड़ी देर तक कनक को न देख खोज रही थी। बाहर आ रही थी कि उससे मुलाकात हुई । “अम्मा, आए हैं, और इसलिये कि उनकी बहूजी मुझसे मिलना चाहती हैं।" कनक ने कहा- मैं चली आई, उधर कँवर साहब के रंग-ढंग भी मुझे बहुत बुरे मालूम दे रहे थे। धम्मा, उसको देखकर मुझे डर लगता है। ऐसा देखता है, जैसे मुझे खा जायगा। छोड़ता ही न था। जब मैंने कहा, अभी अपनी मा से मिल लूँ, फिर जब आप याद करेंगे, मिल जाऊँगी, तब आने दिया। "तुमने कुछ कहा भी उनसे ?' सर्वेश्वरी ने पूछा। "नहीं, मुझ पर उन्हें विश्वास नहीं अम्मा।" कनक की आँखें छल- छला आई। "अभी बार में हैं ?" सर्वेश्वरी ने सोचते हुए पूछा। "थे तो “अच्छा, जय मैं भी मिल लूं। कनक खड़ी देखती रही। सर्वेश्वरी बारा की तरफ चली। राज- कुमार फाटक पार कर चुका था। "भैया, कहाँ जाते हो" घबराई हुई सर्वेश्वरी ने पुकारा। "घर" पचास कदम आगे से बिना रुके हुए रुखाई से राजकुमार ने कहा। "तुम्हारा घर यहीं पर है ?" बढ़ती हुई सर्वेश्वरी ने आवाज दी। "नहीं, मेरे दोस्त का घर है।" राजकुमार और तेज चलने लगा।