अप्सरा/अगला भाग ६

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[ १०२ ]अप्सरा "भैया, जरा ठहर जाओ, सुन लो।" "अब माफ कीजिए, इतना बहुत हुआ।" एक आदमी आता हुआ देख पड़ा । सर्वेश्वरी रुक गई । भय हुआ, बुला न सकी । राजकुमार पेड़ों के अँधेरे में अवश्य हो गया। _ 'कुँवर साहब ने महफिल के लिये जल्द बुलाया है। आदमी ने कहा। "अच्छा। सर्वेश्वरी की आवाज क्षीण थी। "आप लोगों ने खाना न खाया हो, तो जल्दी कीजिए। सर्वेश्वरी डेरे की तरफ चली। आदमी और और तवायों को सूचना दे रहा था। "क्या होगा अम्मा ?" कनक ने त्रस्त निगाह से देखते हुए पूछा। "जो भाग्य में होगा, हो लेगा तुमसे भी नहीं बना।" कनक सर झुकाए खड़ी रही। और और तवाय भोजन-पान में लगी हुई थीं। सर्वेश्वरी थोड़ा-सा खाना लेकर आई, और कनक से खा लेने के लिये कहा । स्वयं भी थोड़ा-सा जल-पान कर तैयार होने लगी। राजकुमार बाहर एक रास्ते पर कुछ देर खड़ा सोचता रहा । दिल को सख्त चोट लगी थी। बहू से नाराज था। सोच रहा था, चलके खूब फटकारूँगा । रात एक पहर बीत चुकी थी, भूख भी लग रही थी। बहू के मकान की राह से चलने लगा। पर दिल पीछे खींच रहा था, तरह-तरह से प्रारज-मिन्नत कर रहा था--"बहुत दूर चलना है ! बहू का मकान वहाँ से मील ही भर के फासले पर था-"अब वहाँ खाना-पीना हो गया होगा। सब लोग सो गए होंगे।" राजकुमार को दिल की यह तजवीज पसंद थी। वह रास्ते पर एक पुल मिला, उस पर बैठकर फिर सोचने लगा । कनक उसके शरीर में प्राणों की ज्योति की तरह समा गई थी। पर बाहर से वह बराबर उससे लड़ता रहा। कनक स्टेज पर नाचेगी, गाएगी, दूसरों को खुश करेगी, खुद भी [ १०३ ]१६ अप्सरा प्रसन्न होगी, और उससे ऐसा जाहिर करती है, गोया दूध की धुली हुई है, इन सब कामों के लिये दिल से उसकी बिलकुल सहानुभूति नहीं, और वह ऐसी कनक का महफिल में बैठकर गाना सुनना चाहता है। राजकुमार के रोएँ-रोएँ से नफरत की आग निकल रही थी, जिससे तपकर कनक कल्पना की मति में उसे और चमकती हुई स्नेह- मयी बनकर घेर लेती, हृदय उभड़कर उसे स्टेज की तरफ चलने के लिये मोड़ देता, उसके तमाम विरोधी प्रयत्न विफल हो जाते थे। उसने यंत्र की तरह हृदय की इस सलाह को मान लिया और इसके अनुकूल युक्तियाँ भी निकाल ली। उसने सोचा, “अब बहुत देर हो गई है, बहू सो गई होगी, इससे अच्छा है कि यहीं चलकर कही जरा जल-पान कर और रात महफ़िल के एक कोने में बैठकर पार कर दूं। कनक मेरी है कौन ? फिर मुझे इतनी लज्जा क्यों ? जिस तरह मैं स्टेज पर जाया करता है, उसी तरह यहाँ भी बैठकर बारी- कियों की परीक्षा करूंगा । कनक के सिवा और भी कई तवायफ्रें है। उनके संबंध में मैं कुछ नहीं जानता। उनके संगीत से लेने लायक मुझे बहुत कुछ मिल सकता है।" बस, निश्चय हो गया। फिर बहू का मील-भर दूर मकान मंजिलो दूर सूमने लगा । राजकुमार लौट पड़ा। चौराहे पर कुछ दीपक जल रहे थे, उसी ओर चला । कई दूकाने थी। पूड़ियों की भी एक दूकान थी। उसी तरफ बढ़ा। सामने कुर्सियाँ पड़ी थीं, बैठ गया। आराम की एक ठंडी साँस ली। पाक्-भर पूड़ियाँ तौलने के लिये कहा। भोजन के पश्चात् हाथ-मुँह धोकर दाम दे दिए। इस समय गढ़ के भीतर कुँवर साहब की सवारी का डंका सुनाई पड़ा । दूकानदार लोग चलने के लिये व्यग्र हो उठे। उन्हीं से उसे मालूम हुआ कि अब कुवर साहब महफिल जा रहे हैं। दूकानदार अपनी-अपनी दुकानें बंद करने लगे। राजकुमार भी भीतर से पुलकित हो उठा । एक पानवाले की दूकान से एक पैसे के दो बोडे लेकर खाता हुआ गढ' की तरफ चला [ १०४ ]अप्सरा ९७ बाहर, खुली हुई जमीन पर, एक मंडप इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये बना था। एक तरफ एक स्टेज था, तीन तरफ से गेट । हर गेट पर संगीन-वंद सिपाही पहरे पर था । भीतर बड़ी सजावट थी। विद्य दाधार मँगवाकर कुँवर साहब ने भीतर और बाहर बिजली की बत्तियों से रात में दिन कर रक्खा था । राजकुमार ने बाहर से देखा, स्टेज जगमगा रहा था। फूट-लाइट का प्रकाश कनक के मुख पर पड़ रहा था, जिससे रात में उसकी सहस्रों गुण शोमा बढ़ गई थी। गाने की आवाज आ रही थी। लोग बातचीत कर रहे थे कि आगरेवाली गा रही है । राजकुमार ने बाहर ही से देखा, तवायफे दो कतारों में बैठी हुई हैं। दूसरी कतार की पहली तवायफ गा रही है। इस कतार में कनक ही सबके आगे थी। उसके बाद बराल में उसकी माता । लोग मंत्रमुग्ध होकर रूप. और स्वर. की सुधा पी रहे थे। अचंचल आँखो से कनक को देख रहे थे। कनक भी दीपक की शिखा की तरह स्थिर बैठी थी। यौवन की उस तरुण ज्योति की तरफ कितने ही पतंग बढ़ रहे थे। कुवर साहब एकटक उसे ही देख रहे थे। राजकुमार को बाहर-ही-बाहर घूमकर देखते हुए देखकर एक ने कहा, बाबूजी, भीतर जाइए, आपके लिये कोई रोक थोड़े ही है । रोक तो हम लोगों के लिये है, जिनके पास मजबूत कपड़े नहीं ; जब कुपर साहब चले जायेंगे, वन, पिछली रात को, कहीं मौका लगेगा। राजकुमार को हिम्मत हुई। एक गेट से भीतर घुसा, सभ्य वेश देख सिपाही ने छोड़ दिया। पीछे जगह- बहुत खाली थी, एक जगह बैठ गया। उसे आते हुए कनक ने देख लिया ! वह बड़ी देर से, जब से स्टेज पर आई, उसे खोज रही थी। कोई भी नया आदमी आता, तो उसकी आँखें जाँच करने के लिये बढ़ जाती थीं। कनक राजकुमार को देख रही थी, उस समय राजकुमार ने भी कनक को देखा और समझ गया कि उसका जाना कनक को मालूम हो गया है, पर किसलिये ऑखें फेरकर बैठ गया । कनक कुछ देर तक अचंचल बष्टि से देखती ही रही । मुख पर किसी प्रकार का विकार न था। राजकुमार के [ १०५ ]८ अप्सरा विकार को जैसे वह समझ रही थी। पर उसकी चेष्टाओं में किसी प्रकार की भावना न थी। क्रमशः दो-तीन गाने हो गए। दूसरी तरफवाली कतार खत्म होने पर थी। एक-एक संगीत की बारी थी। कारण, कुवर साहब शीघ्र ही सब सचायक्रों का गाना सुनकर चले जानेवाले थे। इधर की कतार में कनक का पहला नंबर था। फिर उसकी माता का कुवर साहब उसके गाने के लिये उत्सुक हो रहे थे और अपने पास के मुसाहबों से पहले ही से उसके मजे हुए गले की तारीफ कर रहे थे और इस प्रतियोगिता में सबको वही परास्त करेगी, इसका निश्चय भी दे रहे थे। इसके बाद, उबर साहब के जल्द उठ आने का एक और कारण था और इस कारण में उनके साथ कनक का भी उनके बँगले पर आना निश्चित था। उसकी कल्पना कनक ने पहले ही कर ली थी और लापरवाही के कारण मुक्ति का कोई उपाय भी नहीं सोचा था। कोई युक्ति थी भी नहीं। एक राजकुमार था, अब उससे वह निराश हो चुकी थी। राजकुमार के प्रति कनक का क्रोध भी कम न था। फर्श विछा था। ऊपर इंद्रधनुष के रंग के रेशमी थानों की, बोच में सोने की चित्रित ची में उन्हीं कपड़ों को पिरोकर नए ढंग की चाँदनी बनाई गई थी। चारो तरफ लोहे के लढे गड़े थे, उन्हीं के सहारे मंडप खड़ा था। लोहे की उन कड़ियों में वही कपड़े लपेटे थे। दो-दो कड़ियों के बीच एक तोरण उन्हीं कपड़ों से सजाया गया था। हाल १०० हाथ से भी लंबा और ५० हाथ से भी चौड़ा था। लंबाई के सीधे, सटा हुआ, पर मंडप अलग, स्टेज था। स्टेज ही की तरह सजा हुमा । फुट-लाइट जल रही थी। बजानेवाले इंगस के भीतर से बजा रहे थे। कुवर साहब की गद्दी के दो-दो हाथ के फासले से सोने की कामदार छोटी रोलिंग चारों तरफ से थी। दोनो बराल गुलाव-पाश, इन्नदान, फूलदान आदि सजे हुए थे। गट्टी पर रेशमी मोटी चादर बिछी थी, चारो तरफ एक-एक हाथ सुनहला काम था, और पन्ने तथा हीरे की कनियाँ जड़ी हुई थी, दोनो बाल दो [ १०६ ]अप्सरा छोटे-छोटे कामदार मखमली तकिए, वैसा ही पीठ की तरफ बढ़ा गिर्दा । कुँवर साहब के दाहनी तरफ उनके खानदान के लोग थे और बाई तरफ राज्य के अफसर । पीछे आनेवाले सभ्य दर्शक तथा राज्य के पढ़े- लिखे तथा रईस लोग । राजकुमार यहीं बैठा था। ___कनक उठ गई। राजकुमार ने देखा । भीतर ग्रीन-रूम में उसने कुँवर साहब के नाम एक चिट्ठी लिखी और अपने जमादार को खूब समझाकर चिट्टी दे दी। इस काम में उसे पाँच मिनट से अधिक समय नहीं लगा । वह फिर अपनी जगह आकर बैठ गई। ___ जमादार ने चिट्ठी कुँवर साहब के अर्दली को दी। अर्दली से पह मो दिया कि जरूरी चिट्ठी है और छोटी बाईजो ने जल्द पेश करने के लिये कहा है। कुँवर साहब के रंग-ढंग वहाँ के तमाम नौकरों को मालूम हो गए थे। छोटी बाईजी के प्रति कुँवर साहब की कैसी कृपा-दृष्टि है, और परिणाम आगे चलकर क्या होगा, इसकी चर्चा नौकरों में छिड़ गई थी। अतः उसने तत्काल चिट्ठी पेशकार को दे दी, और साथ ही जल्द पेश कर देने की सलाह भी दी । पहले पेशकार साहब मौके के बहाने पत्र लेकर बैठे ही रहना चाहते थे, पर जब उसने बुलाकर एकांत में समझा दिया कि छोटी बाईजी इस राज्य के नौकरों के लिये कोई मामूली बाईजी नहीं और जल्द पत्र न गया, तो कल ही उससे ताल्लुक रखनेवालों पर बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ आ सकती हैं, और इशारे से मतलब समझा दिया । तब पेशकार मन-ही-मन पुरस्कार की कल्पना करते हुए कुँवर साहब की गट्टी की तरफ बढ़े और मुककर पत्र पेश कर दिया। प्रकाश आवश्यकता से अधिक था। कुँवर साहब पढ़ने लगे। पढ़कर विना तपस्या के वर-प्राप्ति का सुंदर सुयोग देख, खुले हुए कमल पर बैठे मौरे की तरह प्रसन्न हो गए । पत्र में कनक ने शीघ्र ही कुँवर साहब को ग्रीन-रूम में बुलाया था। पर एकाएक वहाँ से उठकर कवर साहब नहीं पा सकते थे। गान [ १०७ ]अप्सरा के खिलाफ था। उधर गाने की तृप्ति प्राप्त करने की अपेक्षा जाने की उत्सुकता प्रबल थी। अतः मुसाहबों को ही निर्णय के लिये छोड़ उठकर खड़े हो गए । पालकी लग गई । कुँवर साहब प्रासाद चले गए। ___ इधर आम जनता के लिये द्वार खुल गया । सब तरह के आदमी भीतर धंस गए। महफिल ठसाठस भर गई । अब तक दूसरी कतार का गाना खत्म हो चुका था । कनक की बारी आ गई थी। लोग सर उठाए आग्रह से उसका मुंह ताक रहे थे। सर्वेश्वरी ने धीरे से कुछ समझा दिया । कनक के उस्तादों ने स्वर भरा, कनक ने एक अलाप ली, फिर गाने लगी- "दिल का आना था कि काबू से था जाना दिल का; ऐसे जाने से तो बेहतर था न माना दिल का। हम तो कहते थे मुहब्बत की बुरी है रस्में; खेल समझे ये मेरी जान लगाना दिल का।" खर की तरंग ने तमाम महफिल को हुषा दिया। लोगों के हृदय में एक नया स्वप्न सौंदर्य के आकाश के नीचे शिशिर के स्पर्श से धीरे- धीरे पलकें खोलती हुई चमेली की तरह विकसित हो गया। उसी स्वप्न के भीतर से लाग उस स्वर की परी को देख रहे थे । साधारण लोग अपने उमड़ते हुए उच्छवास को रोक नहीं सके। एक तरफ से आवाज आई-उवाइ कनकौत्रा, जस सुनत रहील, तइस हऊ रजा!" सभ्य जन सर झुका मुस्किराने लगे। कनक उसी धैर्य से अप्रतिम बैठी रही। एक बार राजकुमार को देखा, फिर ऑखें झुका ली। राजकुमार कलाविद् था। संगीत का उस पर पूरा असर पड़ गया था। एक बार, जब कनक के कला-ज्ञान की याद आती, हृदय के सहन कंठों से उसकी प्रशंसा करने लगता, पर दूसरे ही क्षण उस सोने की मूर्ति में भरे हुए जहर की कल्पना उसके शरीर को जजर कर देती श्री चित्त की यह डॉवाडोल स्थिति उसकी आत्मा को क्रमशः [ १०८ ]११ अप्सरा कमजोर करती जा रही थी। हृदय में स्थायी प्रभाव जहर का ही रह जाता, एक अज्ञात वेदना उसे क्षुब्ध कर देती थी । कनक के स्वर, सौदर्य, शिक्षा आदि की वह जितनी हो बातें सोचता, और ये बातें उसके मन के यंत्र को आप ही चला चलाकर उसे कल्पना के अरण्य मे भटकाकर निर्वासित कर देती थी, उतनी ही उसकी व्याकुलता बढ़ जाती थी। तृष्णातं का ईप्सित सुस्वादु जल नहीं मिल रहा था- सामने महासागर था, पर हाय, वह लवणात था। कुँवर साहब प्रासाद में पाशाक बदलकर सादे सभ्य वेश में, कुछ विश्वास-पात्र अनुचरों को साथ ले, प्रकाश-हीन माग से स्टेज की तरफ चल दिए । उनके अनुचर उन्हें चारो ओर से घेरे हुए थे. जिससे दूसरे की दृष्टि उन पर न पड़े। स्टेज के बहिार से कुँवर साहब भीतर ग्रीन-रूम में चलने लगे। एक आदमी को साथ ले और सबको वहीं, इधर-उधर, प्रतीक्षा करने के लिये कह दिया। प्रीन-रूम से कुँवर साहब ने अपने आदमी को कनक को बुला लाने के लिये भेज दिया । खबर पा माता से कुछ कहकर कनक उठकर खड़ी हो गई। जरा झुककर, एक उँगलो मुँह के नजदीक तक उठा, दशकों को श्रदव दिखला, सामने के उइंग से भीतर चलने लगी । दशकों की तरफ मुंह किए हुए उइंग की ओर फिरते समय एक बार फिर राजकुमार को देखा, दृष्टि नीची कर मुस्किराई, क्योंकि राजकुमार की आँखों में वह आग थी. जिससे वह जल रही थी। ____कनक प्रीन-रूम की तरफ चली। शंकित हृदय काँप उठा। पर कोई चारा न था। राजकुमार की तरफ असहाय आँखें प्रार्थना की अनिमेष दृष्टि से आप-ही-आप बड़ गई और हताश होकर लौट आई । कनक के अंग-अंग राजकुमार की तरफ से प्रकाश-हीन संध्या में कमल के दलों की तरह संकुचित हो गए। हृदय को अपनी शक्ति की किरण देख पड़ी, दृष्टि ने स्वयं अपना पथ निश्चित कर लिया। कनक एक उइंग के भीतर सोचती हुई खड़ी हो गई थी । चली। [ १०९ ]१०० अप्सरा ___ कुँवर साहब ने बड़े आदर से उठकर स्वागत किया। बैठिए, कहकर कनक उनके बैठने की प्रतीक्षा किए विना कुर्सी पर बैठ गई । कुँवर साहब नौकर को बाहर जाने के लिये इशारा कर बैठ गए। ____कनक ने कुँवर साहब पर एक तेज दृष्टि डाली । देखा, उनके अपार ऐश्वर्य पर तृष्णा की विजय थी। उनकी आँखें उसकी दृष्टि से नही मिल सकी । वे कुछ चाहती हैं, इसलिये झुकी हुई हैं, उन पर कनक का अधिकार जम गया। ____देखिए।" कनक ने कहा- यहाँ एक आदमी बैठा है, उसको कैद कर लीजिए।" आशा-मात्र से प्रबल-पराक्रम कुँवर साहब उठकर खड़े हो गए- 'आइए।" कनक आगे-आगे चली। स्टेज के सामने के गेटों की दराज से राजकुमार को दिखाया, उसके शरीर, मुख, कपड़े, रंग आदि की पहचान कराती रही । कुँवर साहब ने अच्छी तरह देख लिया। कई बार दृष्टि में जोर दे-देकर देखा। दूसरी कतार की तवाय तज्जुब की निगाह से मनुष्य को तथा कनक को देख रही थीं, गाना हो रहा था। ____ कनक को उसकी इच्छा पूर्ति से उपकृत करने के निश्चय से कुँवर साहब को उसे 'तुम'-संबोधन करने का साहस तथा सुख मिला। कनक भी कुछ झुक गई । जब उन्होंने कहा, अच्छा, तुम प्रीन रूम में चलो, तब तक अपने आदमियों को बुला इन्हें दिखा दें। ____ कनक चली गई । कुँवर साहब ने दरवाजे के पास से बाहर देखा। कई आदमी आ गए। दो को साथ भीतर ले गए। उसी जगह से राजकुमार को परिचित करा दिया और खूब समझा दिया कि महफिल उठ जाने पर एकांत रास्ते में अलग बुलाकर वह जरूर गिरफ्तार कर लिया जाय, और दूसरों को खबर न हो, आपस के सब लोग उसे पहचान लें। [ ११० ]अप्सय ___कुँवर साहब के मनोभावों पर पड़ा हुधा भेद का पर्दा कनक के प्रति किए गए उपकार की शक्ति से ऊपर उठ गया। सहस्रों दृश्य दिखाई पड़े। आसक्ति के उद्दाम प्रवाह में संसार अत्यंत रमणीय चिरंतन, सुखों से उमड़ता हुआ, एक मात्र उद्देश्य, स्वग देख पड़ने लगा । ऐश्वर्य की पूर्ति में उस समय किसी प्रकार का देन्य न था। जैसे उनकी आत्मा में संसार के सब सुख व्याप्त हो रहे हों। उट्टाम प्रसन्नता से कुँवर साहब कनक के पास गए। जाल में फंसी हुई मृगी जिस तरह अपनी आँखों को विस्तारित कर मुक्त शून्य के प्रति मुक्ति के प्रयत्नं में निकलती रहती है, उसी दृष्टि से कनक ने कुवर साहब को देखा। इतनी सुंदर दृष्टि वर साहब ने कभी नहीं देखी। किन्हीं आँखों में उन्हें वश करने का इतना जादू नहीं था। आँखों के जलते हुए दो स्फुलिंग उनके प्रणय के बाग में खिले हुए दो गुलाब थे। प्रतिहिंसा की गर्म साँस वसंत की शीतल समीर, और उस रूप की आग में तत्काल जल जाने के लिये वह एक अधीर पतंग । स्टेज पर लखनऊ की नव्याबजान गा रही थीं- "तू अगर शमा बने, मैं तेरा परवाना बनूं।" ___ कुँवर साहब ने असंकुचित अकुंठित भाव से कनक की उन्हीं आँखों में अपनी दृष्टि गड़ाते हुए निलंब स्वर से दोहराया-"तू अगर शमा बने, मैं तेरा परवाना बनूं।" उसी तरह असंकुचित स्वर से कनक ने जवाब दिया- मैं तो शमा बनकर ही दुनिया में आई हूँ, साहब" फिर मुझे अपना परवाना बना लो.।" परखाने ने परवाने के सख- दानवाले स्वर से नहीं, तटस्थ रहकर कहा । - कनक ने एक बार आँख उठाकर देखा। "क्रिस्मत " कहकर अपनी ही आँखों की बिजली में दूर तक रास्ता देखने लगी। "क्या सोचती हो तुम भी ; दुनिया में हँसने-खेलने के सिवा और कुँवर साहब का हितोपदेश सुनकर एक बार कनक मुस्किराई। [ १११ ]१०४ अप्सरा जलती आग में आहुति डालती हुई बोली-"आप बहुत ठीक कहते है, फिर आप-जैसा जहाँ परवाना हो, वहाँ तो शमा को अपनी तमाम खूबसूरती से जलते रहना चाहिए । नहीं, मैं सोचती हूँ, मेरी मा जब तक यहाँ है, मैं शीशे के अंदर हूँ, शमा से मिलने से पहले आप उसके शीशे को निकाल दीजिए।" __ "जैसा कहो, वैसा किया जाय।" उत्सुक प्रसन्नता से कुँवर साहब ने कहा। ___ऐसा कीजिए कि वह आज ही सुबह यहाँ से चलो जायँ, और और तवाय हैं, मैं भी हूँ. जल्सा फोका न होगा। आप मुझे इस वक्त, बॅगले ले चलना चाहते हैं ? ___ कृतज्ञ प्रार्थना से कँवर साहब ने कनक को देखा । कनक समझ गई। कहा, अच्छा ठहरिए, मैं मा से जरा मिल लू । ___कुँवर साहब खड़े रहे। माता को उइंगस की आड़ से बुलाकर थोड़े शब्दों में कुछ कहकर कनक चली गई। गाना खत्म होने का समय आ रहा था। कुँवर साहब एक पालकी पर कनक को चढ़ा, दूसरी के बंद पर्दे में खुद बैठकर बँगले चले गए। राजकुमार को नए कंठों के संगीत से कुछ देर तक आनंद मिलता रहा। पर पोछे से; कुँवर साहब के चले जाने के बाद, महफिल कुछ बेसुरी लगने लगी, जैसे सबके प्राणों से आनंद की तरंग बह गई हो, जैसे मनोरंजन की जगह तमाम महफिल कार्य-क्षेत्र हो रही हो। ___ गायिका कनक के संगीत का उस पर कुछ प्रभाव पड़ा था, पर विदुषी कुमारी कनक उसकी नबरों में गिर गई थी। अज्ञात भाव से इसके लिये उसके भीतर दर्द हो रहा था.। कुछ देर तक तो बैठा रहा, पर जब कनक भीतर चली गई, और थोड़ी ही देर में कुँवर साहब भी उठ गए, कनक बड़ी देर तक न आई, फिर जब आई, तब बाहर ही सेन्या को बुलाकर उठ गई, यह सब देखकर वह स्टेज, गाना, [ ११२ ]अप्सरा १०५ कनक और अपने प्रयल की तरफ से वीतराग हो चला | फिर उसके लिये वहाँ एक एक क्षण पहाड़ की तरह वोमीला हो उठा। राजकुमार उठकर खड़ा हो गया, और बाहर निकलकर धीरे-धीरे डेरे की तरफ चला । बहूजी के मायके की याद से शरीर से जैसे एक भूत उतर गया हो, नशे के उतारे की शिथिलता थी। धीरे-धीरे चला जा रहा था । कनक की तरफ से दिल को जो चोट लगी थी, रह-रहकर नफरत से उसे और बढ़ाता, तरह-तरह की बातें सोचता हुआ चला जा रहा था। ज्यादा मुकाव कलकत्ते की तरफ़ था, सोच रहा था कि इसी गाड़ी से कलकत्त चला जायगा। जब गढ़ के बाहर निकलकर रास्ता चलने लगा, तो उसे मालूम हुआ कि कुछ आदमी और उसके साथ आ रहे हैं। उसने सोचा, ये लोग भी अपने घर जा रहे होंगे। धीरे-धीरे चलने लगा। वे लोग नजदीक आ गए । चार आदमी थे। राजकुमार ने अच्छी तरह नजर गड़ाकर देखा, सब साधारण सिपाही दर्जे के आदमी थे। कुछ न बोला, चलता रहा। हटिया से निकलकर बाहर सड़क पर आया, थे लोग भी आए। सामने दूर तक रास्ता-ही-रास्ता था, दोनो बगल खेत। राजकुमार ने उन लोगों की तरफ फिरकर पूछा-"तुम लोग कहाँ जाओगे ?" "कहीं नहीं, जहाँ-जहाँ आप जायेंगे।" "मेरे साथ चलने के क्या मानी ?" "ताय बहन ने हमें आपकी खबरदारी के लिये भेजा था, साथ चंदन बाबू भी थे। "चंदन " "हाँ, वह आज की गाड़ी से आ गए हैं।" राजकुमार की आँखों पर दूसरा पर्दा उठा । संसार अस्तित्व-युक्त और सुखों से भरा हुआ सुंदर मालूम देने लगा। आनंद के उच्छ्व- सित कंठ से पूछा-कहाँ हैं वह " [ ११३ ]१०६ अप्सरा "अब आपको मकान में मालूम हो जायगा।" ___ ये चारो उसी गाँव के आत्माभिमानी, अशिक्षित वीर, आजकल की भाषा में गुंडे थे, प्राचीन रूढ़ियों के अनुसार चलनेवाले, किसी ने रूढ़ि के खिलाफ किसी तरफ कदम बढ़ाया, तो उसका सर काट लेनेवाले, गाँव की बहुओं और बेटियों की इज्जत तथा सम्मान की रक्षा के लिये अपना सर्वस्व स्वाहा कर देनेवाले, अँगरेजों और मुसलमानों पर विजातीय घृणा की आग भड़कानेवाले, मलखान और अदन के अनुयायी, महावीरजी के अनन्य भक्त, लुप्त-गौरव क्षत्रिय जमींदार-घराने के सुबह के नक्षत्र, अपने स्वल्प प्रकाश मे टिमटिमा रहे थे, अधिक जलने के लिये उमड़ते हुए धीरे-धीरे बुम रहे थे। रिश्ते में ये ताय के भाई लगते थे। राजकुमार के चले जाने पर ताय को इनकी याद आई, तो जाकर नन शब्दों में कहा कि भैया, आप लाग चंदन के साथ जाओ, और राजकुमार को देखे रहना, कही टंटा न हो जाय । ये लोग चंदन के साथ चले गए थे। चंदन ने जैसा बताया, वैसा ही करते रहे। खानादान की लड़की तारा अच्छे घराने मे गई है, वहाँवाले सब ऊँचे दर्जे के पढ़े-लिखे आदमी हैं, इसका इन लोगों को गर्व था। धीरे-धीरे गाँव नजदीक आ गया। राजकुमार ने तारा का मतलब दूर तक समझकर फिर ज्यादा बातचीत इस प्रसंग में उनसे नही की । चंदन के लिये दिल में तरह-तरह की जिज्ञासा उठ रही थी- वह क्यों नहीं आया, तारा ने सब बातें उससे जरूर कह दी होगी, वह कहीं उसी चकर में तो नहीं घूम रहा, पर ये लोग क्यों नहीं बतलाते! राजकुमार इसी अधैर्य में जल्द-जल्द बढ़ रहा था । मकान आ गया । गाँव के आदमियों ने दरवाजे पर "विट्टो-बिट्टो" की असं- कुचित, निर्भय आवाज उठाई। ताय ने दरवाजा खोल दिया। राज- कुमार को खड़ा हुआ देख स्नेह-स्वर से कहा-'तुम आ गए ?" "सुनो एक ने गंभीर कंठ से ताप को एक तरफ. अलग बुलाया। [ ११४ ]अप्सरा १०७ तारा निस्संकोच बढ़ गई। उसने धीरे-धीरे कुछ कहा । वात समाप्त कर चारो ने तारा के पैर छुए। चारो एक तरफ चले गए। चिंता-युक्त तारा राजकुमार को साथ लेकर भीतर चली गई, और दरवाजा बंद कर लिया। ____ तारा के कमरे में जाते हो राजकुमार ने पूछा-'बहूजी, चंदन कहाँ है ? इतनी जल्द आ गया ." ___ "पुलिस के पास कोई मजबूत कागजात उनके बागीपन के सुबूत में नहीं थे, सिर्फ संदेह पर गिरफ्तार किए गए थे, पुलिस के साथ खास तौर से पैरवी करने पर जमानत पर छोड़ दिए गए हैं। इस पैरवी के लिये बड़े भाई से नाराज हैं। मुझे कलकत्ते ले जाने के लिये आए थे। यहाँ तुम्हारा हाल मुझसे सुना, तो बड़े खुश हुए, और तुमसे मिलने गए । पर रज्जू बाबू !" युवती की आँखें भर आई। राजकुमार चौंक उठा । उसे विपत्ति की शंका हुई। चकित देखता हुआ, युवती के दोनो हाथ पकड़कर आग्रह और उत्सुकता से पूछा-"पर क्या, बतलाओ, मुझे बड़ी शंका हो रही है।" "तुम्हारा भी तो वही खून है !" राजकुमार दृष्टि से इसका आशय पूछ रहा था। युवती ने अधिक बातचीत करना अनावश्यक समझा। एक बार राजकुमार उठकर बाहर चलने लगा था, पर युवती ने हाथ पकड़कर डॉट दिया-"श्रोड़ी देर में सब मालूम हो जायमा, घर के आदमियो के आने पर । खबरदार अगर बाहर कदम बढ़ाया।" वीर युवक तारा के पलंग पर सकिए में सर गड़ा पड़ा रहा । तारा उसके हाथ-मुँह धोने और जलपान करने का इंतजाम करने लगी। धैय के बाँध को तोड़कर कमी-कभी दृष्टि की अपार चिंता मालक पड़ती थी। कनक ने बँगले पहुँचकर जो दृश्य देखा, उससे उसकी रही-सही श्राशा निमूल हो गई। बँगले में कुबर साहब के मेहमान टिके हुए थे, जिनमें एक को कनक पहले से जानती थी । यह थे मिस्टर [ ११५ ]१०८ अप्सरा हैमिल्टन । अधिकांश मेहमान कुँवर साहब के कलकत्त के मित्र थे. बड़े-बड़े तअल्लुकदार और साहब । ये लोग उसी रोज गाड़ी से उतरे थे । बँगले में इनके ठहरने का खास इंतजाम था। ये लोग कुँवर साहब के अंतरंग मित्र थे, अंतरंग आनंद के हकदार | अपने-अपने स्थानों से इसी आशा से प्रयाण किया था। कुवर साहब ने पहले ही से वादा कर रक्खा था कि अभिषेक हो जाने के समय से अंत तक वह अपने मित्रों को समझाते रहेंगे किमित्रों की खातिरदारी किस तरह की जाती है। मित्र लोग कभी-कभी इसका तकाजा भी करते रहे हैं। कनक के आने का तार मिलते ही इन्होंने अपने मित्रों को पाने के लिये तार किया था, और करीब-करीब वे सब लोग कनक का नाम सुन चुके थे। कुँवर साहब की थोड़ी-सी जमींदारी २४ परगने में थी, जिससे कमो-कभी हैमिल्टन साहब से मिलने-जुलने का तबल्लुक्क आ जाता था। धीरे-धीरे यह मित्रता बड़ी हद हो गई थी। कारण, दोनो एक ही बाद पानी पोनेवाले थे, कई बार पी भी चुके थे, इससे हृदय भेद-भाव-रहित हो गया था । हैमिल्टन साहब को तार पाने पर बड़ो प्रसन्नता हुई । हिंदोस्तानी युवती को साहबी टुंडता, क्रूरता तथा कूटता का ज्ञान करा देने के लिये वह तैयार हो रहे थे, उसी समय उन्हें तार मिला । एक बार कुँवर साहब के माननीय मित्र की हैसियत से क्षुद्र नतंकी को देखने की उनकी लालसा प्रबल हो गई थी। वह कुछ दिन की छुट्टी लेकर चले आए। ___ कनक ने सोचा था, कुंवर साहब को अपने इंगित पर नचाएगी। राजकुमार को गिरफ्तार कर जब, इच्छा मुक्त कर उसकी सहायता से मुक्त हो जायगी। पर यहाँ और रंग देखा । उसने सोचा था, कुंवर साहब अकेले रहेंगे। पीली पड़ गई । हैमिल्टन उसे देखकर मुस्कि- राया । दृष्टि में व्यंग्य फूट रहा था । अंकुश कनक के हृदय को पार कर गया । चारो तरफ से कटाक्ष हो रहे थे। सब उसकी लज्जा को भेदकर उसे देखना चाहते थे। कनक व्याकुल हो गई। आवाज में कहीं भी अपनापन न था। .. [ ११६ ]अप्सरा १०६ ___कुँवर साहब पालकी से उतरे। सब लोगों ने शैतान की सूरत का स्वागत किया। कनक खड़ी सबको देख रही थी। ____ "अजी, आप बड़ी मुश्किलों में मिली, और सौदा बड़ा महँगा" कुँवर साहब ने मित्रों को देख कनक की तरफ इशारा करके कहा। कनक कमल की कली की तरह संकुचित खड़ी रही। हृदय मे आग भड़क रही थी। कभी-कभी ऑखों से ज्वाला निकल पड़ती थी। याद आया. वह भी महाराजकुमारी है। पर उमड़कर आप ही हृदय बैठ गया-मुझमें और इनमें फितना फर्क : ये मालिक हैं, और मैं इनके इशारे पर नाचनेवाली ! और यह फर्क इतने ही के लिये । ये चरित्र में किसी भी तवायफ से अच्छे नहीं। पर समाज इनका है, इसलिये इनका अपराध नहीं । ऐसी नीचता से ओत-प्रोत वृत्तियों का लिए हुए भी ये समाज के प्रतिष्ठित, सम्मान्य, विद्वान् और बुद्धिमान मनुष्य हैं। और मैं ?" कनक को चक्कर आने लगा। एक खाली कुर्सी पकड़कर उसने अपने को सँभाला । इस वरह तप-तपकर बह और सुंदर हो रही थी, और चारो तरफ से उसके प्रति आक्रमण भी वैसे ही और चुमीले। कुँवर साहब मित्रों से खूब खुलकर मिले । हैमिल्टन की उन्होने बड़ी इज्जत की। कुँवर साहब जितनी ही हैमिल्टन की कद्र कर रहे थे, वह उतना ही कनक को अकड़-पकड़कर देख रहा था। . . . मुस्किराते हुए कुँवर साहब ने कनक से कहा-'बैठो इस बगल- वाली कुर्सी पर । अपने ही आदमियों की एक बैठक होगी, दो मंजिले पर; यहाँ भी हारमोनियम पर कुछ सुनाना होगा। सुरेश बाबू, दिलीप- सिंह भी गावेंगे। तुम्हें आराम के लिये फुर्सत मिल जाया करेगी।" कहकर चालाक पुतलियाँ फेर ली। एक नौकर ने आकर कुँवर साहब को खबर दी कि सर्वेश्वरी बाई यहाँ से स्टेशन के लिये खाना हो गई, उनका हिसाब कर दिया गया। कहकर मौकर चला गया। एक दूसरा नौकर आया । सलाम कर उस आदमी के गिरफ्तार [ ११७ ]११० अप्सरा होने की खबर दी। कुँवर साहब ने कनक की तरफ देखा । कनक ने हैमिल्टन को देखकर राजकुमार को बुलवाना उचित नहीं समझा। दूसरे, जिस अभिप्राय से उसने राजकुमार को कैद कराया था, यहाँ उसका वह अभिप्राय सफल नहीं हो रहा था, कोई संभावना भी न थी। ___फनक को मौन देखकर कुवर साहब ने कहा-“ले आओ उसको।" ___ कनक चौंक पड़ी। जल्दी में कहा- नहीं नहीं, उसकी कोई जरूरत नहीं, उसे छोड़ दीजिए।" कनक का स्वर क्रॉप रहा था। ____"जरा देख तो लें, उस इशारेबाज को।" कुँवर साहब ने इशारा किया। चार सिपाही अपराधी को लेकर बँगले के भीतर आए । भीतर आते ही किसी की तरफ नजर उठाए विना अपराधी ने मुककर तीन बार सलाम किया। उसका शरीर और रंग-ढंग राजकुमार से मिलता-जुलता था । पर कनक ने देखा, वह राजकुमार नहीं था। इसका चेहरा रूखा, कपड़े मोटे, बाल छोटे-छोटे, बराबर । उम्र राजकुमार से कुछ कम जान पड़ती थी। ___ कुवर साहब ने कहा- क्योंजी, इशारेबाजी तुमने कहाँ सीखी " अपराधी ने फिर मुककर तीन बार सलाम किया, और कनक को एक तेज निगाह से देख लिया । "यह वह नहीं है ।" कनक ने जल्दी में कहा । कुँवर साहब देखने लगे। पहचान नहीं सके। स्टेज पर ध्यान आदमी की तरफ से ज्यादा कनक की तरफ़ था । पहले के आदमी से इसमें कुछ फर्क देखते थे। ___ अपराधी ने किसी की तरफ देखे विना फिर सलाम किया, और जैसे दीवार से कह रहा हो-"हुजूर, ग्वालियर में पखावज सीखकर कुछ दिनों तक रामपुर, जयपुर, अलवर, इंदौर, उदयपुर, बीकानेर, टीकमगढ़, रीवाँ, दरभंगा, बर्दवान, इन सभी रियासतों में मैं गया और समी महाराजों को पखावज सुनाई है। हुजूर के यहाँ जल्सा सुनकर पाया था।" कहकर उसने फिर सलाम किया। [ ११८ ]अप्सरा "अच्छा, तुम पखावजिए हो?" हैमिल्टन की तरफ मुड़कर अँगरेजी में-'अब बन गया मामला।" कनक आगंतुक और कुँवर साहब को देख रही थी। रह-रहकर एक अज्ञात भय से कलेजा काँप उठता था। ___ "एक पखावज ले आओ।" सिपाही से कुँवर साहब ने कहा। बॅगले की दूसरी मंजिल पर फर्श विद्या हुआ था, मित्रों को साथ लेकर चले । आगंतुक से कनक को ले पाने के लिये कहा । सिपाही पखावज लेने चला गया। और लोग बाहर फाटक पर थे। __कुँवर साहब और उनके मित्र चढ़ गए। पीछे से दो खिदमतगार भी चले गए। कमरा सूना देख युवक ने कनक के कंधे पर हाथ रखकर फिसफिसाते हुए कहा-"मैं राजकुमार का मित्र हूँ।" कनक की आँखों से प्रसन्नता का फव्वारा फूट पड़ा। देखने लगी। युवक ने कहा-“यही समय है । तीन मिनट में हम लोग ग्वाई पार कर जायेंगे। तब तक वे लोग हमारी प्रतीक्षा करेंगे। देर हुई, तो इन राक्षसों से मैं अकेले तुम्हें बचा न सकूगा।" ___ कनक आवेग से भरकर युवक से लिपट गई, और हृदय से रेलकर उतावली से कहा- चलो।" 'तैरना जानती हो ?" जल्ल-जल्द खाई की तरफ बढ़ते हुए। " शंका से देखती हुई। "पेशवाज भीग जायगी। अच्छा, हाँ.” युवक कमरभर पानी में खड़ा होकर "धीरे से उतर पड़ो, घबराओ मत । कनक उतर पड़ी। युवक ने अपनी चादर भिगोकर पानी में हवा भरकर गुब्बारे सा बना कनक को पकड़ा दिया । ऊपर से आवाज आई-"अमी ये लोग नहीं आए, जरा नीचे देखो तो युवक कनक की बाँह पकड़ कर, चुपचाप तैरकर खाई पार करने लगा। [ ११९ ]११२ अप्सरा ___ लोग नीच आए, फाटक की तरफ दौड़े । युवक पार चला गया। ___उस पार घोर जंगल था । कनक को साथ ले पेड़ों के बीच अदृश्य हो गया। इस बँगले के चारो तरफ खाई थी। केवल फाटक से जाने की राह थी। फाटक के पास से बड़ी सड़क कुँवर साहब की कोठी तक चली गइ थी। ___ शोरगुल उठ रहा था। ये लोग इस पार से सुन रहे थे। ____ "हम लोग पकड़ लिए जाय, तो बड़ी बुरी हालत हो।" कनक ने धीरे से युवक से कहा। अब हजार आदमी भी हमें नहीं पकड़ सकते, यह छ: कोस का जंगल है। रात है। तब तक हम लोग घर पहुँच जायँगे।" कपड़े निचोड़ते हुए युवक ने कहा। ___ "क्या आपका घर भी यहाँ है?" चलते हुए स्नेह-सिक्त स्वर से कनक ने पूछा। "मेरा घर नहीं, मेरे भाई की ससुराल है, राजकुमार वहीं होंगे।" 'वे लोग जंगल चारो तरफ से घेर लें, तो ?" "ऐसा हो नहीं सकता, और जंगल की बरात में ही वह गाँव है, इस तरफ तीन मील । ___आपको मेरी बात कैसे मालूम हुई ?" ____ "भाभी ने मुझे राजकुमार की मदद के लिये भेजा था। उसे उन्होने तुम्हें ले आने के लिये भेजा था।" कनक के क्षुद्र हृदय में रस का सागर उमड़ रहा था। "आपकी भाभी को राजकुसार क्या कहते हैं ?" "बहूजी।" "आपकी भाभी मायके कब भाई?" "तीन-चार रोज हुए।" कनक अपनी एक स्मृति पर जोर देने लगी।