अहिल्याबाई होलकर/दूसरा अध्याय
अहिल्याबाई के जीवन का वृत्तांत किस परिश्रम से प्राप्त हुआ है और उसके प्राप्त करने के लिये किन किन सज्जनों ने कष्ट उठाया है, यह बात जानने योग्य है । इतिहासों में तो केवल अहल्याबाई का नाम मात्र ही सुनाई देता है परंतु किसी भी सज्जन ने उनका पूरा पूरा वृत्तांत नहीं लिखा है और जिन्होंने कुछ लिखा भी है वह बहुत ही अपूर्ण है, तथापि हम सर जान मालकम के बहुत ही अनुगृहीत हैं कि जिन्होंने इस अमूल्य रत्न का प्रकाश जहां तक उनसे बना किया है । आप ने अपनी पुस्तक A memoir of Central India' में थोड़ा वर्णन किया है । इसके पूर्व आपने अहिल्याबाई के राज्य शासन और उनकी धर्मपरायणता का हाल मामूली तौर पर सुना था परंतु वह विश्वसनीय है या नहीं, इस बात का निश्चय न होने से उस पर कुछ विशेष ध्यान नहीं दिया था । कुछ काल व्यतीत होने पर जब आप मध्य हिंदुस्तान में आए तब आपने पुन: इस बात की खोज करना आरंभ किया और जब आपको अहिल्याबाई के संबंध में अधिक अधिक हाल मिलता गया तब आप बहुत ही चकित और मुग्ध हुए और बड़े उत्साह से आपने उन मनुष्यों की खोज करना प्रारंभ किया, जो कि अहिल्याबाई के राज्यशासन काल में विद्यमान थे अथवा जिन्होंने उनकी राज्यशैली, धर्मपरायणता और चतुरता तथा बुद्धिमत्ता का स्वयं अनुभव किया था । ऐसे लोगों से बड़े उत्साह और आदर के साथ इन्होंने संपूर्ण वृत्तांत को सुना, तब आपने, अहिल्याबाई के संपूर्ण अलौकिक गुणों पर मुग्ध हो और स्वच्छ अंत:करण से इस प्रकार लिखा है कि "होलकर घराने के मनुष्यों से और उनके आश्रित जनों से जो हालात अहिल्याबाई के गुणों के और राज्यशासन के बारे में मिले थे उनको सत्यता की कसौटी पर कसने के हेतु इधर उधर पूछ ताछ की गई तो पूर्ण विश्वास हुआ कि यथार्थ में वे प्रशंसनीय थे और उन वृत्तांतों से और उन मनुष्यों से यह भी ज्ञात हुआ है कि अहिल्याबाई की राज्यप्रणाली में जो जो विशेषता तथा उतमता थी वे प्रचलित राज्यप्रणाली से कई गुना प्रशंसनीय, उत्तम, और चढ़ी बढ़ी थींं। सब छोटी और बड़ी जाति के मनुष्यों से अहिल्याबाई के संबंध में जब हालात पूछे गए तब ऐसा हाल कहीं भी नहीं मिला, जिससे उनकी धवल कीर्त्ति में कुछ भी लांछन लगता वरन अहिल्याबाई के नाम के श्रवण मात्र से ही सब मनुष्य एक स्वर से उनके गुणों की कीर्ति तथा उनके परोपकार का यश आनंदित हो कर गाते थे । अहिल्याबाई के संबंध में जितनी अधिक खोज होती गई, उतना ही अधिक पूज्य भाव और कुतूहल बढ़ता गया ।
तात्पर्य यह है कि मालकम साहब ने जितनी खोज अहिल्याबाई के राज्यशासन के, धर्मपरायणता के और जीवन
के संबंध में दृढ़चित हो की थी, उतनी किसी ने भी नहीं की, ऐसा कहना कुछ भी अनुचित नहीं, परंतु उनके जन्म का ठीक ठीक पता इनको भी नहीं लगा। पुराने इतिहासों के हिंदी भाषा में न लिखे जाने का ही यह एक मुख्य कारण है। तथापि हम अपने एक विद्वान और परिश्रमी मित्र पंडित पुरुषोत्तम जी को अनेक हार्दिक धन्यवाद देते हैं कि आपने इस विषय को मराठी भाषा में लिख अत्यंत श्रम उठाया है। आपने लिखा है कि राय बहादुर पारसनीस ने इस विषय में खोज करते करते अपने जीवन का अधिकांश भाग व्यतीत कर दिया था। स्वयं उन्होंने कई प्रमाणों से सिद्ध तथा निश्चय किया है कि अहिल्याबाई का जन्म सन् १७२३ ईसवी में हुआ था।
हम पहले अध्याय के अत में कह आए हैं कि मल्हारराव होलकर अपने पुत्र खंडेराव के विवाह के लिये योग्य दुलहिन की खोज कर रहे थे, उन्हें यही चिंता थी कि -
वरयेत कुळजा प्राज्ञो विरूपामपि कन्यकाम् ।।
रूपशीला न नीचस्य विवाह सदृशे कुले ।।।
( चाणक्य )
कन्या वरै कुलीन की यदपि रूप की हान ।।
रूप सील नहिं नीच की, कीजै ब्याह समान ।।
( गिरधरदास )
भावार्थ--बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह उत्तम कुल की कन्या यद्यपि वह रूपवती न हो तो भी वरे किंतु नीच कुल की सुंदरी और रूपवती कन्या हो तो भी उसको वरना नहीं चाहिए, कारण कि विवाह तुल्य कुल में ही विहित है। जब मल्हारराव होलकर का मानको जी शिंदे जैसे सभ्य गृहस्थ का पता चला तब उन्होंने अपने पुत्र खंडेराव का व्याह उनकी एकमात्र कन्या अहिल्याबाई से सन् १७३५ ईसवी में बड़े आनंद और समारोह के साथ कर दिया। जब अहिल्याबाई अपनी ससुराल में लाई गई, तब इनकी सास गौतमाबाई और ससुर मल्हारराव अपनी पुत्रवधू के मिष्ट भाषण, आचार और उनकी धर्मपरायणता को देख अत्यंत प्रसन्न हुए और अहिल्याबाई के प्रति उनका प्रेम नित नूतन बढ़ने लगा । अहिल्याबाई भी इनको प्रसन्न चित्त से और देवतुल्य सास ससुर के अद्वितीय प्रेम के कारण प्रफुल्लित होकर आनंद से सेवा, प्रेम और भक्ति के साथ, करने लगीं। गृहस्थी का कार्य भी वे बड़ी चतुराई और सुघराई के साथ मन लगाकर करती थीं। खंडेराव का स्वभाव उग्र और हठी तो पहले ही से था परंतु उसमें अब एक विशेषता यह हो गई थी, कि इनका हाथ व्यय करने में अधिक खुल गया था। अपने स्वामी का ऐसा स्वभाव देख अहिल्याबाई मन ही मन दुःखी हुआ करती थी, परंतु ऐसे विशेष कारण के रहते हुए भी पतिभक्ति में कुछ अंतर नहीं करती थीं, किंतु अपने स्वामी को बड़ी श्रद्धा, आदर, प्रेम और पृज्य भक्ति से देखती थीं।
जिस दिन से मल्हारराव अपनी पुत्रबधू अहिल्याबाई को विवाह करके घर लाए उसी दिन से उनका, उन पर बड़ा वात्सल्य और स्नेह हो गया था, जो दिन पर दिन बढ़ता ही गया। जब कभी मल्हारराव राज्यकार्य के कारण चिंतित तथा व्यग्र रहा करते थे उस समय बड़े बड़े दलपतियों तथा स्वयं उनके निज दरबारियों का भी साहस उनके समक्ष उन से कुछ निवेदन करने का नहीं होता था, परंतु ऐसे समय में भी यदि अहिल्याबाई कुछ कहला भेजतीं तो वे उस कार्य का बिना विलंब प्रसन्न बदन हो तुरत पूरा कर दिया करते थे। अहिल्याबाई सारा दिन और पहर रात पर्यंत समय अपने सास ससुर की सेवा और गृहकार्य के संपादन तथा निरीक्षण में व्यतीत करता था, और पहर रात बीत जाने पर शयनगृह में जाकर पतिसेवा में दृढ़चित्त होती थीं, और प्रातः काल पौ फटते ही सबके पूर्व शय्या से उठकर और अपने नित्य के कर्मों से निवृत्त होकर ईश्वर पूजन में मिग्न होती थी। इस
के उपरांत कथाश्रवण तथा दानधर्म करके गृहकार्य की प्रत्येक वस्तु को यथास्थान साफ सुथरी रखवाती। इन्होंने अपने यौवन काल में भी अपना समय भोग विलास में नहीं व्यतीत किया था। परमात्मा की असीम कृपा से ईसवी सन् १७४५ में देपालपुर स्थान पर अहिल्याबाई को एक पुत्र, जिसका नाम मालीराव था, उत्पन्न हुआ था, और तीन वर्ष पश्चात् अर्थात् इसवी सन १७४८ में एक कन्या पैदा हुई थी, जिसका नाम मुक्ताबाई था।
जय मल्हारराव ने अपनी पुत्रवधू के आचार, विचार, नियमपूर्वक धर्म की शैली, तीक्ष्ण बुद्धि और प्रत्येक कार्य को विचारपूर्वक उमंग भरे हुए मन से करने से चतुराई को ध्यानपूर्वक निरीक्षण किया तो उन्होंने प्रसन्न चित्त और आदर मे अहिल्याबाई को गृह संबंधी संपूर्ण कार्य का भार, व्यवस्थांपूर्वक उत्तम रीति से चलाने के सौंप दिया, और जय, अहिल्याबाई गृह संबंधी संर्पण कार्य को उत्तम, और विचार पूर्वक व्यवस्थित रूप से चलाने लगी, तब खंडेराव पर इसका बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा। अहिल्याबाई ने अपने प्राणपति को, नित्य प्रेम और आदरपूर्वक नाना प्रकार के पौराणिक और लौकिक दृष्टांत इस प्रकार बुद्धिमानी और चतुरता के साथ सुनाए और अपने पूज्य सास और ससुर के हार्दिक प्रेम भरे हुए विचारों को विनयपूर्वक इस उत्तमता से अपने पतिदेव पर प्रकट कर दिया कि खंडेराव के मन,पर उनका अच्छा प्रभाव पड़ा और उन्होंने शनैः शनैः अपने मन को
अपने पूज्य पिता की आज्ञा पालन करने में दृढ़ किया। इन्होंने कुछ दिनों तक पिता की आज्ञा से ऊपरी कार्य की देख भाल में अपना समय व्यतीत किया और इसके अनंतर इनकी रूचि अन्य कार्य करने के लिये दिन प्रति दिन बढ़ी। धीरे धीरे राज्य संबंधी कार्य में भी खंडेराव ने पिता का हाथ बटाना आरंभ कर दिया। इस बात को देख मल्हारराव इनसे अत्यंत प्रसन्न हुए और मन ही मन अपनी पुत्रवधू की सराहना करने लगे। परंतु मल्हारराव की हार्दिक इच्छा यह थी कि खंडेराव भी युद्ध विद्या में मन लगावे तो अपने प्रांत की उन्नति में किसी प्रकार की कमी न होगी। मल्हारराव के इस विचार को अहिल्याबाई ने अपने स्वामी से समय पाकर इस चतुरता और विनय भाव से कहा कि खंडेराव भी सुनकर युद्ध विद्या के सिखने में दृढचित्त हो तत्पर हो गए। उन्होंने उसी दिन से युद्ध विद्या को सिखना आरम्भ कर दिया और थोड़े ही समय के पश्चात् इसमें अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। उन्होने अवसर पाकर अपने पिता के साथ युद्ध में भी जाना अरंभ कर दिया, इससे मल्हारराव को पूर्ण प्रसन्नता अपने पुत्र खंडेराव पर हो गई।
जब मल्हारराव को पूर्ण ज्ञान हो गया कि अहिल्याबाई सपूर्ण गृहकार्यो को उत्तम प्रकार से चलाने लगी हैं तो जब कभी स्वयं आप और खंडेराव बाहर चले जाते, तो राज्य के कार्यों के ऊपरी निरीक्षण का भार भी अहिल्याबाई को ही सौंप जाया करने लगे। इस काम को भी अहिल्याबाई ने भले प्रकार से चलाया। यदि कोई विशेष बात होती
तो आप अपने ससुर मल्हारराव के आने तक उसको रोक रखती थी और उनसे इस विषय में भले प्रकार परामर्श लेकर उस कार्य को घटाती बढाती थी। इस विषय में सर जान मालफम साहब ने एक जगह इस प्रकार लिखा है कि "पुराने कागज़ों के निरीक्षण से यह बात स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है कि जब कभी मल्हारराव अपने राज्य से दूर जाते थे, तो संपूर्ण कार्य का भार अपनी पुत्रवधू अहिल्याबाई पर ही छोड़ जाया करते थे। यथार्थ में अहिल्याबाई ने अपने राज्यप्रणाली के कार्य को भली भांति चलाने की योग्यता ऐसे ही अवसर पाकर प्राप्त की थी।"
अहिल्याबाई को पुराण कथा आदि श्रवण करने की अधिक रुचि थी। वह कभी रामायण, कभी महाभारत की कथाएँ प्रति दिन बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ श्रवण किया करती थीं। सर्वदा पुण्य के कर्मो में श्रद्धा रखकर उनको उत्तम प्रकार से विद्वान् ब्राह्मणों के द्वारा कराती थीं । इनका चित्त सदा भगवद्भक्ति मे प्रसन्न रहा करता था और इसी कारण से इनके विचार शुद्ध रहा करते थे। श्रीयुत् गोस्वामी जी ने कहा है कि --
काम क्रोध मद् लोभ सब, नाथ नरक कर पंथ ।
सब परिहरि रघुवीर पद, भजन कहहीं सद प्रंथ ॥१॥
सगुण उपामक परमहित, निरति नीत दृढ़ नैन ।
ते नर प्राण समान मोहि, जिनके द्विज पद प्रेम ॥२॥
इस कारण इन्हें छोड़कर श्रीरामचंद्र जी के चरणों की सेवा करो । जो मनुष्य सगुण उपासना करते हैं, जो बड़े हितकारी हैं, जो नीति में निरत हैं, नियम में दृढ़ है, और जिनकी ब्रहाण के चरण कमलों में प्रीति है, वे मनुष्य मुझको प्राणों के समान
प्यारे लगते हैं ।
कृपानिधान सुज्ञान प्राणपति, तुम्हारी सुध कैसे विसरावे ।
संकटहरण भरण पोषणता, इनकी जब सर में सुध आवे ।।
पल पल प्रीति जिया में उमँगत, नैनन में मधुरी छवि छावे ।।
जिनको जीवन चरण तुम्हारे,केहि विधि वे निज समय चितावे ।।
चत्सलता, ममता, सुशीलता, सुंदरता प्रति पल सुध लावें ।
पदमाला में ।
इन्ही उपरोक्त उपदेशों को ध्यान में रखकर अहिल्याबाई सदा ईश्वर के भजन पूजन में दृढ़ रहती थी और यही कारण था कि एक अचला स्त्री ने इस उत्तमता और योग्यता के साथ अपने बिस्तीण राज्य का शासन भली भांति तीस वर्ष तक किया जिसको सुनकर मनुष्य मन ही मन मुग्ध हो जाते हैं ।
पुराने इतिहास के अवलोकन से यह भी प्रतीत होता है कि अहिल्याबाई के भाई और बहिन भी थे, क्योंकि महेश्वर दरबार के जो कुछ पुराने पत्र व्यवहार अदि के कागज हस्तगत हुए हैं, उनमें यह हाल अर्थात भाई और बहन का आन कर मिलना दिया हुआ है । {{{1}}}