अहिल्याबाई होलकर/पहला अध्याय

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श्री:

पहला अध्याय ।

मल्हारराव होलकर।

चाहे सुमेर को छार करे, अरु छार को चाहे सुमेर बनावे।
चाहे तो रंक राउ करे, अरुराउको द्वारहि द्वार फिरावे।।
रीति यही करुणानिधि की, कवि देव कहे विनती मोंहि भावे।
चीटी के पाँव में बाँधिगयंद है, चाहे समुद्र के पार लगावे।।


महाराष्ट्र देश भारत के दक्षिण भाग में है। इसके उत्तर की ओर नर्मदा नदी, दक्षिण में पुर्तगीजो का देश, पूर्व में तुंगभद्रा नदी और पश्चिम में अरब की खाड़ी है। इस देश के रहने वाले महाराष्ट्र अथवा मरहठे कहलाते हैं।[१]

[  ]जिस समय औरंगजेब बादशाह सारे भारतवर्ष में हिंदू राज्यों का नाश करने में लगा हुआ था, उस समय इसी महाराष्ट्र कुल के एकमात्र वीरशिरोमणि जगतप्रख्यात महाराज शिवाजी ने सारे भारत में एक नवीन हिंदू राज्य स्थापित किया था। इनके साथ ही महाराष्ट्र देश में और भी अनेक वीर हुए थे और वे वार भी शिवाजी की नाई अति सामान्य वश में जन्म लेकर अपने अपने उद्योग और वाहुबल से एक एक राज्य और राजवंश की प्रतिष्ठा कर गए हैं। इन अनेक वंशों में से आज दिन तक भारतवर्ष में कई राज्य वर्तमान हैं। इनही वीर पुरुषं में एक साहसी बहादुर और योद्धा मल्हारराव होलकर भी हुए हैं और “श्रीमती महारानी देवी हिल्याई” इन्हीं मल्हारराव होलकर की पुत्रवधू थी।

हम अपने पाठकों को यहाँ पर मल्हारराव का थोड़ा सा परिचय आवश्यक जानकर देते हैं। वैसे तो इनका हाल पुस्तक भर में जगह जगह पर प्रसंग के अनुसार आया ही है, परंतु इनकी बाल्यावस्था का हाल जब तक कि विशेष रूप से न लिखा जाय नहीं मालूम होगा।

पहले पहल मल्हारराव के पूर्वज दक्षिण के वाफ नामक एक गाँव में बसते थे, पश्चात् पूना से लगभग २० कोस के अंतर पर "होल" नामक गाँव में आकर निवास करने लगे। ये जाति के महाराष्ट्र क्षत्रिय होकर धनगर अर्थात् गड़रिये का धंधा करते थे। मल्हारराव के पिता का नाम खंडोजी होलकर था। आप इस गांव में बड़े प्रतिष्ठि और धनवान समझे जाते थे। मराठी भाषा में “कर" शब्द का अर्थ "अधि[ १० ]
वासी" अर्थात् रहने वाला होता है। खंडोजी होल गाँव में निवास करने लगे थे, इसी कारण इनका नाम “खंडोजी होलकर" कहलाने लगा। किसी किसी का यह भी मत है कि "हलकर” अर्थात् "हलकर्षण" का अपभ्रंश होकर यह शब्द "होलकर" बन गया है। "हलकर" तथा हलकर्षण उन मनुष्यों के व्यवसाय का परिचय देता है, जो खेती का धंधा करते हों; परंतु यथार्थ में जो कुछ हो "होलकर" यह शब्द होल नामक गाँव में रहने ही के कारण पड़ा। जैसे नाशिक के रहनेवाले "नाशिककर” और पूना के रहनेवाले “पूनेकर" आज दिन भी कहलाते हैं, उसी प्रकार "होलकर" यह नाम भी "होल" गाँव में रहने ही से पड़ा इसमें कोई संदेह नहीं।

मल्हारराव होलकर का जन्म इसवी सन् १६९४ में हुआ था। जब ये चार वर्ष के हुए तब इनके पिता खंडोजी फा स्वर्गवास हो गया और मल्हारराव की माता पतिविहीना होने से नाना प्रकार की आपत्तियों में उलझकर दुःखरूपी सागर में गोते खाने लगीं, और वैधव्यावस्था के कारण इनके कुटुंब के लोग नाना प्रकार से उन्हें त्रास देने लगे, निदान इन्होंने दुःख से ऊब जाने पर अपने भाई भोजराज के यहां ही निवास करना निश्चय किया, और अपने एकमात्र पुत्र के साथ में लेकर वे तलोंदे चली गई।

भोजराज सुलतानपुर परगने के तलोंदे नामक गाँव में रहते थे और अपना निर्वाह खेती द्वारा करते थे। भोजराज ने अपनी बहिन और भानजे को निराश्रित देखकर अपनी बहन को नाना प्रकार से धीरज दिलाकर समझाया और [ ११ ]
कहा कि ईश्वर ने तुमको पुत्ररत्न दिया है वह चिरायु रहे, थोड़े ही समय के पश्चात तुम्हारी सब आपत्ति रात्रि के समान व्यतीत हो जायेगी। तुम यहां ही रहो और जितना तुमसे बन सके घर का भार संभालो। इस प्रकार के प्रेमयुक्त वचनों को सुनकर मल्हारराव की माता का चित्त ठिकाने हुआ और वे कर्तव्य से प्रेरित हो समय समय पर भाई के कार्य में उनका हाथ बटाने लगीं । मल्हारराव जो उस समय नितांत बच्चे ही थे, सिवाय खेल कूद के और क्या समझ सकते थे? परतु कभी कभी अपने साथ के बालकों से अनबन हो जाती अथवा खेल से मन ऊब जाता तो वे अपनी माता और मामा के साथ खेत तक भी चक्कर लगा दिया करते थे।

एक दिन प्रातःकाल मल्हारराव अपने मामा के साथ खेत को चले गए और इधर उधर कूद फाँद, मिट्टी के ढेले, पत्थर आदि फेंकने से और कड़ी धूप के लगने से व्याकुल हो गए और एक घने छायादार वृक्ष के नीचे आक़र लेट रहे । मंद और शीतल वायु के लगने से वे कुछ समय पश्चात निद्रादेवी की गोद में सुख से सो गए। जब भोजराज ने अपने कार्य से छुट्टी पाई तब मल्हारराव को इधर उधर देखा, ढूंढा, पुकारा परंतु उसको कहीं न देख यह निश्चय कर लिया कि वह घर चला गया होगा। परंतु घर पहुँचने पर उसको अपने भाई के साथ में न देख बहिन ने पूछा कि मल्हारी क्यों नहीं आया? तब भोजराज ने सरल स्वभाव से यह उत्तर दिया कि वह खेत ही में रह गया है । मैंने उसको ढूंढा, पुकारा परंतु उत्तर न [ १२ ]
पाकर यही जान लिया था कि वह घर को ही लौट गया है, परंतु अब ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी छायादार वृक्ष की छाया में कदाचित् लेटा रहा हो, मैं भोजन से निवृत्त हो अभी तुम्हारे साथ चलकर हम दोनों उसे खोज लेते हैं, और तब तक तुम भी भोजन से निवृत्त हो जाओ। परंतु माता का प्रेम विचित्र और अकथनीय, निस्वार्थ और स्फटिक के तुल्य होता है। जिस माता ने कठिन से कठिन व्रत कर, नाना प्रकार के स्वादिष्ट पदार्थों का परित्याग कर और प्रसवकाल के अत्यंत कठिन दु.ख को सहनकर पुत्रसुख अनुभव किया हो, अपने सर्व सुखों को तिलांजलि देकर केवल अपने पुत्र को सुखपूर्वक पालन करने का निश्चय किया हो, स्वयं शीत और उष्ण काल के दुःख को भोग अपने पुत्र की रक्षा की हो, जिसने अपने आहार में से भी बचा कर अपने पुत्र के लिये रख छोड़ने का संकल्प किया हो, क्या उसके मन में अपने पुत्र को भूखा जान स्वयं भोजन करने का विचार हो सकता है ? मेरा बच्चे खेत में ही भटकता होगा या भूख के मारे व्याकुल हो शिथिल हो गया होगा अथवा जंगल के हिंसक पशुओं का कलेवा हो गया हो इत्यादि नाना प्रकार के प्रेमयुक्त विचारों से अत्यत व्याकुल हो मल्हारराव की माता अपने साथ रोटी और पानी का भरा बर्तन लेकर नई प्रसूता गौ की भांति भूखी और प्यासी खेत की ओर, शीघ्र चलने लगी।

जिस स्थान पर मल्हारराव सोए हुए थे वह स्थान खेत के एक कोने में छोटी छोटी झाड़ियों से घिरा हुआ था। यहां [ १३ ]
पर मल्हारराव निद्रादेवी की गोद में सुख से लेट अपने भावी सुख और संपत्ति का दृश्य देख रहे हैं। ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्न काल के सूर्य अपनी उज्ज्वल और तीक्ष्ण किरणों के द्वारा उनके भाग्य के अक्षरों को शीघ्र पढ़ते चले जाते हैं। इनके ललाट के ऊपर सूर्य की अधिक तीक्ष्ण किरणों के कारण अफीम के बीज के समान छोटे छोटे पसीने के अनेक बिंदु देख पड़ते हैं, और वे ऐसे प्रतीत होते हैं मानों सूर्य भगवान स्वंय अपने किरणरूपी सहस्र करकमलों से मल्हार राव के लिलाट पर राज्याभिषेक का टीका स्वच्छ और बारीक मोतीरूपी पसीने से लगा रहे हैं। थोड़ी देर में पास ही एक झाड़ी से एक महाकाय काला सर्प निकला और अपने फन को मल्हारराव के मस्तक पर फैला और छाया कर बैठ गया, मानो सूर्य भगवान से यह पार्थना करता है कि इनके लिलाट में राज्याभिषेक नहीं है, अथवा इनके इस प्रकार के संचित कर्म नहीं है कि इनका राज्याभिषेक किया जाय ।

जब मल्हारराव की माता अपने पुत्र के शीघ्र खोजने की लालसा से अतिदुर्गम और कष्टदायक, तथा कांटों से पूर्ण मार्ग से नाना प्रकार के संकल्प और विकल्प करती, कई देवी देवता और कुलदेवताओं को अपने पुत्र को कुशल क्षेम से मिलने कि हितार्थ स्मरण करती, कभी कभी कुतर्कना के कारण रोती और बिलखती और फिर स्वच्छ अंतःकरण से अपने इष्ट देवता से पुत्र की रक्षा करने की प्रार्थना करती हुई उस स्थान पर पहुँची, जहां पर मल्हारराव सोए हुए थे, तो क्या देखती है कि एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरनेवाले श्रीशंकर महाराज के आभूषण [ १४ ]
अपना फन फैलाए हुए उसके मस्तक के पास विराजमान हैं । यह दृश्य देख उसकी माती अत्यंत व्याकुल हो प्रेम और भय के कारण फूट फूट कर सिसकने लगी और उसके मन में नाना प्रकार की कल्पनाएँ पुत्र के हितार्थ उठने लगी और भय के कारण अपने नेत्रों को मूंद चराचर नायक संकटनिवारण परमदयालु परमात्मा को अपने जीवन के आधार, अपने प्राण प्यारे एकमात्र पुत्र की रक्षा के हितार्थ विनीत भाव से दोनों हाथों को अपने हृदय पर रख, पुकारने लगी ।

देव तू दयाल तू दानि हौं भिखारी ।
हौं प्रसिद्ध पातकी तु पापपुंजहारी ॥

नाथ ! मैं महा दुखिया हूँ। इस संसार में मुझे अपने एक मात्र पुत्र के सिवाय दूसरा आधार नहीं है, आप दीनों की सर्वदा रक्षा करते हैं, प्रभु! आपने अहिल्या का उद्धार किया, गजेंद्र का मोक्ष किया, प्रह्लाद का संकट निवारण किया, सुदामा का दरिद्र हटाया और मोरध्वज के पुत्र रत्नकुमार को जीवन दान दिया । हे सर्वव्यापी ! मैं आपकी शरण में हूं । आप मेरी और मेरे पुत्र की रक्षा करें । मल्हारराव की माता इस प्रकार से प्रार्थना कर रही थी कि तत्काल भाई भोजराज उस स्थान पर आ उपरिथत हुए और अपनी बहन से पूछने लगे कि क्या मल्हारी नहीं मिला । भाई के शब्दों को पहिचान तुरंत नेत्र खोल मल्हारी की माता सजल नेत्रों से पुत्र की ओर अँगुली दि खाकर विवश हो रोने लगी । भोजराज जो कि अभी तक यहा के वृत्तांत से अपरिचित थे, बहिन के अँगुली के बतलाए हुए संकेत को न समझे और पुनः अपनी बहिन से पूछने [ १५ ]
लगे कि तुम इतनी अधीर क्यों हो रही हो? हम उसको अभी खोज लेते हैं । तब बहिन ने भोजराज से कहा, भैय्या देखो, देखो, वह काला सर्प जो कि उस झाड़ी में जा रहा है पहले मल्हारी के मस्तक पर अपने फन को फैलाए हुए बैठा था । यह कह कर फिर मंद मंद स्वर से रोने लगी । शेष भगवान जो कि अभी तक मल्हारराव की रक्षा किए हुए थे मानों मल्हारराव को माता की धरोहर उनके भाई भोजराज के समक्ष सौंप भाषण की आहटरूपी पावती ले निश्चिंत हो अपने स्थान को चले गए । भोजराज तुरंत झाड़ियों को कुचलते हुए मल्हारराव के समक्ष पहुँच उनको पुकार कर उनके मुखचंद्र की ओर निहारने लगे कि एकाएक उन्होंने अपनी दोनों पलकें खोल कर मामा की ओर देखा और वे उठ बैठे । परंतु बाल्य स्वभाव के कारण वे कुछ सकुचाए, भोजराज पुलकित मन हो वहीं बैठ गए और अपनी बहिन को वहीं पर आने का संबोधन फर पुन: उनके संकोच से भरे हुए मधुर हास्य को निहारने लगे ।

मल्हारराव की माता जिसके मन की गति थोड़े ही समय पहले श्रावण मास के मेघ की गति के तुल्य, अथवा रात्रि के मेघों की घटा में पूर्ण चंद्र के प्रकाश की गति के समान हो रही थी, एकाएक अपने पुत्र को सामने बैठा देख थोड़ी देर पहले के कल्पनारूपी दुःख को भूल प्रत्यक्ष पुत्रदर्शन के प्रेम और सुख में तल्लीन हो गई। उनके अंतःकरण में प्रात: काल के उदयाचल पर्वत पर सूर्य के निकलने के प्रकाश के तुल्य प्रकाश होने लगा और किरणों के तेज से मुख पर के [ १६ ]
अश्रु के बिंदुओं की झलक और पुलकित कोमल होंठ स्पष्ट रूप से उनके आनंद की साक्षी देने लगे । मध्याह्न काल के पश्चात् की मंद मंद वायु और पक्षियों का पुनः अपने अपने घोसलों से निकल कर आपस में चों चों रूपी गायन, और झाड़ियों की कोमल पत्तियां पवन मे झूम झूम कर मल्हारराव की माता को उनके पुत्र की भाग्यश्री का मानो वृत्तांत सुना रही हैं ।

मल्हारराव की माता पुत्र के निकट पहुँच उसको अपनी गोद में लेकर अपने हृदय से चिपटाने लगी और उसके मस्तक को सूँघने लगी । जिस प्रकार नवप्रसूता गौ अपने बछड़े को चाटकर, तथा कई दिन पश्चात् पति पत्नी के दर्शन और पिता पुत्र के मिलने पर या कंगाल खोए द्रव्य के मिलने पर एक दूसरे को हृदय से लगाते हैं उसी भांति मल्हार राव की माता अपने पुत्र को बारंबार हृदय से लगा मुख का चुंबन करने लगी और उसके अग की धूल झाड़कर अपने पल्लू से, जो थोड़ी देर पहले अश्रुओं से भींग गया था उसझे मुख को पोंछने लगी । पश्चात् पुत्र को प्रेमयुक्त वचनों से अकेला न निकलने का थोड़ा उपदेश दे, और लाया हुआ भोजन खिला उसको घर लिवा ले गई । इधर भोजराज भी अपनी खेती के धंधे में जुट गया, परंतु उसके मन में यह विश्वास होगया कि मल्हारी कोई होनहार लड़का है।

गाँव में धीरे धीरे सर्प का मल्हारी पर छाया करके बैठने का समाचार फैला,तब प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार तर्क करने लगा । कोई कहता, यही एक दिन राजा होगा, [ १७ ]
कोई कहता इसके भाग्य में सुख है, कोई कुछ, और कोई कुछ; परंतु इस समाचार को सुनकर सब का मल्हारी से थोड़ा प्रेम हो गया।

जब मल्हारराव आठ वर्ष के हुए तब वे बड़े निडर, साहसी और झगडालू प्रतीत होने लगे। इनके विद्याभ्यास की कोई व्यवस्था न होने से ये सदा खेल कूद में ही अपना समय व्यतीत किया करते थे । अधिक साहसी और झगडालू होने के कारण इनके साथी इनसे भय खाते थे और इनैकी हा में हा मिला दिया करते थे । बहुधा मल्हार राव अपने साथियों की टोली बना बना कर और आप उसके अगुआ बनकर इधर उधर गाँव में खेला करते थे। उनके लडकपन के एक खेल "जबरदस्त का मूसळ सिर पर" "Might is right" का हाल यहाँ देने से यह सहज ध्यान में हो जायगा कि वे कितने साहसी और निडर थे। विद्वान और अनुभवी लोगों का कथन भी है कि जिस प्रकार का बालक अपने जीवन के आरंभ में होता है उसी प्रकार का वह मनुष्य भी निकलता है। विद्वानों का कथन है कि "होनहार बिरवान के होत चीकने पात ।"

एक दिन मल्हारराव अपने सब साथियों को एकट्ठा कर एक टोली बना और आप उसके सरदार बन गाँव में चक्कर लगाने लगे। ये टोली के आगे आगे अपने हाथ में जुवार का एक डंठल ले और उसके सिरे पर एक चिथड़ा बाँध उसे ऊँचा उठाए चले जा रहे थे कि अचानक उनकी दृष्टि एक मिठाई बेचनेवाले की दुकान पर पड़ी, तुरंत उन्होंने उस डंठल को [ १८ ]
पृथ्वी पर टिका दिया और स्वयं आप भी खड़े हो गए । अपने अगुआ को खड़ा देखकर सब टोळीवाले खड़े हो गए । तब उन्होंने उस दुकानदार को रास्ते पर ही खड़े रहकर आवाज दी कि इन सबको मिठाई खिलाओ । यह सुन बनिये न हँसकर इनकी तरफ हाथ हिला दिया जिसका अभिप्राय यह था कि जाओ, जाओ, यहां तुमको कुछ नहीं मिलेगा । उसके आशय को समझ कर इन्होंने जोर से अपने साथियों को कहा कि लूट लो । लूट शब्द के सुनते ही लड़के दुकान की ओर बढ़ गए। यह देख हलवाई तुरंत दुकान से नीचे उतर हाथ जोड़ सब को मिठाई देने पर तय्यार हो गया। जब सब को मिठाई मिल चुकी तब आपने उसी डंठल को ऊंचा उठा आगे का रास्ता नापा । इस प्रकार ये नित नई कोई न कोई ऐसी बात पैदा करते थे जिससे गाँववाले तंग आकर भोजराज को उलहना दिया करते थे और इनकी माता इन पर अत्यंत क्रोधित हो कभी कभी इनकी ताड़ना भी किया करती थीं ।

एक दिन भोजराज को सांपवाला किस्सा, स्मरण हो आने से उसने अपनी स्त्री से पूछा कि मल्हारी एक दिन राजा होगा, ऐसा सब का अनुमान है, और यह है भी बड़ा निडर और साहसी। यदि पुत्री गौतमा का विवाह इसके साथ कर दिया जाय तो कुछ अनुचित न होगा। तुम्हारी क्या अनुमति है ? इस प्रस्ताव को सुनकर भोजराज की स्त्री के मुँह से एकबार ही निकल गया "गौतमा का विवाह मल्हार के साथ, मैं ऐसे निर्धन और झगड़ालू लड़के को अपनी [ १९ ]
पुत्री दे जन्म भर दुःखी नही बनूंगा । परंतु भोजराज के अनेक प्रकार से समझाने बुझाने पर वह, राजी हो गई और गौतमा का विवाह मल्हारराव के साथ होना निश्चित होगया । इसके पश्चात् थोड़े ही समय के बाद गौतमा का विवाह मल्हारी के साथ कर दिया गया ।

इस समय मुगलों के अत्याचार से विशेष कर राज-पूताने की दशा बहुत ही शोकजनक हो रही थी । जिस वीर-वर बाबर ने हिंदुओं को सर्वदा संतुष्ट रखने की इच्छा की थी, जिनकी मान मर्यादा को अटल रखने के लिये उसके वंशवाले सदा उद्योग करते थे, आज औरंगजेब के कठोर अत्याचार से उनके हृदय में भयंकर घाव उत्पन्न हो गया था, उसे कोई भी आरोग्य न कर सका । उन समस्त घावों की भयंकर पीड़ा से दु खित हो राजपूतों ने विप जान कर मुगल बादशाह से सबंध तोड़ दिया था। इस समय पराक्रमी सिक्खों के उदाहरण का दृष्टांत लेकर राजपूतों ने मुगलों की अधीनतारूपी जजीर को तोड़ने का विचार किया था, क्योंकि दुष्ट लोग समस्त राजपूताने के राज्य और द्रव्य को भूखे सिंह के समान, राज्य और द्रव्य रूपी रक्त को चूस चूस कर अघा रहे थे और दक्षिण में भयंकर पराक्रमी महाराष्ट्रीय लोगों की संतान, जिनके पूर्वजों के रोम रोम को वीरकेशरी शिवाजी ने मंत्र से दीक्षित कर स्वाधीनता प्राप्त करने के विचार में व्याप्त कर दिया था,

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• मामी की लड़की के साथ ब्याह होना मरहठों में प्रचलित है। [ २० ]
आज उदय होते हुए सूर्य के समान धीरे धीरे गंभीर मूर्ति पेशवा सरकार के अधीन रह, ठौर ठौर पर एकत्रित होकर संगठित हो रही थी । इन्हीं वीरगणों का एक समुदाय अणकाई के दुर्ग पर जो भोजराज के गाँव से थोड़े ही अंतर पर था निवास करता था ।

इस समय मल्हारराव की अवस्था १५ वर्ष की हो चुकी थी और इन्होंने महाराष्ट्रीय वीरो को, जो बहुधा इधर - ही से आया जाया करते थे, कई बेर देखा था । जब जब ये इन वीरगणों के सिपाहियाना भेष में ऊँचे ऊँचे घोड़ों पर चढ़े हुए और अपने अपने अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित देखते थे तब तब इनके हृदय में यही भाव उत्पन्न हुआ करता था कि यदि मैं भी इन्हीं लोगों के समान अस्त्र शस्त्र धारण कर फौज के सिपाहियों का सरदार बन घोड़े पर बैठूँ तो उत्तम होगा । अपने स्फटिकरूपी स्वच्छ अंतःकरण से परमात्मा के नाम को स्मरण कर ये सदा यही प्रार्थना किया करते थे कि मैं भी एक दिन इसी प्रकार सजधज कर सरदारी वस्त्र धारण कर माता के दर्शन करूँ। 'सर्वव्यापी, भक्त वत्सल दीनों के ऊपर दया करनेवाले, स्वच्छ मन से पुकार करनेवाले की पुकार अवश्य सुनते हैं । जो आर्तों की सदा रक्षा किया करते हैं, जो त्रैलोक्य की सृष्टि का नियमपूर्वक पालन करते हैं और जो शिष्टों का पालन और दुष्टों का दमन करने को सदा उद्यत रहते हैं, वे ही अपनी विश्वपालिनी शक्ति से सब की इच्छा पूर्ण करते है ।

जगत्प्रख्यात बाजीराव पेशवा के अधीन उस समय [ २१ ]
कितनी फौज किस किस स्थान पर स्थापित थी यह कहना तो अत्यंत कठिन है, परंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इस समय समस्त भारतवर्ष इनके पराक्रम और बल के नाम मात्र से थर्राता था। महाराष्ट्रीय फौज के आगमन के श्रवण मात्र से गाँव के गाँव बात की बात में खाली हो जाया करते थे। इनकी फौज में रणकुशल, नामांकित वीर एक से एक चढ़ बढ़ कर थे। इन्हीं वीरों में से एक वीर एक दल लिए हुए अणकाई के दुर्ग पर रहता था।

एक दिन मल्हारराव के अंतःकरण में यह प्रबल इच्छा उत्पन्न हुई कि आज दुर्ग पर चलकर सेना को और उसके फौजी काम को देखें, परंतु साथ ही यह विचार भी हुआ कि यदि मामा अथवा माता से यह विचार कहा जाय तो वे संभव है कि वहाँ जाने को नाहीं करदें। इन विचारों से मल्हारराव किसी को बिना पूछे ताछे ही अणकाई के दुर्ग को चल दिए । जिस समय ये दुर्ग पर पहुँचे उस समय फौजी अफसर लोग अपनी अपनी कंपनी के कवायद, फौजी काम, एक साथ भूमि पर लेट बंदूक चलाना इत्यादि का निरीक्षण कर रहे थे। मल्हारराव ने एक वृक्ष के नीच ठहर अपनी दृष्टि को चहू ओर हाल वह दृश्य भली भाँति देखा । वीरगणों के आपस में मिलकर एक के पीछे एक श्रेणीबद्ध कतारों में होकर चलना, प्रत्येक के कंधे पर चमकता हुआ बलम और इसमें की लाल, धवल पताकाएँ, एक साथ हाथ का हिलना, पैरों को बढ़ाना और हुक्म के सुनते ही एक ओर से दूसरी ओर फिरना आदि बातों को देख इनका हृदय उमंग से उछलने लगा, और [ २२ ]
वहीं खड़े खड़े वे हाथ हिला पैर बढ़ाने लगे और अपने मन में विचार करने लगे कि यह काम तो मैं बहुत शीघ्र सीख सकता हूँ, कोई कठिन नही है, परंतु अपना विचार किस पर प्रगट करना चाहिए ? क्योंकर अपने को यहाँ नौकरी मिल सकती है ? इधर सायंकाल हुआ जान घर चलने का विचार भी उनके प्रफुल्लित मन में एक प्रकार का विघ्न डालने लगा। निदान एक सिपाही को अपनी ओर आते हुए देख उन्होंने उस पर अपने विचारों को प्रगट करने का दृढ़ संकल्प किया और उसके समीप आने पर निशंक हो आपने अपने विचार उस पर प्रगट कर उत्तर चाहा । साधारण पूछ पाछ के पश्चात वह सिपाही इनको अपने नायक के पास लिवा ले गया और इन का थोड़े में संपूर्ण हाल सुना उसने इनका मुख्य उद्देश कह दिया । नायक इनको मरहठा बालक जान अपने मालिक, फौज के अफसर, के पास जो कि स्वयं मरहठा कुल के भूषण थे, ले गया और यह बालक नौकरी की इच्छा से यहां आया है, कह सुनाया। सोलह वर्ष के बालक की प्रतिज्ञा और साहस को देख सरदार बहुत प्रसन्न हुआ और कल से तुम को नौकरी मिल जायगी, कल से यहीं आन कर रहना होगा, इतना कह रात को वहीं ठहरने की उसने अनुमति दी, परतुं इन्होंने अपने मालिक से स्पष्ट रूप से कह दिया कि माता राह देखेगी, मैं उनसे बिना कहे ही इधर आया हूँ । यह कह उन्होंने वापिस लौटने की आज्ञा चाही, तथा दूसरे दिन नौकरी पर उपस्थित होने का वचन दे वे अपने घर को लौट आए। घर पर आकर जब यह सारा वृत्तांत उन्होंने अपने मामा और माता को उमंग से भरे हुए शब्दों में कह [ २३ ]
सुनाया, तब माता को तो पुत्र की नौकरी लगने की अत्यंत खुशी हुई परंतु मामा बहुत अप्रसन्न हुए, क्योंकि वे फौजी नौकरी के विरुद्ध धे। उन्होंने कहा कि तुमने लड़कपन किया है। तुम अभी बालक हो, तुम्हें इस बात का ज्ञान नहीं है कि फौज की नौकरी कितनी कठिन और जान जोखिम की होती है। फौज के आदमी को सर्वदा अपना मस्तक हाथ पर लिए रहना पड़ता है, उससे जन्म भर सिवाय कष्ट और भय के कुछ नहीं प्राप्त होता है। फौज की नौकरी करना मानो मौत की मित्रता बढ़ाना है, तुम कोई दूसरी नौकरी करो। मामा भोजराज के लिए जो खेती जैसी शांतिमय उद्यम करके अपनी जीविका चलाते थे, ये विचार ठीक ही थे, क्योंकि उस समय जगह जगह इस समय के समान शांति और सुख का राज्य नहीं था, वरन जहां देखो वहां लूट मार, काट छाँट, प्रति दिन सुनाई देती थी। दूसरे भोजराज ने अपनी कन्या का विवाह भी इनके साथ कर दिया था, इस कारण दोनों ओर के प्रेम और मोह में फँस वे यह नहीं चाहते थे कि मल्हारी फौज में भरती होकर नौकरी करे, परंतु मल्हारराव जैसे साहसी और निश्चयी, स्वच्छंद और उत्साही बालक के विचारों को कौन लौटा सकता था? आपने अपने मामा की एक न सुनी और दूसरे ही दिन प्रातःकाल उठ और नित्य कर्म से निवृत्त हो अपनी माता के श्रीचरणों में साष्टांग दंडवत कर और वाणी के सदृश माता का हार्दिक आशीर्वाद ले आप अणकाई के किले की तरफ चल पड़े। वहाँ पहुँच कर इन्होंने फौजी काम सीखना आरंभ कर दिया। ये जो कुछ काम [ २४ ]
सीखते थे वह बड़े ध्यानपूर्वक और परिश्रम के साथ सीखते थे, और जब रात के भोजन से निवृत्त होते थे, उस समय सारे सिपाही तो निद्रा देवी की गोद में चैन से लेटते थे परंतु मल्हारराव जो कार्य दिन में सीखा करते थे, उसका अभ्यास बड़ी सावधानी से किया करते थे । होनहार और उन्नति की उमंग से भरे बालकों का यह एक लक्षण है कि वे अपने कार्य में जुट जाते हैं और उसमें जो कुछ सीखने योग्य है उसको प्राप्त करने के लिये अपना जीवन सर्वस्व उसी में अर्पण कर देते हैं । उन्हें सर्वदा यही चिंता रहती है कि मैं काम को उत्तम रीति से कर दिखाऊ और अपने अधिकारी की प्रसन्नता प्राप्त कर लू । उनके काम में चंचलता, भाषण में विलय से युक्त दृढ़ता, और बर्ताव में साहसयुक्त धीरता दिखाई देती है । जिस काम को उठाया उसे पूरा ही करके छाड़ने का उनका संकल्प अचल होता है । मल्हारराव जितने जिज्ञासु उतने ही परिश्रम- शील भी थे । इस कारण इन्होंने दो ही वर्ष में सब फौजी काम को उत्तम रीति से सीख लिया और इस समय इनकी गणना भी उस समूह के अच्छे और बहादुर सिपाहियों में होने लगी और उनकी कीर्ति धीरे धीरे सारी फौज में होने लगी । जब फौज के अफसर को यह समाचार मालूम हुआ, तो उसको एक प्रकार का अचरज हुआ कि मल्हारराव एक छोटा सा लड़का होकर अपने कार्य में दोही बरस के समय में इतना होशियार हो गया कि सब सिपाहियों में उसकी धाक जम गई। यह अवश्य ही कोई होनहार बालक है ।

थोड़े ही दिन पीछे पेशवा और निजाम के बीच में युद्ध

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की सूचना हुई, जिसको सुनकर बहुत से सिपाही जो अपने परिवार सहित निवास करते थे, दुखित हुए, परंतु मल्हारराव को यह सुन अत्यंत हर्ष हुआ । इन्होंने इस छोटे से युद्ध में अपनी बहादुरी और साहस का परिचय इस उत्तमता के साथ दिया कि इनके फ़ौजी अफसर इनको देख चकित हो गए और कहने लगे कि यह लड़ाई को खेल समझता है, तथा बारूद और गोलों को फूलों के समान मानता है । इस युद्ध के समाप्त होने के पश्चात इनके बड़े अफसर ने इनपर अत्यंत प्रसन्न हो सन् १७२२ के जून मास में इनका नायक के पद पर नियत कर दिया। उस पद के प्राप्त होने के अनतर इन्होंने दो युद्ध और लड़े थे और उन दोनों में जय प्राप्त की थी । इस समय इनकी शूरता, वीरता और रण-चतुरता के समाचार पेशवा सरकार तक पहुँचे । जब पूना में पेशवा सरकार को विदित हुआ कि अमुक ठिकाने हमारी फौज में एक नवयुवक मरहठा बालक बड़ा ही बहादुर और युद्ध के काम में बहुत चतुर है तो उन्होंने अणकाई दुर्ग के अफमर के पास हुक्म भेजा कि नायक मल्हारराव को पूना दरबार के अधीनस्थ पूना के बेड़े में ही भेज दिया जाये । हुकम पाकर तुरंत ही मल्हारराव पूना रवाना किए गए । यहाँ पहुँच कर मल्हारराव पेशवा सरकार के मुजरा को एक दिन प्रातः काल अपने अफसर के साथ दरबार में आए और जब पेशवा सरकार को मल्हारराव के उपस्थित होने का समाचार निवेदन किया गया तब ये उनके सामने अपने अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर गए और इन्होंने पेशवा सरकार का फौजी [ २६ ]
नियमों के अनुसार मुजरा किया और एक ओर हट कर खड़े हो गए । अनुभवी पेशवा सरकार ने जिनको मनुष्य के देखने मात्र से यह प्रतीत हो जाता था कि उसमें क्या विशेषता है, इनको लक्ष्यपूर्वक कई बार निरीक्षण किया और थोड़े काल तक वार्तालाप करके आज्ञा दी कि कल से इस नवयुवक योद्धा को प्रति दिन प्रातःकाल और सायंकाल हमसे मिलना चाहिए। आज्ञानुसार मल्हारराव नियमित समय पर प्रति दिन पेशवा सरकार के समक्ष पहुँचने लगे, और जब उनको मल्हारराव की योग्यता और सच्ची स्वामि भक्ति का पूर्ण विश्वास हो गया, तब सन १७२४ इसवी में उन्होंने इनको खिलत प्रदान कर सम्मानित किया. और फौज का सुबेदार बनाकर मालवा और खानदेश का अधिकारी नियत किया और आज्ञा दी कि दोनों प्रांतों की आमदनी में से अपनी आश्रित फौज के संपूर्ण खर्च को निकाल कर बचत का रुपया प्रति वर्ष पेशवा सरकार के कोष में जमा कर ले जाया करो ।

इस समय सारा मालवा प्रांत निजाम सरकार के अधिकार में था । इस कारण निजाम की ओर से गिरधर बहादुर नाम का एक बड़ा शूर और कुशल नागर ब्राह्मण इस प्रांत का अधिकारी नियत था। गिरधर बहादुर इस प्रांत में पेशवा की कुछ भी नहीं चलने देता था । इस विशेष कारण से पेशवा सरकार ने मल्हारराव होलकर, भोसले और पवार को इस प्रांत का आधिपत्य हस्तगत करने के लिये चुना था । परंतु वीर मल्हारराव के अतिरिक्त किसी का भी हियाव गिरधर बहादुर के इस प्रांत में रहते हुए उसमे हस्तक्षेप करने का न [ २७ ]
पड़ा। हमारे वीर योद्धा मल्हारराव तो सदा यही चाहते थे कि जहां कोई न जाय वहाँ हम स्वयं जाकर अपनी शूरता और बहादुरी का परिचय देवें।

मालवा प्रांत में आते ही मल्हारराव ने गिरधर बहादुर से निशंक हो स्पष्ट कहला भेजा कि यदि इच्छा हो तो रणक्षेत्र में आकर लड़ाई लड़ो वरना इस प्रांत का समस्त अधिकार पेशवा सरकार को दे दो जिनकी ओर से मैं यहाँ स्वयं आकर उपस्थित हुआ हूँ, परंतु "सीधा अँगुरी घी जम्यो क्यों हू निकसत नाहिं" गिरधर बहादुर भी मामूली मनुष्य नहीं था, तुरंत लडाई लड़ने को उतारू हो गया । बस फिर क्या था, खूब ही घमासान युद्ध हुआ और लोहू की नदियाँ बहीं और अंत को गिरधर बहादुर को हार माननी पड़ी। गिरधर बहादुर मल्हारराव की शूरता, हिम्मत और रणचातुरी देख विस्मित हो गया और उनकी स्वयं बारंबार सराहना करने लगा । जब मल्हारराव ने अपना पूर्ण आधिपत्य मालवा प्रांत में जमा लिया तब इन्होंने अपना पैर आगरे और दिल्ली की तरफ बढ़ा मुगलों का पराभव करना चाहा । जब दिल्लीपति को मल्हारराव और राणोजी शिंदिया का फौज सहित आगमन मालूम हुआ, तब मुगल बादशाह ने तुरंत इनको रोकने के लिये बड़ी सेना भूपाल पर भेज कर, निजाम से अपनी फौज भी महायता को भेजने के लिये कहलाया परंतु वीरवर पेशवा सरकार की फौज का जिसमें राणोजी शिंदिया, मल्हारराव होलकर सरीखे प्रसिद्ध वीर सम्मिलित थे,किसका हियाव होता था कि सामना युद्ध में कर उस पर विजय प्राप्त कर सके ? केवल [ २८ ]
दिल्ली से आई हुई फौज से भोपाल में एक बड़ा युद्ध हुआ, जिसमें बड़ी बहादुरी के साथ राणोजी और मल्हारराव ने दुश्मनों पर कोसों तक धावा डालते हुए और अपनी अपनी रणचातुरी का परिचय देते हुए उन्हें पराजित किया।

मल्हारराव ने अपना पूर्ण अधिकार मालवा प्रांत पर सन् १७२८ ईसवी में जमाया था और काम काज का संपूर्ण भार दीवान गंगाधर यशवंत को, जो होलकर का उस समय एक सच्चा और विश्वासपात्र सेवक था, सौंपा था, और ऊपरी फौजी व्यवस्था तथा अन्य कामों की देख भाल का भार अपने जिम्मे रख छोड़ा था।

पूना से मालवा प्रांत में आते समय इनकी स्त्री गौतम बाई और दूसरे लोग भी इनके साथ आए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था, क्योकि मालवा प्रांत में केवल गौतमाबाई के ही आने का पता लगता है। गौतमाबाई स्वभाव से बड़ी दयालु और सुशीला तथा पतिभक्त स्त्री थीं । मालवा में निवास करने पर जब कभी मल्हारराव युद्ध के लिये बाहर जाते थे तो इनकी भी अनुमति लेते थे । मल्हारराव ने मालवा में एक ठाकुर की पुत्री से जो कि इनकी वीरता का हाल सुनकर इन पर मोहित हो चुकी थी विवाह किया था । इसका नाम हरकाबाई था। गौतमाबाई और हरकाबाई में अत्यंत प्रेम रहा करता था । सन् १७२५ ईसवी में ईश्वर की असीम कृपा से गौतमाबाई को विजयादशमी के दिवस पुत्ररत्न का जन्म हुआ। खंडोबा महाराष्ट्र (मरहठे) लोगों के कुलदेवता होने के [ २९ ]
पड़ा। हमारे वीर योद्धा मल्हारराव तो सदा यही चाहते थे कि जहाँँ कोई न जाय वहाँ हम स्वयं जाकर अपनी शूरता और बहादुरी का परिचय देवें।

मालवा प्रांत में आते ही मल्हारराव ने गिरधर बहादुर से निशंक हो स्पष्ट कहला भेजा कि यदि इच्छा हो तो रणक्षेत्र में आकर लड़ाई लड़ो वरना इस प्रांत का समस्त अधिकार पेशवा सरकार को दे दो जिनकी ओर से मैं यहाँ स्वयं आकर उपस्थित हुआ हूँ, परंतु "सीधा अँगुरी घी जम्यो क्यों हू निकसत नाहिं" गिरधर बहादुर भी मामूली मनुष्य नहीं था, तुरंत लड़ाई लड़ने को उतारू हो गया । बस फिर क्या था, खूब ही घमासान युद्ध हुआ और लोहू की नदियाँ बहीं और अंत को गिरधर बहादुर को हार माननी पड़ी। गिरधर बहादुर मल्हारराव की शूरता, हिम्मत और रणचातुरी देख विस्मित हो गया और उनकी स्वयं बारंबार सराहना करने लगा । जब मल्हारराव ने अपना पूर्ण आधिपत्य मालवा प्रांत में जमा लिया तब इन्होंने अपना पैर आगरे और दिल्ली की तरफ बढ़ा मुगलों का पराभव करना चाहा । जब दिल्लीपति को मल्हारराव और राणोजी शिंदिया का फौज सहित आगमन मालूम हुआ, तब मुगल बादशाह ने तुरंत इनको रोकने के लिये बड़ी सेना भूपाल पर भेज कर, निजाम से अपनी फौज भी महायता को भेजने के लिये कहलाया परंतु वीरवर पेशवा सरकार की फौज का जिसमें राणोजी शिंदिया, मल्हारराव होलकर सरीखे प्रसिद्ध वीर सम्मिलित थे,किसका हियाव होता था कि सामना युद्ध में कर उस पर विजय प्राप्त कर सके ? केवल
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दिल्ली से आई हुई फौज से भोपाल में एक बड़ा युद्ध हुआ, जिसमें बड़ी बहादुरी के साथ राणोजी और मल्हारराव ने दुश्मनों पर कोसों तक धावा डालते हुए और अपनी अपनी रणचातुरी का परिचय देते हुए उन्हें पराजित किया।

मल्हारराव ने अपना पूर्ण अधिकार मालवा प्रांत पर सन् १७२८ ईसवी में जमाया था और काम काज का संपूर्ण भार दीवान गंगाधर यशवंत को, जो होलकर का उस समय एक सच्चा और विश्वासपात्र सेवक था, सौंपा था, और ऊपरी फौजी व्यवस्था तथा अन्य कामों की देख भाल का भार अपने जिम्मे रख छोड़ा था।

पूना से मालवा प्रांत में आते समय इनकी स्त्री गौतम बाई और दूसरे लोग भी इनके साथ आए थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय इनकी माता का स्वर्गवास हो गया था, क्योकि मालवा प्रांत में केवल गौतमाबाई के ही आने का पता लगता है। गौतमाबाई स्वभाव से बड़ी दयालु और सुशीला तथा पतिभक्त स्त्री थीं । मालवा में निवास करने पर जब कभी मल्हारराव युद्ध के लिये बाहर जाते थे तो इनकी भी अनुमति लेते थे । मल्हारराव ने मालवा में एक ठाकुर की पुत्री से जो कि इनकी वीरता का हाल सुनकर इन पर मोहित हो चुकी थी विवाह किया था । इसका नाम हरकाबाई था। गौतमाबाई और हरकाबाई में अत्यंत प्रेम रहा करता था । सन् १७२५ ईसवी में ईश्वर की असीम कृपा से गौतमाबाई को विजयादशमी के दिवस पुत्ररत्न का जन्म हुआ। खंडोबा महाराष्ट्र (मरहठे) लोगों के कुलदेवता होने के
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कारण मल्हारराव होलकर ने भी अपने पुत्र का नाम खंडेराव रखा ।

जब खंडेराव पांच वर्ष के थे तभी से इनका स्वभाव बड़ा चिड़चिड़ा और हठीला था । ये अपने पिता से अधिक भय भीत रहते थे, और जब ये दस वर्ष के हुए तब सिवाय खेल कूद के इनका मन और दूसरे कामों में नहीं लगता था । और जो कुछ इन्हें कहना होता था वह सदा अपनी माता से ही कहा करते थे । मल्हारराव ने इनको विद्याभ्यास कराने के निमित्त नाना प्रकार के यत्न किए परंतु कुछ अधिक लाभ नहीं हुआ । कुछ और समझदार होने पर इनका समय गप्पों में और नाच रंग में ही व्यतीत हुआ करता था । खंडेराव की यह आदत और रुचि को देख मल्हारराव सदा दुखित और चिंतित रहा करते थे । वे बारबार यह विचार किया करते थे कि इसका जीवन इसकी उद्दंडता के कारण नष्ट होता जा रहा है । इसके सुधारने के अनेक यत्न मल्हारराव ने किए परंतु सब व्यर्थ हुए । इनकी उद्दंडता दिन पर दिन बढ़ती ही गई । अंत में दुःखित हो और पछता कर मल्हारराव ने यह निश्चय किया कि इनका व्याह कर दिया जाय, जिससे कदाचित् ये सुधर जाँय । यह सोचकर उनके व्याह के लिये लड़की खोजी जाने लगी ।

  1. महाराष्ट्र देश के निवासियों का नाम मरहठे इस कारण पड़ा कि जब जब इस देश के वासी लदाई में जा कर अपती शूरता और वीरता के परिचय तलवार के साथ देते थे, तब तब वे दुश्मन के सेना के दांत खट्टे कर दिया करते थे, और उनको रणक्षेत्र से मार कर हटा देते थे या स्वय ही रणक्षेत्र में लड़ते लडते मरकर हटते थे।