अहिल्याबाई होलकर/पाँचवाँ अध्याय

विकिस्रोत से
[ ५५ ]

पाँचवाँ अध्याय ।

दीवान गंगाधरराव और अहिल्याबाई ।

जब मालीराव का भी स्वर्गवास हो गया तब अहिल्याबाई ने स्वय राज्यशासन का कार्य अपने हाथ में ले स्वतः प्रबंध करने का दृढ़ संकल्प किया । परंतु राज्यकार्य में हाथ बटाने के लिये नाम मात्र को कुछ दिनों के लिये पेशवा सरकार के अनुरोध में उन्होंने गंगाधरराव को अपना मंत्री बनाना स्वीकार किया । गंगाधरराव बड़ा स्वार्थी, और कुटिल स्वभाव का मनुष्य था । इस बात की परीक्षा उन्होंने अपने वृद्ध श्वशुर मल्हारराव के जीवनकाल में ही करली थी । परंतु मल्हाराव ऐसे बुद्धिमान व चतुर मनुष्य के जीवित रहते गंगाधरराव को अपनी स्वार्थता सिद्ध करने का हियाव न हुआ । बरन वह उन पर नर्वदा अपना बगुला भक्ति ही दया करता था । परंतु ज्योही मल्हारराव के जीवन का अंत हुआ त्योंही उसने सोचा कि अब अपने लिये यहाँ धन समग्र करने का और राज्य में हस्तक्षेप करने का अच्छा अवसर आ उपस्थित हुआ है । यदि अहिल्याबाई ऐसी बुद्धिमती और नीतिनिपुणा स्त्री ने संपूर्ण राज्यशासन का भार स्वयं अपने हाथों में रखा तो मेरी स्वार्थसिद्धि में पूर्ण बाधा पड़ेगी, और बाई के सम्मुख मेरी कोई भी युक्ति न चलेगी । इस कारण उसने बाई से बड़े विनीत भाव से कहा कि आप एक सुकुमार अवला स्त्री है; आपसे राज्य [ ५६ ]
का भार न चल सकेगा । आपके आगे नाना प्रकार की बाधाएँ आ उपस्थित होंगी और आपके ईश्वरपूजन, भजन आदि शुभ कार्यों में अनेक प्रकार के विघ्न होंगे । इस कारण आप राज्याधिकारी होने के लिये किसी स्वरूपवान छोटे बचे को दत्तक ले लेवे और मैं स्वयं उत्तम प्रकार से संपूर्ण राज्य का प्रबंध कर बड़ी योग्यता से कार्य को चलाऊँगी । आप अपने हाथ खर्च के लिये एक दो परगने लेकर निश्चिंत ही सुखपूर्वक ईश्वर भजन करें।

अहिल्याबाई ने गंगाधरराव की छिपी हुई मनोवृत्ति को समझ उत्तर दिया कि मैं एक राजा की तो स्त्री हूँ, और दूसरे की माता, अब तीसरे किसका राजसिंहासन पर बैठाल उसका तिलक करू ? इसलिये स्वयं मैं ही अपने कुलदेवता को राजसिंहासन पर बैठा, संपूर्ण राज्य का कार्य करूँगी । इस उत्तर को सुनकर गंगाधरराव की आशा के मूल पर निराशा की कुल्हाड़ी का आघात पड़ा । परंतु तिस पर भी उसने अपने मन में विचार किया कि अपने प्रयत्न करने में कमी न करनी चाहिए । जैसे-

तुष्यंति भोजने विप्रा मयूरा घन गर्जिते ।
साधवः परसंपत्तौ खलः परविपत्तिषु ।।

चाणक्य ।

अर्थात्, भोजन से ब्राह्मण, और मेघ के गर्जने पर मयूर, दूसरे को संपत्ति प्राप्त होने पर साधु लोग, और दूसरे की विपत्ति पर दुजन संतुष्ट होते हैं । इसी प्रकार जिस दिन से अहिल्यावाई ने गंगाधरराव को अपनी बुद्धिमानी से रूखा [ ५७ ]
उत्तर सुना दिया था, उसे दिन में वह अपने मन ही मन यह विचार किया करता था कि ऐसी कौन मी युक्ति बन पड़े, जिससे राज्य का कार्य अपने हाथ में आवे ! उसने समय समय पर नाना प्रकार के षड्यंत्र रचे । परंतु बाई की बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता के कारण उसके रचे हुए दुष्ट उपायों का कुछ भी परिणाम नहीं हुआ। अहिल्याबाई इसकी प्रत्येक चालाकी को बड़ी सुगमता से समझ लेतीं, और उसे नष्ट कर देती थीं । जब गंगाधरराव की किसी भी दुष्टता से युक्ति सिद्ध न हुई तब अंत को उसने राघोबादादा को, जो पेशवा सरकार के चचा थे, इस संपूर्ण राज्य तथा धन का लोभ दिलाया, और उन्हें अपने पक्ष में सम्मिलित करने के हेतु एक पत्र इस आशय का लिखा कि यदि आप स्वयं इस समय सेना लेकर चढ़ आवे तो सरलतापूर्वक यह संपूर्ण राज्य, जो कि आपके पुरुखाओं का दिया हुआ है, और अब सिवाय एक स्त्री के कोई उस संपत्ति का अधिकारी नहीं है, आपके हस्तगत हो जायगा । पत्र को पाते ही लालच के वशीभूत होकर राघोबा दादा भी बिना पूर्ण विचार किए, गंगाधरराव के पक्ष पर होगए । और जब बाई को उनके भेजे हुए गुप्तचरों द्वारा यह प्रतीत होगया कि राज्य के लोभ से गंगाघर के पक्ष पर सम्मिलित होने की राघोबा दादा ने इच्छा की है, तब बाई ने स्वयं राघोबा दादा से कहला भेजा कि यह संपूर्ण राज्य प्रथम मेरे ससुर का स्थापित किया हुआ है पश्चात् मेरे पति का व मेरे पुत्र का था, परंतु दुर्भाग्य से वे सब इसको छोड़ स्वर्गवासी हो गए हैं और अब यह संपूर्ण राज्य मेरा [ ५८ ]
है । यह मेरी इच्छा पर निर्भर है कि मैं किसी योग्य बालक का दत्तकविधान करूँ अथवा न करूँ । ऐसी अवस्था में आप बुद्धिमान को यह उचित नहीं है कि मुझ अबला पर किसी प्रकार का अन्याय करें, या मुझे व्यर्थ दबावे । आप स्वयं बड़े विचारशील हैं और यथार्थ में यह राज्य आपका ही दिया हुआ है, परंतु इसको पुनः ले लेने से आपके गौरव में न्यूनता आ जायगी । संभव है कि किसी धन और राज्य हस्तगत करनेवाले लोभी मनुष्य ने आपके द्वारा अपने को यहाँ व्यर्थ बुला भेजने का कष्ट देकर अपनी स्वार्थसिद्धि का सुगम मार्ग समझ रखा हो । परंतु आप बुद्धिमानों को उनकी बातों पर ध्यान न देना ही श्रेयस्कर है। आगे जैसा आप उचित और योग्य समझे करें । परंतु यदि अपलोग नीति को तिलांजलि दे अन्याय के पक्ष को स्वीकार करेंगे, तो उसके उचित फल को अवश्य पावेंगे ।

इधर धीरे धीरे गंगाधरराव ने यह अपवाद बाई के ऊपर रचा कि स्वयं बाई ने ही पुत्र मालीराव की हत्या कराई है । सन्मार्ग पर पैर रखनेवाली और प्रजाभक्त अहिल्याबाई सरीखी स्त्री पर इस प्रकार का कलंक स्थापित कर राज्य का सर्वनाश करने का बीड़ा उठाना कितना बड़ा पाप है इस खबर के सुनते ही बाई बहुत दुखी हुई और हताश होकर विलाप करने लगीं । पहले तो वे अपने प्राणपति, प्रिय श्वशुर और पुत्र के शोक से चिंतित और दुखी हो रही थीं और अब दुष्टों ने पीछा किया । परंतु धैर्य और साहस रख उन्होंने ईश्वर का ध्यान किया और अपने को सम्हाल पर -

[ ५९ ]
मात्मा की न्यायशीलता पर दृढ़ विश्वास कर, इन सब कष्टों का सामना करने को वे दृढ़चित्त से तत्काल तत्पर हो गईं,- सच्चे ईश्वर प्रेम और सच्ची भक्ति के ये ही लक्षण हैं ।

अहिल्याबाई दोषी थीं अथवा निर्दोष, इस विषय को अधिक न ले हम मालकम् साहब की इसी विषय पर पुनः कही हुई कुछ बातें यहाँ लिखे देते हैं, जिनके अवलोकन मात्र से यह स्पष्ट प्रतीत हो जायगा, कि देवी अहिल्याबाई के स्फटिकरूपी स्वच्छ चरित्र में रात्रिरूपी श्याम कालिमा दुष्टों ने अपने निज स्वार्थ को सिद्ध करने के लिये लगाने की पूर्ण रूप से चेष्टा की थी । मालकम साहब लिखते हैं कि-"मालीराव की मृत्यु का वृत्तांत कई युरोपियन गृहस्थों को भी विदित हुआ और उनको भी यह निश्चय हो गया था कि यथार्थ में अहिल्याबाई ही मालीराव की मृत्यु की स्वयं कारण हुई हैं । परंतु इस बातों से और अहिल्याबाई के नाम (चरित्र) से घनिष्ट संबंध होने के कारण स्वयं मैंने अपना यह कर्तव्य समझा कि जहाँ तक हो सके इस विषय की स्वयं में पूर्ण खोज करूँँ । अंत में मेरी खोज का परिणाम यह निकला कि अहिल्याबाई पूर्ण रीति से निर्दोषी सिद्ध हुईं । यह ऐसा अपराध था कि कैसा ही कारण क्यों न हो, परंतु उसको कोई भी क्षमा नहीं कर सकता था । हाँ, यथार्थ में मालीराव पागल होने के कारण, जिन जिन दुष्ट कर्मों को करना था संभव है कि उन उन कर्मों से बाई को अत्यंत घृणा होती होगी । और यथार्थ में बाई को पूर्ण रूप से विश्वास हो चुका था कि मालीराव की अवस्था सुधरने की नहीं है, तब उनका ऐसा विचार [ ६० ]
कदाचित् हुआ हो कि इसके प्राणांत होने से स्वयं इसको मुझे तथा प्रजा को दुःख से शांति होजायगी । क्योंकि मालीराव पागलपन की स्थिति में बहुत ही अत्याचार और दुष्ट कर्मों के करता था, पर इस विचार के कारण बाई पर दूषण नहीं आरोपन करना चाहिए, किंतु उनके इस अद्वतीय विचार को एक प्रकार का उनके लिये भूषण ही समझना चाहिए।"

मालीराव के देवलोक सिधारने के कुछ दिन उपरांत संपूर्ण राज्य में चोर, लुटेरों और डाकुओं ने प्रजा के नाना प्रकार से अधिक कष्ट देना आरंभ किया, जिसको सुनकर अहिल्याबाई, जोकि अपनी संपूर्ण प्रजा को यहाँ तक कि उसमें जाति पांति का भी भेद न रख कर, अपने पुत्रवत प्रेम करती थी, और उनकी प्रसन्नता में प्रसन्नता और दुःख में सु:ख मानता थी, वे अत्यंत व्याकुल हो गई, और चौर, डाकू लुटेरों को भगा कर अपने संपूर्ण राज्य के उत्तम प्रबन्ध के हितार्थ बाई ने अनेक उपाय किए परंतु उनसे प्रजा को किसी प्रकार से भी शांति प्राप्त नहीं हुई । तब अंत को उन्होंने अपने संपूर्ण राज्य के प्रतिष्ठित मनुष्यों को गाँव गाँव से निमंत्रित कर और सब सरदार एवं फौजी अफसरों को एकत्रित करके एक विस्तृत आम दरबार किया और उसमें उन्होंने अपनी प्रजा को चोर लुटेरों तथा डाकुओं से हयविदारक कष्ट सहन करने का वृत्तांत को सब पर प्रगट करते हुए यह दृढ़ प्रतिक्षा करके सच को कह सुनाई कि जो कोई सज्जन मेरी प्राणप्यारी आश्रित प्रजा को इस प्रकार के कष्टों से उत्तम प्रबंध करके उनके सुख और शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत [ ६१ ]
करने की व्यवस्था कर दिखावेखा उस वीर को मैं अपनी एकमात्र कन्या का पाणिगृहण कराऊँगी । इस प्रस्ताव को सुनकर थोडे़ समय तक सारे दरबार में स्तब्धता और करुणा छा गई, अंत को दरबारियों में से एक नवयुवक मराठा वीर, अपने स्थान पर खड़ा हुआ और उसने इस कार्य में दृढ़ चित से योग देकर प्रजार को सुख और शांति पूर्ण रखने की सब के सम्मुख प्रतिज्ञा की और बाई को पूर्ण विश्वास दिला कर तत्काल यह निवेदन किया कि मुझे राज्य से द्रव्य और सेना की सहायता मिलना अति आवश्यक है ।

इस बात को सुनकर बाई अत्यंत प्रसन्न हुई, क्योंकि यह नवयुक स्वयं मरहठा कुल के भूषण थे और पुत्री मुक्ताबाई के योग्य वर थे, तुरंत अहिल्याबाई ने उस साहसी युवक के हितार्थं अपने निज कोष से धन और निज सेना से सेना देने की अपने अधिकारियों को आज्ञा दी, और दरबार समाप्त किया और सब आए हुए प्रजागणों के भोजन की व्यवस्था कर दूसरे दिन प्रातः काल शुभ मुहूर्त में प्रजा की रक्षा तथा सुप्रबंध करने के हितार्थ वीर यशवंतराव फाणशे को सहर्ष विदा किया ।

इन्होंने संपूर्ण राज्य की प्रजा को उनके कष्टों से मुक्त करके उनके सुख चैन से रहने का उत्तम प्रबंध दो ही वर्षों में कर दिखाया और जब बाई को इस बात का विश्वास हो गया तब उन्होंने यशवतराव फाणशे के साथ पुत्री मुक्ताबाई के पाणिग्रहण करने की तयारी का आरंभ कर दिया ।

इस विषय के संबंध में मालकम साहब लिखते हैं कि
[ ६२ ]
जिस समय अहिल्याबाई ने अपने राज्यशासन का कार्य- भार अपने हाथ में लिया, उस समय संपूर्ण देश चोर, ठंग, और लुटेरों के दुःख से त्रस्त था । कहीं भी सुख और शांति नहीं थी और प्रजा की संपत्ति और जीवन (जान) जोखम में थी । उस समय बाई ने एक आम दरबार करके यह प्रस्ताव किया कि जो कोई मनुष्य इस सारे राज्य की प्रजा के लुटेरों के कष्ट को नाश कर देगा, उसको मैं अपनी पुत्री ब्याह दूँगी । एक गृहस्थ यशवंतराव नामक ने इस वृहत् कार्य की जिम्मेदारी अपने सिर पर ली, और वह इस कार्य में फलीभूत हुआ और जब तक बाई जीवित रहीं, उनके विशाल राज्य में कभी भी कोई डकैती नहीं हुई । बाई ने अपने कथनानुसार अपनी पुत्री मुक्ताबाई का विवाह, जिस साहसी ने इंदौर के राज्य में से चोर, लुटेरों और डाकुओं की जड़ से खोद कर फेंक दिया था, उस यशवंतराव के साथ कर दिया ।

अहिल्याबाई ने अपनी लड़की के विवाह में सब सरदारों, दलपतियों और प्रजा को भोजन और पोशाक दिए थे, और समस्त राज्य के रहनेवाले ब्राह्मणों को भोजन, वस्त्र, और धन दिया था । बाई ने अपनी पुत्री को बहुत सा दहेज तथा सराना परगना भी दिया था ।

विदा होने के समय अहिल्याबाई आनंद से भरे हुए प्रेमाश्रुओं के वेग को न रोक सकीं और गदगद कंठ से कहने लगीं, बेटा यशवंतराव, अब तुमको गृहस्थाश्रम के नए संसार का सामना करना पड़ेगा, देखो, बड़ी सावधानी से [ ६३ ]
अपनी आश्रिता इस कोमल मंजरी की रक्षा करना, परछाँई के समान इसे सर्वदा अपने निकट ही रखना, विधाता की सृष्टि की सुंदरता का नमूना जान इससे प्रेम करना, अभी यह गृहस्थाश्रम के मर्म को नहीं जानती है । इसको सदा इस प्रकार की शिक्षा देते रहना, जिससे भविष्य में यह रमणी समाज में पतिप्राण कामनियों की श्रीधरी कहलावे, और सब लोग इस को आदर की दृष्टि से देखें । मेरी इस शिक्षा को मंत्रवत स्मरण रखना । यदि इस उपदेश का पालन करोगे, तो तुमको आजन्म सुख प्राप्त होता रहेगा ।

स्त्री को सुखी रखना तथा सुमार्ग पर चलाना पति ही के अधीन है । स्वामी ही के गुणों को सीख कर स्त्री गुणशालिनी होती है, स्त्री जितनी स्वामी के मन के भावों के जानने में चतुर होती है, उतनी और और कार्यों के करने में दक्ष नहीं होती, यदि वह अपने स्वामी के भक्तिभाव को एक बार समझ ले, तो उससे गुणवती दूसरी क्या हो सकती है ? घोड़ा अपने सवार के आसन को पहिचान उसे सवारी में कच्चा जान पीठ से गिराने की चेष्टा करता है । यही दशा स्त्रियों की भी है और जब घोड़ा जानता है जि सवार सवारी मे पक्का है तब वह किसी प्रकार की दुष्टता नहीं करता, वरन चुपचाप सवार के मन की गति के अनुकूल चाल चलता है, इसी प्रकार स्त्रियाँ भी अपने स्वामी के रंगढंग को देखकर उसके प्रसन्न रखने का प्रयत्न करती हैं । देखो, इसके साथ कभी नीरस बरताव न करना । जिस बात से इस सरला अबला के हृदय में किसी प्रकार का कष्ट हो ऐसा बर्ताव भूल कर भी न
[ ६४ ]
करना, वरन अपने सरस बर्ताव से इसे सदा प्रसन्न रखना और कदाचित् इसपर क्रोध भी आवे तो इसे हृदय में ही गुप्त रखना, ऐसा न हो कि उसका चिन्ह कभी मुख पर झलकने लगे। कभी कुवाक्यरुपी तप्त जल इसके, चमेली के पुष्प सदृश, कोमल हृदय पर छिड़क कर उसे झुलसा न देना । बेटा, आम की मंजरी या सिरस का फूल भौरों ही के स्पर्श को सहन कर सकता है, अन्य की स्पर्शरूपी चोट से छिन्न भिन्न हो जाता है, यहाँ तक कि खिला हुआ फूल हाथ फेरने से ही कुम्हला जाता है । सब धर्म शास्त्रों का यही मत है, कि स्त्रियों की शिक्षा का गुरु स्वामी ही है, अभावपूरक कामनाओं के लिये अनेक व्यक्तियों के अनेक सहायक होते हैं, परंतु स्त्रियों के लिये स्वामी को छोड़ कोई दूसरा सहायक नहीं है । यदि तुम टुक विचार करो और शांत चित्त हो देखोगे तो समझ जाओगे कि स्त्री ही पुरुष की अमोघ शक्ति, शांति की खान, सुखदायिनी और आनंद की मूर्ति है । बाहर तुमको कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े परंतु घर आने पर और स्त्री के मुखचंद्र का दर्शन करने पर तुम सब दुःख भूल जाओगे । प्रेम से प्रेम बढ़ता है । स्त्रियां ही हमारे गृह को नंदन वन बना देती हैं। जिन स्त्री पुरुषों में परस्पर प्रेम नहीं होता, उनको किसी वन के रहनेवालों के समान भी सुख नई प्राप्त होता, उनका जीवन सर्वदा दुःखमय बीतता है। विद्वानों का कथन है कि जिस घर में स्त्रीरत्न नहीं, वह प्रकाश रहित है। प्यारे पुत्र, जो कुछ मैंने कहा उसी पर आरूढ़ रहना। अंत में यशवंतराव को हृदय से लगा इन्होंने आशीर्वाद दिया,
[ ६५ ]
बेटा ईश्वर सदातुम्हारा कल्याण करे, तुम सदा फूलो फलो और सुखी रहो।।

यशवंतराय को उपदेश करके बाई अपनी पुत्री मुक्ताबाई को शिक्षा देने लगी, मेरी प्राणाधारा मुक्ता, तुमको आज यह अभागिन विदा करके इन विशाल भवनों में, खोए हुए बच्चे के हितार्थ जैसे हरिणी निर्जन वन में तड़फती है, वैसे तुम्हारे विना सड़फती रहेगी, तुमको यह अंतिम शिक्षा देती हैं. इसकी गांठ अपने पल्लू में बांध रखो । यद्यपि तुम निरी अल्हण नही हो परमात्मा ने तुमको समझने की बुद्धि और शक्ति दी है तथापि मेरी इस शिक्षा को अपने हृदय पर अंकित कर लेना। देखो बेटी, स्वामी ही स्त्री का परम आराध्य देवता है, स्वामी के रहते स्त्री को किसी दूसरे की पूजा करने का अधिकार नहीं है। औरों की कौन कहे यदि माता पिता भी आजावें तो पहले स्वामी की सेवा शुश्रूषा करके उनका आदर सत्कार करना चाहिए। ईश्वरोपासना के प्रथम स्वामी की ही उपासना करना समुचित है क्योंकि स्त्री के लिये स्वामी ही शरीरधारी ईश्वर है। पति को आज्ञा के प्रतिकूल कोई कार्य न करना और न उनको कभी किसी प्रकार से कष्ट पहुँचाना, सुख और भोग की तनिक भी इच्छा मत रखना, धर्म का भय लिए ईश्वर की भक्ति में लीन रहकर सर्वदा पति की सेवा में निमग्न होकर काल व्यतीत करना, पति को बाहर से आते देख प्रसन्नचित्त और हँसमुख होकर उनके सामने जाना, और यदि सांसारिक झगड़ों के कारण पति का मन व्यग्र हो तो उसके दूर करने का यत्न करना, स्वामी से वार्तालाप करते [ ६६ ]
अथवा किसी प्रश्न का उत्तर देत समय कभी झूठ मत बोलना और कदाचित् तुम से कोई चूक हो जाय तो उसका कारण बतला कर क्षमा करने की प्रार्थना करना, फिर ऐसी सावधानी से रहना कि वैसा अपराध पुनः न होने पावे । पतिव्रत धारण करने में सावित्री दमयंती और देवी श्रीमता जगज्जननी प्रख्यात सीता जी का पदानुकरण करना । जिस प्रकार की सेवा करने में स्वामी को सुख मिले मरण पर्यंत वैसी ही सेवा शुश्रूषा करने पर सर्वदा उद्यत रहना और यदि सेवा करने के समय कुछ कष्ट बोध हो तो भी उससे मुंह न मोड़ना वरन सहर्ष पतिसेवा में लीन रह कर पति के आनंदित करते रहना । बेटी, देखने में तुम दो हो, अब हृदय से हृदय और मन से मन मिलकर एक हो जाओगे । जिस स्त्री के पास पतिरूपी अमूल्य रत्न नहीं है उसके ऐसी अभागिनी इस संसार में दूसरी कोई नहीं है । और जो स्त्री ऐसे प्राणों के प्राण को व्यर्थ दुखी करती है उसके समान पापिनी इस भूतल पर कोई नहीं है। स्वामी से सदा मधुर में सत्य भाषण करना, कभी क्रोधयुक्त शब्दों का उपयोग भूल कर भी न करना, क्योंकि क्रोध के उत्पन्न करने वाले शब्दों का यदि उपयोग स्त्री अपने स्वामी से करे तो यह सदा के लिये पति के अंतःकरण से पतित हो जाती है और हमेशा कलह होकर, सुख का नाश होता है । इसलिये पुत्री, तुम सर्वदा क्षमा और शांति का अवलंब करते रहना, परस्पर प्रेम करनेवाले दंपति बहुधा विचारशून्य नहीं होते, तो भी कभी कभी इनके प्रेम में विघ्न आ जाता है । इसलिये तुमको चाहिए कि तुम से कोई
[ ६७ ]
ऐसी भूल न होने पावे जिससे अपने स्वामी के प्रेम का किंचित् भी आघात पहुँचे । अंत को कहते कहते बाई के नेत्रों से प्रेमाश्रुओ की धारा बह चली, तब वे पुत्री को अपने शरीर से चिपटा उसका मस्तक सूंघनेे लगी, और हृदय से प्रेमपूर्वक आशीर्वाद दे युगल जोड़ी को उन्होंने विदा किया ।

इस जगत में माता पिता तथा अन्य बंधुजनों, को पुत्री को विदा करने में थोड़ा बहुत कष्ट होता ही है, परंतु माता को और विशेष कर उस माता को जिसके एकमात्र पुत्री के अतिरिक्त दूसरी संतान ही नहीं है, कितना प्रेम भरा हुआ दु:ख होता है इसका अनुभव वही कर सकते हैं जिनको कन्यारत्न पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । औरों की तो कथा ही क्या है स्वंय महर्षि कण्व जय शकुंतला को विदा करने लगे तब वे प्रेम के कारण विकल हो उठे थे, राजा जनक और रानी सुनयना भी जय जगन्माता श्रीजानकीजी को विदा करने लगे तब प्रेम के कारण कितने व्याकुल हुए थे यह नीचे की पंक्तियों से प्रतीत होता है ।

मजु मधुर मूरति उर आनी । भई सनेह शिथिल सब रानी ।।
पुनि पुनि मिलति सखिन बिलगाई । बाल वत्स जनु धेनु लवाई ।।
प्रेम विवश सय नारि नर, सखिन सहित निवास ।
मानहू कीन्हे विदेहपुर, करुणा विरह निवास ।।

परंतु धन्य थी अहिल्याबाई जिन्होंने अपने श्वसुर, पति, पुत्र के दुःख को शांतिपूर्वक सहन कर अपनी प्रजा के दुःख निवारण करने के हितार्थ अपनी एकमात्र पुत्री को भी बाजी
[ ६८ ]पर लगा दिया था । क्या जगत के इतिहास में अहिल्याबाई के गुणों का और प्रजावत्सलता का तथा धर्मपद पर आरूढ़ रहने का गुण हिंदू मात्र के लिये अभिमान का कारण नहीं है ? भारत की पूज्य स्त्रियों की गणना में अहिल्याबाई के नाम को रखना अनुचित न होगा ।

________