अहिल्याबाई होलकर/छठा अध्याय

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छठा अध्याय ।
दीवान गंगाधरराव और अहिल्याबाई ।

हम पहले कह आए हैं कि राघोबा दादा ने भी जब धन और राज्य के लोभ से गंगाधरराव की हाँ में हाँ मिलाई और होलकर राज्य के अनेक अधिकारियों ने अहिल्याबाई को युद्ध रूपी भय दिखाकर, स्वयं इनके विरुद्ध आचरण करने का निश्चय किया । बाई को जब ये समाचार उनके गुप्तचरों द्वारा प्रगट होगए तब उन्होंने एक पत्र राघोबा दादा को लिख भेजा । जब बाई का भेजा हुआ पत्र उनको मिला तब उसे पढ़कर वे बहुत ही लाल पीले हुए और अपने कर्मचारियों को पत्र का आशय सुनाते हुए बिना विचारे अभिमान के साथ अपनी सेना को तैयार होने का उन्होंने हुक्म दिया । दूसरे दिन जब फौजी अफसर ने आकर दादा साहब को सेना के सैयार होने की सूचना दी और कहा कब प्रयाण किया जायगा यह पूछा तब दादा साहब ने कहा कि मालवा में मल्हारराव होलकर की पुत्रवधू जो विधवा है उसको इतना अभिमान हो गया है कि हमारे भेजे हुए गंगाधरराव की सलाह से वे दत्तक पुत्र लेने पर राजी नहीं होती इसलिये उन्हें उचित दृष्ट देने की लालसा से मालवा को चलना है । परंतु दादा साहब ने अपना असल भेद कि राज्य को ही हम हड़पना चाहते हैं किसी पर भी प्रगट नहीं होने दिया, और सेना को मालवा की और रवाना कर दिया ।
[ ७० ]जिस समय ये सब समाचार बाई के गुप्तचरों ने आकर उन पर प्रगट किए तब बाई ने अपने सब सरदारों को और फौजी अफसरों को अपने महल में निमंत्रित कर के एक गुप्त सभा की और उनको दुष्टों की दुष्टता का संपूर्ण हाल सुनाकर राघोबा दादा के विरुद्ध युद्ध करने पर सब उपस्थित मनुष्यों से सम्मति ली । परंतु ऐसा कौन था जो अपनी न्यायशीला और धर्मपरायणा माता के विरुद्ध अपनी सम्मति देता ? सब ने एक स्वर से यही कहा कि दुष्टों को उनकी दुष्टता का बदला अवश्य देना उचित है, और फौजी अफसरों ने प्रेम के वशीभूत ही तुरंत अहिल्यबाई से कहा कि होलकर सरकार का नमक हमारे रोम रोम में भरा हुआ है । जब तक हम में से एक भी सिपाही जीवित रहेगा तब तक हम रणक्षेत्र से कभी मुंह नहीं मोड़ेंगे, आप विश्वास रखे कि हमारे जीवित रहते हुए अपके राज्य में से कोई तिनका नहीं ले सकता । इस प्रकार के वाक्य अपने वीरों के मुख से सुनकर बाई को बहुत ही सतोप हुआ और उन्होने उनको पोशाक देकर सत्कारपूर्वक विदा किया । दूसरे दिन बाई ने अपने विश्वासपात्र सेनानायक और अधिकारियों को पुन: एकत्रित करके सेंधिया, भोंसला, पँवार, और गायकवाड़ महाराजा से मत चाहने के हेतु पत्र लिखे जाने का प्रस्ताव किया । बाई के इस प्रकार की दूरदर्शिता के विचारों को सुन सब प्रस्ताव से सहमत होगए, और प्रत्येक को इस आशय का पत्र लिखा गया कि इस होलकर राज्य की स्थापना मेरे श्वशुर मल्हारराव ने अपने निज बाहुवल से और अपने शरीर
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का रक्त नष्ट करके की है। यह बात आप लोगों से भी छिपी नहीं है। परंतु आज मुझ अबला और अभागिन पर दुष्टों ने धन की लालसा से चढ़ाई कर इस समस्त राज्य को हड़पने का पूर्ण विचार किया है। इस कारण आपसे इस दु:खिनी अबला की प्रार्थना है कि धर्म और न्याय पर पूर्ण विचार कर के मेरी सहायता के हितार्थ निज सेना भेजें ।" इधर अपनी निज सेना के लिये उन्होंने एक विश्वासपात्र मराठी वीर तुकोजीराव को जो कि रणविद्या में चतुर थे, सेनापति बनाया और वे स्वयं वीर वेश धारण कर धनुष बाण, भाला और खड्ग हाथ में ले रण के लिये उद्यत हुई। जिस घड़ी अपने इष्टदेव के मस्तक नवा और उनका ध्यान हृदय में रख बाहर निकल वे प्रयाण करना ही चाहती थी कि यह सुसंवाद सुनाई दिया कि स्वयं भोंसला अपनी बहादुर सेना सहित नर्मदा नदी के तट पर रक्षा के हितार्थ उपस्थित हैं, और पूना से पेशवा सरकार की भी, जो कि मुख्य स्वामी थे सहायता आ पहुँची और एक गुप्त पत्र बाई को दिया गया जिसमें पेशवा सरकार ने लिख भेजा था कि जो कोई तुम्हारे राज्य पर पाप दृष्टि रक्ख अथवा तुम्हारे साथ अनीति का व्यवहार करे तो तुम उसको बिना संदेह उसके दुष्ट कर्म का प्रतिफल देवो । इस पत्र को पढ़ बाई रोमांचित हो गईं और मन ही मन परमामा को कोटिशः धन्यवाद देने लगीं । चारों ओर से सहायता और आश्वासन के वाक्य सुनकर बाई ने रातों रात अपनी सेना के साथ इंदौर से निकल "गडवाखेडी" नामक स्थान पर पड़ाव डाल दिया । यहाँ पहुँचने पर और और
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जगहों की सेना बाई के संरक्षणार्थ आ पहुँची। इनके लिये भोजन, व्यय आदि का इस प्रकार से उत्तम प्रबंध बाई ने किया था कि सच को बड़ा आश्चर्य हुआ कि अबला स्त्री में ऐसी आपत्ति के आने पर भी कितना धैर्य और किस प्रकार प्रबंध करने की शक्ति है। इस स्थान पर पहुँच बाई युद्ध की प्रतीक्षा करने लगीं।

यह सब हाल जब गंगाधरराव को विदित हुआ तो इसके आश्चर्य की सीमा न रही। कारण यह है कि जितना कुछ बाई ने युद्ध के संबंध में प्रबंध किया था उसकी सवर इसको स्वप्न में भी नहीं होने पाई थी और अचानक इस प्रकार युद्ध की तैयारी तथा अपनी आशारूपी फसल पर युद्धरूपी बादलों से गोलीरूपी जल की वृष्टि होती हुई देख तुंरत राघोवा दादा को यह कौतुक भरा वृत्तांत सुनाने के निमित्त वह भागा। राघोवा दादा भी अपनी सेना के साथ क्षिप्रा नदी के उस पार आ उपस्थित हो गए थे और युद्ध की घोषणा करने का विचार बाँध रहे थे। शिविर में गंगाधरराव के पहुँँचते ही दादा साहब बड़े उत्साहित हो आनंद से गंगाधरराव को कहने लगे "बस अब क्या विलंब है समस्त इंदौर का राज्य तुन्हारा ही है। विधवा बेचारी अहिल्या की क्या सामर्थ्य है जो हमारा सामना करेगी," परंतु जब गंगाधरराव ने यहाँ का सब वृत्तांत रूँधे हुए कंठ से कह सुनाया तब दादा साहब की आँखें खुल गई और वे नाना प्रकार के संकट और विचार गसित हो गए। निदान अपने आपको सहाल कर वे गंगाधरराव से इस संकट के निवारणार्थ सलाह करने लगे। [ ७३ ]इधर ज्योंही अहिल्याबाई का राघोवा दादा के सेना सहित क्षिप्रा के तट पर पड़ाव डालने का हाल विदित हुआ त्योंही बाई ने रातो रात अपनी निज सेना को वीर तुकोजी राव के अधीन कर तुरंत वहाँ रवाना कर दिया । तुकोजीराव भी बाई के चरणों में मस्तक नवा सेना के साथ रवाना होकर सूर्योदय से पूर्व क्षिप्रा के इस पार जा उपस्थित हुए और दूसरे दिन जब दादा साहब की सेना नदी के पार उतरने की चेष्टा करने लगा तब तुकोजी ने दादा साहब से कहला भेजा कि अहिल्याबाई के आज्ञानुसार आपको मैं पूर्व ही सूचना दिए देता हूँ कि आप अपना आगा पीछा पूर्ण रीति से विचार कर नदी के पार होवे । आप की सेना की गति रोकने को मैं यहाँ पूर्ण रीति से तैय्यार हूँ ।

वीर तुकोजी के ऐसे निर्भय शब्दों को सुन दादा साहब का मन कपायमान हो गया, क्योंकि गंगाधरराव ने जब संपूर्ण समाचार बाई की ओर का कह सुनाया था तब जैसा दादा साहब ने बाई को युद्ध करके जीत लेना सहज मान रखा था वैसा न देख उनकी सारी वीरता की उमंगै एकाएक लोप हो गई। निदान दादा साहब ने पछता कर तुकोजी राव से यह कहला भेजा कि हम तो मालीराव की मृत्यु के समाचार को सुनकर बाई साहब को सात्वना देने के निमित्त ही आ रहे हैं । परंतु न जाने किस भय से आप लड़ने के लिये उद्यत हो रहे हैं । इस प्रकार के चतुराई के उत्तर से तुकोजीराव ने पूर्ण निश्चय कर लिया कि ये केवल गंगाधरराव की उत्तेजना मात्र से ही सेना सहित यहाँ आन उपस्थित हुए हैं, परंतु [ ७४ ]
इनके मन में किसी प्रकार का दुष्ट भाव बाई की तरफ से नहीं है । तुकोजी ने दादा साहब से पुनः कहला भेजा कि यदि आप यथार्थ में बाई साहब से मिलने को ही चले आए हैं तो इतनी फौज की क्या आवश्यकता थी ? इन शब्दों को सुन दादा साहब निरुत्तर हो गए, परंतु तुरंत पालकी पर सवार हो और दस पॉच सेवकों के साथ तुकोजीराव के शिविर में स्वयं चले आए । यह देख तुकोजी भी आगे बढ़ दादा साहब को बड़े सत्कार के साथ अपने कटक में लिवा लाए और उसी दिन दादा साहब ने अपनी संपूर्ण सेना को सज्जैन में छोड़ कुछ सेवकों के साथ अहिल्याबाई से मिलने के हितार्थं तुकोजी के साथ इंदौर के लिये प्रस्थान किया । गुप्तचरों ने बाई साहब को यहाँ के संपूर्ण वृत्तांत से सूचित कर दिया । इस समाचार के सुनते ही अहिल्याबाई दादा साहब तथा तुकोजी के इंदौर पहुँचने के पूर्व ही वहाँ पहुँच गई ।

तुकोजी और दादा साहब जब इंदौर पहुंचे तब बाई ने बड़ी आवभगत और सत्कार के साथ दादा साहब को अपने निज महल में ठहराने की तुकोजी राव के आज्ञा दी और उनकी पहुनाई में किसी भी प्रकार की त्रुटि न होने दी । दादा साहब लगभग एक मास इंदौर में रहे थे । परंतु अहिल्याबाई ने उनको अपने से भाषण करने का अवसर केवल चार, पाँच दो बार दिया । और जय जय भाषण का अवसर प्राप्त हुआ तब तब सेव्य सेवक भाव से भोपण हुआ । परंतु बाई का दादा साहब पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि वे स्वयं उनका आदर करने लगे । इंदौर से प्रयाण करने के पूर्व दादा साहब ने तुकोजी

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राव को सरदारी वस्त्र पहना कर उनका गौरव बढ़ाया था। तदनंतर बाई से विदा होकर गुजरात प्रदेश में भ्रमण करते हुए वे पूना पहुँच गए।

इस प्रकार जब गंगाधरराव की दुष्टता से पूर्ण प्रत्येक चालाकी का यथायोग्य उत्तर बाई देती रही, तब वह बहुत ही पश्चात्ताप करने लगा और विचार करने लगा कि अब मैं अहिल्याबाई के सम्मुख पहुँच कर किस मुँह से कार्य के निर्वाह पूरने की आज्ञा चाहूँ; क्योंकि मेरी दुष्ट भावनाओं और कृत्यों का समाचार बाई को विधिपूर्वक ज्ञात हो चुका है। इस कारण मलिन अंत:करण से निरुद्योग और उदासचित हो तीर्थयात्रा के बहाने वह दक्षिण को चला गया। गंगाधरराव के दक्षिण में पहुँचने का समाचार जब पेशवा सरकार को विदित हुआ तब उनको इसके संबंध में और अधिक विचार उत्पन्न होने लगा कि यह दुष्ट न जाने और क्या आपत्ति उठावे। इस कारण से पैशवा सरकार ने इसके मनोविचारों को जानने तथा किसी राज्यसंबंधी कार्य में वह हस्तक्षेप न करे, इस अभिप्राय से कुछ गुप्तचर हाल चाल जानने के हेतु से छोड़ दिए। पेशवा सरकार दुसरों के हाल जानने के हेतु बहुधा ऐसा ही प्रयत्न किया करती थी। गंगाधरराव ने नाना प्रकार के क्लेशों को भोग पेशवा सरकार से पुनः किसी पद पर नियत होने का अनुरोध किया, परंतु वह सब व्यर्थ हुआ। अंत में उसने विचार किया कि पेशवा सरकार का मल्हारराव होलकर को दिया हुआ एक छोटा सा दुर्ग यहाँ दक्षिण में हैं, वहीं पर पहुँच अपना समय व्यतीत करना उत्तम है। परंतु असल भेद और ही कुछ था। यह जब उस-
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किले पर अपने दोनों सेवकों के सहित पहुँचा तब दोनों सेवकों ने वहाँ के रक्षक को पेशवा सरकार को दिया हुआ आज्ञापत्र दिखला दिया और कह सुनाया कि पेशवा सरकार के अविश्वासपात्र दीवान गंगाधरराव आपके अधीन हैं; आप उन पर पूर्ण रूप से देख भाल रखें। इन बातों के सुनते ही गंगाधरराव ने अपने सेवकों पर कड़ी दृष्टी डाली। परंतु उन्होंने स्पष्ट रूप से सब वृत्तांत कह सुनाया कि हम को पेशवा सरकार की यही आज्ञा थी कि किसी प्रकार आप को यहाँ तक पहुँचा दें। आज कई महीने से हम आपकी गुप्त रीति से देख भाल करते आए हैं, हमने आप को आज अपना सच्चा परिचय दिया है, आपके भाग्य में जो कुछ बदा होगा वह अवश्य होगा। इतना कह दोनों गुप्तचर वहाँ से चले आए। परंतु किलेदार एक सज्जन मनुष्य था, इस कारण गंगाधर राव को वहाँ पर अधिक दुःख न भोगना पड़ा। केवल इतनी देख भाल अवश्य थी कि वे कहीं बाहर न जाने पावें और न कोई उनके पास मिलन को ही आने पावें। परंतु अपनी दुर्दशा की अवस्था को देख और अपने दुष्ट कार्यों को बारंबार स्मरण कर गंगाधर राव सर्वदा दुःखी ही रहा करते थे। अंत में, जब बाजीराव पेशवा स्वर्गवासी हुए, उस समय सिवाय राघोबा दादा के उनके कुल में कोई भी पुरुष अधिकारी नहीं था। इस कारण पेशवा घराने के उत्तराधिकारी दादा साहब ही हुए; और जब दादा साहब को पूर्ण अधिकार प्राप्त हो गया तब उन्होंने ही गंगाधर राव को उस किले के बंदीगृह से मुक्त कर दिया और
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उनको विश्वास दिलाया कि तुमने मेरे हेतु जो बहुत दुःख भोगे हैं, वे सब मुझे स्मरण हैं। मैं तुम को होलकर घराने की दीवानी के पद पर पुनः नियत करूँगा। परंतु समय की प्रतीक्षा करके धैर्य रखो।


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