आँधी/१०-नीरा
अब और आगे नहीं इस गंगी म कहा चलते हो देवनिवास ?
थोड़ी दूर और-कहते हुए देवनिवास ने अपनी साइकिल धीमी कर दी किन्तु पिरत अमरनाथ ने बक दवा कर ठहर जाना ही उचित समझा। देवनिवास आगे निकल गया। मौलसिरी का वह सघन वृक्ष था जो पोखरे के किनारे अपनी अधकारमयी छाया डाल रहा था। पोखरे से सड़ी हुई दुर्ग ध पा रही थी । देवनिवास ने पीछे घूम कर देखा मित्र को वहीं रुका देख कर वह लौट रहा था। उसके साइकिल का लम्प बुम चला था । सहसा धक्का लगा देवनिवास तो गिरते गिरते बचा और एक दुर्बल मनुष्य अरे राम कहता हुआ गिरफर भी उठ खडा हुआ । बालिका उसका हाथ पकड़ कर पूछने लगी-कहीं चोट तो नहीं लगी बाबा ?
नहीं बेटी ! मैं कहता न था मुझे मोटरों से उतना डर नहीं लगता जितना इस बे दुम के जानवर साइकिल से । मोटरवाले तो दूसरों को ही चोट पहुँचाते हैं पदल चलनेवालों को कुचलते हुए निकल जाते हैं। पर ये बेचारे तो आप भी गिर पड़ते हैं। क्यों बाबू साहब आपको तो चोट नहीं लगी ? हम लोग तो चोट-घाव सह सकते हैं।
देवनिवास कुछ झेप गया था। उसने बूढे से कहा-आप मुझे क्षमा कीजिए । आपको
क्षमा-मैं करूँ? अरे आप क्या कह रहे हैं | दोन्चार हूटर आपने नहीं लगाये। घर भूल गये हंटर नहीं ले पाये! अच्छा महोदय ! आपको कष्ट हुआ न, क्या करूँ मिना भीख माँगे इस सर्दी में पेट गालिया देने लगता है ! नींद भी नहीं पाती चार-छ पहरों पर तो कुछ न कुछ इस देना ही परता है। और भी मुझ एक रोग है । दो पैसों बिना व नहीं छूटता - पढ़ने के लिए अखबार चाहिए पुस्तकालयों में चिथड़े पहन कर बठने न पाऊँगा इसलिए नहीं जाता। दूसरे दिन का बासी समाचार पत्र दो पैसों में ले लेता हूँ।
अमरनाथ भी पास भा गया था। उसने यह काराष्ट देख कर हँसते हुए कहा--देवनिवास ! मैं मना करता था न ! तुम अपनी धुन मे कुछ सुनते भी हो । चले तो फिर चले और रुके तो अड़ियल टक भी झक मारे ! क्या उसे कुछ चोट आ गई है ? क्यो बूढे ! लो यह अठन्नी है। जाओ अपनी राह तनिक देख कर चला करो।
बूढा मसखरा भी था। अठन्नी लेते हुए उसने कहा-देख कर चलता तो यह अठन्नी कैसे मिलती। तो भी बाबूजी श्राप लोगों की जेब में अखबार होगा। मैंने देखा है वाइसिकिल पर चढ़े हुए बाबुत्रों के पाकेट में निकला हुआ कागज का मुठ्ठा अखबार ही रहता होगा।
चलो बाया झोपड़ी मे सर्दी लगती है। वह छोटी सी बालिका अपने बाबा को जैसे इस तरह बाते करते हुए देखना नहीं चाहती थी। यह संकोच में डूबी जा रही थी। देवनिवास चुप था । बुड्ढे को जैसे तमाचा लगा। व अपने दयनीय और धुणित मिक्षा-व्यवसाय को बहुधा नीरा से छिपा कर बना कर कहता । उसे अखबार सुनाता। और भी न जाने क्या-क्या ऊँची नीची बातें बका करता नीरा जैसे सब समझती थी। यह कभी बूढे से प्रश्न नहीं करती थी। जो कुछ वह कहता चुपचाप सुन लिया करती थी। कभी कभी बुइटा झुंझला का चुप हो जाता तब भी वह चुप रहती । बूढे को आज ही नीरा ने झोंपड़ी में चलने के लिये कह कर पहले पहल मीठी झिडकी दी। उसने सोचा कि अठन्नी पाने पर भी अखबार मागना नीरा न सह सकी।
अच्छा तो बाबूजी भगवान् यदि कोई हो तो श्रापका भला करेंबुद्धता लड़की का हाथ पकड़ कर मौलसिरी की ओर चला । देवनिवाम सन्न था । अमरनाथ ने अपनी साइकिल के उज्ज्वल आलोक में देखा नीरा एक गोरी-सी सुदरी पतली दुबली करण की छाया थी। दोना मिन चुप थे । अमरनाथ ने ही कहा-अब लौटोगे कि यहीं गड़ गये।
तुमने कुछ सुना अमरगाथ! वह कहता था--भगवान् यदि कोई हों-कितना भयानक अविश्वास! देवनिवास ने सास लेकर कहा ।
दरिद्रता और लगातार दुखों से मनुष्य अविश्वास करने लगता है निवास ! यह कोई नई बात नहीं है-अमरनाथ ने चलने की उत्सुकता दिखाते हुए कहा।
किन्तु देवनिषास तो जैसे श्रामविस्मृत था । उसने कहा -सुख और सम्पत्ति म क्या ईश्वर का विश्वास अधिक होने लगता है। क्या मनुष्य ईश्वर को पहचान लेता है ? उसकी व्यापक सत्ता को मलिन वेष मे देखकर दुरदुराता नहीं-ठुकराता नहीं अमरनाथ ! अबकी बार आलोचक के विशेषाक में तुमने लौटे हुए प्रवासी कुलियों के सम्बध मे एक लेख लिखा था न! वह सब कसे लिखा था ?
अखबारों से आँकड़े देख कर ! मुझे ठीक ठीक स्मरण है । कर किस द्वीप से कौन-कौन स्टीमर किस तारीख म चले! सतलज पडित और एलिफेंटा नाम के स्टीमरों पर कितने कितने कुली थे मुझे ठीक ठीक मालूम था और
और ये सब अब कहाँ हैं।
सुना है इसी कलकत्ते के पास कहीं मटियाबुर्ज है वहीं अभागो का निवास है ! अवध के नवाब का विलास या प्रायश्चित्त भवन भी तो मटियाबुर्ज ही रहा । मैंने उस लेख में भी एक यंग इस पर बड़े मार्के का दिया है। चलो खड़े खड़े बाते करने की जगह नहीं। तुमने तो कहा था कि आज जनाकीर्ण कलकत्ते से दूर तुमको एक अच्छी जगह दिखाऊँगा । यही । यही मटियाबुज है |देव निवास ने बड़ी गम्भीरता से कहा ।- और अब तुम कहोगे कि यह बुद्धता वही से लौटा हुआ कोई कुली है।
हो सकता है मुझे नहीं मालूम । अच्छा चलो अब लौट | कह कर अमरनाथ ने अपनी साइकिल को धक्का दिया।
देवनिवास ने कहा-चलो उसकी झोपड़ी तक मैं उससे कुछ बात करूगा।
अनियापूर्वक चलो कहते हुए अमरनाथ ने मौलसिरी की ओर साइकिल घुमा दी। साइकिल के तीव्र आलोक में झोपड़ी के भीतर का दृश्य दिखाई दे रहा था । बुद्धता मनोयोग से लाई पाक रहा था और नीरा भी कल की बची हुई रोटी चबा रही थी। रूखे ओठा पर दो एक दाने चिपक गये थे जो उस दरिद्र मुख में जाना अस्वीकार कर रहे थे । लुक फेरा हुमा टीन का गिलास अपने खुरदरे रंग का नीलापन नीरा की शाखों म उड़ेल रहा था । पालोक एक उज्ज्वल सय है बद आँखों में भी उसकी सत्ता छिपी नहीं रहती। बुड्ढ़ ने आँखें खोल कर दोना बाबुना को देखा । वह बोल उठा-बाबूजी । आप अखबार देने पाये है ? मैं अभी प य ले रहा था बीमार न हूँ इसी से लाई खाता हूँ बड़ी नमकीन होती है। अखबारवाले भी कभी कमी नमकीन बातों का स्वाद दे देते हैं । इसी से तो बेचारे कितनी दूर दूर की बातें सुनाते हैं । जब मैं मोरिशस म था तब हिदुस्तान की बातें पढा करता था । मेरा देश सोने का है ऐसी भावना जग उठती थी। अब कभी कभी उस टापू की बात पढ़ पाता हूँ तब यह मिट्टी मालूम पड़ता है पर सच करता हूँ बाबूजी मौरिशस में अगर गोली न चली होतो और नीरा की माँ न मरी होती-हा गोली से ही वह मरी थी तो मैं अब तक वहीं से जन्मभूमि का सोने का सपना देखता और इस अभागे देश ! नहीं नहीं बाबूजी मुझे यह कहने का अधिकार नहीं। मैं हूँ अभागा । हाय रे भाग !! नीरा घबरा उठी थी। उसने किसी तरह दो घट जल गले से उतार कर इन लोगों की ओर देखा । उसकी आखें कह रही थी कि जाओ मेरी दरिद्रता का स्वाद लेनेवाले धनी विचारको ! और सुख तो तुम्हें मिलते ही हैं एक न सही।
अपने पिता को बातें करते देख कर वह घबरा उठती थी। वह डरती थी कि बुडढा न जाने क्या क्या कह बैठेगा । देवनिवास चुपचाप उसका मुंह देखने लगा।
नीरा बालिका न थी। स्त्रीत्व के सब यजन थे फिर भी जैसे दरिद्रता के भीषण हाथों ने उसे दबा दिया था वह सीधी ऊपर नहीं उठने पाई।
क्या तुमको ईश्वर में विश्वास नहीं है ?अमरनाथ ने गम्भीरता से पूछा।
आलोचक में एक लेख मैंने पढ़ा था । वह इसी प्रकार के उलाहना से भरा था कि वर्तमान जनता में ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव बढ़ता जा रहा है और इसीलिए वह दुखी है। यह पढ़ कर मुझे तो इसी आ गई। बुड्ढ़े ने अविचल भाव से कहा।
हँसी आ गई ! कैसे दुख की बात है।–अमरनाथ ने कहा ।
दुख की बात सोच कर ही तो हँसी आ गई। हम मूर्ख मनुष्यों ने प्राण की–शरण की–आशा से ईश्वर पर पूर्वकाल में विश्वास किया था, परस्पर के विश्वास और सदभाव को ठुकरा कर । मनुष्य मनुष्य का विश्वास नहीं कर सका इसीलिए तो । एक सुखी दूसरे दुखी की ओर घृणा से देखता था । दुखी ने ईश्वर का अवलम्बन लिया तो भी भगवान् ने संसार के दुखों की सृष्टि बंद कर दी क्या ? मनुष्य के बूते का न रहा तो क्या वह भी कहते-कहते बूढ़े की आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगी किन्तु वे अग्निकण गलने लगे और उसके कपोलों के गढ़े में वह द्रव इकट्ठा होने लगा। अमरनाथ क्रोध से बुढ्ढे को देख रहा था कि तु देवनिवास उस मलिनो नीरा की उ कराठा और खे भरी मुखाकृति का अध्ययन कर रहा था।
आप को क्रोध आ गया क्या महाशय । आने की बात ही है । ले लीजिए अपनी अठन्नी । अठन्नी देकर ईश्वर में विश्वास नहीं कराया जाता । उस चोट के बारे म पुलिस से जाकर न कहने के लिए भी अठन्नी की आवश्यकता नहीं । मैं यह मानता हूँ कि सृष्टि विषमता से भरी है चष्टा करके भी इसम आर्थिक या शारीरिक साम्य नहीं लाया जा सकता। हा तो भी ऐश्वर्यबालों को जिन पर भगवान् की पूर्ण कृपा है अपनी सहृदयता से ईश्वर का विश्वास कराने का प्रयन करना चाहिए । कहिए इस तरह भगवान् की समस्या सुलझाने के लिए आप प्रस्तुत हैं।
इस बूढे नास्तिक और तार्किक से अमरनाथ को तीव्र विरक्ति हो चली थी। अब वह चलने के लिए देवनिवास से कहने वाला था कितु उसने देखा यह तो झोपड़ी म आसन जमा कर बैठ गया है।
अमरनाथ को चुप देखकर देवनिवास ने बूढे से कहा- अच्छा तो आप मेरे घर चल कर रहिए। संभव है कि मैं आपकी सेवा कर सक। तब आप विश्वासी बन जायँ तो कोई आश्चर्य नहीं।
इस बार तो वह बुढ्ढा बुरी तरह देवनिवास को घूरने लगा। निवास वह तीव्र दृष्टि सह न सका । उसने समझा कि मैंने चलने के लिए कह कर बूढे को चोट पहुँचाई है । वह बोल उठा-क्या आप । ठहरो भाई ! तुम बड़े जदबाज मालूम होते हो-बूढे ने कहा- क्या सचमुच तुम मेरी सेवा किया चाहते हो या ?
अब बूढा नीरा की ओर देख रहा था और नीरा की आँखें बूढे को
आगे न बोलने की शपथ दिला रही थीं कि तु उसने फिर कहा ही या नीरा को जिसे तुम बड़ी देर से देख रहे हो अपने घर लिया जाने की बड़ी उकण्ठा है ! क्षमा करना ! मैं अविश्वासी हो गया हूँ न ! क्या
जानते हो ? जब कुलियों के लिए इसी सीली गन्दी और दुर्गधमयी
भूमि में एक सहानुभूति उत्पन्न हुई थी तब मुझे यह का अनुभव हुआ
था कि यह सहानुभूति भी चिरायँध से खाली न थी ! मुझे एक सहायक मिले थे और मैं यहाँ से थोड़ी दूर पर उनके घर रहने लगा था।
नीरा से आवन न रहा गया । वह बोल उठी– बाबा चुप न रहोगे खांसी आने लगेगी।
ठहर नीरा! हा तो महाशय जी मैं उनके घर रहने लगा था और उन्हाने मेरा आतिथ्य साधारणत अच्छा ही किया । एक ऐसी ही काली रात थी। बिजली बादलों में चमक रही थी और मैं पेट भर कर उस ठण्डी रात में सुख की झपकी लेने लगा था। इस बात को बरसों हुए तो भी मुझे ठीक स्मरण है कि मैं जैसे भयानक सपना देखता हुआ चौंक उठा । नीरा चिल्ला रही थी ! क्यों नीरा !
अब नीरा हताश हो गई थी और उसने बूढ़े को रोकने का प्रत्यक्ष छोड़ दिया था। वह एकटक बूढ़े का मुह देख रही थी।
बुड्ढे ने फिर कहना आरम्भ किया –हा तो नीरा चिल्ला रही थी।
मैं उठकर देखता हूँ तो मेरे यह परम सहायक महाशय इसी नीरा को
दोनों हाथ से पकड़ कर घसीट रहे थे और यह बेचारी छूटने का व्यर्थ
प्रयास कर रही थी। मैंने अपने दोनों दुर्बल हाथों को उठा कर उसे
नीच उपकारी के ऊपर दे मारा । वह नीरा को छोड़कर पाजी बदमाश
निकल मेरे घर से कहता हुआ मेरा अंकिचन सामान बाहर फकने
लगा। बाहर ओले सी बँदें पड़ रही थी और बिजली कौंधती थी। मैं
नीरा को लिए सदी से दांत किटकिटाता हुआ एक टूठे वृक्ष के नीचे
रात भर बैठा रहा। उस समय वह मेरा ऐश्वर्यशाली सहायक बिजली के
लहरों की गर्मी में मुलायम गद्द पर सुख की नींद सो रहा था । यद्यपि मैं उसे लौट कर देखने नहीं गया तो भी मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ कि
उसके मुख में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित करने का दण्ड देने के
लिए भगवान् का न्याय अपने भीषण रूप में नहीं प्रकट हुआ की
रोता था-पुकारता था कितु वहाँ सुनता कौन है !
तुम्हारा बदला लेने के लिए भगवान् नहीं आये इसीलिए तुम अविश्वास करने लगे | लेखकों की कल्पना का साहित्यिक न्याय तुम सर्वत्र प्रत्यक्ष देखना चाहते हो न ! निवास ने तत्परता से कहा ।
क्यों न मैं ऐसा चाहता? क्या मुझे इतना भी अधिकार न था ? तुम समाचार पढ़ते हो न?
अवश्य।
तो उसमें कहानिया भी कभी-कभी पढ़ लेते होंगे और उनकी आलोचनाएँ भी।
हा तो फिर !
जैसे एक साधारण आलोचक प्रत्येक लेखक से अपने मन की कहानी कहलाया चाहता है और हठ करता है कि नहीं यहा तो ऐसा न होना चाहिए था ठीक उसी तरह तुम सष्टिकर्ता से अपने जीवन की घटनावाली अपने मनोकूल सही कराना चाहते हो। महाशय ! मैं भी इसका अनुभव करता हूँ कि सर्वत्र यदि पापों का भीषण दण्ड तत्काल ही मिल जाया करता तो यह सृष्टि पाप करना छोड़ देती। किंतु वैसा नहीं हुआ । उलटे यह एक व्यापक और भयानक मनोवृति बन गई है कि मेरे कष्टों कारण कोई दूसरा है। इस तरह मनुष्य अपने कामों को सरलता से भूल सकता है। क्या तुमने कभी अपने अपराधों पर विचार किया है ?
निवास बड़े वेग में बोल रहा था। बुडढा न जाने क्यों कांप उठा। साइकिल का तीव्र आलोक उसके विकृत मुख पर पड़ रहा था।
बुड्ढ़े का सिर धीरे-धीरे नीचे झुकने लगा। नीरा चौक कर उठी और
एक फुसा कम्बल उस बुडढे को ओढाने लगी। सहसा बुड्ढ़े ने सिर
उठा कर कहा -मैं इसे मान लेता हूँ कि आपक पास बड़ी अच्छी
युक्तियाँ हैं और उनके द्वारा मेरी वर्तमान दशा का कारण आप मुझे
ही प्रमाणित कर सकते हैं। कितु वृक्ष के नीचे पुआल से ढंँकी हुई मेरी
झोपड़ी को और उसमें पड़े हुए अनाहार सर्दी और रोगों से जीर्ण मुझ
अभागे को मेरा ही भ्रम बताकर आप किसी बड़े भारी सत्य का
आविष्कार कर रहे हैं तो कीजिए । जाइए मुझे क्षमा कीजिए ।
देवनिवास कुछ बोलने ही वाला था कि नीरा ने दृढ़ता से कहा -आप लोग क्यों बाबा को तंग कर रहे हैं ? अब उन्हें सोने दीजिए।
निवास ने देखा कि नीरा के मुख पर आत्मनिर्भरता और संतोष की गम्भीर शांति है। स्त्रियों का हृदय अभिलाषाओं का संसार के सुखों का क्रीडास्थल है किंतु नीरा का हदय नीरा का मस्तिष्क इस किशोर अवस्था में ही कितना उदासीन और शांत है। वह मन ही मन नीरा के सामने प्रणत हुआ।
दोना मित्र उस झोपड़ी से निकले । रात अधिक बीत चली थी। व कलकत्ता महानगरी की घनी बस्ती में धीरे-धीरे साइकिल चलाते हुए घुसे । दोनों का हृदय भारी था। वे चुप थे ।
देवनिवास का मित्र कच्चा नागरिक नहीं था । उसको अपने आकड़ो का और उनके उपयोग पर पूरा विश्वास था । वह सुख और दुख दरिद्रता और विभव कटुता और मधुरता की परीक्षा करता । जो उसके काम के होते उन्हें सम्भाल लेता फिर अपने मार्ग पर चल देता। सार्वजनिक जीवन का ढोंग रचने में वह पूरा खिलाड़ी था। देवनिवास के आतिथ्य का उपभोग करके अपने लिए कुछ मसाला जुटा कर वह चला गया ।
किन्तु निवास की आँखों में उस रात्रि में बूढे की झोपड़ी का दृश्य अपनी छाया ढालता ही रहा । एक स ताह बीतने पर वह फिर उसी ओर चला। झोपड़ी में बुड्ढ़ा पुआल पर पड़ा था। उसकी आँखे कुछ बड़ी हो गई थी, ज्वर से लाल थीं । निवास को देखते ही एक रुग्णा हँसी उसके मुँह पर दिखाई दी। उसने धीरे से पूछा-बाबूजी, आज फिर...!
नहीं, मैं वाद-विवाद करने नहीं आया हूँ। तुम क्या बीमार हो ? हाँ, बीमार हूँ बाबूजी, और यह आपकी कृपा है ।
मेरी ?
हाँ, उसी दिन से आपकी बाते मेरे सिर में चक्कर काटने लगी हैं । मैं ईश्वर पर विश्वास करने की बात सोचने लगा हूँ । बैठ जाइए, सुनिए ।
निवास बैठ गया था। बुड्ढ़े ने फिर कहना आरम्भ किया--मै
हिन्दु हूँ। कुछ सामान्य पूजा-पाठ का प्रभाव मेरे हृदय पर पड़ा रहा,
जिन्हें मैं बाल्यकाल में अपने घर पर पवों और उत्सवों पर देख चुका
था। मुझे ईश्वर के बारे में कभी कुछ बताया नहीं गया। अच्छा, जाने
दीजिए, वह मेरी लम्बी कहानी है, मेरे जीवन की संसार से झगड़ते
रहने की कथा है। अपनी घोर आवश्यकताओं से लड़ता-झगड़ता मैं
कुली बन कर 'मोरिशस पहुँचा। वहाँ 'कुलसम' से, नीरा की मां से,
मुझसे भेंट हो गई । मेरा उसका ब्याह हो गया। आप हँसिये मत,
कुलियों के लिए वहाँ किसी काजी या पुरोहित की उतनी आवश्यकता
नहीं। हम दोनों को एक दूसरे की आवश्यकता थी। 'कुलसम्' ने मेरा
घर बसाया । पहले वह चाहे जैसी रही, किन्तु मेरे साथ सम्बम्ध होने
के बाद से आजीवन वह एक साध्वी गृहिणी बनी रही। कभी-कभी वह
अपने ढंग पर ईश्वर का विचार करती और मुझे भी इसके लिए प्रेरित
करती; किन्तु मेरे मन में जितना 'कुलसम' के प्रति आकर्षण था, उतना
ही उसके ईश्वर-सम्बन्धी विचारों से विद्रोह । मैं 'कुलसम' के ईश्वर को
तो कदापि नहीं समझ सका । मै पुरुष होने की धारणा से यह तो
सोचता था, कि 'कुलसम' वैसा ही ईश्वर माने, जैसा उसे मैं समझ सकूँ
और वह मेरा ईश्वर हिन्दू हो । क्योंकि मैं सब छोड़ सकता था, लेकिन
हिन्दू होने का एक दम्भपूर्ण विचार मेरे मन में दृढ़ता से जम गया था तो भी समझदार कुलसम के सामने ईश्वर की कल्पना अपने ढंग की उपस्थित करने का मेरे पास कोई साधन न था। मेरे मन ने ढोंग किया कि मैं नास्तिक हो जाऊँ। जब कभी ऐसा अवसर आता मैं कुलसम के विचारों की खिल्ली उड़ाता हुआ हँस कर कह देता- तो मेरे लिए तुम्हीं ईश्वर हो तुम्हीं खुदा हो तुम्हीं सब कुछ हो। वह मुझे चापलूसी करते हुए देख कर हँस तो देती थी किन्तु उसका रोआ रोआँ रोने लगता।
मैं अपनी गाढ़ी कमाई के रूपये को शराब के प्याले में गला कर मस्त रहता। मेरे लिए वह भी कोई विशेष बात न थी न तो मेरे लिए आस्तिक बनने मे ही कोई विशेषता थी। धीरे धीरे मैं उच्छृंखल हो गया। कुलसम रोती बिलखती और मुझे समझाती किन्तु मुझे ये सब बातें व्यर्थ की सी जान पड़तीं। मैं अधिक अविचारी हो उठा। मेरे जीवन का वह भयानक परिवर्तन बड़े वेग से आरम्भ हुआ। कुलसम उस कष्ट को सहन करने के लिए जीवित न रह सकी। उस दिन जब गोली चली थी तब कुलसम के वहाँ जाने की आवश्यकता न थी। मैं सच कहता हूँ बाबूजी वह आत्महत्या करने का उसका एक नया ढंग था। मुझे विश्वास होता है कि मैं ही इसका कारण था। इसके बाद मेरी वह सब उद्दण्डता तो नष्ट हो ही गई जीवन की पूँजी जो मेरा निज का अभिमान था-वह भी चूर चूर हो गया। मैं नीरा को लेकर भारत के लिए चल पड़ा। तब तक तो मैं ईश्वर के सम्बन्ध में एक उदासीन नास्तिक था किन्तु इस दुख ने मुझे विद्रोही बना दिया। मैं अपने कष्टों का कारण ईश्वर को ही समझने लगा और मेरे मन में यह बात जम गई कि यह मुझे दण्ड दिया गया है।
बुड्ढा उत्तेजित हो उठा था। उसका दम फूलने लगा खाँसी आने लगी। नीरा मिट्टी के घड़े में जल लिए हुए झोपड़ी में आई। उसने
देवनिवास को और अपने पिता को अन्बेषक दृष्टि से देखा। यह समझ