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आँधी/९-अमिट स्मृति

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आँधी
जयशंकर प्रसाद
अमिट स्मृति

इलाहाबाद: लीडर प्रेस, पृष्ठ ९५ से – ९९ तक

 
अमिट स्मृति

फाल्गुनी पूर्णिमा का चद्र गंगा के शुभ्र वक्ष पर आलोक धारा का सृजन कर रहा था । एक छोटा सा बजरा वसन्त पवन में आन्दोलित होता हुआ धीरे धीरे बह रहा था। नगर का आनंद कोलाहल सैकड़ों गलियों को पार करके गंगा के मुक्त वातावरण मे सुनाई पड़ रहा था | मनोहरदास हाथ मुँह धोकर तकिये के सहारे चुके थे । गोपाल ने ब्यालू करके उठते हुए पूछा-

बाबूजी सितार ले पाऊँ ?

आज और कल दो दिन नहीं ।—मनोहरदास ने कहा ।

वाह ! बाबूजी आज सितार न बजा तो फिर बात क्या रही।

नहीं गोपाल मैं होली के इन दो दिनों मे न तो सितार ही बजाता हूँ और न तो नगर मे ही जाता हूँ।

तो क्या आप चलेंगे भी नहीं त्योहार के दिन नाव ही पर बीतेंगे यह तो बड़ी बुरी बात है।

यद्यपि गोपाल बरस बरस का त्योहार मानने के लिए साधारणत युवकों की तरह उत्कंठित था पर तु सत्तर बरस के बूढे मनोहरदास को स्वयं बूढा कहने का साहस नहीं रखता । मनोहरदास का भरा हुआ मुँह हृढ अवयव और बलिष्ठ अंंग विन्यास गोपाल के यौवन से अधिक पूर्ण था। मनोहरदास ने कहा-

गोपाल ! मैं गन्दी गालियों या रंग से भागता हूँ। इतनी ही बात नहीं इसमे और भी कुछ है। होली इसी तरह बिताते मुझे पचास बरस हो गये। गोपाल ने नगर म जाकर उसव देखने का कुतूहल दवाते हुए पूछा ऐसा क्यों बाबूजी

ऊँचे तकिये पर चित्त लेट कर लम्बी साँस लेते हुए मनोहरदास ने कहना प्रारम्भ किया-

हम और तुम्हारे बड़े भाई गिरधरदास साथ-ही-साथ जवाहिरात का व्यवसाय करते थे। इस साझे का हाल तुम जानते ही हो । हाँ तब बम्बई की दूकान न थी और न तो आज-जैसी रेलगाड़ियों का जाल भारत में पिछा था इसलिए रथों और इक्कों पर भी लोग लम्बी-लम्बी यात्राएँ करते । विशाल सफेद अजगर-सी पड़ी हुई उत्तरीय भारत की वह सड़क जो बगाल से काबुल तक पहुचती है सदव पथिकों से भरी रहती थी। कहीं कहीं बीच में दो चार कोस की निजनता मिलती अन्यथा प्याऊ बनियों की दूकान पड़ाव और सरायों से भरी हुई इस सड़क पर बड़ी चहल पहल रहती। यात्रा के लिए प्रत्येक स्थान में घण्टे मे दस कोस जाने वाले इक्के तो बहुतायत से मिलते । बनारस इसम विख्यात था।

हम और गिरधरदास होलिकादाह का उसव देखकर दस बजे लौटे थे कि प्रयाग के एक यापारी का पत्र मिला। इसम लाखों के माल विक जाने की आशा थी और कल तक ही वह व्यापारी प्रयाग में ठहरेगा। उसी समय इक्केवान को बुला कर सहेज दिया और हम लोग ग्यारह बजे सो गये। सूर्य की किरणे अभी न निकली थी दक्षिण पवन से पत्तियाँ अभी जैसे झम रही थीं पर तु हम लोग इक्के पर बैठ कर नगर को कई कोस पीछे छोड़ चुके थे । इक्का बड़े वेग में जा रहा था। सड़क के दोनों ओर लगे हुए आम की मञ्जरियो की सुगध तीव्रता से नाक में घुस कर मादकता उत्पन्न कर रही थी। इक्केवान की बगल मे बैठे हुए रघुनाथ महाराज ने कहा- सरकार बड़ी ठंद है। कहना न होगा कि रघनाय महाराज बनारस के एक नामी लठैत य। उन दिनों ऐसी यात्राओं में ऐसे मनुष्यों का रखना आवश्यक समझा जाता था।

सूर्य बहुत ऊपर आ चुके थे मुझे प्यास लगी थी। तुम तो जानते ही हो मैं दोनो वेला बूरी छानता हूँ। आमो की छाया में एक छोटा सा कुआ दिखाई पड़ा जिसके ऊपर मुरेरेदार पक्की छत थी और नीचे चारों ओर दालानें थीं। मैंने इक्का रोक देने को कहा। पूरन वाले दालान में एक बनिये की दूकान थी जिस पर गुड़ चना नमक सत्तू आदि बिकते थे। मेरे झोले में सब आवश्यक सामान थे। सीढ़ियों से चढ़ कर हम लोग ऊपर पहुँचे । सराय यहा से दो कोस और गाँव कोस भर पर था। इस रमणीय स्थान को देख कर विश्राम करने की इच्छा होती थी। अनेक पक्षियों की मधुर बोलियों से मिल कर पवन जैसे सुरीला हो उठा। ठंदई बनने लगी। पास ही एक नींबू का वृक्ष खूब फूला हुआ था। रघुनाथ ने बनिए से हाड़ी लेकर कुछ फूलों को भिगो दिया । ठंढई तैयार होते होते उसकी महक से मन मस्त हो गया । चाँदी के गिलास झोली से बाहर निकाले गये पर रघनाथ ने कहा- सरकार इसकी बहार तो पुरव में है । बनिये को पुकारा । वह तो था नहीं एक धीमा स्वर सुनाई पड़ा-क्या चाहिए?

पुरवे दे जाओ!

थोड़ी ही देर में एक चौदह वर्ष की लड़की सीढ़ियों से ऊपर आती हुई नजर पड़ी । सचमुच वह साल की छींट पहने एक देहाती लड़की थी कल उसकी भाभी ने उसके साथ खूप गुलाल खेला था वह जगी भी मालूम पड़ती थी-मदिरा मदिर के द्वार सी खुली हुई आँखों में गुलाल की गरद उड़ रही थी। पलकों के छज्जे और बगनियों की चिकों पर भी गुलाल की बहार थी। सरके हुए घूघट से जितनी अलकें दिखलाई पड़ती वे सब रँगी थीं। भीतर से भी उस सरजा को कोई रंगीन बनाने लगा था। न जाने क्यों इस छोटी अवस्था में ही वह चेतना से ओत प्रोत थी। ऐसा मालूम होता था कि स्पर्श का मनोविकारमय अनुभव उसे सचेष्ट बनाये रहता तब भी उसकी आखें धोखा खाने ही पर ऊपर उठतीं । पुरवा रखने ही भर में उसने अपने कपड़ों को दो तीन बार ठीक किया फिर पूछा--और कुछ चाहिए ? मैं मुस्करा कर रह गया। उस वस त के प्रभात में सब लोग वह सुस्वादु और सुगन्धित ठदई धीरे धीरे पी रहे थे और मैं साथ ही साथ अपनी श्राखों से उस बालिका के यौवनोमाद की माधुरी भी पी रहा था। चारों ओर से नीबू के फूल और आमो की मञ्जरियो की सुगध श्रा रही थी। नगरों से दूर देहातों से अलग कुए की वह छत ससार म जैसे सब से ऊँचा स्थान था। क्षण भर के लिए जैसे उस स्वप्न लोक में एक अप्सरा श्रा गई हो। सड़क पर एक बैलगाड़ीवाला बण्डलों से टिका हुआ आँख बन्द किए हुए बिरहा गाता था। बैलों के हाकने की जरूरत नहीं थी । वह अपनी राह पहचानते थे। उसके गाने म उपालम्भ था श्रावेदन था बालिका कमर पर हाथ रक्खे हुए बड़े यान से उसे सुन रही थी। गिरधरदास और रघुनाथ महाराज हाथ मुह धो पाये पर मैं वसे ही बैठा रहा। रघुनाथ महाराज उजडु तो थे ही उन्होंने हँसते हुए पूछा-

क्या दाम नहीं मिला ?

गिरधरदास,भी हँस पड़े। गुलाब से रंगी हुई उस बालिका की कनपटी और भी लाल हो गई। वह जैसे सचेत सी होकर धीरे धीरे सीढी से उतरने लगी। मैं भी जैसे तद्रा से चौंक उठा और सावधान होकर पान की गिलौरी मह में रखता हुश्रा इक्के पर आ बैठा । घोड़ा अपनी चाल से चला । घण्टे-डेढ घण्टे में हम लोग प्रयाग पहुँच गये। दूसरे दिन जब हम लोग लौटे तो देखा कि उस कुए की दालान में बनिए की दूकान नहीं है। एक मनुष्य पानी पी रहा था उससे पूछने पर मालूम हुआ कि गाँव में एक भारी दुर्घटना हो गई है। दोपहर को धुरहट्टा खेलने के समय नशे में रहने के कारण कुछ लोगों में दगा हो गया । वह बनिया भी उन्हीं में था । रात को उसी के मकान पर डाको पड़ा। वह तो मार ही डाला गया पर उसकी लड़की का भी पता नहीं।

रघुनाथ ने अक्खड़पन से कहा - अरे वह महालक्ष्मी ऐसी ही रहीं। उनके लिए जो कुछ न हो जाय थोड़ा है।

रघुनाथ की यह बात मुझे बहुत बुरी लगी। मेरी भाखों के सामने चारों और जेसे होली जलने लगी। ठीक साल भर याद बही व्यापारी प्रयाग आया और मुझे फिर उसी प्रकार जाना पड़ा। होली बीत चुकी थी जब मैं प्रयाग से लौट रहा था उसी कुए पर ठहरना पड़ा । देखा तो एक विकलांंग दरिद्र युवती उसी दालान म पड़ी थी। उसका चलना फिरना असम्भव था। जाम कुएँ पर चढ़ने लगा तो उसने दात निकाल कर हाथ फैला दिया। में पहचान गया-साल भर की घटना सामने आ गई । न जाने क्यों उस दिन मैं प्रतिज्ञा कर बैठा कि आज से होली न खेलूगा।

वह पचास बरस की वीती हुई घटना आज भी प्रत्येक होली में नई होकर सामने आती है। तुम्हारे बड़े भाई गिरधरदास ने मुझ से कई बार होली मनाने का अनुरोध किया पर मैं उनसे सहमत न हो सका और मैं अपने हृदय के इस निर्बल पक्ष पर अभी तक हढ हूँ। समझा न गोपाल! इसीलिए मैं ये दो दिन बनारस के कोलाहल से अलग नाव पर ही बिताता हूँ।