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आँधी/६-व्रत भंग

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आँधी
जयशंकर प्रसाद
व्रत भंग

इलाहाबाद: लीडर प्रेस, पृष्ठ ७६ से – ८६ तक

 
व्रत भंग

तो तुम न मानोगे?

नहीं अब हम लोगों के बीच इतनी बड़ी खाई है जो कदापि नहीं पट सकती।

इतने दिनों का स्नेह ?

उँ । कुछ भी न ।। उस दिन की बात आजीवन भुलाई नहीं जा सकती नन्दन ! अब मेरे लिए तुम्रा और तुम्हारे लिए मेरा कोई अस्तिष नहीं । वह अतीत के स्मरण स्वप्न है समझे ?

यदि याय नहीं कर सकते तो दया करो मिन! हम लोग गुरु कुल में

हाँ-हा मैं जानता हूँ तुम मुझे दरिद्र युवक समझ कर मेरे ऊपर कृपा रखते थे कि तु उसम कितना तीपण अपमान था उसका मुझे अब अनुभव हुआ।

उस बम बेला में जब उषा का अरुण पालोक भागीरथी की' लहरों के साथ तरल होता रहता हम लोग कितने अनुराग से स्नान करने जाते थे। सच कहना क्या वैसी मधुरिमा हम लोगों के स्वक हृदयों म न थी।

रही होगी-पर अब उस मर्मघाती अपमान के बाद ! मैं खड़ा रह गया तुम स्वर्ण स्थल पर चढ़ कर चले गये एक बार भी नहीं पूछा। तुम कदाचित जानते होगे नदन कि कंगाल के मन म प्रलोमनों के प्रति कितना विद्वेष है ! क्योंकि वह उससे सदैव छल करता है-ठुकराता है । मैं अपनी उसी बात को दुहराता हूँ कि हम लोगों का अब उस रूप में कोई अस्तित्व नहीं।

वही सही कपिंजल ! हम लोगों का पूर्व अस्तित्व कुछ नहीं तो क्या हम लोग वैसे ही निर्मल होकर एक नवीन मैत्री के लिए हाथ नहीं बढ़ा सकते ? मैं आज प्रार्थी हूँ।

मैं उस प्रार्थना की उपेक्षा करता हूँ। तुम्हारे पास ऐश्वर्य का दर्पण है तो मेरी अकिश्चनता कहीं उससे अधिक गर्व रखती है।

तुम बहुत कटु हो गये हो इस समय । अच्छा फिर कभी न अभी न फिर कभी । मैं दरिद्रता को भी दिखला दूँगा कि मैं क्या हूँ। इस पाखण्ड संसार में भूखा रहूँगा परंतु किसी के सामने सिर न झुकाऊँगा । हो सकेगा तो संसार को बाध्य करूँगा झुकने के लिए। कपिझल चला गया । नन्दन हतबुद्धि होकर लौट आया । उस रात को उसे नींद न आई।

उक्त घटना को बरसों बीत गये । पाटलीपुत्र के धनकुबेर कलश का कुमार नन्दन धीरे-धीरे उस घटना को भूल चला। ऐश्वर्य का मंदिरा विलास किसे स्थिर रहने देता है ? उसके यौवन के संसार में बड़ी-बड़ी आशाएँ लेकर पदार्पण किया था। नन्दन तब भी मित्र से वंचित होकर जीवन को अधिक चतुर न बना सका।

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राधा तू भी कैसी पगली है ? तूने कलश की पुत्र वधू बनने का निश्चय किया है आश्चर्य ।

हाँ सहादेवी जब गुरुजनों की आज्ञा है तब उसे तो मानना ही पड़ेगा। मैं रोक सकती हूँ । वह मूर्ख नंदन ! कितना असङ्गत चनाव है। राधा मुझे दया पाती है।

किसी अन्य प्राकार से गुरुजनों की इच्छा को टाल देना यह मेरी धारणा के प्रतिकूल है महादेवी । नन्दन की मूर्खता सरलता का सत्य रूप है । मुझे वह श्ररुचिकर नहीं। मैं उस निर्मल हृदय की देखरेख कर सकें तो यह मेरे मनोरजन का ही विषय होगा।

मगध की महादेवी ने हसी से कुमारी के इस साहस का अभिनन्दन करते हुए कहा । तब तेरी जसी इच्छा तू स्वय भोगेगी।

माधवी कुंज से वह विरक होकर उठ गई । उहे राधा पर कया के समान ही स्नेह था।

दिन स्थिर हो चुका था। स्वय मगध नरेश की उपस्थिति में महा श्रेष्ठि धनञ्जय की कन्या का याह कलश के पुत्र से हो गया अद्भुत वह समारोह था । रतों के श्राभूषण तथा स्वर्ण पात्रों के अतिरिक मगध सम्राट ने राधा की प्रिय वस्तु अमू य मणि निर्मित दीपाधार भी दहेज में दे दिया । उस उसव की बड़ाई पान भोजन श्रामोद प्रमोद का विभवशाली चारु चयन कुसुमपुर के नागरिकों को बहुत दिन तक गफ करने का एक प्रधान उपकरण था।

राषा कलश की पुत्र वधू हुई।

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राधा के नवीन उपवन के सौध मदिर म अगुरु कस्तूरी और केशर की चहल-पहल पुष्ष मालाओं का दोनों सध्या म नवीन आयी जन और दीपावली में वीणा वंशी और मदंग की स्निग्ध गम्भीर ध्वनि बिखरती रहती । नन्दन अपने सुकोमल श्रासन पर लेटा हुआ राधा का अनिन्ध सौन्दर्य एकटक चुप चाप देखा करता । उस सुसखित प्रकोष्ठ में मणि निर्मित दीपाधार की यत्र-मयी नर्तकी अपने नपुरों की झंकार से नंदन और राधा के लिए एक क्रीड़ा और कुतूहल का सृजन करती रहती। न दन कभी राधा के खिसकते हुए उत्तरीय को सँभाल देता।

राधा हँस कर कहती-

बड़ा कष्ट हुआ।

नन्दन करता-देखो तुम अपने प्रसाधन ही म पसीने-पसीने हो जाती हो तुम्हें विश्राम की आवश्कता है।

राधा गर्व से मुस्करा देती । कितना सुहाग था उसका अपने सरल पति पर और कितना अभिमान था अपने विश्वास पर ! एक सुखमय स्वप्न चल रहा था।

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कलश धन का उपासक सेठ अपनी विभूति के लिए सदैव सशक रहता । उसे राजकीय सरक्षण तो था ही देवी रक्षा से भी अपने को सम्पन्न रखना चाहता था। इस कारण उसे एक नंगे साधु पर अत्यत भक्ति थी जो कुछ ही दिनों से उस नगर के उपकण्ठ में आकर रहने लगा था।

उसने एक दिन कहा-सब लोग दशन करने चलेंगे। उपहार के थाल प्रस्तुत होने लगे। दिव्य रथों पर बैठ कर सक साधु दर्शन के लिए चले । वह भागीरथी तट का एक कानन था जहाँ कलश का बनवाया हुआ कुटीर था ।

सब लोग अनुचरों के साथ रथ छोड़ कर भक्तिपूर्ण हृदय से साधु के समीप पहुँचे । परंतु राधा ने जब दूर ही से देखा कि वह साधु नग्न है तो वह रथ की ओर लौट पड़ी । कूलश ने उसे बुलाया पर राधा न आई । नन्दन कमी राधा को देखता और कभी अपने पिता को । साधु खीलों के समान फूट पड़ा । दाँत किट किटाकर उसने कहा-यह तुम्हारी पुत्र बधू कुलक्षया है कलश ! तुम इसे हटा दो नहीं तो तुम्हारा नाश निश्चित है। नदन दातों तले जीम दया कर धीरे से बोला -अरे। यह कपिजल ।

अनागत भविष्य के लिए भयभीत कलश तु ध हो उठा । यह साधु की पूजा करके लौट श्राया । राधा अपने नवीन उपवन मे उतरी।

कलश ने पूछा-तुमने महापुरुष से क्या इसना दुविनीत व्यवहार किया?

नहीं पिताजी । वह स्वय दुर्विनीत है। जो स्त्रियों को आते देख कर भी साधारण शिष्टाचार का पालन नहीं कर सकता वह धार्मिक महामा तो कदापि नहीं।

क्या कह रही है मूर्ख ! वे एक सिद्ध पुरुष हैं । सिद्धि यदि इतनी अधम है धर्म यदि इतना निर्लज है तो वह स्त्रियों के योग्य नहीं पिताजी! धर्म के रूप में कीं आप भय की उपासना तो नहीं कर रहे हैं?

तू सचमुच कुलक्षणा है।

इसे तो अतर्यामी भगवान् ही जान सकते हैं। मनु य इसके लिए अत्यत तुद्र है । पिता जी आप

उसे रोक कर अस्पत क्रोध से कलश ने कहा-तुझे इस घर म रखना अलक्ष्मी को बुलाना है । जो मेरे भवन से निकल जा।

नंदन सुन रहा था | काठ के पुतले के समान वह इस विचार का अन्त हो जाना तो चाहता था पर क्या करे य उसकी समझ मे न आया। राधा ने देखा उसका पति कुछ नहीं बोलता तो अपने गर्व से सिर उठा कर कर-मैं धनकुरेर को क्रोत दासी नहीं हूँ। मेरे यहि पोव का अधिकार केवल मेरा पदस्खलन ही छीन सकता है । मुझे विश्वास है मैं अपने आचरण से अब तक इस पद की स्वामिनी हूँ। कोई भी मुझे इससे वंचित नहीं कर सकता। आश्चर्य से देखा नंदन ने और हतबुद्धि होकर सुना कलश ने। दोनों उपवन के बाहर चले गये।

वह उपवन सब से परित्यक्त और उपेक्षणीय बन गया । भीतर बैठी हुई राधा ने यह सब देखा।

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नन्दन ने पिता का अनुकरण किया। वह धीरे धीरे राधा को भूल चला पर तु नये याह का नाम लेते ही चौंक पड़ता। उस के मन मे धन की ओर से वितृष्णा जगी। ऐश्वर्य का यानिक शासन जीवन को नीरस बनाने लगा। उसके मन की अतृप्ति विद्रोह करन के लिए सुविधा खोजने लगी।

कलश ने उसके मनोविनोद के लिए नया उपवन बनवाया । नदन अपनी स्मृतियों का लीला निकेतन छोड़ कर वहीं रहने लगा।

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राधा के श्राभूषण विकते थ और उस सेठ के द्वार की अतिथि सेवा वैसी ही होती रहती । मुक्त द्वार का अपरिमित व्यय और आभूषणों के विक्रय की आयकर तक य युद्ध चले ? अब राधा के पास बच गया था वही मणि निर्मित दीपाधार जिसे महादेवी ने उसकी क्रीड़ा के लिए बनवाया था।

थोड़ा सा अन्न अतिथियों के लिए बचा था। राधा दो दिन से उप वास कर रही थी। दासी ने कहा-स्वामिनी ! यह कैसे हो सकता है कि आपके सेवक बिना आपके भोजन किये अन्न ग्रहण करें।

राधा ने कहा-तो आज यह मणि दीप बिकेगा । दासी उसे ले श्राई । वह यन्त्र से बनी हुई रन जटित नर्तकी नाच उठी। उसके नूपुर की झकार उस दरिद्र भवन में गूंजने लगी। राधा हँसी। उसने कहा-मनुष्य जीवन में इतनी नियमानुकूलता यदि होती? स्नेह से चूम कर उसे बेचने के लिए अनुचर को दे दिया । पण्य मे पहुँचते ही दीपाधार बड़े-बड़े रन पणिका की दृष्टि का एक कुतूहल बन गया । उसके चूडामणि का दिव्य आलोक सभी की आँखों में चका चौंध उत्पन्न कर देता था । मूय की बोली बढने लगी। कलश भी पहुँचा । उसने पूछा-यह किसका है ? अनुचर ने उत्तर दिया मेरी स्वामिनी सौभा यवती श्रीमती राधा देवी का।

लोभी कलश ने डाँट कर कहा-मेरे घर की वस्तु इस तरह चुरा कर तुम लोग बेचने फिर पाश्रोगे तो बदी गृह में पड़ोगे। भागो।

अमूल्य दीपाधार से वंचित सब लोग लौट गये। कलश उसे अपने घर उठवा ले गया।

राधा ने सब सुना-वह कुछ न बोली।

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गंगा और शोण में एक साथ ही बाढ श्राई। गाँव के गाव बहने लगे । भीषण हाहाकार मचा । कहाँ ग्रामीणों की असहाय दशा और कहा जल की उद्दण्ड बाढ क चे झोपड़े उस महाजल याल की फैक से तितर बितर होने लगे । वृक्षों पर जिसे श्राश्रय मिला यही बच सका। नन्दन के हृदय ने तीसरा धक्का खाया । नदन का सस्साहस उमाहित हुआ [वह अपनी पूरी शक्ति से नावों की सेना बना कर जलप्लावन में डट गया और कलश अपने सात खण्ड के प्रासाद में बैठा यह दृश्य देखता रहा।

रात नावों पर बीतती है और बासों के छोटे छोटे बेड़े पर दिन । नन्दन के लिने घूप वर्षां शीत कुछ नहीं। अपनी धुन म वह लगा हुआ है । बाढ़ पीड़ितों का झुण्ड सेठ के प्रासाद मे हर नावों से उतरने लगा। कलश क्रोध के मारे बिलबिला उठा। उसने आज्ञा दी कि बात पीड़ित यदि स्वयं नन्दन भी हो तो वह मासाद में न आने पावे । घटा व्रत भंग घिरी थी जल बरसता था। कलश अपनी ऊँची अटारी पर बैठा मणि निर्मित दीपाधार का नत्य देख रहा था।

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नंदन भी उसी नाव पर था जिस पर चार दुर्वल स्त्रियाँ तीन शीत से ठिठुरे हुए बच्चे और पाच जीर्ण पंजर वाले वृद्ध थे। उस समय नाव द्वार पर ना लगी। सेठ का प्रासाद गगा तट की एक अची चट्टान पर था। वह एक छोटा सा दुग था। जल अभी द्वार तक ही पहुच सका था । प्रहरियों ने नाव को देखते ही रोका-पीड़ितों को इसम स्थान नहीं।

नन्दन ने पूछा-क्यों?

महाश्रेष्ठि कलश की आज्ञा ।

नादन ने एक बार क्रोध से उस प्रासाद की ओर देखा और माझी को नाव लौटाने की श्राशा दी। माझी ने पूछा--कहा ले चल १ नन्दन कुछ न बोला । नाय उस बाढ मं चक्कर खाने लगी। सहसा दूर उस जल म न वृक्षों की चोटियों और पेड़ों के बीच म एक गृह का ऊपरी अंश दिखाई पड़ा । नदन ने सकेत किया । माझी उसी ओर नाव खेने लगा।

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गृह के नीचे के अंश में जल भर गया था। थोड़ा सा अन और इंधन ऊपर क भाग में बचा था। राधा उस जल में घिरी हुई अचल थी। छत के मुडेरे पर बैठी वह जलमयी प्रकृति में डूबती हुई सूर्य की प्रतिम किरणों को ध्यान से देख रही थी। दासी ने कहा-स्वामिनी | वह दीपाधार भी गया अब तो हम लोगों के लिए बहुत थोड़ा अन घर में बच रहा है।

देखती नहीं यह प्रलय-सी बाढ ! कितने मर मिटे होंगे। तुम तो पक्की छत पर बैठी अभी य दृश्य देख रही हो। आज से मैंने अपना अंश छोड़ दिया । तुम लोग जब तक जी सको जीना ।

सहसा नीचे माफ कर राधा ने देखा एक नाय उसकी वातायन से टकरारी है और एक युवक उसे वातायन के साथ दृढता से बाध रहा है।

राधा ने पूछा- कौन है ?

नीचे सिर किये नदन ने कहा-बाढ पीड़ित कुछ प्राणियों को क्या आश्रय मिलेगा? अब जल का क्रोध उतर चला है। केवल दो दिन के लिए इतने मरनेवालों को आश्रय चाहिए ।

ठहरिए सीढी लटकाई जाती है।

राधा और दासी तथा अनुचर ने मिल कर सीढी लगाई। नदन विवर्ण मुख एक एक को पीठ पर लाद कर अपर पहुँचाने लगा। जब सब अपर आ गये तो राधा ने श्राकर कहा-और तो कुछ नहीं है केवल द्विदलों का जूस इन लोगों के लिए है ले पाऊँ ?

नदन ने सिर उठा कर देखा राधा । वह बोल उठा--राधा ! तुम यहीं हो ?

हा स्वामी मैं अपने घर म हूँ । गृहिणी का कर्तव्य पालन कर रही हूँ।

पर मैं गृहस्थ का कर्तव्य न मालन कर सका राधा पहले मुझे क्षमा करो।

स्वामी यह अपराध मुझ स न हो सकेगा । उठिए आज आप की कर्मण्यता से मेरा ललाट उज्ज्वल हो रहा है। इतना साहस कहाँ छिपा था नाथ!

दोनों प्रसन्न होकर काव्य म लगे। यथा सम्भव उन दुखियों की सेवा होने लगी। एक प्रहर के गात नदन ने कहा-मुझ भ्रम हो रहा है कि कोई यहा पास ही विपन है। राधा। अभी रात अधिक नहीं हुई है। मैं एक बार नाव लेकर जाऊ ?

राधा ने का-मैं भी चल ? नदन ने कहा-गृहिणी का काम करो राधा ! कर्तय कठोर होता है भाव प्रधान नहीं।

नदन एक मांझी को लेकर चला गया और राधा दीपक जला कर मडेरे पर बैठी थी। उसकी दासी और दास पीड़ितों की सेवा म लगेथे। बादल खुल गये थे । असंख्य नक्षत्र झलमला कर निक्ल पाये मेघों के बन्दीष्ट से जसे छुटी मिली हो ! चद्रमा भी धीरे धीरे उस जस्त प्रदेश को भयभीत होकर देख रहा था।

एक घटे म नदन का शब्द सुनाई पड़ा-सीढी।

राधा दीपक दिखला रही थी और सीढी के सहार न दन ऊपर एक भारी बोझ लेकर चढ रहा था ।

छत पर आकर उसने कहा-एक घस्त्र दो राधा राधा ने एक उत्तरीय दिया । वह मुमुष व्यक्ति नग्न या । उसे ढक कर नदन ने थोड़ा सक दिया गर्मी भीतर पहुँचते ही वह हिलने डोलने लगा । नीचे से माझी ने काजल बड़े वेग से हट रहा है नाव ढीली न करूँँगा तो लटक जायगी।

नन्दन ने कहा-तुम्हारे लिए भोजन लटकाता हूँ ले लो। काल रात्रि यीत गई । नन्दन ने प्रभात म पाखें खोलकर देखा कि सब सो रहे हैं और राधा उसके पास बैठी सिर सहला रही है ।

इतने म पीछे से लाया हुश्रा मनुष्य उठा। अपने को अपरिचित स्थान में देख कर वह चिल्ला उठा-मुझे वस्त्र किसने पहनाया मेरा व्रत किसने भंग किया। नन्दन ने हंसकर कहा कपिंजल ! यह राधा का गृह है तुम्हें उसके आज्ञानुसार यहाँ रहना होगा । छोड़ो पागलपन! चलो बहुत से प्राणी हम लोगों की सहायता के अधिकारी है। कपिंजल ने कहा-सो कैसे हो सकता है ? तुम्हारा हमारा संग | असम्भव है।

मुझे दण्ड देने के लिए ही तो तुमने यह स्वाग रचा था। राधा तो उसी दिन से निर्वासित थी और कल से मुझे भी अपने घर में प्रवेश करने की आज्ञा नहीं | कपिंजल ! आज तो हम और तुम दोनों बराबर और इतने अधमरा के प्राणों का दायित्व भी हमी लोगों पर है। यह प्रत भग नहीं व्रत का आरम्भ है । चलो इस दरिद्र कुटुम्ब के लिए अन्य जुटाना होगा।

कपिझल आज्ञाकारी बालक की भांति सिर झुकाये उठ खड़ा हुआ।