आँधी/७-ग्राम गीत

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ग्राम गीत

शरद पूर्णिमा थी। कमलापुर से निकलते हुए करारे को गंगा तीन ओर से घेर कर दूध की नदी के समान बह रही थी। मैं अपने मित्र ठाकुर जीवनसिंह के साथ उनके सौध पर बैठा हुआ अपनी उज्ज्वल हँसी में मस्त प्रकृति को देखने में तन्मय हो रहा था । चारों ओर का क्षितिज नक्षत्रों के बंदनवार सा चमकने लगा था। धवलविधुत विम्य के समीप ही एक छोटी सी चमकीली तारिका भी आकाश-पथ में भ्रमण कर रही थी। वह जैसें चंद्र को छू लेना चाहती थी पर छूने नहीं पाती थी।

मैंने जीवन से पूछा —तुम बता सकते हो वह कौन नक्षत्र है ? रोहिणी होगी। —जीवन के अनुमान करने के ढंग से उत्तर देने पर मैं हँसना ही चाहता था कि दूर से सुनाई पड़ा-

बरजोरी बसे हो नयनवाँ में।

उस स्वर-लहरी में उमत्त वेदना थी। कलेज में कचोटनेवाली करुणा थी । मेरी हँसी सन्न हो गई । उस वेदना को खोजने के लिए गंगा के उस पार वृक्षों की श्यामलता को देखने लगा परंतु कोई न दिखाई पड़ा।

मैं चुप था सहसा फिर सुनाई पड़ा-

अपने बाबा की बारी दुलारी

खेलत रहली अँगनवों में

बलजोरी बसे हो-

मैं स्थिर होकर सुनने लगा जैसे कोई भूली हुई सुंदर कहानी । मन में उत्कंठा थी और एक कसक भरा कुतूहल था। फिर सुनाई पड़ा-
[ ८८ ]ई कुल बतिया कबों नहीं जनली

देखली को न सपनयाँ म।

बरजोरी बसे हो-

मैं मूर्ख सा उस गान का अर्थ सम्बध लगाने लगा।

अंगने में खेलते हुए कुल बतियाँ--व कौन आत पी? उसे जानने के लिए हृदय चंचल बालक सा मचल गया। प्रतीत होने तगा उन्हीं कुल अज्ञात बातों के रहस्य जाल में मछली सा मन चांदनी के समुद्र में छटपटा रहा है।

मैंने अधीर हो कर कहा- ठाकुर ! इसको बुलवानोगे ? नहीं जी वह पगली है।

पगली ! कदापि नहीं जो ऐसा गा सकती है वह पगली नहीं हो सकती । जीवन ! उसे बुलाओ बहाना मत करो।

तुम व्यर्थ हठ कर रहे हो। एक दीर्घ निश्वास को छिपाते हुए जीवन ने कहा।

मेरा कुतूहल और भी बढ़ा । मैंने कहा-इठ नहीं लड़ाई भी करना पड़े तो करूंगा । बताओ तुम उसे क्यों नहीं बुलाने देना चाहते हो?

वह इसी गांव की भार की लड़की है । कुछ दिनों से सनक गई है। रात भर कभी-कभी गाती हुई गंगा के किनारे घूमा करती है।

तो इससे क्या उसे बुलायो भी।

नहीं मैं उसे न बुलवा सकूँगा।

अच्छा तो यही बतानो क्यों न बुलवानोगे ?

वह बात सुनकर क्या करोगे?

सुनूँँगा-अवश्य ठाकुर ! यह न समझना कि मैं तुम्हारी जींदारी में इस समय बैठा हूँ, इसलिए जाऊँगा। मैंने इसी से कहा । जीवनसिंह ने कहा-तो सुनो[ ८९ ]जानते हो कि देहातों में भाटों का प्रधान काम है किसी अपने ठाकुर के घर उत्सवों पर प्रशंसा के कवित्त सुनाना । उनके घर की स्त्रियाँ घरों में गाती बजाती हैं। नंदन भी इसी प्रकार मेरे घराने का आश्रित भाट है । उसकी लड़की रोहिणी विधवा हो गई--

मैंने बीच ही में टोक कर कहा-क्या नाम बताया ?

जीवन ने कहा-रोहिणी । उसी साल उसका द्विरागमन होने वाला था। नदन लोभी नहीं है । उसे और भाटों के सहन मांगने में भी संकोच होता है । यहां से थोड़ी दूर पर गंगा किनारे उसकी कुटिया है। वहाँ वृक्षों का अच्छा मुरमुट है । एक दिन मैं खेत देख कर घोड़े पा रहा था। कड़ी धूप थी। मैं तदन के घर के पास वृक्षा की छाया में ठहर गया! नन्दन ने मुझे देखा | कम्बल बिछा कर उसने अपनी झोपड़ी में मुझे बैठाया मैं लू से डरा था। कुछ समय वहीं बिताने का निश्चय किया।

जीवन को सफाई देते देख कर मैं हँस पड़ा पर तु उसकी ओर ध्यान न देकर जीवन ने अपनी कहानी गंभीरता से विचलित न होने दी। हाँ तो नदन ने पुकारा रोहिणी एक लोटा जल ले आ बेटी ये तो अपने मालिक हैं इनसे लज्जा कैसी ? रोहिणी आई । वह उसके यौवन का प्रभात था. परिश्रम करने से उसकी एक एक नसें और मांस पेसियाँ जैसे गढ़ी हुई थीं । मैंने देखा-उसकी झुकी हुई पलकों से काली बरौनियां छितरा रही थीं और उन बरौनियों से जैसे करुणा की अदृश्य सरस्वती कितनी ही धाराओं में यह रही थी। मैं न जाने क्यों उद्विग्न हो उठा। अधिक काल तक वहां न ठहर सका | घर चला आया।

विजयादशमी का त्योहार था। घर में गाना-बजाना हो रहा था। मैं अपनी श्रीमती के पास जा बैठा। उन्होंने कहा-सुनते हो ? मैंने कहां दोनों कानों से। [ ९० ] श्रीमती ने कहा-यह रोहिणी बहुत अच्छा गाने लगी और भी एक आश्चर्य की बात है यह गीत बनाती भी है गाती भी है। तुम्हारे गाँव की लड़कियाँ तो बड़ी गुनवती हैं । मैं हूँ कह कर उठ कर बाहर आने लगा देखा तो रोहिणी जवारा लिए खड़ी है। मैंने सिर झुका दिया यय की पतली-पतली लम्बी धानी पत्तियाँ मेरे कानों से अटका दी गई। मैं उस बिना कुछ दिये बाहर चला आया।

पीछे से सुना कि इस धृष्टता पर मेरी माता जी ने उसे बहुत फटकारा उसी दिन से कोट में उसका पाना ब द हुना।

नंदन बड़ा दुखी हुआ | उसने भी पाना बन्द कर दिया । एक दिन मैंने सुना उसी की सहेलियाँ उससे मेरे सम्बध में हसी कर रही थी । वह सहसा अत्यत डोजित हो उठी और बोली-तो इसमें तुम लोगों का क्या ? मैं मरती हूँ प्यार करती हूँ उहें तो तुम्हारी बला से ।

सहेलियों ने कहा-बाप रे । इसकी दिठाई तो देखो । वह और भी गरम होती गई । यहा तक उन लोगों ने रोहिणी को छेड़ा कि वह बकने लगी। उसी दिन से उसका बकना बदन हुश्रा | अब वह गांव में पगली समझी जाती है उसे अब लजा-संकोच नहीं जय जी में आता है गाती हुई घूमा करती है । सुन लिया तुमने यही कहानी है भला मैं उसे कैसे बुलाज

जीवनसिंह अपनी बात समाप्त करके चुप हो रहे और मैं कल्पना से फिर वही गाना सुनने लगा--

बरजोरी बसे हो नयना में।

सचमुच यह संगीत पास आने लगा | अब की सुनाई पड़ा-

मुरि मुसुक्याई पढ्यो कछु टोना

गारी दियो किधों मनवा में

घरजोरी बसे हो [ ९१ ] उस ग्रामीण भाषा में पुग़ली के हृदय की सरल कथा थी-मामिक व्यथा थी । मैं तमय हो रहा था ।

जीवनसिंह न जाने क्यों चञ्चल हो उठे। उठ कर टहलने लगे । छत के नीचे गीत सुनाई पड़ रहा था।

खनकार भरी कपती हुई तान हृदय खुरचने लगी। मैंने कहा- जीवन उसे बुला लाओ मैं इस प्रेमयोगिनी का दर्शन तो कर लें।

सहसा सीढियों पर धमधमाहट सुनाई पड़ी वही पगली रोहिणी आकर जीवन के सामने खड़ी हो गई।

पीछे-पीछे सिपाही दौड़ता हुआ पाया। उसने कहा-इट पगली ।

जीवन और हम चुप थे | उसने एक बार घूम कर सिपाही की ओर देखा । सिपाही सहम गया । पगली रोहिणी फिर गा उठी।

दीठ | बिसारे विसरत नाही

कसे बसू जाय बनवा म

बरजोरी बसे हो-

सहसा सिपाही ने कर्कश स्वर से फिर डॉटा । वह भयभीत हो जैसे भगी या पीछे हटी मुझे स्मरण नहीं । परन्तु छत के नीचे गंगा के चंद्रिका रजित प्रवाह में एक छपाका हुआ। हतबुद्धि जीवन देखते रहे। मैं ऊपर अनत की उस दौड़ को देखने लगा। रोहिणी चन्द्रमा का पीछा कर रही थी और नीचे से छपाके से उठे हुए कितने ही बुद बुदों में प्रतिविम्बित रोहिणी की किरणें विलीन हो रही थीं।