आग और धुआं/10

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दस

जिस समय देहली के तख्त पर मुज्जिमशाह आसीन था, उस समय अफगानिस्तान के तीरा शहर का निवासी दाऊदखाँ भाग्य आजमाने भारत आया। दाऊदखाँ पठान था और उसमें वीरता की भावनाएँ उठ रही थीं। उस समय उत्तर भारत में कटहर प्रदेश (अवध के उत्तर और गंगा के पूर्व हिमालय की तराई में रामपुर, मुरादाबाद, बरेली और बिजनौर का सम्मिलित हरा-भरा सुहावना प्रदेश) छोटे-छोटे ताल्लुकों में बंटा हुआ था। ताल्लुकेदार राजपूत और ठाकुर थे, जो परस्पर में ईर्ष्या-द्वेष तथा शक्ति-

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[ ९५ ]संतुलन के लिए परस्पर में लड़ते रहते थे। अपनी ओर से लड़ाने के लिए वे कुछ अन्य वीर योद्धाओं की भी पारिश्रमिक देकर सहायता प्राप्त करते थे। दाऊदखाँ ने अपने कुछ वीर पठानों का संगठन करके एक योद्धादल बनाकर उन ताल्लुकदारों की आपस की लड़ाई में उनका साथ देकर युद्ध किया, जिससे उसकी वीरता की प्रसिद्धि हुई। वह जिस ताल्लुकेदार की ओर से लड़ता उसी की विजय होती थी। विजय होने पर उसे खूब रुपया मिलता था। एक बार बरेली के पास बाँकौली गाँव में दो जमींदारों में भयंकर लड़ाई हुई। बाँकौली गाँव सैयदों का था। सैयद जमकर लड़े, परन्तु अन्त में सब मारे गए। दाऊदखाँ ने इस लड़ाई में दूसरे जमींदार का पक्ष लेकर युद्ध किया था। लड़ाई जीतकर जब उसने बाँकौली गांव में प्रवेश किया तो उसे एक सूने घर में एक छः वर्ष का सुन्दर और तेजस्वी बालक एक कोने में बैठा हुआ मिला। दाऊदखां ने बालक को अपनी गोद में लेकर पूछा-"क्या तुम अकेले बचे हो?"

"हाँ।"

"तुम्हारा नाम?"

"मोहम्मद अली।

"तुन्हारे वालिद का?"

"दिलदार अली।"

"अब वह कहाँ है?"

"शायद लड़ाई में मारे गए।"

"घर के और लोग?"

"सब भाग गए।"

"क्या तुम मेरे साथ चलोगे?"

बालक ने यह प्रश्न सुनते ही दाऊदखाँ के मुँह की ओर देखा। उस समय उसमें वात्सल्य और प्रेम झलक रहा था। बालक ने कहा-"तुम मुझे मारोगे तो नहीं?"

"नहीं बेटे, मैं तुम्हें अपना बहादुर बेटा बनाऊँगा।"

दाऊदखाँ ने उसे अपने साथ ले लिया और दत्तक पुत्र बनाकर पालन-पोषण किया। उसका नया नाम रखा अली मोहम्मद खाँ। उसके पढ़ने-लिखने

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[ ९६ ]तथा युद्ध-शिक्षा की उचित व्यवस्था की। युवा होने पर अली मोहम्मद खाँ दाऊदखाँ की भाँति साहसी और वीर योद्धा बना।

कुछ समय बाद दाऊदखाँ कुमायूं के राजा के साथ हुए युद्ध में मारा गया। उसकी फौज ने अली मोहम्मद खाँ को अपना सरदार स्वीकार किया। अली मोहम्मद खाँ ने अपनी फौज में और भी वृद्धि की तथा अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए कुमायूँ के राजा पर आक्रमण किया। कुमायूं के राजा ने उसका सामना करने में असमर्थ समझ उससे संधि कर ली।

इससे अली मोहम्मद खाँ का साहस बढ़ गया। अतः उसने कटहर प्रान्त के छोटे-छोटे जमींदारों से युद्ध करके उनकी जमींदारी छीन-छीनकर अपने अधिकार में करनी आरम्भ की। धीरे-धीरे उसने सारा ही कटहर प्रान्त अपने प्रान्त में कर लिया। यही प्रान्त रुहेलखण्ड कहलाने लगा।

इस समय दिल्ली के तख्त पर मोहम्मदशाह रंगीला आसीन था। बादशाह ने अली मोहम्मद को काम का आदमी समझकर एक शाही फरमान भेजा जिसमें उसे फिदवी खास लिखा और कहा कि वह जाकर मुजफ्फर-नगर के बारा गाँव में निजामुलमुल्क आसिफजाँ की उसके प्रतिद्वन्द्वी जमींदार सेपुलदीन अली खाँ के विरुद्ध सहायता करे। अली मोहम्मद खाँ ने बादशाह का यह हुक्म तुरन्त पालन किया और आसिफखाँ की विजय कराकर लौट आया। बादशाह ने उसे पाँच हजारी मनसब, माहीमरातिब, नौबतनिशा, चबर और नक्कारखाना की उपाधियाँ देकर रुहेलखण्ड की सूबेदारी दी।

रुहेलखण्ड में उसे शासन करते थोड़ा ही समय हुआ था कि अली मोहम्मद खाँ की कुछ सख्तियों के जुल्म से तंग होकर वहाँ के जमींदारों ने दिल्ली के बादशाह से उसकी शिकायत की। बादशाह ने राजा हरनन्द को पचास हजार सेना देकर अली मोहम्मद खाँ को कैद करने के लिए भेजा। मुरादाबाद पहुँचकर हरनन्द ने बरेली और शाहबाद के शासक अब्बदुल-नबीखाँ को शाही सेना में आ मिलने का हुक्म दिया। अब्दुलनबीखाँ अली-मुहम्मदखाँ के साथ युद्ध नहीं करना चाहता था। उसने बहाना बनाकर अपने भाई दिलेर खाँ को राजा हरनन्द के पास भेज दिया। अली मोहम्मद राजा हरनन्द का आगमन सुन १२ हजार योद्धाओं को लेकर मुरादाबाद

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[ ९७ ]की ओर बढ़ा। दाल और जारू गांवों के पास दोनों ओर की सेनाओं का आमना-सामना हुआ। पहले ही दिन भयानक युद्ध हुआ, जिसमें राजा हरनन्द, उसका पुत्र मोतीलाल और दिलेरखाँ मारे गए तथा अधिकाँश सेना युद्ध में कट मरी। अन्ततः अब्दुलनबीखाँ अपने भाई दिलेरखाँ की मृत्यु का बदला लेने के लिए क्रोध में भरकर युद्ध-क्षेत्र में आया। उसने अपने साथ चुने हुए ५०० योद्धा लिए थे, परन्तु युद्ध-क्षेत्र में पहुँचते-पहुँचते उसके अधिकाँश योद्धा बहाना बनाकर मार्ग में ही उसका साथ छोड़ते गए। जिस समय वह युद्ध-भूमि में पहुंचा तब कठिनाई से सौ योद्धा भी उसके साथ न थे। अली मोहम्मद की सेना राजा हरनन्द के खेमों को लूट रही थी और वह किसी सरदार से बातें कर रहा था। अब्दुलनबीखाँ अकस्मात् उनपर टूट पड़ा और शत्रु के बहुत से सैनिक शीघ्रता से काट डाले गए। अली मोहम्मद ने अपनी सेना की तुरन्त व्यवस्था की और अब्दुलनबी से डटकर मुकाबला किया। अन्त में अब्दुलनबी भी मारा गया। अली मोहम्मद विजय-दुन्दभी बजाता हुआ लौट गया। उसने अपने राज्य का विस्तार किया। उसकी सेना में एक लाख सैनिक थे। खजाने में तीन करोड़ चार लाख रुपये और एक करोड़ सोलह लाख सोने की मोहरें थीं। उसके पाँच वेटे थे। वे सब रुहेले प्रसिद्ध हुए। तीस वर्ष नवाबी करके कुछ महीने बीमार रहकर उसकी मृत्यु हो गई।

अवध के नवाब बहुत दिनों से रुहेलखण्ड को हथियाना चाहते थे, मगर जब कभी सब रुहेले-सरदार मिलकर युद्ध का डंका बजाते थे, तब उनकी संख्या अस्सी हजार पहुंचती थी। इसके सिवा वे वीर भी थे, अतः नवाब को उन्हें छेड़ने का साहस न होता था। जब नवाब शुजाउद्दौला ने अंग्रेजों की धनलिप्सा को देखा, तो उसने वारेन हेस्टिग्स को लिखकर अंग्रेजी सेना की मदद मांगी। दोनों ने सलाह कर ली, और चालीस लाख रुपये और सेना का कुल खर्चा लेना स्वीकार करके अंग्रेजों ने भाड़े पर रुहेलों के विरुद्ध अपनी सेना देना स्वीकार कर लिया। रुहेलों से अंग्रेजों का कोई मतलब न था, न कुछ टण्टा था, इसके सिवा वे अन्य सूबेदारों की तरह बादशाह के अधिकार प्राप्त सूबेदार थे।

हेस्टिग्स ने कर्नल चैम्पियन की अधीनता में तीन ब्रिगेड अंग्रेजी सेना

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[ ९८ ]और चार हजार कड़ाबीनी रवाने किए। रुहेलों ने प्रथम तो बहुत-कुछ लिखा-पढ़ी की, पर अन्त में हारकर युद्ध की तैयारियाँ की, और हाफिज रहमत-खाँ चालीस हजार सेना लेकर अवध के नवाब और अंग्रेजों की सम्मिलित सेना की गति रोकने को अग्रसर हुए। कर्नल चैम्पियन के पास तीन ब्रिगेड अंग्रेजी

सेना और चार हजार कड़ाबीनी नवाबी सेना थी। २३ अप्रैल १७७४ को बाबुल-नाले पर घोर-युद्ध हुआ, और रुहेलों की वीरता से इस संयुक्त सेना के छक्के छूट गये। पर भारत से मुसलमानों का भाग्य-चक्र तेजी से फिर रहा था। अगले दिन हाफिज रहमतखाँ युद्ध में मारा गया, और पूर्वी सेनाओं के दस्तूर के अनुसार उसके मरते ही सेना का उत्साह भंग हो गया, और वह भाग चली। रुहेलों का अस्तित्व मिट गया।

नवाब की फौज ने भागते रुहेलों को मारने और लूटने में बड़ी फुर्ती दिखाई। एक लाख से अधिक रुहेले अंग्रेजों के आतंक से भयभीत होकर अपने सुख-निवासों को छोड़-छोड़कर विकट जंगलों में भाग गये।

नवाब ने फसल उजाड़ दी, कुछ घोड़ों से कुचलवा दी। नगर-गाँवों में आग लगवा दी। क्या मनुष्य, क्या स्त्री, क्या बालक, या तो कत्ल कर दिए गये, या अंग-भंग करके तड़पते छोड़ दिए गये, अथवा गुलाम बनाकर बेच दिए गये। रुहेले सरदारों की कुल-महिलाओं और कुमारी कन्याओं का अत्यन्त पाशविक ढंग से सतीत्व नष्ट किया गया। वे दाने-दाने के लिए दर-दर भीख मांगने लगीं। मुन्शी बेगम के अंगूठी छल्ले तक उतरवा लिए गए। महबूवखाँ की लड़की पर नवाब ने पाशविक अत्याचार किया, जिससे उसने विष खाकर आत्मघात कर लिया। डेढ़ करोड़ रुपये का माल लूटा गया। अस्सी लाख वार्षिक आय की रियासत नवाब के हाथ लगी। नवाब ने रुहेले सरदारों को पहले तो अभयदान दिया, बाद में विश्वासघात करके उन्हें कत्ल करा डाला। यन्त्रणाएँ भुगतने के लिए प्रसिद्ध रुहेले सरदार महबू- बुल्लाखाँ और फिदाउल्लाखां के परिवार वाले फैजाबाद भेज दिए गए।

इस युद्ध में हेस्टिग्स को भारी आर्थिक लाभ हुआ। इस तीन ब्रिगेड अंग्रेजी सेना का पूरे वर्ष भर का खर्च साढ़े सैंतीस लाख रुपया वसूल किया तथा साढ़े सढ़शठ लाख रुपये वार्षिक नवाब ने कम्पनी को और दिए। एक करोड़ रुपया नकद कम्पनी के खजाने के लिए भी दिया गया।

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