आग और धुआं/9
ई० १७५४ में इंगलैण्ड और फ्रांस में राजनैतिक स्थितियाँ विभिन्न थीं। जबकि इंगलैण्ड सम्पूर्ण रूप से भारत की ओर समय-समय पर उचित सहायता भेजता रहा, तब फ्रांस अपने आन्तरिक झगड़ों में फंसा रहा। इंगलैण्ड के राज्य-परिवार में कभी पारिवारिक झगड़े उत्पन्न नहीं हुए, परन्तु फ्रांस का राज्य-परिवार आन्तरिक झगड़ों में फंसा रहा। त्रिचनापली के युद्ध में हार होने के बाद डूप्ले को फ्रांस बुला लिया गया। फ्रांस और अंग्रेजों ने परस्पर में सन्धि कर ली परन्तु अंग्रेज कब सन्धियों का पालन करते थे।
१८वीं शताब्दी के मध्य में फ्रांस का राज्य वंश अपनी भोगलिप्सा में डूबकर राजकोश को ऐश्वर्य और विलासिता में खाली कर रहा था। तत्कालीन फ्रांस का बादशाह लुई पंद्रहवां राजकोष को बिल्कुल समाप्त करके और अपनी अतृप्त भोगलिप्सा को अपने हृदय में लिए सन् १७७४ में मर गया। उसके बाद लुई सोलहवां सिंहासन पर बैठा।
नया बादशाह नवयुवक था और उसकी पत्नी आस्ट्रिया की राजकुमारी मेरी आत्वानेव बहुत सुन्दरी थी। पति-पत्नी का प्रेम आपस में बँटा हुआ था, परन्तु उन्होंने भी अपने ऐश्वर्य और सुख-भोग के लिए राजकोष को अंधाधुंध खर्च किया। प्रतिवर्ष प्रधानमंत्री राजकोष को भरने के लिए उपाय करते, परन्तु उनका प्रयत्न सफल नहीं होता था। १२ वर्ष के बाद बादशाह से कह दिया गया कि अब फ्रांस का दिवाला निकलने वाला है। बादशाह ने अमीरों, पादरियों और प्रजा के विशिष्ट व्यक्तियों को साथ लेकर कुछ उपाय करना चाहा, परन्तु फ्रांस-भर में प्रजा इतनी दुखी और पीड़ित हो चुकी थी कि महान क्रान्ति का सूत्रपात १७८६ में देश-भर में हुआ। फ्रांस में तीन राजनैतिक दल बन गए। गिरोण्डिस्ट, कोडिलियर और जैकोबिन। तीनों ही दल अपनी महारानी को आस्ट्रिया की राजकुमारी होने के कारण विदेशी समझ उसका तिरस्कार करते रहे और राजवंश का
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मेरी आत्वानेव का शैशव अपनी गरिमामयी माता मेरी थेरेसा की गोद में आमोद-प्रमोद में व्यतीत हुआ था। छोटी अवस्था में ही उसका विवाह फ्रांस के राजकुमार लुई १६वें से हो गया था। विवाह के पांच वर्ष बाद आत्वानेव को साम्राज्ञी पद प्राप्त हुआ। वह राजसत्ता में दृढ़ आस्था रखती थी, परन्तु फ्रांस की राजनीति क्रान्ति की ओर अग्रसर हो रही थी, और राजसत्ता संकटमय स्थिति में थी। उसका पति साहसी नहीं था। आत्वानेव ने अपने पति को अपने आदेशानुसार चलाना चाहा। वह नहीं चाहती थी कि सम्राट् के अधिकारों में किसी प्रकार का नियंत्रण हो। आत्वानेव के विचार फ्रांस की प्रजा का रोष उभारने में और भी सहायक बने।
फ्रांस की आर्थिक स्थिति बहुत दुर्दशा-ग्रस्त थी। सम्राट ने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री तूर्गों के हाथ में स्थिति सुधार का कार्य सौंपा था परन्तु सामाग्री के हस्तक्षेप के कारण तूर्गो अधिक समय तक अर्थसचिव के पद पर न रह सका। आत्वानेव ने सम्राट् से कहा कि तुम्हारा कार्य फ्रांस-निवासियों से न हो सकेगा-तुम्हें अन्य राष्ट्रों से सहायता लेनी चाहिए।
लुई वार्सेल्स नगर में रहकर वहीं से राजकार्य की देख-रेख करता था। उसके कार्यों से पेरिस की जनता में असन्तोष पैदा हो रहा था और उपद्रव के लक्षण दीखने लगे थे। कुछ काल में राज्य-क्रान्ति आरम्भ हो गई उन्हीं दिनों पेरिस को भीषण दुर्भिक्ष का सामना करना पड़ा। क्रान्तिकारी विचारों के कारण पेरिस की जनता में जाग्रति हो चुकी थी। उन्हें यह असह्य हो गया कि राजा और रानी तो आनन्द से जीवन बितायें और प्रजा भूखों मरे। भूखे जन-समूह ने वार्सेल्स के राजभवन को घेर लिया। विवश होकर राजा और रानी को पेरिस आना पड़ा। वहाँ वे राजभवन में रहने लगे, परन्तु उनके कार्यों पर दृष्टि रखी जाने लगी। राजा तो किसी प्रकार उस स्थिति में रहने को प्रस्तुत था, परन्तु स्वतन्त्रता का अपहरण हो जाने से
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इन्हीं दिनों फ्रांस की राज्य-परिषद् में शासन-विधान-सम्बन्धी बहुत से परिवर्तन हो गए थे, जिसके कारण राज-सत्ता के समर्थक बहुत से कुलीन मनुष्य फ्रांस की सीमा से बाहर चले गये थे। वे विदेशी राज्यों की सहायता से फ्रांस में राजसत्ता को निरापद करना चाहते थे। साम्राज्ञी गुप्त रीति से उनके कुचक्र में सम्मिलित थी। उनके परामर्श और सहायता से उसने राजभवन छोड़ने का प्रबन्ध कर लिया। एक दिन सुयोग देखकर प्रहरियों की आँख में धूल झोंककर राजवंश ने सीमाप्रान्त की ओर प्रस्थान कर दिया। वहाँ उनकी सहायता के लिए एक सेनानायक २५००० सैनिकों के साथ उपस्थित था, परन्तु यह सबके सब मार्ग में ही पकड़े गए। वनिस गाँव के पोस्टमास्टर के पुत्र ने उन्हें पहचान लिया। रानी ने हाथ जोड़े, प्रार्थना की, गिड़गिड़ाई और रोई भी, परन्तु उसके आँसुओं का कुछ फल न निकला। सबके सब पेरिस लाए गये और कड़े पहरे में बन्द कर दिए गए। राजा की स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण हो गई। उसकी इच्छा आत्मघात करने की होती थी। दस दिन तक निरन्तर उसने रानी से कोई बात न की। जब रानी से न रहा गया तो वह जाकर पति के चरणों पर गिर पड़ी और दोनों बच्चों को उसकी गोद में बैठाकर कहने लगी-"भाग्य के विरुद्ध युद्ध जारी रखने के लिए हमें धैर्य धारण करना ही होगा। यदि हमारा अन्त अवश्यंभावी है तो हम उसे रोक नहीं सकते, परन्तु मरने की कला हम अच्छी तरह जानते हैं। मरना ही है तो शासक की भांति मरें। बिना विरोध किए, बिना प्रति-शोध लिए ही हाथ पर हाथ रखकर बैठना उचित नहीं है। हमें अपने स्वत्व के लिए झगड़ते रहना चाहिए।"
रानी के हृदय में वीरता थी। वह झगड़ना जानती थी, परन्तु शासन करना उसे आता न था।
राजवंश के पेरिस-परित्याग से पूर्व बहुत से मनुष्य राजा के पक्ष में थे, परन्तु उनके इस प्रकार जाने से उनका पक्ष निर्बल हो गया। जनता सम्राट को पदच्युत करने की बात सोचने लगी। राज्य-परिषद् ने राजा के बहुत से अधिकार छीन लिए। उधर आस्ट्रिया और प्रशा के राजाओं ने फ्रांस के
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जब कभी वह राजभवन की खिड़की से बाहर झाँकती तो लोग उसका तिरस्कार करने लगते थे। उसके लिए अपशब्द कहने लगते थे। एक दिन एक मनुष्य अपने भाले की नोक रानी को दिखाकर कहने लगा-"मेरे जीवन में वह दिन शुभ होगा, जब तुम्हारा सिर इस भाले की नोक पर लटकता देख सकूँगा।"
साम्राज्ञी के लिए बाहर की ओर देखना भी अपराध हो गया था।
फ्रांस की परिषद् ने धर्मगुरुओं के विरुद्ध एक कानून बनाया। राजा की इसमें सम्मति नहीं थी। रानी के परामर्श से उसने मन्त्रिमंडल को विघ-टित कर दिया। पेरिस की जनता उत्तेजित हो गई। कुछ वक्ताओं के कहने से उसने राजभवन पर आक्रमण किया।
उपद्रवी पाँच घण्टों तक राजदम्पत्ति का तिरस्कार करते रहे। बहुत सी स्त्रियाँ साम्राज्ञी के कमरे में घुस गई और उसको नाना प्रकार से कष्ट देने लगीं। एक सुन्दरी युवती ने रानी के प्रति कुछ अपशब्द कहे। रानी से चुप न रहा गया। उसने उस युवती से कहा--"तुम मुझसे क्यों घृणा करती हो क्या मैंने अनजान में तुम्हारा कोई नुकसान या अपराध किया है?"
युवती ने उत्तर दिया-"मेरी तो कोई हानि तुमने नहीं की, परन्तु देश की दुर्दशा तुम्हारे ही कारण हुई है।"
रानी ने कहा-"अभागिनी! तुमको किसी ने मेरे विपरीत बहका दिया है। लोगों के जीवन को दुखमय बनाने से मुझे क्या लाभ है? मैं लौटकर अपने देश को नहीं जा सकती, यहाँ रहकर ही मैं सुखी या दुखी रह सकती हूँ। जब तुम लोग मुझसे प्रेम करते थे, मैं परम सुखी थी।"
युवती ने क्षमा मांगी, उसने कहा-"मैं तुम्हें नहीं जानती थी, परन्तु
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उपद्रवियों के चले जाने पर रानी राजा के चरणों पर गिर पड़ी और उसके घुटने पकड़कर घण्टों रोती रही।
राजा ने कहा-“आह! मैं तुम्हें यह दिन दिखाने के लिए तुम्हारे देश से क्यों लिवा लाया?"
इस घटना के बाद राष्ट्रीय संरक्षक दल के सेनानायक ने अपनी सहायता से उनको वह स्थान छोड़ने का परामर्श दिया, परन्तु राजा वहाँ से जाने को सहमत न हुआ। उसको विदेशी राष्ट्रों की सेनाओं का भरोसा था। राजा के प्रति जनता की श्रद्धा नित्य कम होती गई। उन्हें यह विश्वास हो गया कि राजा और रानी दोनों देशहित में बाधक हैं।
एक व्यक्ति ने तो परिषद् में कह दिया-"राजभवन ही सब अनर्थों का मूल है। उसका अन्त जल्द होना चाहिए।"
इसी बीच में ब्रन्सविक के ड्यूक ने फ्रांसीसियों को राजा के सम्मुख आत्म-समर्पण करने की धमकी दी। लोग भड़क गए। उन्होंने राजमहल पर आक्रमण कर दिया। राजवंश का जीवन बड़े संकट में था।
विद्रोही चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे—“बढ़े चलो, राजा-रानी और उनके बच्चों का सिर काट कर भालों की नोंक पर लटका दो, राजवंश का एक भी प्राणी जीता न बचने पावे।"
विद्रोहियों ने राजमहल के रक्षकों को मार गिराया। रानी की दशा बड़ी खराब थी। एक ओर उसको पति और बालकों की चिन्ता थी, दूसरी ओर अपनी मृत्यु का भय। परन्तु उस समय भी उसमें कुछ साहस मौजूद था। उसने राजा से कहा-"मरने-मारने का यही अवसर है, तुम्हारे अधिकार में जो थोड़ी-सी सेना है, उसकी सहायता से विद्रोहियों को क्यों नहीं भगा देते?"
परन्तु उस समय ऐसा करना अपनी मृत्यु को समीप बुलाना था। राजा ने रानी की बात पर ध्यान नहीं दिया। उन दोनों ने समीपस्थ, परिषद-भवन में जाकर अपने प्राण बचाए। उसी दिन सम्राट लुई पदच्युत कर दिया गया और राजवंश को पेरिस के टेम्पिल-कारागार में रहने की आज्ञा हुई।
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मुसीबत का पहाड़ एक साथ ही टूटता है। कुछ ही दिनों में शासन की आज्ञा से राजकुमार को भी रानी की गोद से छीन लिया गया। उसको राजा के पास रहने की आज्ञा हुई। शासकगण समझते थे कि रानी इस राजकुमार को भी क्रान्ति का शत्नु बना देगी। हृदय पर पत्थर रखकर रानी ने यह भी दुःख सहा। इन सब प्राणियों को केवल भोजन के समय एकत्रित होने की आज्ञा मिल गई थी, परन्तु उनकी चौकसी पूरी-पूरी होती थी। उनकी रोटियों तक को देखा जाता था कि कहीं इसमें कोई षड्यन्त्र तो नहीं भरा है। वे लोग धीरे-धीरे बात नहीं कर सकते थे, फ्रेंच के अतिरिक्त दूसरी भाषा में बोलना भी उनके लिए निषिद्ध था।
इसी बीच में राजभवन की खोज होने पर वहाँ कुछ ऐसे गुप्त कागजपत्र मिले, जिनसे राजा का विदेशी राजाओं औरसरदारों से षड्यन्त्र करना सिद्ध होता था। परिषद् ने लुई पर देश के प्रति विश्वासघात का दोष लगाया। राजा पर अभियोग चलाया गया। ११ दिसम्बर, १७९२ को दोषी पाकर उसको मृत्यु-दण्ड की आज्ञा दी गई।
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रात्रि-भर उसके हृदय में भावों का तुमुल संग्राम होता रहा। उसने सारी रात जागकर बिता दी। दूसरे दिन बिना मिले ही, बिना कुछ कहे सुने ही राजा उस स्थान से चला गया। वह जानता था कि अन्तिम विदाई के दृश्य की चोट को रानी सहन न कर सकेगी। अन्तिम समय पति से भेंट न हो, इससे बढ़कर दुर्भाग्य पत्नी का और क्या हो सकता है? रानी का व्यवहार चाहे जैसा रहा हो, वह लुई को हृदय से चाहती थी। उसके लिए उसका पति परमेश्वर के समान था। रानी ने पति की मृत्यु का समाचार सुना तो मूच्छित हो गई। चेतना लौटने पर वह उन्मादिनी के समान बकझक करने लगी। परन्तु ननद की सेवा-शुश्रुषा से उसकी दशा शीघ्र ही ठीक हो गई।