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आग और धुआं/19

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आग और धुआं
चतुरसेन शास्त्री

दिल्ली: प्रभात प्रकाशन, पृष्ठ १५३ से – — तक

 

उन्नीस

सर जॉन केमार तीसरे अंग्रेज-गवर्नर थे। उन्होंने अवध के नवाब की पुरानी संधि को तोड़ डाला, और नवाब पर जोर दिया कि आप साढ़े पाँच लाख रुपया सालाना खर्च पर एक अंग्रेजी पल्टन अपने यहाँ और रखें। नवाब 'सबसीडियरी सेना' के लिए पचास लाख रुपया सालाना प्रथम ही देता था। उसने इससे इन्कार कर दिया। तब अंग्रेजों ने जबर्दस्ती वजीर झाऊलाल को पकड़कर कैद कर लिया। पीछे जब सर जॉन शोर लखनऊ पहुंचे तो नई फौज का खर्चा नवाब के सिर मढ़ दिया गया।

इस धींगा-मुश्ती से नवाब के दिल को सदमा पहुँचा। वह बीमार हो गया और दवा खाने से भी इन्कार कर दिया। इसी रोग में उसकी मृत्यु हो गई।

उसने २३ वर्ष राज्य करके शरीर त्यागा। उसकी वसीयत पर मिरजा वजीरअली गद्दी पर बैठे। पर उन्होंने एक ही वर्ष में सबको नाराज कर दिया। अंत में ईस्ट-इण्डिया कम्पनी ने उन्हें बनारस में नजरबन्द कर दिया। वहाँ उन्होंने विद्रोह की तैयारियां कीं, तो अंग्रेजों ने उन्हें कलकत्ता बुलाया।

जब रेजीडेण्ट मि० चोरी उन्हें यह संदेश देने गये, तो बात बढ़ चली और नवाब ने अपनी तलवार निकालकर चोरी साहब को कत्ल कर दिया। मेम साहब भागकर बच गईं।

कत्ल करने के बाद मिरजा नेपाल के जंगलों में भेष बदले मुद्दत तक फिरते रहे। अंत में नगर के राजा के विश्वासघात से गिरफ्तार किये गये, और लखनऊ में उन पर कत्ल का मुकद्दमा चला। पर कोई गवाह न मिलने से फाँसी से बच गये। इसके बाद उन्हें दुबारा कलकत्ते में कैद कर लिया गया, जहाँ वह २६ वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त हुए।

इनके बाद नवाब आसफउद्दौला के भाई सआदतअलीखाँ गद्दीनशीन हुए। उस समय उनकी उम्र ६० वर्ष की थी। वे बड़े बुद्धिमान, दूरदर्शी, ईमानदार और योग्य शासक थे। पर, लोग उन्हें कंजूस कहा करते थे;

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क्योंकि वे आसफउद्दौला की भांति शाह-खर्च न थे। परन्तु खर्च की जगह पीछे न हटते थे। वे अंग्रेज-सरकार के बड़े भक्त थे; क्योंकि उन्हें अंग्रेज सरकार ने ही गद्दीनशीन किया था।

कम्पनी सरकार को कुल मिलाकर एक करोड़ रुपये से ऊपर तथा इलाहाबाद का किला एक वर्ष ही के अन्दर मिल गया। एक शर्त यह भी थी कि सिवा कम्पनी के आदमियों के अन्य कोई भी यूरोपियन अवध-राज्य में न रहने पाये।

इसके बाद जब लार्ड वेलेजली गवर्नर होकर आये, तब उन्होंने दो वर्ष ही यह सन्धि तोड़ दी। उसने नवाब को अपनी सेना में कुछ संशोधन करने की भी अनुमति दी। उस संशोधन का अभिप्राय यह था कि मालगुजारी की वसूली आदि के लिये जितनी सेना दरकार हो, उसे छोड़कर शेष सब सेना तोड़ दी जाय, और उसके स्थान पर कम्पनी के प्रबन्ध और नवाब के नाम से कुछ ऐसी सेनाएँ रखी जायें जिनका खर्च ७५ लाख रुपये सालाना हो।

नवाब ने इसके उत्तर में एक तर्क-पूर्ण और कड़ा उत्तर लिखा, और अंग्रेज-सरकार को इस प्रकार हस्तक्षेप करने के लिये मीठी फटकार दी।

इस पत्र को लॉर्ड वेलेजली ने तिरस्कारपूर्वक वापिस कर दिया और नवाब को लिख दिया कि कुछ पेन्शन सालाना लेकर सल्तनत से हट जाओ, या जो पल्टने नई आ रही हैं, उनके खर्च के लिए आधा राज्य कम्पनी के हवाले करो।

ये पलटनें भेज दी गईं, और रेजीडेण्ट को लिख दिया गया, कि यदि नवाब चीं-चपड़ करे, तो सेना-द्वारा राज्य पर कब्जा कर लो। वेलेजली ने यह भी स्पष्ट लिख दिया कि नवाब की सैनिक-शक्ति खत्म कर दी जाय, और अवध की सारी सल्तनत के दीवानी और फौजदारी अधिकार कम्पनी के हो जायें।

नवाब ने बहुत चिल्ल-पों मचाई, पर नतीजा कुछ न हुआ, और नवाब को अपनी सल्तनत का आधा भाग, जिसकी आय एक करोड़ पैंतीस लाख रुपये सालाना थी, और जिससे वर्तमान उत्तर प्रदेश की बुनियाद पड़ी, सदा के लिये कम्पनी को सौंप देने पड़े।

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इसके कुछ दिन बाद ही फर्रुखाबाद के नवाब को, जो अवध का सूबा था, एक लाख आठ हजार रुपया सालाना पेन्शन देकर गद्दी से उतार दिया गया।

सआदतअली में एक दुर्गुण भी था। वह शराबी और विलासी थे। पर पीछे से तौबा कर ली थी। उन्होंने लखनऊ में बहुत-सी सुन्दर इमारतें बनवाई। वह लखनऊ को एक खूबसूरत शहर की शक्ल में देखना चाहते थे। उन्होंने बहुत-से मुहल्ले और बाजार भी बनवाये।

उनकी मृत्यु पर उनके बड़े बेटे नवाब गाजीउद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। अवध का नवाब दिल्ली मुगल सम्राट् की आधीनता में एक सूबेदार और मुगल दरबार का वजीर होता था, परन्तु वारेन हेस्टिग्स ने लखनऊ में दरबार करके नवाब गाजीउद्दीन हैदर को बाजाब्ता 'बादशाह' घोषित किया और उसकी दिल्ली दरबार की आधीनता समाप्त कर दी। बादशाही पदवी प्राप्त करके उन्होंने अपना नाम 'अबुल मुजफ्फर मुहउद्दीन शाह जिमनगाजीउद्दीन हैदर बादशाह' रखा। उन्होंने अपने नाम का सिक्का भी चलाया। परन्तु स्वतन्त्र बादशाह बनकर न नवाब के अधिकार बढ़े, न स्वतन्त्रता। यह केवल एक हास्यास्पद प्रहसन था।

वह भी उदार, साहित्यिक और गुणग्राही बादशाह थे। मिरजा मुहम्मदजॉनवी किरमाली उनके दरबारी थे। उर्दू के प्रसिद्ध कवि आतिश और वासिख उन्हीं के जमाने में थे। ईद के अवसर पर कवियों को बहुत इनाम मिलता था। उस समय के प्रसिद्ध गवैये रजकअली और फजलअली का भी दरबार में पूरा मान था। वे दोनों 'ख्याल' गाने में अपनी सानी नहीं रखते थे। एक दक्षिणी वेश्या का भी उनके यहाँ बहुत मान था।

उनके प्रधानमन्त्री नवाब मोतमिउद्दौला आगा मीर थे जो बड़े बुद्धिमान् थे। उन्होंने राज्य की बड़ी उन्नति की। खजाना रुपयों से भरपूर रहा। करोड़ों रुपये ईस्ट इण्डिया कम्पनी को कर्जा देते रहे।

बादशाह की प्रधान बेगम बादशाह-बेगम कहलाती थीं, और बड़े ठाठ से अलग महल में रहती थीं। उनसे किसी बात पर बादशाह की खटक गई थी। बेगम ने भी कई अच्छी इमारतें बनवाई। प्रसिद्ध शाह नजफा बेगम ने ही बनवाया था। गोमती नदी पर लोहे का पुल विलायत से बनवाकर

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मँगवाया था, पर बेगम उसे तैयार न करा सकीं। बीच में ही उनकी मृत्यु हो गई।

उस जमाने में कम्पनी की आर्थिक स्थिति बहुत ही नाजुक थी। उसकी हुण्डियों की दर बाजार में बारह फीसदी बट्टे पर निकलती थी। उन दिनों मेजर बेली लखनऊ में रेजीडेण्ट थे, जिनके बुरे व्यवहार से नवाब तंग आ गये थे। नवाब ने गवर्नर से इनकी शिकायतें की। गवर्नर लखनऊ आये, पर नतीजा उल्टा हुआ।

नवाब मेजर बेली के उद्धत प्रभुत्व के नीचे हर घण्टे आहें भरता था। उसे आशा थी कि गवर्नर उसे इस अन्याय से छुटकारा दिला देंगे। किन्तु उसने तो मेजर बेली का प्रभुत्व और भी पक्का कर दिया। मेजर बेली छोटी-से-छोटी बातों पर नवाब पर हुकूमत चलाता था। जब कभी मेजर बेली को नवांब से कुछ कहना होता था, वह चाहे जब बिना सूचना दिये महल में जा धमकता था। उसने अपने आदमियों को बड़ी-बड़ी तनख्वाहों पर नवाब के यहाँ लगा रखा था, जो जासूसी का काम करते थे। मेजर बेली जिस हाकिमाना शान के साथ हमेशा नवाब से बातें करता था, उसके कारण नवाब कुटुम्बियों और प्रजा की नजरों में गिर गया था।

इस यात्रा में गवर्नर ने नवाब से ढाई करोड़ रुपये नकद नेपाल युद्ध के खर्च के लिये वसूल किये। इसके बदले नेपाल से मिली भूमि का एक टुकड़ा नवाब को दिया गया था, जो वास्तव में लगभग बंजर था।

गाजीउद्दीन के बाद ज्येष्ठ पुत्र गाजी नसीरुद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपना नाम अबदुलबसर कुतुबुद्दीन सुलेमान जाह नसीरुद्दीन हैदर बादशाह रखा। वह पच्चीस वर्ष के युवक थे। उन्होंने गद्दी पर बैठते ही पिता के वजीर को बर्खास्त करके एक पीलवान को वजीर बनाया और एतमुद्दौला का खिताब दिया, पर वह वजीर शीघ्र ही मर गया। तब नवाब मुत्तजिमुद्दौला हकीम ऐहदीअली खाँ वजीर हुए। उन्होंने एक अस्पताल और एक खैरातखाना तथा एक लीथो छापाखाना खुलवाया। एक अंग्रेजी स्कूल भी खुला।

नसीरुद्दीन बड़े ऐयाश थे। इनके महल में कई यूरोपियन लेडियाँ थीं। छतरमंजिल उन्होंने ही बनवाई थी और भी बहुत-सी कोठियाँ बनवाई।

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उन्होंने कर्नल बिलकान्स की आधीनता में एक वेधशाला भी बनवाई, जो १८५७ के विद्रोह में नष्ट हो गई।

उनके जमाने में गवर्नर लार्ड बैटिंग थे। उन्होंने अवध के दौरे में नवाब बादशाह को खूब डरा-धमकाकर राज्य में बहुत-से उलट-फेर किये। यह अफवाह फैल गई थी कि अंग्रेज अब नवाबी का अन्त किया चाहते हैं। नवाब ने घबराकर इंगलिस्तान की पार्लियामेण्ट में अपील करने के इरादे से कर्नल यूनाक नामक फ्रान्सीसी को इंगलैंड भेजा। पर बैटिंग ने नवाब को डरा- धमकाकर बीच ही में उसकी बर्खास्तगी का परवाना भिजवा दिया। उन्होंने दस वर्ष राज्य किया।

उनके बाद बादशाह की वेश्या का पुत्र मुन्नाजान गद्दी पर बैठा। पर नसीरुद्दीन की माता ने उसका भारी विरोध कर, उसे गद्दी से उतरवाया। कुछ खून-खराबी भी हुई। अन्त में उसे चुनार में कैद कर लिया गया। उसके बाद नवाब सआदतअलीखाँ के द्वितीय पुत्र मिरजा मुहम्मदअली गद्दी पर बैठे। वह विद्या-व्यसनी और शान्त पुरुष थे। हुसेनाबाद का इमामबाड़ा उन्होंने बनवाया था। उन्होंने पाँच वर्ष राज्य किया।

इनके बाद मिरजा मुहम्मद अमजदअलीखाँ गद्दी पर बैठे। वह शाह मुहम्मदअली के बेटे थे। वह भी ५ वर्ष राज्य कर, मृत्यु को प्राप्त हुए।

उनके बाद प्रसिद्ध और अन्तिम बादशाह बाजिदअली शाह २५ वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठे। वह बड़े शौकीन, नाजुक मिजाज और विनोद-प्रिय थे। उन्होंने नये फैशन के अँगरखे, कुरते, टोपी ईजाद किये। ठुमरी भी उन्हीं की ईजाद है। उनके जीवन में २४ घण्टे नाच-गाने का रंग रहता। स्वयं भी नाच-गाने में उस्ताद थे। सिकन्दरबाग, कैसरबाग आदि इमारतें उन्हीं की बनवाई हुई हैं।

लार्ड डलहौजी ने भारत के गवर्नर जनरल बनकर आते ही देसी रिया-सतों को समेटकर अंग्रेजों के कदमों में ला पटका। सबकी स्वतन्त्र सत्ता नष्ट करके उन्हें अंग्रेजों के आधीन बना दिया। अवध भी उसकी दृष्टि सेनहीं बचा। लार्ड डलहौजी के पिता, जब वे कम्पनी की भारतीय सेना के कमाण्डर इन चीफ थे, अपनी पत्नी सहित लखनऊ आए और नवाब से भेंट की। उन्होंने अपनी पत्नी का परिचय नवाब से कराया और देर तक पत्नी
की बढ़ाईयों की चर्चा करता रहा। नवाब उस समय हल्के सरूर में थे, उन्होंने समझा कि यह अंग्रेज इस अंग्रेज औरत को बेचना चाहता है। नवाब ने तंग आकर अपने खिदमतगार से कहा-"बहुत हुआ, इस औरत को भगाओ।"

डलहौजी के पिता इसे अपना अपमान समझकर लौट आए। लार्ड डलहौजी अपने पिता के उस अपमान का बदला लेने के लिए हैदराबाद और बरार को हड़पकर अवध की ओर बढ़े।

वाजिदअली शाह युवा, उत्साही और बुद्धिमान शासक। उन्होंने अंग्रेजों की नीयत समझकर अपनी सेना को संगठित करना आरम्भ किया। वे नित्य ही परेड कराने लगे। लखनऊ दरबार की सारी पलटन प्रतिदिन सूर्योदय से पहले ही परेड-भूमि में एकत्र हो जाती। वाजिदअली भी फौजी वरदी पहनकर घोड़े पर सवार पहुँच जाते और दोपहर तक कवायद कराते। परेड में सैनिक की अनुपस्थिति अथवा विलम्ब उन्हें सहन नहीं था। उस पर भारी जुर्माना किया जाता था।

डलहौजी ने वाजिदअली को इस प्रकार की सैनिक व्यवस्था करने से मना किया। नवाब ने उसकी बात पर ध्यान न देकर अपना कार्य जारी रखा। परन्तु अन्त में डलहौजी की बात उन्हें माननी पड़ी। और वे निराश होकर दिन-रात महलों में पड़े रहने लगे।

महलों में सुन्दरी सुरा ने उनके खाली वक्त को पूरा किया। युवक हृदय की देश-भावना विषय-वासना में बदल गई।

लार्ड डलहौजी ने गवर्नर होते ही घोषणा कर दी कि नवाब शासन के योग्य नहीं, अतः अवध की सल्तनत कम्पनी के राज्य में मिला ली जाय। गवर्नर के हुक्म से रेजीडेण्ट उटरम महल में वह परवाना लेकर गया और उस पर नवाब को दस्तखत करने को कहा। नवाब ने इससे बिल्कुल इन्कार कर दिया। धमकी और प्रलोभन भी दिये गये। तीन दिन गुजर गये, पर नवाब ने दस्तखत करना स्वीकार न किया।

अंग्रेजों ने भेदनीति से काम लिया और नवाब के खिदमतगारों और मित्रों को लालच और भय से अपनी ओर किया। जब नवाब सुखसागर में डूब चुके तब उन्हें पकड़ने का जाल फैला दिया गया, जिसकी कल्पना भी

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नवाब ने नहीं की थी। अवध को हड़पने का उनका स्वप्न पूरा होने वाला था। उटरम ने नवाब के अंतरंग मित्रों की सहायता लेकर उन्हें कैद करने का दूसरा उपाय किया।

लखनऊ के अमीनाबाद पार्क में इस समय जहाँ घंटाघर है, वहाँ अब से सौ वर्ष पूर्व एक छोटी-सी टूटी हुई मस्जिद थी, जो भूतोंवाली मस्जिद कहलाती थी, और अब जहाँ वालाजी का मन्दिर है, वहाँ एक छोटा-सा कच्चा एकमंजिला घर था। चारों तरफ न आज की सी बहार थी न बिजली की चमक, न बढ़िया सड़कें, न मोटर, न मेम साहबाओं का इतना जमघट।

वाजिदअली शाह की ऐयाशी और ठाठ-बाट के दौरदौरे थे। मगर इस मुहल्ले में रौनक न थी। उस घर में एक टूटी-सी कोठरी में एक बुढ़िया-मनहूस सूरत, सन के समान बालों को बखेरे बैठी किसी की प्रतीक्षा कर रही थी। घर में एक दीया धीमी आभा से टिमटिमा रहा था। रात के दस बज गए थे, जाड़ों के दिन थे; सभी लोग अपने-अपने घरों में रजाइयों में मुँह लपेटे पड़े थे। गली और सड़क पर सन्नाटा था।

धीरे-धीरे बढ़िया वस्त्रों से आच्छादित एक पालकी इस टूटे घर के द्वार पर चुपचाप आ लगी, और काले वस्त्रों से आच्छादित एक स्त्री-मूर्ति ने पालकी से बाहर निकलकर धीरे-से द्वार पर थपकी दी। तत्काल द्वार खुला और स्त्री ने घर में प्रवेश किया।

बुढ़िया ने कहा-"खैर तो है?"

"सब ठीक है; क्या मौलवी साहब मौके पर मौजूद हैं?"

"कब के इंतजारी कर रहें हैं, कुछ ज्यादा जाफिशानी तो नहीं उठानी पड़ी?"

"जाफिशानी? खुश, जान पर खेलकर लाई हूँ। करती भी क्या, गर्दन थोड़े ही उतरवानी थी?"

"होश में तो है?"

"अभी बेहोश है। किसी तरह राजी न होती थी। मजबूरन यह किया गया।"

"तब चलो।"

बुढ़िया उठी। दोनों पालकी में जा बैठीं। पालकी संकेत पर चलकर

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मस्जिद की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई भीतर चली गई।

मस्जिद में सन्नाटा और अंधकार था, मानो वहाँ कोई जीवित पुरुष नहीं है। पालकी के आरोहियों को इसकी परवाह न थी। पालकी को सीधे मस्जिद के भीतरी भाग में एक कक्ष में ले गए। यहाँ पालकी रखी। बुढ़िया ने बाहर आकर बगल की कोठरी में प्रवेश किया। वहाँ एक आदमी सिर से पैर तक चादर ओढ़े सो रहा था।

बुढ़िया ने कहा-"उठिए मौलवी साहब, मुरादों को तावीज इनायत कीजिए क्या अभी बुखार नहीं उतरा?"

"अभी तो चढ़ा ही है," कहकर मौलवी साहब उठ बैठे। बुढ़िया ने कुछ कान में कहा-मौलवी साहब सफेद दाढ़ी हिलाकर बोले-समझ गया, कुछ खटका नहीं। हैदर खोजा मौके पर रोशनी लिए हाजिर मिलेगा। मगर तुम लोग बेहोशी की हालत में उसे किस तरह--

"आप बेफिक्र रहें। बस, सुरंग की चाबी इनायत करें।"

मौलवी साहब ने उठकर मस्जिद के बाईं ओर के चबूतरे के पीछे वाले भाग में जाकर एक कब्र का पत्थर किसी तरकीब से हटा दिया। वहाँ सीढ़ियाँ निकल आई। बुढ़िया उसी तंग तहखाने के रास्ते उसी काले वस्त्र से आच्छादित लम्बी स्त्री के सहारे एक बेहोश स्त्री को नीचे उतारने लगी। उनके चले जाने पर मौलवी साहब ने गौर से इधर-उधर देखा, और फिर किसी गुप्त तरकीब से तहखाने का द्वार बंद कर दिया। तहखाना फिर कब्र बन गया।

चार हजार फानूसों में काफूरी बत्तियाँ जल रही थीं, और कमरे की दीवार गुलाबी साटन के पर्दो से छिप रही थी। फर्श पर ईरानी कालीन बिछा था, जिस पर निहायत नफीस और खुशरंग काम बना हुआ था। कमरा खूब लम्बा-चौड़ा था। उसमें तरह-तरह के ताजे फूलों के गुलदस्ते सजे हुए थे और हिना की तेज महक से कमरा महक रहा था। कमरे के एक बाजू में मखमल का बालिश्त-भर ऊँचा गद्दा बिछा था, जिस पर कारचौबी का उभरा हुआ बहुत ही खुशनुमा काम था। उस पर एक बड़ी-सी मसनद लगी थी, जिस पर सुहरी खंभों पर मोती की झालर का चंदौबा तना था।

मसनद पर एक बलिष्ठ पुरुष उत्सुकता से, किन्तु अलसाया बैठा था।

—च

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इसके वस्त्र अस्त-व्यस्त थे। इसका मोती के समान उज्ज्वल रंग, कामदेव को मात करने वाला प्रदीप्त सौंदर्य, झब्बेदार मूंछे, रसभरी आँखें और मदिरा से प्रस्फुरित होंठ कुछ और ही समा बना रहे थे। सामने पानदान में सुनहरी गिलौरियाँ भरी थीं। इत्रदान में शीशियाँ लुढ़क रही थीं। शराब की प्याली और सुराही क्षण-क्षण पर खाली हो रही थी। वह सुगंधित मदिरा मानो उसके उज्ज्वल रंगपरसुनहरी निखार ला रही थी। उसके कंठ में पन्ने का एक बड़ा-सा कंठा पड़ा था और उँगलियों में हीरे की अंगूठियाँ

बिजली की तरह दमक रही थीं। यही लाखों में दर्शनीय पुरुष लखनऊ के प्रख्यात नवाब वाजिदअलीशाह थे।

कमरे में कोई न था। वे बड़ी आतुरता से किसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। यह आतुरता क्षण-क्षण बढ़ रही थी। एकाएक एक खटका हुआ। बादशाह ने ताली बजाई और वही लंबी स्त्री-मूर्ति, सिर से पैर तक काले वस्त्रों से शरीर को लपेटे, मानो दीवार फाड़कर आ उपस्थित हुई।

"ओह मेरी गबरू! तुमने तो इंतजारी ही में मार डाला। क्या गिलौरियाँ लाई हो?"

"मैं हुजूर पर कुर्बान।" इतना कहकर उसने वह काला लबादा उतार डाला। उफ, गजब! उस काले आवेष्ठन में मानो सूर्य का तेज छिप रहा था। कमरा चमक उठा। बहुत बढ़िया चमकीले विलायती साटन की पोशाक पहने एक सौंदर्य की प्रतिमा इस तरह निकल आई, जैसे राख के ढेर में से अंगार। इस अग्नि-सौंदर्य की रूप-रेखा कैसे बयान की जाए? इस अंग्रेजी राज्य और अंग्रेजी सभ्यता में जहाँ क्षणभर चमककर बादलों में विलीन हो जाने वाली बिजली सड़क पर अयाचित ढेरों प्रकाश बिखेरती रहती है, इस रूप-ज्वाला की उपमा कहाँ ढूंढी जाए? उस अंधकारमय रात्रि में यदि उसे खड़ा कर दिया जाए तो वह कसौटी पर स्वर्ण-रेखा की तरह दिप उठे; और यदि वह दिन के ज्वलंत प्रकाश में खड़ी कर दी जाए तो उसे देखने का साहस कौन करे? किन आँखों में इतना तेज है?

उस सुगंधित और मधुर प्रकाश में मदिरा-रंजित नेत्रों से उस रूप-ज्वाला को देखते ही वाजिदअली की वासना भड़क उठी। उन्होंने कहा-"रूपा, नजदीक आयो। एक प्याली शीराजी और अपनी लगाई हुई अंबरी

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पान की बीड़ियाँ दो तो। तुमने तो तरसा-तरसा कर ही मार डाला।"

रूपा आगे बढ़ी, सुराही से शराब उड़ेली और जमीन में घुटने टेककर आगे बढ़ा दी। इसके बाद उसने चार सोने के वर्क-लपेटी बीड़ियाँ निकालकर बादशाह के सामने पेश की और दस्तबस्ता अर्ज की-“हुजूर की खिदमत में लौंडी वह तोहफा ले आई है।"

वाजिदअली शाह की बाँछें, खिल गईं। उन्होंने रूपा को घूरकर कहा-"वाह! तब तो आज...।" रूपा ने संकेत किया। हैदर खोजा उस फूल-सी मुरझाई-कुसुमकली को फूल की तरह हाथों पर उठाकर, पान-गिलौरी की तश्तरी की तरह बादशाह के रूबरू कालीन पर डाल गया। रूपा ने बाँकी अदा से कहा-"हुजूर, को आदाब"। और चल दी।

एक चौदह वर्ष की भयभीत, मूर्छित, असहाय कुमारी बालिका अकस्मात् आँख खुलने पर सम्मुख शाही ठाठ से सजे हुए महल और दैत्य के समान नरपशु को पाप-वासना से प्रमत्त देखकर क्या समझेगी? कौन अब इस भयानक क्षण की कल्पना करे। पर वही क्षण होश में आते ही उस बालिका के सामने आया। वह एकदम चीत्कार करके फिर बेहोश हो गई। पर इस बार शीघ्र ही उसकी मूर्छा दूर हो गई। एक अतयं साहस, जो ऐसी अवस्था में प्रत्येक जीवित प्राणी में हो जाता है, बालिका के शरीर में भी उदय हो आया। वह सिमटकर बैठ गई, और पागल की तरह चारों तरफ एक दृष्टि डालकर एकटक उस मत्त पुरुष की ओर देखने लगी।

उस भयानक क्षण में भी उस विशाल पुरुष का सौन्दर्य और प्रभा देख कर उसे कुछ साहस हुआ। वह बोली तो नहीं, पर कुछ स्वस्थ होने लगी।

नवाब जोर से हँस दिए। उन्होंने गले का वह बहुमूल्य कंठा उतारकर बालिका की ओर फेंक दिया। इसके बाद वे नेत्रों के तीर निरन्तर फेंकते रहे।

बालिका ने कंठा देखा भी नहीं, छुआ भी नहीं। वह वैसी ही सिकुड़ी हुई, वैसी ही निनिमेष दृष्टि से भयभीत हुई नवाब को देखती रही।

नवाब ने दस्तक दी। दो बाँदियाँ दस्तबस्ता आ हाजिर हुईं। नवाब ने हुक्म दिया, इसे गुस्ल कराकर और सब्जपरी बनाकर हाजिर करो। उस पुरुष-पाषाण की अपेक्षा स्त्रियों का संसर्ग गनीमत जानकर बालिका मंत्र-

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मुग्ध-सी उठकर उनके साथ चली गई।

इसी समय एक खोजे ने आकर अर्ज की-"खुदावंद! रेजीडेंट उटरम साहब बहादुर बड़ी देर से हाजिर हैं।"

"उनसे कह दो, अभी मुलाक़ात नहीं होगी।"

"आलीजाह! कलकत्ता से एक जरूरी..

"दूर हो मुर्दार।"

खोजा चला गया।

लखनऊ के खास चौकबाजार की बहार देखने योग्य थी। शाम हो चली थी, और छिड़काव हो गया था। इक्कों और बहलियों, पालकियों और घोड़ों का अजीब जमघट था। आज तो उजड़े अमीनाबाद का रंग ही कुछ और है। तब यही रौनक चौक को प्राप्त थी। बीच चौक में रूपा की पानों की दुकान थी। फानूसों और रंगीन झाड़ों से जगमगाती गुलाबी रोशनी के बीच, स्वच्छ बोतल में मदिरा की तरह, रूपा दुकान पर बैठी थी। दो निहायत हसीन लौंडियाँ पान की गिलौरियाँ बनाकर उनमें सोने के वर्क लपेट रही थीं। बीच-बीच में अठखेलियाँ भी कर रही थीं। आजकल के कलकत्ता-दिल्ली के रंगमंचों पर भी ऐसा मोहक और आकर्षक दृश्य नहीं देख पड़ता, जैसा उस समय रूपा की दुकान पर था। ग्राहकों की भीड़ का पार न था। रूपा खास-खास ग्राहकों का स्वागत कर पान दे रही थी। बदले में खनाखन अफियों से उसकी गंगा-जमनी काम की तश्तरी भर रही थी। वे अफियाँ रूपा की एक अदा, एक मुस्कराहट-केवल एक कटाक्ष का मोल थीं। पान गिलौरियाँ तो लोगों को घाटे में पड़ती थीं। एक नाजुकअंदाज नवाबजादे तामजाम में बैठे अपने मुसाहबों और कहारों के झुरमुट के साथ आए और रूपा की दुकान पर तामजाम रोका।

रूपा ने सलाम करके कहा-मैं सदके शाहजादा साहब, जरी बाँदी की एक गिलौरी कुबूल फरमायें।

रूपा ने लौंडी की तरफ इशारा किया। लौंडी सहमती हुई, सोने की रकाबी में पाँच-सात गिलौरियाँ लेकर तामजाम तक गई। शहजादे ने मुस्कराकर दो गिलौरियाँ उठाईं, और एक मुट्ठी अफियाँ तश्तरी में डाल कर आगे बढ़े।

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एक खाँ साहब बालों में मेंहदी लगाए, दिल्ली के वसली के जूते पहने, तनजेब की चमकन कसे, सिर पर लसदार ऊँची टोपी लगाए आए। रूपा ने बड़े तपाक से कहा-अख्खा खाँ साहब। आज तो हुजूर रास्ता भूल गए। अरे कोई है, आपको बैठने को जगह हो। अरी, गिलौरियाँ तो लाओ।

खाँ साहब रूपा के रूप की तरह चुपचाप गिलौरियों के रस का घूँट पीने लगे।

थोड़ी देर में एक अधेड़ मुसलमान अमीरजादे की शक्ल में आए। उन्हें देखते ही रूपा ने कहा-अरे हुजूर तशरीफ ला रहे हैं। मेरे सरकार। आप तो ईद के चाँद हो गए। कहिए, खैराफियत है? अरी मिर्जा साहब को गिलौरियाँ दी?

तश्तरी में खनाखन हो रही थी, और रूपा का रूप और पान की हाट खूब गरमा रही थी। ज्यों-ज्यों अंधकार बढ़ता जाता था, त्यों-त्यों रूपा पर रूप की दुपहरी चढ़ रही थी। धीरे-धीरे एक पहर रात बीत गई। ग्राहकों की भीड़ कुछ कम हुई। रूपा अब सिर्फ कुछ चुने हुए प्रेमी ग्राहकों से घुल-घुल कर बातें कर रही थी। धीरे-धीरे एक अजनबी आदमी दुकान पर आकर खड़ा हो गया। रूपा ने अप्रतिभ होकर पूछा--

"आपको क्या चाहिए?"

"आपके पास क्या-क्या मिलता है?"

"बहुत-सी चीजें। क्या पान खाइएगा?"

"क्या हर्ज है।

रूपा के संकेत से दासी बालिका ने पान की तश्तरी अजनबी के आगे धर दी।

दो बीड़ियाँ हाथ में लेते हुए उसने कहा-"इनकी कीमत क्या है बी साहबा।"

"जो कुछ जनाब दे सकें।"

"यह बात है? तब ठीक, जो कुछ मैं लेना चाहूँ वह लूँगा भी।" अजनबी हँसा नहीं। उसने भेदभरी दृष्टि से रूपा को देखा।

रूपा की भृकुटी जरा टेढ़ी पड़ी, और वह एक बार अजनबी को तीव्र दृष्टि से देखकर फिर अपने मित्रों के साथ बातचीत में लग गई। पर बात-

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चीत का रंग जमा नहीं। धीरे-धीरे मित्रगण उठ गए। रूपा ने एकांत पाकर कहा-

"क्या हुजूर को मुझसे कोई खास काम है?"

"मेरा तो नहीं, मगर कम्पनी बहादुर का है।"

रूपा काँप उठी। वह बोली-“कम्पनी बहादुर का क्या हुक्म है?"

"भीतर चलो तो कहा जाए।"

"मगर माफ कीजिए -आप पर यकीन कैसे...?"

"ओह। समझ गया। बड़े साहब की यह चीज तो तुम शायद पहचानती ही होगी?"

यह कहकर उन्होंने एक अंगूठी रूपा को दूर से दिखा दी।

"समझ गई। आप अन्दर तशरीफ लाइए।"

रूपा ने एक दासी को अपने स्थान पर बैठाकर अजनबी के साथ दुकान के भीतर कक्ष में प्रवेश किया।

दोनों व्यक्तियों में क्या-क्या बातें हुईं यह तो हम नहीं जानते, मगर उसके ठीक तीन घंटे बाद दो व्यक्ति काला लबादा ओढ़े दुकान से निकले, और किनारे लगी हुई पालकी में बैठ गए। पालकी धीरे-धीरे उसी भूतों-वाली मस्जिद में पहुँची। उसी प्रकार मौलवी ने कब्र का पत्थर हटाया, और एक मूर्ति ने कब्र के तहखाने में प्रवेश किया। दूसरे व्यक्ति ने एकाएक मौलवी को पटककर मुश्क बाँध लीं, और एक संकेत किया। क्षणभर में पचास सुसज्जित काली-काली मूर्तियाँ आ खड़ी हुईं और बिना एक शब्द मुँह से निकाले चुपचाप कब्र के अन्दर उतर गईं।

अब फिर चलिए अंनददेव के उसी रंग-मन्दिर में। सुख-साधनों से भरपूर वही कक्ष आज सजावट खत्म कर गया था। सहस्त्रों उल्कापात की तरह रंगीन हाँडियाँ, बिल्लौरी फानूस और हजार झाड़ सब जल रहे थे। तत्परता से, किन्तु नीरव बाँदियाँ और गुलाम दौड़-धूप कर रहे थे। अनगिनत रमणियाँ अपने मदभरे होंठों की प्यालियों में भाव की मदिरा उँडेल रही थीं। उन सुरीले रागों की बौछारों में बैठे बादशाह वाजिदअली शाह शराबोर हो रहे थे। उस गायनोन्माद में मालूम होता था, कमरे के जड़ पदार्थ भी मतवाले होकर नाच उठेगे। नाचनेवालियों के ठुमके और

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नूपुर की ध्वनि सोते हुए यौवन से ठोकर मारकर कहती थी-उठ, उठ, ओ मतवाले, उठ। उन नर्तकियों के बढ़िया चिकनदौजी के सुवासित दुपट्टों से निकलती हुई सुगन्ध उसके नृत्यवेग से विचलित वायु के साथ घुल-मिल-कर गदर मचा रही थी। पर सामने का सुनहरी फव्वारा, जो स्थिर ताल पर बीस हाथ ऊपर फैककर रंगीन जलबिंदु-राशियों से हाथापाई कर रहा था, देखकर कलेजा बिना उछले कैसे रह सकता था।

उसी मसनद पर बादशाह वाजिदअली शाह बैठे थे। एक गंगा-जमनी काम का अलबेला वहाँ रखा था, जिसकी खमीरी मुश्की तम्बाकू जलकर अनोखी सुगन्ध फैला रही थी। चारों तरफ सुन्दरियों का झुरमुट उन्हें घेर-कर बैठा था। सभी अधनंगी, उन्मत्त और निर्लज्ज हो रही थीं। पास ही सुराही और प्यालियाँ रखी थीं, और बारी-बारी से वे उन दुर्लभ होंठों को चूम रही थीं। आधा मद पी-पीकर वे सुन्दरियाँ उन प्यालियों को बादशाह के होंठों में लगा देती थीं। वे आँखें बन्द करके उन्हें पी जाते थे।

कुछ सुन्दरियाँ पान लगा रही थीं, कुछ अलबेले की निगाली पकड़े हुए थीं। दो सुन्दरियाँ दोनों तरफ पीकदान लिए खड़ी थीं, जिनमें बादशाह कभी-कभी पीक गिरा देते थे।

इस उल्लसित आमोद के बीचोबीच एक मुरझाया हुआ पुष्प, कुचली हुई पान की गिलोरी। वही बालिका, बहुमूल्य हीरे-खचित वस्त्र पहने, बादशाह के बिल्कुल अंक में लगभग मूर्छित और अस्तव्यस्त पड़ी थी। रह-रहकर शराब की प्याली उसके मुख से लग रही थी, और वह खाली कर रही थी। निर्जीव दुशाले की तरह बादशाह उसे अपने बदन से सटाए मानो अपनी तमाम इन्द्रियों को एक ही रस से शराबोर कर रहे थे। गंम्भीर आधी रात बीत रही थी। सहसा इसी आनन्द-वर्षा में बिजली गिरी। कक्ष के उसी गुप्त द्वार को विदीर्ण कर क्षणभर में वही रूपा, काले आवरण से नख-शिख ढके निकल आई। दूसरे क्षण में एक और मूर्ति वैसे ही आवेष्टन में गुप्त बाहर निकल आई। क्षणभर बाद दोनों ने अपने आवेष्टन उतार फेंके। वही अग्नि-शिखा ज्वलन्त रूपा और उसके साथ नौरांग कर्नल उटरम।

नर्तकियों ने एकदम नाचना-गाना रोक दिया। बाँदियाँ शराब की

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प्यालियाँ लिए काठ की पुतली की तरह खड़ी रह गई। केवल फव्वारा ज्यों का त्यों आनन्द से उछल रहा था। बादशाह यद्यपि बिल्कुल बदहवास थे, मगर यह सब देख वे मानो आधे उठकर बोले-ओह। रूपा-दिलरुबा तुम? और ऐं-मेरे दोस्त कर्नल-इस वक्त? यह क्या माजरा है?

आगे बढ़कर और अपनी चुस्त पोशाक ठीक करते हुए तलवार की मूठ पर हाथ रख उटरम ने कहा-"कल आलीजाह की बन्दगी में हाजिर हुआ था, मगर..."

"ओफ मगर-इस वक्त इस रास्ते से? ऐं, माजरा क्या है? अच्छा बैठो, हाँ, जोहरा, एक प्याला-मेरे दोस्त कर्नल के...।"

"माफ कीजिए हुजूर। इस वक्त मैं आनरेबल कम्पनी सरकार के एक काम से आपकी खितमत में हाजिर हुआ हूँ।"

"कम्पनी सरकार का काम? वह काम क्या है?" बादशाह ने कहा।

"मैं तखलिए में अर्ज किया चाहता हूँ।"

"तखलिया। अच्छा, अच्छा, जोहरा। ओ कादिर।"

धीरे-धीरे रूपा को छोड़कर सभी बाहर निकल गए। उस सौन्दर्य-स्वप्न में अवशिष्ट रह गई अकेली रूपा। रूपा को लक्ष्य करके बादशाह ने कहा-यह तो गैर नहीं। रूपा। दिलरुबा, एक प्याला अपने हाथों से दो तो रूपा ने सुराही से शराब उँडेल लबालब प्याला भरकर बादशाह के होंठों से लगा दिया। हाय! लखनऊ की नवाबी का वही अन्तिम प्याला था। उसे बादशाह ने पीकर कहा-"वाह प्यारी। हाँ, अब कहो वह बात। मेरे दोस्त..."

"हुजूर को जरा रेजीडेंसी तक चलना पड़ेगा।"

बादशाह ने उछलकर कहा-“ऐं, यह कैसी बात। रेजीडिंसी तक मुझे?"

"जहाँपनाह, मैं मजबूर हूँ, काम ऐसा ही है।"

"गैरमुमकिन। गैरमुमकिन।” बादशाह गुस्से से होंठ काटकर उठे और अपने हाथ से सुराही से उँडेलकर तीन-चार प्याले शराब पी गए। धीरे-धीरे उसी दीवार से एक-एक करके चालीस गोरे सैनिक, संगीन और किर्च सजाए, कक्ष में घुस आए।

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बादशाह देखकर बोले-"खुदा की कसम यह तो दगा है। कादिर!"

"जहाँपनाह अगर खुशी से मेरी अर्जी कुबूल न करेंगे, तो खून-खराबी होगी। कम्पनी के बहादुर के गोरों ने महल घेर लिया है। अर्ज यही है कि सरकार चुपचाप चले चलें।"

बादशाह धम से बैठ गए। मालूम होता है, क्षणभर के लिए उनका नशा उतर गया। उन्होंने कहा-"तब तुम क्या मेरे दुश्मन होकर मुझे कैद करने आए हो?"

"मैं हुजूर का दोस्त, हर तरह हुजूर के आराम और फरहत का ख्याल रखता हूँ और हमेशा रखूँगा।"

बादशाह ने रूपा की ओर देखकर कहा-"रूपा! रूपा! यह क्या माजरा है? तुम भी क्या इस मामले में हो? एक प्याला–मगर नहीं, अब नहीं, अच्छा सब साफ-साफ सच कहो। कर्नल-मेरे दोस्त-नहीं- नहीं, अच्छा कर्नल उटरम। अब खुलासावार बयान करो।"

“सरकार, ज्यादा मैं कुछ नहीं कह सकता। कम्पनी बहादुर का खास परवाना लेकर खुद गवर्नर जनरल के अंडर सैक्रेटरी तशरीफ लाए हैं, वे आलीजाह से कुछ मशवरा किया चाहते हैं।"

"मगर यहाँ।"

“यह नामुमकिन है।"

बादशाह ने कर्नल की तरफ देखा। वह तना खड़ा था और उसका हाथ तलवार की मूठ पर था।

“समझ गया, सब समझ गया।" यह कहकर बादशाह कुछ देर हाथों से आँखें ढाँपकर बैठ गए। कदाचित् उनकी सुन्दर रसभरी आँखों में आँसू भर आए।

रूपा ने पास आकर कहा-"मेरे खुदाबंद, बाँदी..."

"हट जा ऐ नमकहराम रजील, बाजारू औरत।"

बादशाह ने यह कहकर उसे एक लात लगाई, और कहा-"तब चलो। मैं चलता हूँ। खुदा हाफिज।"

पहले बादशाह, पीछे कर्नल उटरम, उसके पीछे रूपा और सबके अन्त में एक-एक करके सिपाही उसी दरार में विलीन हो गए। महल में किसी

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को कुछ मालूम न था। वह मूर्तिमान संगीत, वह उमड़ता हुआ आनन्द-समुद्र सदा के लिए मानो किसी जादूगर ने निर्जीव कर दिया।

कलकत्ता के एक उजाड़-से भाग में, एक बहुत विशाल मकान में, वाजिदअली शाह को नजरबंद कर दिया गया। ठाठ लगभग वही था। सैकड़ों दासियां, बांदियाँ और वेश्याएँ भरी हुई थीं। पर वह लखनऊ का रंग कहाँ!

खाना खाने का वक्त हुआ और जब दस्तरखान पर खाना चुना गया, तो बादशाह ने चख-चखकर फेंक दिया। अंग्रेज अफसर ने पूछा-"खाने में क्या नुक्स है?"

नवाब के खास खिदमतगार ने जवाब दिया-"नमक खराब है।"

"नवाब कैसा नमक खाते हैं?"

"एक मन का डला रखकर उस पर पानी की धार छोड़ी जाती है। जब धुलते-धुलते छोटा-सा टुकड़ा रह जाता है, तब नवाब के खाने में वह नमक इस्तेमाल होता है।"

अंग्रेज अधिकारी मुस्कराता चला गया।

वाजिदअली के बाद अवध के ताल्लुकेदारों की रियासतें छीन ली गई और अवध का तख्त सदा के लिए धूल में मिल गया।

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